व्यभिचार: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
ParidhiSethi (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 11: | Line 11: | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> निश्चित व शंकित विपक्ष वृत्ति के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> निश्चित व शंकित विपक्ष वृत्ति के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
पं.मु./6/31-34 <span class="SanskritText">निश्चितविपक्षवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् ।31। आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ।32। शंकितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ।33। सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ।34। </span>= <span class="HindiText">जो हेतु विपक्ष में निश्चित रूप से रहे, उसे निश्चित विपक्षवृत्ति अनैकांतिक कहते हैं । जैसे–शब्द अनित्य है, क्योंकि प्रमेय है जैसे | पं.मु./6/31-34 <span class="SanskritText">निश्चितविपक्षवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् ।31। आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ।32। शंकितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ।33। सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ।34। </span>= <span class="HindiText">जो हेतु विपक्ष में निश्चित रूप से रहे, उसे निश्चित विपक्षवृत्ति अनैकांतिक कहते हैं । जैसे–शब्द अनित्य है, क्योंकि प्रमेय है जैसे घड़ा ।31-32 । जो हेतु विपक्ष में संशयरूप से रहे, उसे शंकितवृत्ति अनैकांतिक कहते हैं । जैसे–सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वक्ता है । </span><br /> | ||
न्या.दी/6/#62/101 <span class="SanskritText">तत्राद्यो यथा धूमवानयं प्रदेशोऽग्निमत्त्वादिति । अत्र अग्निमत्त्वं पक्षीकृते संदिह्यमानधूमे पुरोवर्त्तिनि प्रदेशे वर्तते, सपक्षे धूमवति महानसे च वर्तते, विपक्षे धूमरहितत्वेन निश्चितेऽंगारावस्थापन्नाग्निमतिप्रदेशे वर्त्तते इति निश्चयान्निश्चितविपक्षवृत्तिकः । द्वितीयो यथा, गर्भस्थो मैत्रीतनयः श्यामो भवितुमर्हति मैत्रीतनयत्वादितरतत्तनयवदिति । अत्र मैत्रीतनयत्वं हेतु पक्षीकृते गर्भस्थे वर्त्तते, सपक्षे इतरतत्पुत्रे वर्त्तते, विपक्षे अश्यामे वर्तेतापीति शंकाया अनिवृत्तेःशंकितविपक्षवृत्तिकः । अपरमपि शंकितविपक्षवृत्तिकस्योदाहरणम्, अर्हत्सर्वज्ञो न भवितुमर्हति वक्तृत्वात् रथ्यापुरुष-वदिति । वक्तृत्वस्य हि हेतोः पक्षीकृते अर्हति, सपक्षे रथ्यापुरुषे यथावृत्तिरस्ति तथा विपक्षे सर्वज्ञेऽपि वृत्तिः संभाव्येत, वक्तृत्वज्ञातृत्वयोरविरोधात् । यद्धि येन सह विरोधि तत्खलु तद्वति न वर्त्तते । न च वचनज्ञानयोर्लोके विरोधोऽस्ति, प्रत्युत ज्ञानवत एव वचनसौष्ठवं स्पष्टं दृष्टम् । ततो ज्ञानोत्कर्षवति सर्वज्ञे वचनोत्कर्षे कानुपपत्तिरिति । </span>= | न्या.दी/6/#62/101 <span class="SanskritText">तत्राद्यो यथा धूमवानयं प्रदेशोऽग्निमत्त्वादिति । अत्र अग्निमत्त्वं पक्षीकृते संदिह्यमानधूमे पुरोवर्त्तिनि प्रदेशे वर्तते, सपक्षे धूमवति महानसे च वर्तते, विपक्षे धूमरहितत्वेन निश्चितेऽंगारावस्थापन्नाग्निमतिप्रदेशे वर्त्तते इति निश्चयान्निश्चितविपक्षवृत्तिकः । द्वितीयो यथा, गर्भस्थो मैत्रीतनयः श्यामो भवितुमर्हति मैत्रीतनयत्वादितरतत्तनयवदिति । अत्र मैत्रीतनयत्वं हेतु पक्षीकृते गर्भस्थे वर्त्तते, सपक्षे इतरतत्पुत्रे वर्त्तते, विपक्षे अश्यामे वर्तेतापीति शंकाया अनिवृत्तेःशंकितविपक्षवृत्तिकः । अपरमपि शंकितविपक्षवृत्तिकस्योदाहरणम्, अर्हत्सर्वज्ञो न भवितुमर्हति वक्तृत्वात् रथ्यापुरुष-वदिति । वक्तृत्वस्य हि हेतोः पक्षीकृते अर्हति, सपक्षे रथ्यापुरुषे यथावृत्तिरस्ति तथा विपक्षे सर्वज्ञेऽपि वृत्तिः संभाव्येत, वक्तृत्वज्ञातृत्वयोरविरोधात् । यद्धि येन सह विरोधि तत्खलु तद्वति न वर्त्तते । न च वचनज्ञानयोर्लोके विरोधोऽस्ति, प्रत्युत ज्ञानवत एव वचनसौष्ठवं स्पष्टं दृष्टम् । ततो ज्ञानोत्कर्षवति सर्वज्ञे वचनोत्कर्षे कानुपपत्तिरिति । </span>= | ||
<ol> | <ol> | ||
Line 32: | Line 32: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: व]] | [[Category: व]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Revision as of 15:49, 18 September 2022
- व्यभिचार
राजवार्तिक/1/12/1/53/5 अतस्मिंस्तदिति ज्ञानं व्यभिचारः । = अतत् को तत् रूप से ग्रहण करना व्यभिचार है ।
- व्यभिचारी हेत्वाभास सामान्य का लक्षण
पं.मु./6/30 विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकांतिकः ।30। = जो हेतु पक्ष, विपक्ष व सपक्ष तीनों में रहे उसे अनैकांतिक कहते हैं ।
न्यायदीपिका/3/40/86/11 सव्यभिचारोऽनैकांतिकः ( न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/2/5) यथा–‘अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्’ इति । प्रमेयत्वं हि हेतुः साध्यभूतमनित्यत्वं व्यभिचरति, गगनादौ विपक्षे नित्यत्वेनापि सह वृत्तेः । ततो विपक्षाद्व्यावृत्त्य-भावादनैकांतिकः । पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिरनैकांतिकः । = जो हेतु व्यभिचारी हो सो अनैकांतिक है । जैसे–‘शब्द अनित्य है, क्योंकि वह प्रमेय है’, यहाँ ‘प्रमेयत्व’ हेतु अपने साध्य अनित्यत्व का व्यभिचारी है । कारण, आकाशादि विपक्ष में नित्यत्व के साथ भी वह रहता है । अतः विपक्ष से व्यावृत्ति न होने से अनैकांतिक हेत्वाभास है ।40। जो पक्ष, सपक्ष और विपक्ष में रहता है वह अनैकांतिक हेत्वाभास है ।62।
- व्यभिचारी हेत्वाभास के भेद
न्यायदीपिका/3/63/101 स द्विविधःनिश्चितविपक्षवृत्तिकः शंकितविपक्षवृत्तिकश्च । = वह दो प्रकार का है–निश्चित विपक्षवृत्ति और शंकित विपक्षवृत्ति ।
- निश्चित व शंकित विपक्ष वृत्ति के लक्षण
पं.मु./6/31-34 निश्चितविपक्षवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् ।31। आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ।32। शंकितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ।33। सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ।34। = जो हेतु विपक्ष में निश्चित रूप से रहे, उसे निश्चित विपक्षवृत्ति अनैकांतिक कहते हैं । जैसे–शब्द अनित्य है, क्योंकि प्रमेय है जैसे घड़ा ।31-32 । जो हेतु विपक्ष में संशयरूप से रहे, उसे शंकितवृत्ति अनैकांतिक कहते हैं । जैसे–सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वक्ता है ।
न्या.दी/6/#62/101 तत्राद्यो यथा धूमवानयं प्रदेशोऽग्निमत्त्वादिति । अत्र अग्निमत्त्वं पक्षीकृते संदिह्यमानधूमे पुरोवर्त्तिनि प्रदेशे वर्तते, सपक्षे धूमवति महानसे च वर्तते, विपक्षे धूमरहितत्वेन निश्चितेऽंगारावस्थापन्नाग्निमतिप्रदेशे वर्त्तते इति निश्चयान्निश्चितविपक्षवृत्तिकः । द्वितीयो यथा, गर्भस्थो मैत्रीतनयः श्यामो भवितुमर्हति मैत्रीतनयत्वादितरतत्तनयवदिति । अत्र मैत्रीतनयत्वं हेतु पक्षीकृते गर्भस्थे वर्त्तते, सपक्षे इतरतत्पुत्रे वर्त्तते, विपक्षे अश्यामे वर्तेतापीति शंकाया अनिवृत्तेःशंकितविपक्षवृत्तिकः । अपरमपि शंकितविपक्षवृत्तिकस्योदाहरणम्, अर्हत्सर्वज्ञो न भवितुमर्हति वक्तृत्वात् रथ्यापुरुष-वदिति । वक्तृत्वस्य हि हेतोः पक्षीकृते अर्हति, सपक्षे रथ्यापुरुषे यथावृत्तिरस्ति तथा विपक्षे सर्वज्ञेऽपि वृत्तिः संभाव्येत, वक्तृत्वज्ञातृत्वयोरविरोधात् । यद्धि येन सह विरोधि तत्खलु तद्वति न वर्त्तते । न च वचनज्ञानयोर्लोके विरोधोऽस्ति, प्रत्युत ज्ञानवत एव वचनसौष्ठवं स्पष्टं दृष्टम् । ततो ज्ञानोत्कर्षवति सर्वज्ञे वचनोत्कर्षे कानुपपत्तिरिति । =- उनमें पहले का (निश्चितविपक्षवृत्ति का) उदाहरण यह है–‘यह प्रदेश धूमवाला है, क्योंकि वह अग्नि वाला है ।’ यहाँ ‘अग्नि’ हेतु पक्षभूत संदिग्ध धूम वाले सामने के प्रदेश में रहता है और सपक्ष रसोईघर में रहता है तथा विपक्ष घूमरहित रूप से निश्चित रूप से निश्चित अंगारस्वरूप अग्नि वाले प्रदेश में भी रहता है, ऐसा निश्चय है, अतः वह निश्चित विपक्ष वृत्ति अनैकांतिक है ।
- दूसरे का (शंकित विपक्ष वृत्ति का) उदाहरण यह है–‘गर्भस्थ मैत्री का पुत्र श्याम होना चाहिए, क्योंकि मैत्री का पुत्र है, दूसरे मैत्री के पुत्रों की तरह’ । यहाँ ‘मैत्री का पुत्रपना’ हेतु गर्भस्थ मैत्री के पुत्र में रहता है, सपक्ष दूसरे मैत्री पुत्रों में रहता है और विपक्ष अश्याम-गोरे पुत्र में भी रहे, इस शंका की निवृत्ति न होने से अर्थात् विपक्ष में भी उसके रहने की शंका बनी रहने से वह शंकित विपक्षवृत्ति है ।
- शंकित विपक्षवृत्ति का दूसरा भी उदाहरण है–‘अर्हंत सर्वज्ञ नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे वक्ता हैं, जैसे राह चलता पुरुष’ । यहाँ ‘वक्तापन’ हेतु जिस प्रकार पक्षभूत अर्हंत में और सपक्षभूत रथ्यापुरुष में रहता है, उसी प्रकार सर्वज्ञ में भी उसके रहने की संभावना की जाये, क्योंकि वक्तापन और ज्ञातापन का कोई विरोध नहीं है । जिसका जिसके साथ विरोध होता है, वह उस वाले में नहीं रहता है और वचन तथा ज्ञान का लोक में विरोध नहीं है, बल्कि ज्ञानी के ही वचनों में चतुराई अथवा सुंदरता स्पष्ट देखने में आती है । अतः विशिष्ट ज्ञानवान सर्वज्ञ में विशिष्ट वक्तापन के होने में क्या आपत्ति है? इस तरह वक्तापन की विपक्षभूत सर्वज्ञ में भी संभावना होने से वह शंकित विपक्षवृत्ति नाम का हेत्वाभास है ।
- उपग्रह आदि व्यभिचार–देखें नय - III.6.8 ।