कृष्ण: Difference between revisions
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<span class="HindiText"> अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा नामक चौथे काल मे उत्पन्न शलाका पुरुष और तीन खंड के स्वामी नवें नारायण तथा भावी तीर्थंकर । <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>60.289, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 113 </span>इनके जन्म से पूर्व कंस की पत्नी जीवद्यशा ने भिक्षा के लिए आये कंस के बड़े भाई अतिमुक्तक मुनि का उपहास किया । मुनि वचनगुप्ति का पालन नहीं कर सके और उसे बताया कि देवकी का पुत्र ही कंस का वध करेगा । जीवद्यशा से कंस ने यह बात सुनकर अपने बचाव के लिए वसुदेव और देवकी से यह वचन ले लिया कि प्रसूति काल में देवकी उसके पास ही रहेगी देवकी के युगलों के रूप में तीन बार में छ: पुत्र हुए । इन युगलों को नैगमर्ष देव इंद्र की प्रेरणा से भद्रिलपुर की अलका वैश्या के आगे उसकी प्रसूति के समय डालता रहा और उसके मृत युगलों को देवकी को देता रहा । सातवें पुत्र के रूप में ये पैदा हुए तो इनकी रक्षार्थ वसुदेव और बलभद्र इन्हें नंदगोप को देने के लिए यमुना पार करके आगे बढ़े । संयोग से नंदगोप भी इसी समय उत्पन्न एक कन्या को लेकर इधर ही आ रहा था । वसुदेव और नंद ने अपनी-अपनी बात कही । दोनों का काम बन गया । वसुदेव ने लड़की ले ली और इन्हें नंदगोप को दे दिया । कंस ने लड़की देखकर समझ लिया कि मुनि का कथन असत्य ही था । उसकी चिंता मिटी । कुछ दिनों बाद मथुरा मे उत्पात होने लगे । निमित्तज्ञानी वरुण ने कंस को बताया कि उसका महाशत्रु उत्पन्न हो गया है । कंस ने अपने पूर्वभव में सिद्ध की हुई देवियों को इनका | <span class="HindiText"> अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा नामक चौथे काल मे उत्पन्न शलाका पुरुष और तीन खंड के स्वामी नवें नारायण तथा भावी तीर्थंकर । <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>60.289, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 113 </span>इनके जन्म से पूर्व कंस की पत्नी जीवद्यशा ने भिक्षा के लिए आये कंस के बड़े भाई अतिमुक्तक मुनि का उपहास किया । मुनि वचनगुप्ति का पालन नहीं कर सके और उसे बताया कि देवकी का पुत्र ही कंस का वध करेगा । जीवद्यशा से कंस ने यह बात सुनकर अपने बचाव के लिए वसुदेव और देवकी से यह वचन ले लिया कि प्रसूति काल में देवकी उसके पास ही रहेगी देवकी के युगलों के रूप में तीन बार में छ: पुत्र हुए । इन युगलों को नैगमर्ष देव इंद्र की प्रेरणा से भद्रिलपुर की अलका वैश्या के आगे उसकी प्रसूति के समय डालता रहा और उसके मृत युगलों को देवकी को देता रहा । सातवें पुत्र के रूप में ये पैदा हुए तो इनकी रक्षार्थ वसुदेव और बलभद्र इन्हें नंदगोप को देने के लिए यमुना पार करके आगे बढ़े । संयोग से नंदगोप भी इसी समय उत्पन्न एक कन्या को लेकर इधर ही आ रहा था । वसुदेव और नंद ने अपनी-अपनी बात कही । दोनों का काम बन गया । वसुदेव ने लड़की ले ली और इन्हें नंदगोप को दे दिया । कंस ने लड़की देखकर समझ लिया कि मुनि का कथन असत्य ही था । उसकी चिंता मिटी । कुछ दिनों बाद मथुरा मे उत्पात होने लगे । निमित्तज्ञानी वरुण ने कंस को बताया कि उसका महाशत्रु उत्पन्न हो गया है । कंस ने अपने पूर्वभव में सिद्ध की हुई देवियों को इनका पता लगाने और हो सके तो इन्हें मारने के लिए भेजा । देवियों ने पूतना शकटासुर और अरिष्ट आदि अनेक रूप धारण किये । इन्हें पाकर भी वे इनका कोई बिगाड़ नहीं कर सकी । नंद और यशोदा ने बड़े लाड़-प्यार से इनका पालन-पोषण किया । इनकी बाल लीलाओं से नंद ग्राम में आनंद छा गया । बड़े होने पर ये मथुरा गये । इन्होंने नागशय्या को वश में किया । वहाँ अनेक उत्पात किये । भयंकर हाथियों को मार भगाया । मल्ल युद्ध में चाणूर को मारा और कंस का वध किया । ये अपने माता-पिता देवकी और वसुदेव से मिले और उनके पास रहने लगे इन्होंने दस के पिता उग्रसेन को बंधन मुक्त किया कंस के वध से जीवद्यशा बहुत दु:खी हुई थी । वह अपने पिता जरासंध के पास गयी । अपना दु:ख कहा । जरासंध ने कृष्ण का वध करने के लिए अपने पुत्र कालयवन को विशाल सेना के साथ भेजा । कालयवन ने सत्रह बार आक्रमण किये पर वह जीत नहीं सका । अंत म माला पर्वत पर वह मारा गया । अब की बार जरासंध ने अपने भाई अपराजित को बड़ी सेना लेकर भेजा । उसने तीन सौ छियालीस आक्रमण किये । वे सब विफल गये ओर वह स्वयं युद्ध में मारा गया । बार-बार युद्धों से बचने के लिए कृष्ण के परामर्श से यादवों ने शौर्यपुर, हस्तिनापुर और मथुरा तीनों स्थान छोड़ दिये । वे समुद्र को हटाकर इंद्र के द्वारा रची गयी द्वारावती नगरी में आकर रहने लगे । इसी समय समुद्रविजय के पुत्र नेमिनाथ का जन्म हुआ । द्वारावती में सर्वत्र आनंद छा गया । द्वारावती की समृद्धि बढ़ रही थी । जरासंध यादवों की समृद्धि को सहन नहीं कर सका । वह यादवों पर आक्रमण करने को तैयार हो गया उसकी सहायता के लिए दुर्योधन और दु:शासन आदि उसके भाई, कर्ण, भीष्म और द्रोणाचार्य आदि महारथी तथा उनके सहायक अन्य कई राजा अपनी सेनाओं के साथ आ गये । जब कृष्ण ने यह समाचार सुना तो उन्होंने द्वारावती का शासन तो नेमिनाथ को सौंपा तथा वे और बलभद्र जरासंध से लड़ने क लिए पांडवों तथा द्रुपद आदि अन्य कई राजाओं के साथ युद्धस्थल पर आगे । कुरुक्षेत्र में युद्ध हुआ । पांडव धृतराष्ट्र के पुत्रों के साथ और श्रीकृष्ण जरासंध के साथ लड़े । जरासंध किसी भी तरह जब कृष्ण को नहीं जीत सका तो उसने अपने चक्र का प्रहार किया । चक्र कृष्ण के पास आकर रुक गया । उसी चक्र से उन्होंने जरासंध का वध किया और कृष्ण चक्रवर्ती हो गये । इस युद्ध में ही धृष्टार्जुन के द्वारा द्रोणाचार्य का, अर्जुन के द्वारा कर्ण का, शिखंडी के द्वारा भीष्म का, अश्वत्थामा के द्वारा हरद का और भीम के द्वारा दुर्योधन तथा उसके भाइयों का वध हुआ । पांडवों को अपना संपूर्ण राज्य मिला । इसके पश्चात् कृष्ण ने दिग्विजय की और वे तीन खंड के स्वामी हुए । उनका राज्याभिषेक हुआ । वे द्वारावती मे नेमिनाथ आदि अपने समस्त परिवार वालों के साथ आनंदपूर्वक रहने लगे । इन्होंने नेमिनाथ को विवाह के योग्य समझकर उनका संबंध राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ स्थिर किया । बरात का प्रस्थान हुआ । मार्ग में विवाह में आये हुए मांसाहारी राजाओं के भोजन के लिए इकट्ठे किये गये पशुओं को नेमिनाथ ने देखा । हिंसा के इस घोर आरंभ को देखकर करुणार्द्र हो गये और संसार से विरक्त हो गये । उन्होने राज्य और राजीमती को छोड़ा और दीक्षित हो गये । कुछ ही समय बाद उन्हें केवलज्ञान हो गया । समवसरण की रचना हुई । उसमें कृष्ण और उनकी रानियां भी यथास्थान बैठी । देशना के पश्चात् कृष्ण की आठों पटरानियों ने भगवान् के गणधर से अपने-अपने पूर्वभवों की कथाएं सुनी । कृष्ण की आयु एक हजार वर्ष की थी । इनकी ऊँचाई दस धनुष की थी । नीला वर्ण था और सुंदर शरीर था । इनके पास सात रत्न थे― चक्र, शक्ति, गदा, शंख, धनुष, दंड और नंदक खड्ग । इनकी आठ पटरानियां और सोलह हजार रानियां थी । इन पटरानियों में एक रूक्मिणी का कृष्ण ने हरण किया था । उस समय इनसे लड़ने को आये हुए शिशुपाल का इन्होंने वध किया था । भगवान् नेमिनाथ के केवलज्ञान के बारह वर्ष पश्चात् द्वैपायन के द्वारा द्वारावती नष्ट हुई । अपने भाई वसुदेव के पुत्र जरत्कुमार के मृग के भ्रम से फेंके गये बाण से कौशांबी वन में इनकी मृत्यु हुई । मृत्यु से पूर्व इन्होंने सोलह कारण भावनाओं का चिंतन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया । उत्तरपुराण, <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>तथा पांडवपुराण की कृष्ण-कथाओं में भेद होते हुए भी सामान्यत: एकता है । <span class="GRef"> महापुराण 70.369-497 71.1 -462, 72.1-268, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>33.32-3, 35. 2-7, 15-80, 36.52-75, 38.9-55, <span class="GRef"> पांडवपुराण 11.57-84, 175-202, 20.316-356, 22.86-92 </span> | ||
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Revision as of 22:00, 30 August 2022
सिद्धांतकोष से
हरिवंशपुराण/ सर्ग/श्लोक ‘‘पूर्व के चौथे भव में अमृतरसायन नामक मांस पाचक थे (33/151)। फिर तीसरे भव में तीसरे नरक में गये (33/154) वहाँ से आकर यक्षलिक नामक वैश्य पुत्र हुए (33/158) फिर पूर्व के भव में निर्नामिक राजपुत्र हुए (33/144)। वर्तमान भव में वसुदेव के पुत्र थे (35/19)। नंदगोप के घर पालन हुआ (35/28)। कंस के द्वारा छल से बुलाया जाने पर (35/75) इन्होंने मल्लयुद्ध में कंस को मार दिया (41/18)। रुक्मिणी का हरण किया (42/74) तथा अन्य अनेकों कन्याएँ विवाह कर (44 सर्ग) अनेकों पुत्रों को जन्म दिया (48/69)। महाभारत के युद्ध में पांडवों का पक्ष लिया। तथा जरासंघ को मार कर (52/83) नवमें नारायण के रूप में प्रसिद्ध हुए (53/17) अंत में भगवान् नेमिनाथ की भविष्यवाणी के अनुसार (55/12) द्वारका का विनाश हुआ (61/48-) और ये उत्तम भावनाओं का चिंतवन करते, जरत्कुमार के तीर से मरकर नरक में गये (62/23)। विशेष देखें शलाकापुरूष । भावि चौबिसी में निर्मल नाम के सोलहवें तीर्थंकर होंगे।–देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा नामक चौथे काल मे उत्पन्न शलाका पुरुष और तीन खंड के स्वामी नवें नारायण तथा भावी तीर्थंकर । हरिवंशपुराण 60.289, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 113 इनके जन्म से पूर्व कंस की पत्नी जीवद्यशा ने भिक्षा के लिए आये कंस के बड़े भाई अतिमुक्तक मुनि का उपहास किया । मुनि वचनगुप्ति का पालन नहीं कर सके और उसे बताया कि देवकी का पुत्र ही कंस का वध करेगा । जीवद्यशा से कंस ने यह बात सुनकर अपने बचाव के लिए वसुदेव और देवकी से यह वचन ले लिया कि प्रसूति काल में देवकी उसके पास ही रहेगी देवकी के युगलों के रूप में तीन बार में छ: पुत्र हुए । इन युगलों को नैगमर्ष देव इंद्र की प्रेरणा से भद्रिलपुर की अलका वैश्या के आगे उसकी प्रसूति के समय डालता रहा और उसके मृत युगलों को देवकी को देता रहा । सातवें पुत्र के रूप में ये पैदा हुए तो इनकी रक्षार्थ वसुदेव और बलभद्र इन्हें नंदगोप को देने के लिए यमुना पार करके आगे बढ़े । संयोग से नंदगोप भी इसी समय उत्पन्न एक कन्या को लेकर इधर ही आ रहा था । वसुदेव और नंद ने अपनी-अपनी बात कही । दोनों का काम बन गया । वसुदेव ने लड़की ले ली और इन्हें नंदगोप को दे दिया । कंस ने लड़की देखकर समझ लिया कि मुनि का कथन असत्य ही था । उसकी चिंता मिटी । कुछ दिनों बाद मथुरा मे उत्पात होने लगे । निमित्तज्ञानी वरुण ने कंस को बताया कि उसका महाशत्रु उत्पन्न हो गया है । कंस ने अपने पूर्वभव में सिद्ध की हुई देवियों को इनका पता लगाने और हो सके तो इन्हें मारने के लिए भेजा । देवियों ने पूतना शकटासुर और अरिष्ट आदि अनेक रूप धारण किये । इन्हें पाकर भी वे इनका कोई बिगाड़ नहीं कर सकी । नंद और यशोदा ने बड़े लाड़-प्यार से इनका पालन-पोषण किया । इनकी बाल लीलाओं से नंद ग्राम में आनंद छा गया । बड़े होने पर ये मथुरा गये । इन्होंने नागशय्या को वश में किया । वहाँ अनेक उत्पात किये । भयंकर हाथियों को मार भगाया । मल्ल युद्ध में चाणूर को मारा और कंस का वध किया । ये अपने माता-पिता देवकी और वसुदेव से मिले और उनके पास रहने लगे इन्होंने दस के पिता उग्रसेन को बंधन मुक्त किया कंस के वध से जीवद्यशा बहुत दु:खी हुई थी । वह अपने पिता जरासंध के पास गयी । अपना दु:ख कहा । जरासंध ने कृष्ण का वध करने के लिए अपने पुत्र कालयवन को विशाल सेना के साथ भेजा । कालयवन ने सत्रह बार आक्रमण किये पर वह जीत नहीं सका । अंत म माला पर्वत पर वह मारा गया । अब की बार जरासंध ने अपने भाई अपराजित को बड़ी सेना लेकर भेजा । उसने तीन सौ छियालीस आक्रमण किये । वे सब विफल गये ओर वह स्वयं युद्ध में मारा गया । बार-बार युद्धों से बचने के लिए कृष्ण के परामर्श से यादवों ने शौर्यपुर, हस्तिनापुर और मथुरा तीनों स्थान छोड़ दिये । वे समुद्र को हटाकर इंद्र के द्वारा रची गयी द्वारावती नगरी में आकर रहने लगे । इसी समय समुद्रविजय के पुत्र नेमिनाथ का जन्म हुआ । द्वारावती में सर्वत्र आनंद छा गया । द्वारावती की समृद्धि बढ़ रही थी । जरासंध यादवों की समृद्धि को सहन नहीं कर सका । वह यादवों पर आक्रमण करने को तैयार हो गया उसकी सहायता के लिए दुर्योधन और दु:शासन आदि उसके भाई, कर्ण, भीष्म और द्रोणाचार्य आदि महारथी तथा उनके सहायक अन्य कई राजा अपनी सेनाओं के साथ आ गये । जब कृष्ण ने यह समाचार सुना तो उन्होंने द्वारावती का शासन तो नेमिनाथ को सौंपा तथा वे और बलभद्र जरासंध से लड़ने क लिए पांडवों तथा द्रुपद आदि अन्य कई राजाओं के साथ युद्धस्थल पर आगे । कुरुक्षेत्र में युद्ध हुआ । पांडव धृतराष्ट्र के पुत्रों के साथ और श्रीकृष्ण जरासंध के साथ लड़े । जरासंध किसी भी तरह जब कृष्ण को नहीं जीत सका तो उसने अपने चक्र का प्रहार किया । चक्र कृष्ण के पास आकर रुक गया । उसी चक्र से उन्होंने जरासंध का वध किया और कृष्ण चक्रवर्ती हो गये । इस युद्ध में ही धृष्टार्जुन के द्वारा द्रोणाचार्य का, अर्जुन के द्वारा कर्ण का, शिखंडी के द्वारा भीष्म का, अश्वत्थामा के द्वारा हरद का और भीम के द्वारा दुर्योधन तथा उसके भाइयों का वध हुआ । पांडवों को अपना संपूर्ण राज्य मिला । इसके पश्चात् कृष्ण ने दिग्विजय की और वे तीन खंड के स्वामी हुए । उनका राज्याभिषेक हुआ । वे द्वारावती मे नेमिनाथ आदि अपने समस्त परिवार वालों के साथ आनंदपूर्वक रहने लगे । इन्होंने नेमिनाथ को विवाह के योग्य समझकर उनका संबंध राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ स्थिर किया । बरात का प्रस्थान हुआ । मार्ग में विवाह में आये हुए मांसाहारी राजाओं के भोजन के लिए इकट्ठे किये गये पशुओं को नेमिनाथ ने देखा । हिंसा के इस घोर आरंभ को देखकर करुणार्द्र हो गये और संसार से विरक्त हो गये । उन्होने राज्य और राजीमती को छोड़ा और दीक्षित हो गये । कुछ ही समय बाद उन्हें केवलज्ञान हो गया । समवसरण की रचना हुई । उसमें कृष्ण और उनकी रानियां भी यथास्थान बैठी । देशना के पश्चात् कृष्ण की आठों पटरानियों ने भगवान् के गणधर से अपने-अपने पूर्वभवों की कथाएं सुनी । कृष्ण की आयु एक हजार वर्ष की थी । इनकी ऊँचाई दस धनुष की थी । नीला वर्ण था और सुंदर शरीर था । इनके पास सात रत्न थे― चक्र, शक्ति, गदा, शंख, धनुष, दंड और नंदक खड्ग । इनकी आठ पटरानियां और सोलह हजार रानियां थी । इन पटरानियों में एक रूक्मिणी का कृष्ण ने हरण किया था । उस समय इनसे लड़ने को आये हुए शिशुपाल का इन्होंने वध किया था । भगवान् नेमिनाथ के केवलज्ञान के बारह वर्ष पश्चात् द्वैपायन के द्वारा द्वारावती नष्ट हुई । अपने भाई वसुदेव के पुत्र जरत्कुमार के मृग के भ्रम से फेंके गये बाण से कौशांबी वन में इनकी मृत्यु हुई । मृत्यु से पूर्व इन्होंने सोलह कारण भावनाओं का चिंतन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया । उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण तथा पांडवपुराण की कृष्ण-कथाओं में भेद होते हुए भी सामान्यत: एकता है । महापुराण 70.369-497 71.1 -462, 72.1-268, हरिवंशपुराण 33.32-3, 35. 2-7, 15-80, 36.52-75, 38.9-55, पांडवपुराण 11.57-84, 175-202, 20.316-356, 22.86-92