आराधना: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 2 उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वाहणं साहणं च णिच्छरणं। दंसणणाणचरित्तं तवाणमाराहण भणिया।</p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 2 उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वाहणं साहणं च णिच्छरणं। दंसणणाणचरित्तं तवाणमाराहण भणिया।</p> | ||
<p class="HindiText">= सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र व सम्यक्तप इन | <p class="HindiText">= सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र व सम्यक्तप इन चारों का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, उनमें परिणति करना, इनको दृढ़ता पूर्वक धारण करना, उसके मंद पड़ जाने पर पुनः पुनः जागृत करना, उनका आमरण पालन करना सो (निश्चय) आराधना कहलाती है।</p> | ||
<p>(<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह 54/221 </span>पर उद्धृत); ( अनगार धर्मामृत अधिकार 1/92/101)</p> | <p>(<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह 54/221 </span>पर उद्धृत); ( अनगार धर्मामृत अधिकार 1/92/101)</p> | ||
<p class="SanskritText">समयसार / मूल या टीका गाथा 304-305 संसिद्धिराधसिद्धं साधिय माराधियं च एयट्ठं। अवगयराधो जो खलु चेया सो होई अवराधो ॥304॥ जो पुण णिरवराधो चेया णिस्संकिओ उ सो होइ। अवराहणाए णिच्चं वट्टेइअहं ति आणंतो ॥305॥ </p> | <p class="SanskritText">समयसार / मूल या टीका गाथा 304-305 संसिद्धिराधसिद्धं साधिय माराधियं च एयट्ठं। अवगयराधो जो खलु चेया सो होई अवराधो ॥304॥ जो पुण णिरवराधो चेया णिस्संकिओ उ सो होइ। अवराहणाए णिच्चं वट्टेइअहं ति आणंतो ॥305॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधिक ये शब्द एकार्थ हैं। इसलिए जो आत्मा | <p class="HindiText">= संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधिक ये शब्द एकार्थ हैं। इसलिए जो आत्मा राध से रहित हो वह अपराध है ॥304॥ और जो चेतयिता आत्मा अपराधी नहीं है, वह शंका रहित है और अपने को `मैं हूँ' ऐसा जानता हुआ आराधना कर हमेशा वर्तता है।</p> | ||
<p class="SanskritText">नयचक्रवृहद् गाथा 356 समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं। तह चारित्तं धम्मो सहावआराहणा भणिया ॥356॥</p> | <p class="SanskritText">नयचक्रवृहद् गाथा 356 समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं। तह चारित्तं धम्मो सहावआराहणा भणिया ॥356॥</p> | ||
<p class="HindiText">= समता तथा माध्यस्थ, शुद्ध भाव तथा वीतरागता, चारित्र तथा धर्म यह सब ही | <p class="HindiText">= समता तथा माध्यस्थ, शुद्ध भाव तथा वीतरागता, चारित्र तथा धर्म यह सब ही स्वभाव की आराधना कहलाते हैं।</p> | ||
<p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 54/222 उद्धृत “समत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवो चेव। चउरो चिंट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं।''</p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 54/222 उद्धृत “समत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवो चेव। चउरो चिंट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं।''</p> | ||
<p class="HindiText">= सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप, ये चारों | <p class="HindiText">= सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप, ये चारों आत्मा में निवास करते हैं इसलिए आत्मा ही मेरे शरणभूत है।</p> | ||
<p class="SanskritText">अनगार धर्मामृत अधिकार 1/98/105 वृत्तिर्जातसुदृष्ट्यादेस्तद्गतातिशयेषु या। उद्द्योतादिषु सा तेषां भक्तिराराधनोच्यते ॥98॥</p> | <p class="SanskritText">अनगार धर्मामृत अधिकार 1/98/105 वृत्तिर्जातसुदृष्ट्यादेस्तद्गतातिशयेषु या। उद्द्योतादिषु सा तेषां भक्तिराराधनोच्यते ॥98॥</p> | ||
<p class="HindiText">= जिसके सम्यग्दर्शनादिक परिणाम उत्पन्न हो चुके हैं, ऐसे | <p class="HindiText">= जिसके सम्यग्दर्शनादिक परिणाम उत्पन्न हो चुके हैं, ऐसे पुरुष की उन सम्यग्दर्शनादिक में रहने वाले अतिशयों अथवा उद्योतादिक विशेषो में जो वृत्ति उसी को दर्शनादिक की भक्ति कहते हैं। और इसी भक्ति का नाम ही आराधना है।</p> | ||
<p>2. | <p>2. आराधना के भेद</p> | ||
<p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 2,3 | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 2,3 दंसणणाणचरित्तं तवाणमाराहणाभणिया ॥2॥ दुविहापुण जिणवयणे आराहणासमासेण। सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवे चरित्तम्मि ॥3॥</p> | ||
<p class="HindiText">= दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन | <p class="HindiText">= दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार को आराधना कहा गया है ॥2॥ अथवा जिनागम में संक्षेप से आराधना के दो भेद कहे हैं-एक सम्यक्त्वाराधना, दूसरा चारित्राराधना।</p> | ||
<p class="SanskritText">नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 75 दर्शनज्ञानचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधाराधनासदानुरक्ताः।</p> | <p class="SanskritText">नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 75 दर्शनज्ञानचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधाराधनासदानुरक्ताः।</p> | ||
<p class="HindiText">= ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परम तप | <p class="HindiText">= ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परम तप नाम की चतुर्विध आराधना में सदा अनुरक्त।</p> | ||
<p class="SanskritText">गो.जी/जी.प्र.368/790/12 दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थस्थानगतोत्कृष्टाराधनाविशेषं च वर्णयति।</p> | <p class="SanskritText">गो.जी/जी.प्र.368/790/12 दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थस्थानगतोत्कृष्टाराधनाविशेषं च वर्णयति।</p> | ||
<p class="HindiText">= दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, अर्थात् यथायोग्य | <p class="HindiText">= दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, अर्थात् यथायोग्य शरीर का समाधान, सल्लेखना, उत्तम अर्थ स्थान को प्राप्त उत्तम आराधना इनिका विशेष प्ररूपिये है।</p> | ||
<p>• निश्चय | <p>• निश्चय आराधना के अपर नाम - देखें [[ मोक्षमार्ग#2.5 | मोक्षमार्ग - 2.5]]</p> | ||
<p>3. उत्तम, मध्यम, जघन्य | <p>3. उत्तम, मध्यम, जघन्य आराधना के स्वामित्व</p> | ||
<p class="SanskritText">भगवती आराधना / | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1918-1921 सुक्काएँ लेस्साए उक्कसं अंसयं परिणमित्ता। जो मरदि सो हणियमा उक्कस्साराधओ होई ॥1918॥ खाइयदंसणचरणं खओवसमियं च णाणमिदि मग्गो। तं होइ खीणमोहो आराहिता य जो हु अरहंतो ॥1919॥ जो सेसा सुक्काए दु अंसया जे य पम्मलेस्याए। तल्लेस्सापरिणामो दु मज्झिमाराधणा मरणे ॥1920॥ तेजाए लेस्साए ये असा तेसु जो परिणमित्ता। कालं करेइ तस्य हु जहण्णियाराधणा भणदि ॥1921॥</p> | ||
<p class="HindiText">= शुक्ल | <p class="HindiText">= शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंशो में परिणत होकर जो क्षपक मरण को प्राप्त होता है, उस महात्मा को नियम से उत्कृष्ट आराधक समझना चाहिए ॥1918॥ क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र और क्षयोपशमिक ज्ञान इनकी आराधना करके आत्मा क्षीणमोही बनता है और तदनंतर अरहंत होता है ॥1919॥ (क्षेपक गाथा) शुक्ल लेश्या के मध्यम अंश, और जघन्य अंशों से तथा पद्म लेश्या के अंशों से जो आराधक मरण को प्राप्त करते हैं, वे मध्यम आराधक माने जाते हैं ॥1920॥ पीत लेश्या के जो अंश हैं, उनसे परिणत होकर जो मरण वश होते हैं, वे जघन्य आराधक माने जाते हैं।</p> | ||
<p>4. | <p>4. सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टादि आराधनाओं का स्वामित्व</p> | ||
<p class="SanskritText">भगवती आराधना / | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 51 उक्कस्साकेवलिणो मज्झिमया सेससम्मदिट्ठीणं। अविरतसम्मादिट्ठिस्स संकिलिट्ठस्स हु जहण्णा ॥55॥</p> | ||
<p class="HindiText">= उत्कृष्ट | <p class="HindiText">= उत्कृष्ट सम्यक्त्व की आराधना अयोग केवली को होती है। मध्यम सम्यग्दर्शन की आराधना बाकी के सम्यग्दृष्टि जीवों को होती है। परंतु परिषहों से जिसका मन उद्विग्न हुआ है ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टि को जघन्य आराधना होती है।</p> | ||
<p>(भ.भा./वि.51/175)</p> | <p>(भ.भा./वि.51/175)</p> | ||
<p>एक आगम ग्रंथ : भगवती | <p>एक आगम ग्रंथ : भगवती आराधना का अमितगति (वि.1050-1073) कृत संस्कृत रूपांतर।</p> | ||
<p>( तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा , पृष्ठ 2/394)</p> | <p>( तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा , पृष्ठ 2/394)</p> | ||
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Revision as of 09:46, 26 August 2022
सिद्धांतकोष से
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 2 उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वाहणं साहणं च णिच्छरणं। दंसणणाणचरित्तं तवाणमाराहण भणिया।
= सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र व सम्यक्तप इन चारों का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, उनमें परिणति करना, इनको दृढ़ता पूर्वक धारण करना, उसके मंद पड़ जाने पर पुनः पुनः जागृत करना, उनका आमरण पालन करना सो (निश्चय) आराधना कहलाती है।
( द्रव्यसंग्रह 54/221 पर उद्धृत); ( अनगार धर्मामृत अधिकार 1/92/101)
समयसार / मूल या टीका गाथा 304-305 संसिद्धिराधसिद्धं साधिय माराधियं च एयट्ठं। अवगयराधो जो खलु चेया सो होई अवराधो ॥304॥ जो पुण णिरवराधो चेया णिस्संकिओ उ सो होइ। अवराहणाए णिच्चं वट्टेइअहं ति आणंतो ॥305॥
= संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधिक ये शब्द एकार्थ हैं। इसलिए जो आत्मा राध से रहित हो वह अपराध है ॥304॥ और जो चेतयिता आत्मा अपराधी नहीं है, वह शंका रहित है और अपने को `मैं हूँ' ऐसा जानता हुआ आराधना कर हमेशा वर्तता है।
नयचक्रवृहद् गाथा 356 समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं। तह चारित्तं धम्मो सहावआराहणा भणिया ॥356॥
= समता तथा माध्यस्थ, शुद्ध भाव तथा वीतरागता, चारित्र तथा धर्म यह सब ही स्वभाव की आराधना कहलाते हैं।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 54/222 उद्धृत “समत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवो चेव। चउरो चिंट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं।
= सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप, ये चारों आत्मा में निवास करते हैं इसलिए आत्मा ही मेरे शरणभूत है।
अनगार धर्मामृत अधिकार 1/98/105 वृत्तिर्जातसुदृष्ट्यादेस्तद्गतातिशयेषु या। उद्द्योतादिषु सा तेषां भक्तिराराधनोच्यते ॥98॥
= जिसके सम्यग्दर्शनादिक परिणाम उत्पन्न हो चुके हैं, ऐसे पुरुष की उन सम्यग्दर्शनादिक में रहने वाले अतिशयों अथवा उद्योतादिक विशेषो में जो वृत्ति उसी को दर्शनादिक की भक्ति कहते हैं। और इसी भक्ति का नाम ही आराधना है।
2. आराधना के भेद
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 2,3 दंसणणाणचरित्तं तवाणमाराहणाभणिया ॥2॥ दुविहापुण जिणवयणे आराहणासमासेण। सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवे चरित्तम्मि ॥3॥
= दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार को आराधना कहा गया है ॥2॥ अथवा जिनागम में संक्षेप से आराधना के दो भेद कहे हैं-एक सम्यक्त्वाराधना, दूसरा चारित्राराधना।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 75 दर्शनज्ञानचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधाराधनासदानुरक्ताः।
= ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परम तप नाम की चतुर्विध आराधना में सदा अनुरक्त।
गो.जी/जी.प्र.368/790/12 दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थस्थानगतोत्कृष्टाराधनाविशेषं च वर्णयति।
= दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, अर्थात् यथायोग्य शरीर का समाधान, सल्लेखना, उत्तम अर्थ स्थान को प्राप्त उत्तम आराधना इनिका विशेष प्ररूपिये है।
• निश्चय आराधना के अपर नाम - देखें मोक्षमार्ग - 2.5
3. उत्तम, मध्यम, जघन्य आराधना के स्वामित्व
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1918-1921 सुक्काएँ लेस्साए उक्कसं अंसयं परिणमित्ता। जो मरदि सो हणियमा उक्कस्साराधओ होई ॥1918॥ खाइयदंसणचरणं खओवसमियं च णाणमिदि मग्गो। तं होइ खीणमोहो आराहिता य जो हु अरहंतो ॥1919॥ जो सेसा सुक्काए दु अंसया जे य पम्मलेस्याए। तल्लेस्सापरिणामो दु मज्झिमाराधणा मरणे ॥1920॥ तेजाए लेस्साए ये असा तेसु जो परिणमित्ता। कालं करेइ तस्य हु जहण्णियाराधणा भणदि ॥1921॥
= शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंशो में परिणत होकर जो क्षपक मरण को प्राप्त होता है, उस महात्मा को नियम से उत्कृष्ट आराधक समझना चाहिए ॥1918॥ क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र और क्षयोपशमिक ज्ञान इनकी आराधना करके आत्मा क्षीणमोही बनता है और तदनंतर अरहंत होता है ॥1919॥ (क्षेपक गाथा) शुक्ल लेश्या के मध्यम अंश, और जघन्य अंशों से तथा पद्म लेश्या के अंशों से जो आराधक मरण को प्राप्त करते हैं, वे मध्यम आराधक माने जाते हैं ॥1920॥ पीत लेश्या के जो अंश हैं, उनसे परिणत होकर जो मरण वश होते हैं, वे जघन्य आराधक माने जाते हैं।
4. सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टादि आराधनाओं का स्वामित्व
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 51 उक्कस्साकेवलिणो मज्झिमया सेससम्मदिट्ठीणं। अविरतसम्मादिट्ठिस्स संकिलिट्ठस्स हु जहण्णा ॥55॥
= उत्कृष्ट सम्यक्त्व की आराधना अयोग केवली को होती है। मध्यम सम्यग्दर्शन की आराधना बाकी के सम्यग्दृष्टि जीवों को होती है। परंतु परिषहों से जिसका मन उद्विग्न हुआ है ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टि को जघन्य आराधना होती है।
(भ.भा./वि.51/175)
एक आगम ग्रंथ : भगवती आराधना का अमितगति (वि.1050-1073) कृत संस्कृत रूपांतर।
( तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा , पृष्ठ 2/394)
पुराणकोष से
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा सम्यक्तप इन चारों को यथायोग्य रीति से धारण करना । यह चार प्रकार की होती है― दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना और तप आराधना । भव सागर से पार होने के लिए ये नौका स्वरूप है । अनेक महाविद्याएँ भी आराधना से प्राप्त होती है । महापुराण 5.231, 19.14-16, पांडवपुराण 19.263, 267