महावीर: Difference between revisions
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<li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText"> प्रथम दृष्टि से भगवान् की आयु आदि </span></strong><br /> | <li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText"> प्रथम दृष्टि से भगवान् की आयु आदि </span></strong><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/120 </span><span class="PrakritText">पण्णारहदिवसेहिं अट्ठहि मासेहि य अहियं पचहत्तरिवासावसेसे चउत्थकाले 75-8-15 पुप्फुत्तरविमाणादो आसाढजोण्णपक्खछट्ठीए महावीरो बाहात्तरिवासाउओ तिणाणहरो गब्भमोइण्णो। तत्थ तीसवासाणि कुमारकालो, वारसवसाणि तस्स छदुमत्थकालो, केवलिकालो वि तीसं वासाणि; एदेसिं तिण्हं कालाणं समासो बाहत्तरिवासाणि।</span>= <span class="HindiText">15 दिन और 8 मास आधिक 75 वर्ष चतुर्थ काल में शेष रहने पर पुष्पोत्तर विमान से आषाढ शुक्ला षष्ठी के दिन 72 वर्ष प्रमाण आयु से युक्त और तीन ज्ञान के धारक महावीर भगवान् गर्भ में अवतीर्ण हुए। इसमें 30 वर्ष कुमारकाल, 12 वर्ष उनका छद्मस्थकाल और 30 वर्ष केवलिकाल इस प्रकार इन तीनों कालों का योग 72 वर्ष होता है। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/56/74/9 </span>)।</span></li> | <span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/120 </span><span class="PrakritText">पण्णारहदिवसेहिं अट्ठहि मासेहि य अहियं पचहत्तरिवासावसेसे चउत्थकाले 75-8-15 पुप्फुत्तरविमाणादो आसाढजोण्णपक्खछट्ठीए महावीरो बाहात्तरिवासाउओ तिणाणहरो गब्भमोइण्णो। तत्थ तीसवासाणि कुमारकालो, वारसवसाणि तस्स छदुमत्थकालो, केवलिकालो वि तीसं वासाणि; एदेसिं तिण्हं कालाणं समासो बाहत्तरिवासाणि।</span>= <span class="HindiText">15 दिन और 8 मास आधिक 75 वर्ष चतुर्थ काल में शेष रहने पर पुष्पोत्तर विमान से आषाढ शुक्ला षष्ठी के दिन 72 वर्ष प्रमाण आयु से युक्त और तीन ज्ञान के धारक महावीर भगवान् गर्भ में अवतीर्ण हुए। इसमें 30 वर्ष कुमारकाल, 12 वर्ष उनका छद्मस्थकाल और 30 वर्ष केवलिकाल इस प्रकार इन तीनों कालों का योग 72 वर्ष होता है। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/56/74/9 </span>)।</span></li><br> | ||
<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> दिव्यध्वनि या शासनदिवस की तिथि व स्थान</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> दिव्यध्वनि या शासनदिवस की तिथि व स्थान</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/ </span>गा.52-57/61-63 <span class="PrakritGatha">पंचसेलपुरे सम्मे विउले पव्वदुत्तमे। ...।52। महावीरेणत्थो कहिओ भवियलोयस्स ।53। ... इम्मिस्से वसिप्पिणीए चउत्थ-समयस्स पच्छिमे भाए। चोत्तीसवाससेसे किंचि विसेसूणए संते।55। वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्हि सावणे बहुले। पाडिवदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्हि।56। सावण बहुलपडिवदे रुद्दमुहुत्ते सुहोदए रविणो। अभिजिस्स पढमजोए जत्थ जुगादी मुणेयव्वो।57।</span> = <span class="HindiText">पंचशैलपुर में (राजगृह में) रमणीक, विपुल व उत्तम, ऐसे विपुलाचल नाम के पर्वत के ऊपर भगवान् महावीर ने भव्य जीवों को उपदेश दिया।52। इस अवसर्पिणी कल्पकाल के दुःषमा-सुषमा नाम के चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम 34 वर्ष बाकी रहने पर, वर्ष के प्रथममास अर्थात् श्रावण मास में प्रथम अर्थात् कृष्णपक्ष प्रतिपदा के दिन प्रात:काल के समय आकाश में अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई।55-56। श्रावणकृष्ण प्रतिपदा के दिन रुद्रमुहूर्त में सूर्य का शुभ उदय होने पर और अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में जब युग की आदि हुई तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझना चाहिए। (<span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/ </span>गा.29/120), (<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1-1/56/ </span>गा.20/74)।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/ </span>गा.52-57/61-63 <span class="PrakritGatha">पंचसेलपुरे सम्मे विउले पव्वदुत्तमे। ...।52। महावीरेणत्थो कहिओ भवियलोयस्स ।53। ... इम्मिस्से वसिप्पिणीए चउत्थ-समयस्स पच्छिमे भाए। चोत्तीसवाससेसे किंचि विसेसूणए संते।55। वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्हि सावणे बहुले। पाडिवदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्हि।56। सावण बहुलपडिवदे रुद्दमुहुत्ते सुहोदए रविणो। अभिजिस्स पढमजोए जत्थ जुगादी मुणेयव्वो।57।</span> = <span class="HindiText">पंचशैलपुर में (राजगृह में) रमणीक, विपुल व उत्तम, ऐसे विपुलाचल नाम के पर्वत के ऊपर भगवान् महावीर ने भव्य जीवों को उपदेश दिया।52। इस अवसर्पिणी कल्पकाल के दुःषमा-सुषमा नाम के चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम 34 वर्ष बाकी रहने पर, वर्ष के प्रथममास अर्थात् श्रावण मास में प्रथम अर्थात् कृष्णपक्ष प्रतिपदा के दिन प्रात:काल के समय आकाश में अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई।55-56। श्रावणकृष्ण प्रतिपदा के दिन रुद्रमुहूर्त में सूर्य का शुभ उदय होने पर और अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में जब युग की आदि हुई तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझना चाहिए। (<span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/ </span>गा.29/120), (<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1-1/56/ </span>गा.20/74)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/120/9 </span><span class="PrakritText">छासट्ठिदिवसावणयणं केवलकालम्मि किमट्ठं करिदे। केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाणुप्पत्तीदो।</span> = <span class="HindiText">केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर भी 66 दिन तक उनमें तीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिए उनके केवलीकाल में 66 दिन कम किये जाते हैं। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/57/75/5 </span>)।</span></li> | <span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/120/9 </span><span class="PrakritText">छासट्ठिदिवसावणयणं केवलकालम्मि किमट्ठं करिदे। केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाणुप्पत्तीदो।</span> = <span class="HindiText">केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर भी 66 दिन तक उनमें तीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिए उनके केवलीकाल में 66 दिन कम किये जाते हैं। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/57/75/5 </span>)।</span></li><br> | ||
<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong>द्वि. दृष्टि से भगवान् की आयु आदि </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong>द्वि. दृष्टि से भगवान् की आयु आदि </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/ </span>टीका व गा. 30-41/121-126 <span class="PrakritText">अण्णे के वि आइरिया पंचहि दिवसेहि अट्ठहि मासेहि न ऊणाणि बाहत्तरि वासाणि त्ति वड्ढमाणजिणिंदाउअं परूवेंति 71-3-25। तेसिमहिप्पाएण गब्भत्थ–कुमार-छदुमत्थ-केवल-कालाणं परूवणा कीरदे। तं जहा... (पृष्ठ 121/5)। आसाढजोण्णपक्खे छट्ठीए जोणिमुवपादो।गा.31। अच्छित्ता णवमासे अट्ठ य दिवसे चइत्तसियपक्खे। तेरसिए रत्तीए जादुत्तरफग्गुणीए दु।गा.33। अट्ठावीसं सत्त य मासे दिवसे य बारसयं।गा.34। आहिणिबोहियबुद्धो छट्ठेण य मग्गसीसबहुले दु। दसमीए णिक्खंतो सुरमहिदो णिक्खमणपुज्जो।गा.35। गमइ छदुमत्थत्तं बारसवासाणि पंच मासे य। पण्णारसाणि दिण्णाणि तिरयणसुद्धो महावीरो।गा.36। वइसाहजोण्णपक्खे दसमीए खवगसेढिमारूढो। हंतूण घाइकम्मं केवलणाणं समाबण्णो।गा.38। वासाणूणत्तीसं पंच य मासे यं बीसदिवसे य।...। गा.39। पाच्छा पावाणयरे कत्तियमासे य किण्हचोद्दसिए। सादीए रत्तीए सेसरयं छेत्तु णिव्वाओ।गा.40। परिणिव्वुदे जिणिंदे चउत्थकालस्स जं भवे सेसं। बासाणि तिण्णि मासा अट्ठ य दिवसा वि पण्णरसा।गा.41। ... एदं कालं वड्ढमाणजिणिंदाउअम्मि पक्खित्ते दसदिवसाहियपंचहत्तरिवासमेत्तावसेसे चउत्थकाले सग्गादो वड्ढमाणजिणिंदस्स ओदिण्णकालो होदि।</span> = <span class="HindiText">अन्य कितने ही आचार्य भगवान् की आयु 71 वर्ष 3 मास 25 दिन बताते हैं। उनके अभिप्रायानुसार गर्भस्थ, कुमार, छद्मस्थ और केवलज्ञान के कालों की प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार कि–गर्भावतार तिथि = आषाढ शु.6; गर्भस्थकाल = 9 मास–8 दिन; जन्म-तिथि व समय =चैत्र शु. 13 की रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र; कुमारकाल = 28 वर्ष 7 मास 12 दिन; निष्क्रमण तिथि ; मगसिर कृ. 10; छद्मस्थकाल=12 वर्ष 5 मास 15 दिन; केवलज्ञान तिथि=वैशाख शु.10; केवलीकाल= 29 वर्ष 5 मास 20 दिन; निर्वाण तिथि = कार्तिक कृ. 15 में स्वाति नक्षत्र। भगवान् के निर्वाण होने के पश्चात् शेष बचा चौथा काल = 3 वर्ष 8 मास 15 दिन। इस काल को वर्धमान जिनेंद्र की आयु में मिला देने पर चतुर्थकाल में 75 वर्ष 10 दिन शेष रहने पर भगवान् का स्वर्गावतरण होने का काल प्राप्त होता है। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1-1/58-62/ </span>टीका व गा.21-31/76-81)।</span></li> | <span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/ </span>टीका व गा. 30-41/121-126 <span class="PrakritText">अण्णे के वि आइरिया पंचहि दिवसेहि अट्ठहि मासेहि न ऊणाणि बाहत्तरि वासाणि त्ति वड्ढमाणजिणिंदाउअं परूवेंति 71-3-25। तेसिमहिप्पाएण गब्भत्थ–कुमार-छदुमत्थ-केवल-कालाणं परूवणा कीरदे। तं जहा... (पृष्ठ 121/5)। आसाढजोण्णपक्खे छट्ठीए जोणिमुवपादो।गा.31। अच्छित्ता णवमासे अट्ठ य दिवसे चइत्तसियपक्खे। तेरसिए रत्तीए जादुत्तरफग्गुणीए दु।गा.33। अट्ठावीसं सत्त य मासे दिवसे य बारसयं।गा.34। आहिणिबोहियबुद्धो छट्ठेण य मग्गसीसबहुले दु। दसमीए णिक्खंतो सुरमहिदो णिक्खमणपुज्जो।गा.35। गमइ छदुमत्थत्तं बारसवासाणि पंच मासे य। पण्णारसाणि दिण्णाणि तिरयणसुद्धो महावीरो।गा.36। वइसाहजोण्णपक्खे दसमीए खवगसेढिमारूढो। हंतूण घाइकम्मं केवलणाणं समाबण्णो।गा.38। वासाणूणत्तीसं पंच य मासे यं बीसदिवसे य।...। गा.39। पाच्छा पावाणयरे कत्तियमासे य किण्हचोद्दसिए। सादीए रत्तीए सेसरयं छेत्तु णिव्वाओ।गा.40। परिणिव्वुदे जिणिंदे चउत्थकालस्स जं भवे सेसं। बासाणि तिण्णि मासा अट्ठ य दिवसा वि पण्णरसा।गा.41। ... एदं कालं वड्ढमाणजिणिंदाउअम्मि पक्खित्ते दसदिवसाहियपंचहत्तरिवासमेत्तावसेसे चउत्थकाले सग्गादो वड्ढमाणजिणिंदस्स ओदिण्णकालो होदि।</span> = <span class="HindiText">अन्य कितने ही आचार्य भगवान् की आयु 71 वर्ष 3 मास 25 दिन बताते हैं। उनके अभिप्रायानुसार गर्भस्थ, कुमार, छद्मस्थ और केवलज्ञान के कालों की प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार कि–गर्भावतार तिथि = आषाढ शु.6; गर्भस्थकाल = 9 मास–8 दिन; जन्म-तिथि व समय =चैत्र शु. 13 की रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र; कुमारकाल = 28 वर्ष 7 मास 12 दिन; निष्क्रमण तिथि ; मगसिर कृ. 10; छद्मस्थकाल=12 वर्ष 5 मास 15 दिन; केवलज्ञान तिथि=वैशाख शु.10; केवलीकाल= 29 वर्ष 5 मास 20 दिन; निर्वाण तिथि = कार्तिक कृ. 15 में स्वाति नक्षत्र। भगवान् के निर्वाण होने के पश्चात् शेष बचा चौथा काल = 3 वर्ष 8 मास 15 दिन। इस काल को वर्धमान जिनेंद्र की आयु में मिला देने पर चतुर्थकाल में 75 वर्ष 10 दिन शेष रहने पर भगवान् का स्वर्गावतरण होने का काल प्राप्त होता है। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1-1/58-62/ </span>टीका व गा.21-31/76-81)।</span></li><br> | ||
<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> भगवान् की आयु आदि संबंधी दृष्टिभेद का समन्वय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> भगवान् की आयु आदि संबंधी दृष्टिभेद का समन्वय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/126/5 </span><span class="PrakritText">दोसु वि उवएसेसु को एत्थ समंजसो, एत्थ ण बाहइ जिब्भमेलाइरियवच्छओ; अलद्धोवदेसत्तादो दोण्णमेक्कस्स बाहाणुवलंभादो। किंतु दोसु एक्केण होदव्वं। तं जाणिय वत्तव्वं।</span> = <span class="HindiText">उक्त दो उपदेशों में से कौन-सा उपदेश यथार्थ है, इस विषय एलाचार्य का शिष्य (वीरसेन स्वामी) अपनी जीभ नहीं चलाता, क्योंकि, न तो इस विषय का कोई उपदेश प्राप्त है और न दोनों में से एक में कोई बाधा ही उत्पन्न होती है। किंतु दोनों में से एक ही सत्य होना चाहिए। उसे जानकर कहना उचित है। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1-1-/63/81/12 </span>)।<br /> | <span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/126/5 </span><span class="PrakritText">दोसु वि उवएसेसु को एत्थ समंजसो, एत्थ ण बाहइ जिब्भमेलाइरियवच्छओ; अलद्धोवदेसत्तादो दोण्णमेक्कस्स बाहाणुवलंभादो। किंतु दोसु एक्केण होदव्वं। तं जाणिय वत्तव्वं।</span> = <span class="HindiText">उक्त दो उपदेशों में से कौन-सा उपदेश यथार्थ है, इस विषय एलाचार्य का शिष्य (वीरसेन स्वामी) अपनी जीभ नहीं चलाता, क्योंकि, न तो इस विषय का कोई उपदेश प्राप्त है और न दोनों में से एक में कोई बाधा ही उत्पन्न होती है। किंतु दोनों में से एक ही सत्य होना चाहिए। उसे जानकर कहना उचित है। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1-1-/63/81/12 </span>)।<br /> | ||
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<p>सिद्धेर्मार्ग: स्वरूपं विधिजनितफलं जीवषट्कायलेश्या</p> | <p>सिद्धेर्मार्ग: स्वरूपं विधिजनितफलं जीवषट्कायलेश्या</p> | ||
<p>एतान् य: श्रद्धाति जिनवचनरतो मुक्तिगामी स भव्य: ।।</p><br> | <p>एतान् य: श्रद्धाति जिनवचनरतो मुक्तिगामी स भव्य: ।।</p><br> | ||
<p class="HindiText">गौतम इस गाथा का अर्थ ज्ञात न कर सकने से इनके पास आये । वहाँ मानस्तंभ पर अनायास दृष्टि पड़ते ही गौतम का अज्ञान दूर हो गया । अपने अज्ञान की निवृत्ति से प्रभावित होकर गौतम अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ इनके शिष्य हो गये । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न काल में समस्त अंगों और पूर्वों को जानकर गौतम ने रात्रि के पूर्वभाग में अंगों की और पिछले भाग में पूर्वों की रचना की तथा वे इनके प्रथम गणधर हुए । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>और वीरवर्द्धमान चरित के अनुसार शेष दस गणधरों के नाम है वायुगति, अभिभूति, सुधर्म, मौर्य, मौंद्रय, पुत्र, मैत्रेय, अंधवेला तथा प्रभास । <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> </span>के अनुसार ये निम्न प्रकार हैं― इंद्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचल, मेदार्य और प्रभास । इस प्रकार इनके कुल ग्यारह गणधर थे । इनके संघ में तीन सौ ग्यारह अंग और चौदहपूर्वधारी संयमी, नौ हजार नौ सौ शिक्षक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, नौ सौ विक्रियाऋद्धिधारी, पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी और चार सौ अनुत्तरवादी कुल मुनि चौदह हजार, चंदना आदि छत्तीस हजार आर्यिकाऐं, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएं तथा असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । इनके विहार-स्थलों के नाम केवल <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> </span>में बताये गये हैं । वे नाम हैं― काशी, कौशल, कौशल्य, कुबंध्य, अस्वष्ट, साल्व, त्रिगतं, पंचाल, भद्रकार, पटच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन और वृकार्थक, समुद्रतटवर्ती कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कंबोज, बाह्लीक, यवन, सिंध, गांधार, सौवीर, सूर, भीरू, दशेरुक, वाडवान, भरद्वाज और क्वाथतोय तथा उत्तर दिशा के तार्ण, कार्ण और प्रच्छाल । इन्होंने इन स्थलों में विहार करते हुए अर्धमागधी भाषा में द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ, संसार और मोक्ष तथा उनके कारण एवं उनके फल का प्रमाण, नय और निक्षेप आदि द्वारा उपदेश किया था । अंत में ये राजगृह नगर के निकट विपुलाचल पर्वत पर स्थिर हुए । वीरवर्धमानचरित के अनुसार इन्होंने छ: दिन कम तीस वर्ष तक विहार करने के बाद चंपानगरी के उद्यान में दिव्यध्वनि और योगनिरोध कर प्रतिमायोग धारण किया तथा कार्तिक मास की अमावस्या के दिन स्वाति नक्षत्र के रहते प्रभातवेला में उनका निर्वाण हुआ । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>और <span class="GRef"> <span class="GRef"> पद्मपुराण </span> </span>के अनुसार निर्वाण स्थली पावापुर का मनोहर वन है । दूरवर्ती पैंतीसवें पूर्वभव में ये पुरुरवा भील थे । चौतीसवें पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग के देव, पश्चात् तैंतीसवें में मरीचि, बत्तीसवें में ब्रह्म स्वर्ग के देव, इकतीसवें में जटिल ब्राह्मण, तीसवें में सौधर्म स्वर्ग में देव, उंतीसवें में पुण्यमित्र नामक ब्राह्मण, अट्ठाइसवें में सौधर्म स्वर्ग के देव, सत्ताइसवें में अग्निसह ब्राह्मण, छब्बीसवें में सनत्कुमार स्वर्ग में देव, पच्चीसवें में अग्निमित्र ब्राह्मण, चौबीसवें में महिंद्र स्वर्ग में देव, तेईसवें में भरद्वाज नामक ब्राह्मण, बाईसवें में माहेंद्र स्वर्ग में देव, इक्कीसवें में निगोदादि अधोगतियों के जीव, बीसवें में त्रस, उन्नीसवें में स्थावर, अठारहवें में स्थावर ब्राह्मण, सत्रहवें में माहेंद्र स्वर्ग में देव, सोलहवें में विश्वनंदी ब्राह्मण, पंद्रहवें में महाशुक्र स्वर्ग में देव, चौदहवें में त्रिपृष्ठ चक्रवर्ती, तेरहवें में सातवें नरक के नारकी, बारहवें में सिंह, ग्यारहवें में प्रथम नरक के नारकी, दसवें में सिंह, नौवें में सिंहकेतु देव, आठवें में कनकोज्ज्वल विद्याधर, सातवें में सातवें स्वर्ग में देव, छठे में हरिषेण राजपुत्र, पाँचवें में महाशुक्र स्वर्ग में देव, चौथे में प्रियमित्र राजकुमार, तीसरे में सहस्रार स्वर्ग में सूर्यप्रभ देव, दूसरे में मंद राजपुत्र और प्रथम पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग के अहमिंद्र हुए थे । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>74.14-16, 20-22, 51-87, 118, 122, 167, 169-171, 193, 219, 221-222, 229, 232, 234, 237, 241, 243, 246, 251-262, 268, 271-276, 282-354, 366-385, 76-509, 534-543, <span class="GRef"> <span class="GRef"> पद्मपुराण </span> </span>2.76, 20.61-62, 90, 115, 122, <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> </span>2.18-33, 50-64, 3. 3-7, 41-50, <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1.4, 7.22, 8.59-61, 79, 9.89, 10.16-17, 12. 41-47, 59-72, 87-88, 99-103, 137-138, 13. 4-28, 81, 911-01, 131-132, 15. 78-79, 99, 19.206-215, 220-221, 232-233 </span></p> | <p class="HindiText">गौतम इस गाथा का अर्थ ज्ञात न कर सकने से इनके पास आये । वहाँ मानस्तंभ पर अनायास दृष्टि पड़ते ही गौतम का अज्ञान दूर हो गया । अपने अज्ञान की निवृत्ति से प्रभावित होकर गौतम अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ इनके शिष्य हो गये । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न काल में समस्त अंगों और पूर्वों को जानकर गौतम ने रात्रि के पूर्वभाग में अंगों की और पिछले भाग में पूर्वों की रचना की तथा वे इनके प्रथम गणधर हुए । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>और वीरवर्द्धमान चरित के अनुसार शेष दस गणधरों के नाम है वायुगति, अभिभूति, सुधर्म, मौर्य, मौंद्रय, पुत्र, मैत्रेय, अंधवेला तथा प्रभास । <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> </span>के अनुसार ये निम्न प्रकार हैं― इंद्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचल, मेदार्य और प्रभास । इस प्रकार इनके कुल ग्यारह गणधर थे । इनके संघ में तीन सौ ग्यारह अंग और चौदहपूर्वधारी संयमी, नौ हजार नौ सौ शिक्षक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, नौ सौ विक्रियाऋद्धिधारी, पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी और चार सौ अनुत्तरवादी कुल मुनि चौदह हजार, चंदना आदि छत्तीस हजार आर्यिकाऐं, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएं तथा असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । इनके विहार-स्थलों के नाम केवल <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> </span>में बताये गये हैं । वे नाम हैं― काशी, कौशल, कौशल्य, कुबंध्य, अस्वष्ट, साल्व, त्रिगतं, पंचाल, भद्रकार, पटच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन और वृकार्थक, समुद्रतटवर्ती कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कंबोज, बाह्लीक, यवन, सिंध, गांधार, सौवीर, सूर, भीरू, दशेरुक, वाडवान, भरद्वाज और क्वाथतोय तथा उत्तर दिशा के तार्ण, कार्ण और प्रच्छाल । इन्होंने इन स्थलों में विहार करते हुए अर्धमागधी भाषा में द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ, संसार और मोक्ष तथा उनके कारण एवं उनके फल का प्रमाण, नय और निक्षेप आदि द्वारा उपदेश किया था । अंत में ये राजगृह नगर के निकट विपुलाचल पर्वत पर स्थिर हुए । वीरवर्धमानचरित के अनुसार इन्होंने छ: दिन कम तीस वर्ष तक विहार करने के बाद चंपानगरी के उद्यान में दिव्यध्वनि और योगनिरोध कर प्रतिमायोग धारण किया तथा कार्तिक मास की अमावस्या के दिन स्वाति नक्षत्र के रहते प्रभातवेला में उनका निर्वाण हुआ । <br> | ||
<span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>और <span class="GRef"> <span class="GRef"> पद्मपुराण </span> </span>के अनुसार निर्वाण स्थली पावापुर का मनोहर वन है । दूरवर्ती पैंतीसवें पूर्वभव में ये पुरुरवा भील थे । चौतीसवें पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग के देव, पश्चात् तैंतीसवें में मरीचि, बत्तीसवें में ब्रह्म स्वर्ग के देव, इकतीसवें में जटिल ब्राह्मण, तीसवें में सौधर्म स्वर्ग में देव, उंतीसवें में पुण्यमित्र नामक ब्राह्मण, अट्ठाइसवें में सौधर्म स्वर्ग के देव, सत्ताइसवें में अग्निसह ब्राह्मण, छब्बीसवें में सनत्कुमार स्वर्ग में देव, पच्चीसवें में अग्निमित्र ब्राह्मण, चौबीसवें में महिंद्र स्वर्ग में देव, तेईसवें में भरद्वाज नामक ब्राह्मण, बाईसवें में माहेंद्र स्वर्ग में देव, इक्कीसवें में निगोदादि अधोगतियों के जीव, बीसवें में त्रस, उन्नीसवें में स्थावर, अठारहवें में स्थावर ब्राह्मण, सत्रहवें में माहेंद्र स्वर्ग में देव, सोलहवें में विश्वनंदी ब्राह्मण, पंद्रहवें में महाशुक्र स्वर्ग में देव, चौदहवें में त्रिपृष्ठ चक्रवर्ती, तेरहवें में सातवें नरक के नारकी, बारहवें में सिंह, ग्यारहवें में प्रथम नरक के नारकी, दसवें में सिंह, नौवें में सिंहकेतु देव, आठवें में कनकोज्ज्वल विद्याधर, सातवें में सातवें स्वर्ग में देव, छठे में हरिषेण राजपुत्र, पाँचवें में महाशुक्र स्वर्ग में देव, चौथे में प्रियमित्र राजकुमार, तीसरे में सहस्रार स्वर्ग में सूर्यप्रभ देव, दूसरे में मंद राजपुत्र और प्रथम पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग के अहमिंद्र हुए थे । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>74.14-16, 20-22, 51-87, 118, 122, 167, 169-171, 193, 219, 221-222, 229, 232, 234, 237, 241, 243, 246, 251-262, 268, 271-276, 282-354, 366-385, 76-509, 534-543, <span class="GRef"> <span class="GRef"> पद्मपुराण </span> </span>2.76, 20.61-62, 90, 115, 122, <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> </span>2.18-33, 50-64, 3. 3-7, 41-50, <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1.4, 7.22, 8.59-61, 79, 9.89, 10.16-17, 12. 41-47, 59-72, 87-88, 99-103, 137-138, 13. 4-28, 81, 911-01, 131-132, 15. 78-79, 99, 19.206-215, 220-221, 232-233 </span></p> | |||
Revision as of 17:06, 9 September 2022
सिद्धांतकोष से
- प्रथम दृष्टि से भगवान् की आयु आदि
धवला 9/4,1,44/120 पण्णारहदिवसेहिं अट्ठहि मासेहि य अहियं पचहत्तरिवासावसेसे चउत्थकाले 75-8-15 पुप्फुत्तरविमाणादो आसाढजोण्णपक्खछट्ठीए महावीरो बाहात्तरिवासाउओ तिणाणहरो गब्भमोइण्णो। तत्थ तीसवासाणि कुमारकालो, वारसवसाणि तस्स छदुमत्थकालो, केवलिकालो वि तीसं वासाणि; एदेसिं तिण्हं कालाणं समासो बाहत्तरिवासाणि।= 15 दिन और 8 मास आधिक 75 वर्ष चतुर्थ काल में शेष रहने पर पुष्पोत्तर विमान से आषाढ शुक्ला षष्ठी के दिन 72 वर्ष प्रमाण आयु से युक्त और तीन ज्ञान के धारक महावीर भगवान् गर्भ में अवतीर्ण हुए। इसमें 30 वर्ष कुमारकाल, 12 वर्ष उनका छद्मस्थकाल और 30 वर्ष केवलिकाल इस प्रकार इन तीनों कालों का योग 72 वर्ष होता है। ( कषायपाहुड़ 1/1,1/56/74/9 )। - दिव्यध्वनि या शासनदिवस की तिथि व स्थान
धवला 1/1,1,1/ गा.52-57/61-63 पंचसेलपुरे सम्मे विउले पव्वदुत्तमे। ...।52। महावीरेणत्थो कहिओ भवियलोयस्स ।53। ... इम्मिस्से वसिप्पिणीए चउत्थ-समयस्स पच्छिमे भाए। चोत्तीसवाससेसे किंचि विसेसूणए संते।55। वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्हि सावणे बहुले। पाडिवदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्हि।56। सावण बहुलपडिवदे रुद्दमुहुत्ते सुहोदए रविणो। अभिजिस्स पढमजोए जत्थ जुगादी मुणेयव्वो।57। = पंचशैलपुर में (राजगृह में) रमणीक, विपुल व उत्तम, ऐसे विपुलाचल नाम के पर्वत के ऊपर भगवान् महावीर ने भव्य जीवों को उपदेश दिया।52। इस अवसर्पिणी कल्पकाल के दुःषमा-सुषमा नाम के चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम 34 वर्ष बाकी रहने पर, वर्ष के प्रथममास अर्थात् श्रावण मास में प्रथम अर्थात् कृष्णपक्ष प्रतिपदा के दिन प्रात:काल के समय आकाश में अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई।55-56। श्रावणकृष्ण प्रतिपदा के दिन रुद्रमुहूर्त में सूर्य का शुभ उदय होने पर और अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में जब युग की आदि हुई तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझना चाहिए। ( धवला 9/4,1,44/ गा.29/120), ( कषायपाहुड़/1/1-1/56/ गा.20/74)।
धवला 9/4,1,44/120/9 छासट्ठिदिवसावणयणं केवलकालम्मि किमट्ठं करिदे। केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाणुप्पत्तीदो। = केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर भी 66 दिन तक उनमें तीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिए उनके केवलीकाल में 66 दिन कम किये जाते हैं। ( कषायपाहुड़ 1/1,1/57/75/5 )। - द्वि. दृष्टि से भगवान् की आयु आदि
धवला 9/4,1,44/ टीका व गा. 30-41/121-126 अण्णे के वि आइरिया पंचहि दिवसेहि अट्ठहि मासेहि न ऊणाणि बाहत्तरि वासाणि त्ति वड्ढमाणजिणिंदाउअं परूवेंति 71-3-25। तेसिमहिप्पाएण गब्भत्थ–कुमार-छदुमत्थ-केवल-कालाणं परूवणा कीरदे। तं जहा... (पृष्ठ 121/5)। आसाढजोण्णपक्खे छट्ठीए जोणिमुवपादो।गा.31। अच्छित्ता णवमासे अट्ठ य दिवसे चइत्तसियपक्खे। तेरसिए रत्तीए जादुत्तरफग्गुणीए दु।गा.33। अट्ठावीसं सत्त य मासे दिवसे य बारसयं।गा.34। आहिणिबोहियबुद्धो छट्ठेण य मग्गसीसबहुले दु। दसमीए णिक्खंतो सुरमहिदो णिक्खमणपुज्जो।गा.35। गमइ छदुमत्थत्तं बारसवासाणि पंच मासे य। पण्णारसाणि दिण्णाणि तिरयणसुद्धो महावीरो।गा.36। वइसाहजोण्णपक्खे दसमीए खवगसेढिमारूढो। हंतूण घाइकम्मं केवलणाणं समाबण्णो।गा.38। वासाणूणत्तीसं पंच य मासे यं बीसदिवसे य।...। गा.39। पाच्छा पावाणयरे कत्तियमासे य किण्हचोद्दसिए। सादीए रत्तीए सेसरयं छेत्तु णिव्वाओ।गा.40। परिणिव्वुदे जिणिंदे चउत्थकालस्स जं भवे सेसं। बासाणि तिण्णि मासा अट्ठ य दिवसा वि पण्णरसा।गा.41। ... एदं कालं वड्ढमाणजिणिंदाउअम्मि पक्खित्ते दसदिवसाहियपंचहत्तरिवासमेत्तावसेसे चउत्थकाले सग्गादो वड्ढमाणजिणिंदस्स ओदिण्णकालो होदि। = अन्य कितने ही आचार्य भगवान् की आयु 71 वर्ष 3 मास 25 दिन बताते हैं। उनके अभिप्रायानुसार गर्भस्थ, कुमार, छद्मस्थ और केवलज्ञान के कालों की प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार कि–गर्भावतार तिथि = आषाढ शु.6; गर्भस्थकाल = 9 मास–8 दिन; जन्म-तिथि व समय =चैत्र शु. 13 की रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र; कुमारकाल = 28 वर्ष 7 मास 12 दिन; निष्क्रमण तिथि ; मगसिर कृ. 10; छद्मस्थकाल=12 वर्ष 5 मास 15 दिन; केवलज्ञान तिथि=वैशाख शु.10; केवलीकाल= 29 वर्ष 5 मास 20 दिन; निर्वाण तिथि = कार्तिक कृ. 15 में स्वाति नक्षत्र। भगवान् के निर्वाण होने के पश्चात् शेष बचा चौथा काल = 3 वर्ष 8 मास 15 दिन। इस काल को वर्धमान जिनेंद्र की आयु में मिला देने पर चतुर्थकाल में 75 वर्ष 10 दिन शेष रहने पर भगवान् का स्वर्गावतरण होने का काल प्राप्त होता है। ( कषायपाहुड़ 1/1-1/58-62/ टीका व गा.21-31/76-81)। - भगवान् की आयु आदि संबंधी दृष्टिभेद का समन्वय
धवला 9/4,1,44/126/5 दोसु वि उवएसेसु को एत्थ समंजसो, एत्थ ण बाहइ जिब्भमेलाइरियवच्छओ; अलद्धोवदेसत्तादो दोण्णमेक्कस्स बाहाणुवलंभादो। किंतु दोसु एक्केण होदव्वं। तं जाणिय वत्तव्वं। = उक्त दो उपदेशों में से कौन-सा उपदेश यथार्थ है, इस विषय एलाचार्य का शिष्य (वीरसेन स्वामी) अपनी जीभ नहीं चलाता, क्योंकि, न तो इस विषय का कोई उपदेश प्राप्त है और न दोनों में से एक में कोई बाधा ही उत्पन्न होती है। किंतु दोनों में से एक ही सत्य होना चाहिए। उसे जानकर कहना उचित है। ( कषायपाहुड़/1-1-/63/81/12 )।
- वीर निर्वाण संवत् संबंधी–देखें इतिहास - 2.2।
- भगवान् के पूर्व भवों का परिचय
महापुराण/74/ श्लोक नं.- ‘‘दूरवर्ती पूर्वभव नं. 1 में पुरुरवा भील थे। 14-16।
- नं. 2 में सौधर्म स्वर्ग में देव हुए। 20-22।
- नं. 3 में भरत का पुत्र मरीचि कुमार।51-66।
- नं. 4 में ब्रह्म स्वर्ग में देव।67।
- नं. 5 में जटिल ब्राह्मण का पुत्र।68।
- नं. 6 में सौधर्म स्वर्ग में देव।69।
- नं. 7 में पुण्यमित्र ब्राह्मण का पुत्र।71।
- नं. 8 में सौधर्म स्वर्ग में देव।72-73।
- नं. 9 में अग्निसह ब्राह्मण का पुत्र।74।
- नं. 10 में 7 सागर की आयुवाला देव।75।
- नं. 11 में अग्निमित्र ब्राह्मण का पुत्र।76।
- नं. 12 में माहेंद्र स्वर्ग में देव।76।
- नं. 13 में भारद्वाज ब्राह्मण का पुत्र।77।
- नं. 14 में माहेंद्र स्वर्ग में देव।78।
- तत्पश्चात् अनेकों त्रस स्थावर योनियों में असंख्यातों वर्ष भ्रमण करके वर्तमान से पहले पूर्वभव नं. 18 में स्थावर नामक ब्राह्मण का पुत्र हुआ।79-83।
- पूर्वभव नं. 17 में महेंद्र स्वर्ग में देव।85।
- पूर्वभव नं.16 में विश्वनंदी नामक राजपुत्र हुआ।86-117।
- पूर्वभव नं. 15 में महाशुक्र स्वर्ग में देव।118-120।
- पूर्वभव नं. 14 में त्रिपृष्ठ नारायण।120-167।
- पूर्वभव नं. 13 में सप्तम नरक का नारकी।167।
- पूर्वभव नं. 12 में सिंह।169।
- पूर्वभव नं. 11 में प्रथम नरक का नारकी।170।
- पूर्वभव नं. 10 में सिंह।171-219।
- पूर्वभव नं. 9 में सिंहकेतु नामक देव।219।
- पूर्वभव नं. 8 में कनकोज्ज्वल नामक विद्याधर।220-229।
- पूर्वभव नं. 7 में सप्तम स्वर्ग में देव।230।
- पूर्वभव नं. 6 में हरिषेण नामक राजपुत्र।232-233।
- पूर्वभव नं. 5 में महाशुक्र स्वर्ग में देव।234।
- पूर्वभव नं. 4 में प्रियमित्र नामक राजपुत्र।234-240।
- पूर्वभव नं. 3 में सहस्रार स्वर्ग में सूर्यप्रभ नामक देव।241।
- पूर्वभव नं. 2 में नंदन नामक सज्जनपुत्र।242-251।
- पूर्वभव नं. 1 में अच्युत स्वर्ग में अहमिंद्र।246। वर्तमान भव में 24वें तीर्थंकर महावीर हुए।251। (युगपत् सर्वभव–दे. महापुराण/76/534 )।
- भगवान् के कुल, संघ आदि का विशेष परिचय–देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर । ये भरतक्षेत्र के विदेह देश में कुंडपुर नगर के राजा सिद्धार्थ की रानी प्रियकारिणी के पुत्र थे । सोलह स्वप्नपूर्वक आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन मनोहर नामक चौथे प्रहर और उत्तराषाढ़ नक्षत्र में चौथे काल के पचहत्तर वर्ष साढ़े आठ माह शेष रहने पर ये गर्भ में आये थे । गर्भ में आने के छ: मास पूर्व से ही इनके पिता सिद्धार्थ के प्रांगण में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्न बरसने लगे थे । देवों ने इनके पिता सिद्धार्थ और माता प्रियकारिणी के निकट आकर इनका गर्भकल्याणक उत्सव किया था । गर्भवास का नौवाँ माह पूर्ण होने पर चैत्र मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी के दिन अर्यमा नाम के शुभयोग में इनका जन्म हुआ था । ये पार्श्वनाथ तीर्थंकर के ढाई सौ वर्ष बाद हुए थे । इनकी अवगाहना मात हाथ तथा आयु बहत्तर वर्ष की थी । ये हरिवंशी और काश्यपगोत्री थे । जन्म से ही तीन ज्ञान से विभूषित थे । इन्हें जन्म देकर प्रियकारिणी ने मनुष्य, देव और तिर्यंचों को बहुत प्रेम प्राप्त होने में अपना नाम सार्थक किया था । सौधर्मेंद्र ने इन्हें अपनी गोद में लेकर और ऐरावत हाथी पर बैठाकर सुमेरु पर ले गया था । वहाँ पांडुक शिला पर विराजमान करके उसने क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया था । इन्हें वीर एवं वर्द्धमान दो नाम दिये थे तथा सोत्साह आनंद नाटक भी किया था । वीर-वर्धमान चरित के अनुसार ये कर्मरूपी साधुओं को नाश करने से महावीर और निरंतर बढ़ने वाले गुणों के आश्रय होने से वर्धमान कहलाये थे । महावीर नाम के संबंध में यह भी कहा गया है कि संगम नामक देव ने इनके बल की परीक्षा लेकर इन्हें यह नाम दिया था । यह देव सर्प के रूप में आया था । जिस वृक्ष के नीचे थे खेल रहे थे उसी वृक्ष के तने से वह लिपट गया । इन्होंने इस सर्प के साथ निर्भय होकर क्रीड़ा की । इनकी इस निर्भयता से प्रसन्न होकर देव ने प्रकट होकर इन्हें ‘‘महावीर’’ कहा था । पद्मपुराण के अनुसार इन्होंने अपने पैर के अग्र के से अनायास ही सुमेरु पर्वत को कंपित कर इंद्र द्वारा यह नाम प्राप्त किया था । तीव्र तपश्चरण करने से ये लोक में ‘‘महतिमहावीर’’ नाम से विख्यात हुए थे । संजय और विजय नाम के चारण ऋद्धिधारी मुनियों का संशय इनके दर्शन मात्र से दूर हो जाने से उनके द्वारा इन्हें ‘‘सन्मति’’ नाम दिया गया था । ये स्वयं बुद्ध थे । आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने श्रावक के बारह व्रत धारण कर लिये थे । इनका शरीर अतिसुंदर था । रक्त दूध के समान शुभ्र था । ये समचतुरस्रसंस्थान और वज्रवृषभनाराचसंहनन के धारी थे । एक हजार आठ शुभ लक्षणों से इनका शरीर अलंकृत तथा अप्रमाण महावीर्य से युक्त था । ये विश्वहितकारी कर्णसुखद् वाणी बोलते थे । तीस वर्ष की अवस्था में ही इन्हें वैराग्य हो गया था । लौकांतिक देवों के द्वारा स्तुति किये जाने के पश्चात् इन्होंने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त की और ये चंद्रप्रभा पालकी में बैठकर दीक्षार्थ खंडवन गये थे । इनकी पालकी सर्वप्रथम भूमिगोचरी राजाओं ने, पश्चात् विद्याधर राजाओं ने और फिर इंद्रों ने उठाई थी । खंडवन में पालकी से उतरकर वर्तुलाकार रत्नशिला पर उत्तर की ओर मुखकर इन्होंने बेला का नियम लेकर मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की दशमी के दिन अपराह्न काल में उत्तराफाल्गुन और हस्तनक्षत्र के मध्यभाग में संध्या के समय निर्ग्रंथ मुनि होकर संयम धारण किया । इनके द्वारा उखाड़कर फेंकी गयी केशराशि को इंद्र ने उठाकर उसे मणिमय पिटारे में रखकर उसकी पूजा की तथा उसका क्षीरसागर में सोत्साह निक्षेपण किया । संयमी होते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हुआ । कूलग्राम नगरी में राजा कूल ने इन्हें परमान्न खीर का आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । उज्जयिनी के अतिमुक्तक श्मशान में महादेव रुद्र ने प्रतिमायोग में विराजमान इनके ऊपर अनेक प्रकार से उपसर्ग किये किंतु वह इन्हें समाधि से विचलित नहीं कर सका था । एक दिन ये वत्स देश की कौशांबी नगरी में आहार के लिए आये थे । राजा चेटक की पुत्री चंदना जैसे ही इन्हें आहार देने के लिए तत्पर हुई, उसके समस्त बंधन टूट गये तथा केश, वस्त्र और आभूषण सुंदर हो गये । यहाँ तक कि उसका मिट्टी का सकोरा स्वर्णपात्र बन गया और आहार में दिया गया कोंदों का भात चावलों में बदल गया । उसे पंचाश्चर्य प्राप्त हुए । छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष व्यतीत करके एक दिन जृंभिक ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के तट पर मनोहर वन में सालवृक्ष के नीचे शिखा पर प्रतिमायोग में विराजमान हुए । परिणामों की विशुद्धता से वैशाख मास के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि की अपराह्न बेला में उतरा-फाल्गुन नक्षत्र में शुभ चंद्रयोग के समय इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और ये अनंतचतुष्टय के धारक हो गये । सौधर्मेंद्र ने इनका ज्ञानकल्याणक मनाया । समवसरण में तीन प्रहर बीत जाने पर भी इनकी दिव्यध्वनि न खिरने पर सौधर्मेंद्र ने इसका कारण गणधर का अभाव जाना । वह इस पद कं योग्य गौतम इंद्रभूति विप्र को ज्ञातकर वृद्ध ब्राह्मण के वेष में उसके पास गया तथा उनसे उसने निम्न गाथा का अर्थ स्पष्ट करने के लिए कहा ।
त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं सकलगतिगणा: सत्पदार्था नवैव
विश्वं पंचास्तिकाया व्रतसमितिचिद: सप्ततत्त्वानि धर्मा: ।
सिद्धेर्मार्ग: स्वरूपं विधिजनितफलं जीवषट्कायलेश्या
एतान् य: श्रद्धाति जिनवचनरतो मुक्तिगामी स भव्य: ।।
गौतम इस गाथा का अर्थ ज्ञात न कर सकने से इनके पास आये । वहाँ मानस्तंभ पर अनायास दृष्टि पड़ते ही गौतम का अज्ञान दूर हो गया । अपने अज्ञान की निवृत्ति से प्रभावित होकर गौतम अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ इनके शिष्य हो गये । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न काल में समस्त अंगों और पूर्वों को जानकर गौतम ने रात्रि के पूर्वभाग में अंगों की और पिछले भाग में पूर्वों की रचना की तथा वे इनके प्रथम गणधर हुए । महापुराण और वीरवर्द्धमान चरित के अनुसार शेष दस गणधरों के नाम है वायुगति, अभिभूति, सुधर्म, मौर्य, मौंद्रय, पुत्र, मैत्रेय, अंधवेला तथा प्रभास । हरिवंशपुराण के अनुसार ये निम्न प्रकार हैं― इंद्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचल, मेदार्य और प्रभास । इस प्रकार इनके कुल ग्यारह गणधर थे । इनके संघ में तीन सौ ग्यारह अंग और चौदहपूर्वधारी संयमी, नौ हजार नौ सौ शिक्षक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, नौ सौ विक्रियाऋद्धिधारी, पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी और चार सौ अनुत्तरवादी कुल मुनि चौदह हजार, चंदना आदि छत्तीस हजार आर्यिकाऐं, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएं तथा असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । इनके विहार-स्थलों के नाम केवल हरिवंशपुराण में बताये गये हैं । वे नाम हैं― काशी, कौशल, कौशल्य, कुबंध्य, अस्वष्ट, साल्व, त्रिगतं, पंचाल, भद्रकार, पटच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन और वृकार्थक, समुद्रतटवर्ती कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कंबोज, बाह्लीक, यवन, सिंध, गांधार, सौवीर, सूर, भीरू, दशेरुक, वाडवान, भरद्वाज और क्वाथतोय तथा उत्तर दिशा के तार्ण, कार्ण और प्रच्छाल । इन्होंने इन स्थलों में विहार करते हुए अर्धमागधी भाषा में द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ, संसार और मोक्ष तथा उनके कारण एवं उनके फल का प्रमाण, नय और निक्षेप आदि द्वारा उपदेश किया था । अंत में ये राजगृह नगर के निकट विपुलाचल पर्वत पर स्थिर हुए । वीरवर्धमानचरित के अनुसार इन्होंने छ: दिन कम तीस वर्ष तक विहार करने के बाद चंपानगरी के उद्यान में दिव्यध्वनि और योगनिरोध कर प्रतिमायोग धारण किया तथा कार्तिक मास की अमावस्या के दिन स्वाति नक्षत्र के रहते प्रभातवेला में उनका निर्वाण हुआ ।
महापुराण और पद्मपुराण के अनुसार निर्वाण स्थली पावापुर का मनोहर वन है । दूरवर्ती पैंतीसवें पूर्वभव में ये पुरुरवा भील थे । चौतीसवें पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग के देव, पश्चात् तैंतीसवें में मरीचि, बत्तीसवें में ब्रह्म स्वर्ग के देव, इकतीसवें में जटिल ब्राह्मण, तीसवें में सौधर्म स्वर्ग में देव, उंतीसवें में पुण्यमित्र नामक ब्राह्मण, अट्ठाइसवें में सौधर्म स्वर्ग के देव, सत्ताइसवें में अग्निसह ब्राह्मण, छब्बीसवें में सनत्कुमार स्वर्ग में देव, पच्चीसवें में अग्निमित्र ब्राह्मण, चौबीसवें में महिंद्र स्वर्ग में देव, तेईसवें में भरद्वाज नामक ब्राह्मण, बाईसवें में माहेंद्र स्वर्ग में देव, इक्कीसवें में निगोदादि अधोगतियों के जीव, बीसवें में त्रस, उन्नीसवें में स्थावर, अठारहवें में स्थावर ब्राह्मण, सत्रहवें में माहेंद्र स्वर्ग में देव, सोलहवें में विश्वनंदी ब्राह्मण, पंद्रहवें में महाशुक्र स्वर्ग में देव, चौदहवें में त्रिपृष्ठ चक्रवर्ती, तेरहवें में सातवें नरक के नारकी, बारहवें में सिंह, ग्यारहवें में प्रथम नरक के नारकी, दसवें में सिंह, नौवें में सिंहकेतु देव, आठवें में कनकोज्ज्वल विद्याधर, सातवें में सातवें स्वर्ग में देव, छठे में हरिषेण राजपुत्र, पाँचवें में महाशुक्र स्वर्ग में देव, चौथे में प्रियमित्र राजकुमार, तीसरे में सहस्रार स्वर्ग में सूर्यप्रभ देव, दूसरे में मंद राजपुत्र और प्रथम पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग के अहमिंद्र हुए थे । महापुराण 74.14-16, 20-22, 51-87, 118, 122, 167, 169-171, 193, 219, 221-222, 229, 232, 234, 237, 241, 243, 246, 251-262, 268, 271-276, 282-354, 366-385, 76-509, 534-543, पद्मपुराण 2.76, 20.61-62, 90, 115, 122, हरिवंशपुराण 2.18-33, 50-64, 3. 3-7, 41-50, वीरवर्द्धमान चरित्र 1.4, 7.22, 8.59-61, 79, 9.89, 10.16-17, 12. 41-47, 59-72, 87-88, 99-103, 137-138, 13. 4-28, 81, 911-01, 131-132, 15. 78-79, 99, 19.206-215, 220-221, 232-233