असत्य: Difference between revisions
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<p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक उ.91 तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः चत्वारः ॥91॥</p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक उ.91 तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः चत्वारः ॥91॥</p> | ||
<p class="HindiText">= उस अनृतके चार भेद हैं।</p> | <p class="HindiText">= उस अनृतके चार भेद हैं।</p> | ||
<p>1. सत्प्रतिषेध रूप असत्य</p> | <p>3.1. सत्प्रतिषेध रूप असत्य</p> | ||
<p class="SanskritText">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 824 पढमं असतवयणं संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो। णत्थि णरस्स अकाले मुच्चत्ति जधेवमादीयं ॥824॥</p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 824 पढमं असतवयणं संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो। णत्थि णरस्स अकाले मुच्चत्ति जधेवमादीयं ॥824॥</p> | ||
<p class="HindiText">= अस्तित्व रूप पदार्थ का निषेध करना, यह प्रथम असत्य वचन का भेद है - जैसे `मनुष्यों को अकाल में मृत्यु नहीं हैं' ऐसा कहना।</p> | <p class="HindiText">= अस्तित्व रूप पदार्थ का निषेध करना, यह प्रथम असत्य वचन का भेद है - जैसे `मनुष्यों को अकाल में मृत्यु नहीं हैं' ऐसा कहना।</p> | ||
<p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 92 स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिद्ध्यते वस्तु। तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥92॥</p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 92 स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिद्ध्यते वस्तु। तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥92॥</p> | ||
<p class="HindiText">= जिस वचन में अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, करके विद्यमान भी वस्तु निषेधित की जाती है, वह प्रथम असत्य होता है, जैसे यहाँ देवदत्त नहीं है।</p> | <p class="HindiText">= जिस वचन में अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, करके विद्यमान भी वस्तु निषेधित की जाती है, वह प्रथम असत्य होता है, जैसे यहाँ देवदत्त नहीं है।</p> | ||
<p>2. अभूतोद्भावन रूप असत्य</p> | <p>3.2. अभूतोद्भावन रूप असत्य</p> | ||
<p class="SanskritText">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 826 जं असभूदुब्भाव्रणभेदं विदियं असंतवयणं तु। अत्थि सुराणमकाले मुच्चति जहेवमादियं ॥826॥</p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 826 जं असभूदुब्भाव्रणभेदं विदियं असंतवयणं तु। अत्थि सुराणमकाले मुच्चति जहेवमादियं ॥826॥</p> | ||
<p class="HindiText">= जो नहीं है उसका है कहना यह असत्य वचन का दूसरा भेद है, जैसे देवों की अकाल मृत्यु नहीं है, फिर भी देवों की अकाल मृत्यु बताना इत्यादि।</p> | <p class="HindiText">= जो नहीं है उसका है कहना यह असत्य वचन का दूसरा भेद है, जैसे देवों की अकाल मृत्यु नहीं है, फिर भी देवों की अकाल मृत्यु बताना इत्यादि।</p> | ||
<p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 93 असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः।</p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 93 असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः।</p> | ||
<p class="HindiText">= जिस वचन विषै पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके अविद्यमान भी वस्तु का स्वरूप प्रगट किया जाता है, वह दूसरा असत्य होता है। जैसे - यहाँ पर घड़ा है।</p> | <p class="HindiText">= जिस वचन विषै पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके अविद्यमान भी वस्तु का स्वरूप प्रगट किया जाता है, वह दूसरा असत्य होता है। जैसे - यहाँ पर घड़ा है।</p> | ||
<p>3. अनालोच्य रूप असत्य </p> | <p>3.3. अनालोच्य रूप असत्य </p> | ||
<p class="SanskritText">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 828 तदियं असंतवयणं संतं जं कुणदि अण्णजादीगं। अविचारित्ता गोणं अस्सोत्ति जहेवमादीयं।</p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 828 तदियं असंतवयणं संतं जं कुणदि अण्णजादीगं। अविचारित्ता गोणं अस्सोत्ति जहेवमादीयं।</p> | ||
<p class="HindiText">= एक जाति के सत्पदार्थ को अन्य जाति का सत्पदार्थ कहना यह असत्य का तीसरा भेद है। जैसे-बैल है उसका विचार न कर यहाँ घोड़ा है ऐसा कहना। यह कहना विपरीत सत् पदार्थ का प्रतिपादन कहने से असत्य है।</p> | <p class="HindiText">= एक जाति के सत्पदार्थ को अन्य जाति का सत्पदार्थ कहना यह असत्य का तीसरा भेद है। जैसे-बैल है उसका विचार न कर यहाँ घोड़ा है ऐसा कहना। यह कहना विपरीत सत् पदार्थ का प्रतिपादन कहने से असत्य है।</p> | ||
<p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 94 वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन्। अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथा श्वः॥</p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 94 वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन्। अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथा श्वः॥</p> | ||
<p class="HindiText">= स्व द्रव्यादि चतुष्टय से वस्त सत् होने पर भी पर-चतुष्टय रूप बताना तीसरा अनृत है। जैसे बैल को `घोड़ा है' ऐसा कहना।</p> | <p class="HindiText">= स्व द्रव्यादि चतुष्टय से वस्त सत् होने पर भी पर-चतुष्टय रूप बताना तीसरा अनृत है। जैसे बैल को `घोड़ा है' ऐसा कहना।</p> | ||
<p>4. असूनृत रूप असत्य </p> | <p>3.4. असूनृत रूप असत्य </p> | ||
<p class="SanskritText">भगवती आराधना/सू.829 जं वा गरहिदवयणं जं वा सावज्जसंजुदं वयणं। जं वा अप्पियवयणं असत्तवयणं चउत्थं च।</p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना/सू.829 जं वा गरहिदवयणं जं वा सावज्जसंजुदं वयणं। जं वा अप्पियवयणं असत्तवयणं चउत्थं च।</p> | ||
<p class="HindiText">= जो निंद्य वचन बोलना, जो अप्रिय वचन बोलना, और जो पाप युक्त वचन बोलना वह सब चौथे प्रकार का असत्य वचन है।</p> | <p class="HindiText">= जो निंद्य वचन बोलना, जो अप्रिय वचन बोलना, और जो पाप युक्त वचन बोलना वह सब चौथे प्रकार का असत्य वचन है।</p> |
Revision as of 16:40, 27 September 2022
1. प्राणिपीडाकारी वचन
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 832-833 परुसं कडुयं वयणं वेरं कलहं च भय कुणइ। उत्तासणं च हीलणमप्पिवयणं समासेण ॥832॥ हासभयलोहकोहप्पदोसादिहिं तु मे पयत्तेण। एवं असंतवयणं परिहरिदव्वं विसेसेण ॥833॥
= मर्मच्छेदी पुरुष वचन, उद्वेगकारी कटु वचन, वैरोत्पादक, कलहकारी, भयोत्पादक, तथा अवज्ञाकारी वचन इस प्रकार के अप्रिय वचन हैं। तथा हास्य भीति लोभ क्रोध द्वेष इत्यादि कारणों से बोले जाने वाले वचन, सब असत्य भाषण है। हे क्षपक! उसका तू प्रयत्न से विशेष त्याग कर।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/14/352/6 न सदप्रशस्तमिति यावत्। ऋतं सत्यं, न ऋतमनृतम्। किं पुनरप्रशस्तम्। प्राणिपीडाकरं यत्तदप्रशस्तं विद्यमानार्थविषयं वा अविद्यमानार्थ विषयं वा। उक्तं च प्रागेवाहिंसाव्रतपरिपालनार्थमितरद्व्रतम् इति। तस्माद्धिंसाकरं वचोऽनृतमिति निश्चेयम्।
= सत् शब्द प्रशंसावाची है। जो सत् नहीं वह असत् है। असत् का अर्थ अप्रशस्त है। ऋत का अर्थ सत्य और जो ऋत नहीं है वह अनृत है। प्रश्न - अप्रशस्त किसे कहते हैं? उत्तर - जिससे प्राणियों को पीडा होती है उसे अप्रशस्त कहते हैं। भले ही वह चाहे विद्यमान पदार्थ को विषय करता हो या चाहे अविद्यमान पदार्थ को विषय करता हो। यह पहिले ही कहा है कि शेष व्रत अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए हैं। इसलिए जिससे हिंसा हो वह वचन अनृत है ऐसा निश्चय करना चाहिए।
(राजवार्तिक अध्याय 7/14/3-4/542/1) ( चारित्रसार पृष्ठ 92/2)
राजवार्तिक अध्याय 7/14/5/542/11 असदिति पुनरुच्यमाने अप्रशस्तार्थं यत् तत्सर्व मनृतमुक्तं भवति। तेन विपरीतार्थस्यप्राणिपीड़ा करस्य चानृतत्वमुपपन्न भवति
= `असत्' कहने से जितने अप्रशस्त अर्थवाची शब्द हैं, वे सब अनृत कहे जायेंगे। इससे जो विपरीतार्थ वचन प्राणीपीडाकारी हैं वे भी अनृत हैं।
(पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 95)
श्लोकवार्तिक पुस्तक 7/14 स्वपरसंतापकरणं यद्वचोऽङ्गिनां । यथा दृशार्थमप्यत्र तदसत्यं विभाव्यते।
= जो वचन अपने को तथा दूसरे को कष्ट पहुँचाने वाला हो वह वचन `जैसा देखा तैसा बताने वाला' होनेपर भी असत्य है।
धवला पुस्तक 12/4,2,8,3/279/4 किमसंतवयणं। मिच्छत्तासंजमकसाय-पमादुट्ठावियो वयणकलापो।
= प्रश्न - असत् वचन किसे कहते हैं? उत्तर - मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और प्रमाद से उत्पन्न वचन समूह को असत् वचन कहते हैं।
2. असत्य का अर्थ अलीक वचन
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/14 असदभिधानमनृतम्। -
= असत् वचन को अनृत कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/14/352/2 असतोऽर्थस्याभिधानमसदभिधानमनृतम्।
= जो पदार्थ नहीं है उसका कथन करना अनृत असत्य कहलाता है।
राजवार्तिक अध्याय 7/14/5/542/9 भूतनिह्नवेऽभूतोद्भावने च यदभिधानं तदेवानृतं स्यात्, भूतनिह्नवे नास्त्यात्मा नास्ति परलोक इति। अभूतोद्भावने च श्यामाकतन्दुलमात्रमात्मा अङ्गुष्ठपर्वमात्रः सर्वगतो निष्क्रिय इति च।
= विद्यमान का लोप तथा अविद्यमान के उद्भावन करनेवाले `आत्मा नही हैं', `परलोक नहीं है', `श्यामतंदुल के बराबर आत्मा है' `अंगूठे के पोर बराबर आत्मा है', `आत्मा सर्वगत है', `आत्मा निष्क्रिय है' इत्यादि वचन मिथ्या होने से असत्य हैं।
( चारित्रसार पृष्ठ 92/1)
सागार धर्मामृत अधिकार 4/39 कन्यागोक्ष्मालीककूटसाक्ष्यन्यासादपलापवत्।
= कन्या अलीक, गौ अलीक, कूटसाक्षी, न्यासापलाप करना असत्य है।
3. असत्यके भेद
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 823 परिहर असतवयणं सव्वं पि चेदुव्विधं पयत्तेण।
= असत्य वचन के चार भेद हैं, जिनका त्याग हे क्षपक! तू प्रयत्न पूर्वक कर।
धवला पुस्तक 1/1,1,2/117/6 द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रयमनेकप्रकारमनृतम्।
= द्रव्य क्षेत्र काल तथा भाव की अपेक्षा असत्य अनेक प्रकार का है।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक उ.91 तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः चत्वारः ॥91॥
= उस अनृतके चार भेद हैं।
3.1. सत्प्रतिषेध रूप असत्य
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 824 पढमं असतवयणं संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो। णत्थि णरस्स अकाले मुच्चत्ति जधेवमादीयं ॥824॥
= अस्तित्व रूप पदार्थ का निषेध करना, यह प्रथम असत्य वचन का भेद है - जैसे `मनुष्यों को अकाल में मृत्यु नहीं हैं' ऐसा कहना।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 92 स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिद्ध्यते वस्तु। तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥92॥
= जिस वचन में अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, करके विद्यमान भी वस्तु निषेधित की जाती है, वह प्रथम असत्य होता है, जैसे यहाँ देवदत्त नहीं है।
3.2. अभूतोद्भावन रूप असत्य
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 826 जं असभूदुब्भाव्रणभेदं विदियं असंतवयणं तु। अत्थि सुराणमकाले मुच्चति जहेवमादियं ॥826॥
= जो नहीं है उसका है कहना यह असत्य वचन का दूसरा भेद है, जैसे देवों की अकाल मृत्यु नहीं है, फिर भी देवों की अकाल मृत्यु बताना इत्यादि।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 93 असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः।
= जिस वचन विषै पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके अविद्यमान भी वस्तु का स्वरूप प्रगट किया जाता है, वह दूसरा असत्य होता है। जैसे - यहाँ पर घड़ा है।
3.3. अनालोच्य रूप असत्य
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 828 तदियं असंतवयणं संतं जं कुणदि अण्णजादीगं। अविचारित्ता गोणं अस्सोत्ति जहेवमादीयं।
= एक जाति के सत्पदार्थ को अन्य जाति का सत्पदार्थ कहना यह असत्य का तीसरा भेद है। जैसे-बैल है उसका विचार न कर यहाँ घोड़ा है ऐसा कहना। यह कहना विपरीत सत् पदार्थ का प्रतिपादन कहने से असत्य है।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 94 वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन्। अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथा श्वः॥
= स्व द्रव्यादि चतुष्टय से वस्त सत् होने पर भी पर-चतुष्टय रूप बताना तीसरा अनृत है। जैसे बैल को `घोड़ा है' ऐसा कहना।
3.4. असूनृत रूप असत्य
भगवती आराधना/सू.829 जं वा गरहिदवयणं जं वा सावज्जसंजुदं वयणं। जं वा अप्पियवयणं असत्तवयणं चउत्थं च।
= जो निंद्य वचन बोलना, जो अप्रिय वचन बोलना, और जो पाप युक्त वचन बोलना वह सब चौथे प्रकार का असत्य वचन है।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 95 गर्हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत्। सामान्येन त्रेधा मतसिदमनृतं तुरोयं तु।
= यह चौथा झूठ का भेद तीन प्रकारका है-गर्हित अर्थात् निंद्य, सावद्य अर्थात् हिंसा युक्त और अप्रिय।
• गर्हित व अप्रिय आदि वचन - देखें वचन
• असत्य का हिंसा में अंतर्भाव - दे अहिंसा