साधु: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="2"><strong>व्यवहार साधु निर्देश</strong></p> | <p class="HindiText" id="2"><strong>व्यवहार साधु निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.1"><strong>1. व्यवहारावलंबी साधु का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.1"><strong>1. व्यवहारावलंबी साधु का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/51/2 </span>पंचमहाव्रतधरास्त्रिगुप्तिगुप्ता: अष्टादशशीलसहस्रधराश्चतुरशीतिशतसहस्रगुणधराश्च साधव:।</span> =<span class="HindiText">जो पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/51/2 </span>पंचमहाव्रतधरास्त्रिगुप्तिगुप्ता: अष्टादशशीलसहस्रधराश्चतुरशीतिशतसहस्रगुणधराश्च साधव:।</span> =<span class="HindiText">जो पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, 18,000 शील के भेदों को धारण करते हैं और 84,00,000 उत्तरगुणों का पालन करते हैं वे साधु परमेष्ठी होते हैं। देखें [[ संयम#1.2 | संयम - 1.2]]।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/330-331 </span>दंसणसुद्धिविसुद्धो मूलाइगुणेहि संजुओ तहय।...330। असुहेण रायरहिओ वयाइरायेण जो हु संजुत्ता। सो इह भणिय सरागो...।331।</span> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/330-331 </span>दंसणसुद्धिविसुद्धो मूलाइगुणेहि संजुओ तहय।...330। असुहेण रायरहिओ वयाइरायेण जो हु संजुत्ता। सो इह भणिय सरागो...।331।</span> | ||
<span class="HindiText">दर्शनविशुद्धि से जो विशुद्ध है तथा मूलादि गुणों से संयुक्त है।330। अशुभ राग से रहित है, व्रत आदि के राग से संयुक्त है वह सराग श्रमण है।331।</span></p> | <span class="HindiText">दर्शनविशुद्धि से जो विशुद्ध है तथा मूलादि गुणों से संयुक्त है।330। अशुभ राग से रहित है, व्रत आदि के राग से संयुक्त है वह सराग श्रमण है।331।</span></p> | ||
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<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> प्रवचनसार/208-209 </span>वदसमिदिंदियरोधो लोंचावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतधोवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च।208। एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।...।209।</span> =<span class="HindiText">पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इंद्रियों का रोध, केशलोंच, षड्आवश्यक , अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधोवन, खड़े-खेड़े भोजन, एक बार आहार, ये वास्तव में श्रमणों के 28 मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं।208-209। (मू.आ./2-3); (<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/335 </span>); (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/745-746 </span>)।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> प्रवचनसार/208-209 </span>वदसमिदिंदियरोधो लोंचावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतधोवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च।208। एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।...।209।</span> =<span class="HindiText">पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इंद्रियों का रोध, केशलोंच, षड्आवश्यक , अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधोवन, खड़े-खेड़े भोजन, एक बार आहार, ये वास्तव में श्रमणों के 28 मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं।208-209। (मू.आ./2-3); (<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/335 </span>); (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/745-746 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> ब्रह्मचर्य/1/6 [(तीन प्रकार की अचेतन स्त्रियाँxमन वचन व कायxकृत कारित अनुमोदनाxपाँच इंद्रियाँxचार कषाय=720); + (तीन प्रकार की चेतन स्त्रियाँxमन वचन कायxकृत कारित अनुमोदनाxपाँच इंद्रियाँxचार संज्ञाxसोलह कषाय=17280);=18000] इस प्रकार ये ब्रह्मचर्य की विराधना के 18000 अंग हैं। इनके त्याग से साधु को 18000 शील गुण कहे जाते हैं। अथवा [मन वचन काय की शुभ क्रिया रूप तीन योगxइन्हीं की शुभ प्रवृत्तिरूप तीन करणxचार संज्ञाxपाँच इंद्रियxपृथिवी आदि दस प्रकार के जीवxदस धर्म-इस प्रकार साधु के 18000 शील कहे जाते हैं।]।</p> | <p class="HindiText"> ब्रह्मचर्य/1/6 [(तीन प्रकार की अचेतन स्त्रियाँxमन वचन व कायxकृत कारित अनुमोदनाxपाँच इंद्रियाँxचार कषाय=720); + (तीन प्रकार की चेतन स्त्रियाँxमन वचन कायxकृत कारित अनुमोदनाxपाँच इंद्रियाँxचार संज्ञाxसोलह कषाय=17280);=18000] इस प्रकार ये ब्रह्मचर्य की विराधना के 18000 अंग हैं। इनके त्याग से साधु को 18000 शील गुण कहे जाते हैं। अथवा [मन वचन काय की शुभ क्रिया रूप तीन योगxइन्हीं की शुभ प्रवृत्तिरूप तीन करणxचार संज्ञाxपाँच इंद्रियxपृथिवी आदि दस प्रकार के जीवxदस धर्म-इस प्रकार साधु के 18000 शील कहे जाते हैं।]।</p> | ||
<p class="HindiText"> <span class="GRef"> | <p class="HindiText"> <span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ </span>टी./9/8/18 का भावार्थ-[(पाँच पाप, चार कषाय, जुगुप्सा, भय, रति, अरति ये 13 दोष हैं+मन वचन काय की दुष्टता ये 3+मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनत्व, अज्ञान, पाँच इंद्रियों का निग्रह ये पाँच-इन 21 दोषों का त्याग 21 गुण हैं।) ये उपरोक्त 21 गुणx अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार ये चारxपृथिवी आदि 100 जीवसमासx10 शील विराधना (देखें [[ ब्रह्मचर्य#2.4 | ब्रह्मचर्य - 2.4]])x10 आलोचना के दोष (देखें [[ आलोचना ]])x10 धर्म=84000,00 उत्तरगुण होते हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="2.3"><strong>3. व्यवहार साधु के 10 स्थितिकल्प</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.3"><strong>3. व्यवहार साधु के 10 स्थितिकल्प</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> भगवती आराधना/421 </span>आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे। जेट्ठपडिक्कमणे वि य मासं पज्जो सवणकप्पो।421।</span> =<span class="HindiText">1. अचेलकत्व, 2. उद्दिष्ट भोजन का त्याग, 3. शय्याग्रह अर्थात् वसतिका बनवाने या सुधरवाने वाले के आहार का त्याग, 4. राजपिंड अर्थात् अमीरों के भोजन का त्याग, 5. कृतिकर्म अर्थात् साधुओं की विनय शुश्रूषा आदि करना, 6. व्रत अर्थात् जिसे व्रत का स्वरूप मालूम है उसे ही व्रत देना; 7.ज्येष्ठ अर्थात् अपने से अधिक का योग्य विनय करना, 8. प्रतिक्रमण अर्थात् नित्य लगे दोषों का शोधन, 9. मासैकवासता अर्थात् छहों ऋतुओं में से एक मास पर्यंत एकत्र मुनियों का निवास और 10. पद्य अर्थात् वर्षाकाल में चार मास पर्यंत एक स्थान पर निवास-ये साधु के 10 स्थितिकल्प कहे जाते हैं। (मू.आ./909)।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> भगवती आराधना/421 </span>आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे। जेट्ठपडिक्कमणे वि य मासं पज्जो सवणकप्पो।421।</span> =<span class="HindiText">1. अचेलकत्व, 2. उद्दिष्ट भोजन का त्याग, 3. शय्याग्रह अर्थात् वसतिका बनवाने या सुधरवाने वाले के आहार का त्याग, 4. राजपिंड अर्थात् अमीरों के भोजन का त्याग, 5. कृतिकर्म अर्थात् साधुओं की विनय शुश्रूषा आदि करना, 6. व्रत अर्थात् जिसे व्रत का स्वरूप मालूम है उसे ही व्रत देना; 7.ज्येष्ठ अर्थात् अपने से अधिक का योग्य विनय करना, 8. प्रतिक्रमण अर्थात् नित्य लगे दोषों का शोधन, 9. मासैकवासता अर्थात् छहों ऋतुओं में से एक मास पर्यंत एकत्र मुनियों का निवास और 10. पद्य अर्थात् वर्षाकाल में चार मास पर्यंत एक स्थान पर निवास-ये साधु के 10 स्थितिकल्प कहे जाते हैं। (मू.आ./909)।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.4"><strong>4. अन्य कर्तव्य</strong></p> | <p class="HindiText" id="2.4"><strong>4. अन्य कर्तव्य</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/78/229/11 </span>त्रयोदशक्रिया भावय त्वं त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धया पंचनमस्कारा:, षडावश्यकानि, चैत्यालयमध्ये प्रविशता निसिही निसिही निसिही इति वारत्रयं हृद्युच्चार्यते, जिनप्रतिमावंदनाभक्तिं कृत्वा बहिर्निर्गच्छता भव्यजीवेन असिही असिही असिही इति वारत्रयं हृद्युच्चार्यत इति त्रयोदशक्रिया हे भव्य ! त्वं भावय।...अथवा पंचमहाव्रतानि पंचसमितयस्तिस्रो गुप्तश्चेति त्रयोदशक्रियास्त्रयोदशविधं चारित्रं हे भव्यवरपुंडरीकमुने ! त्वं भावय।</span> = | ||
<span class="HindiText">हे भव्य, तू मन वचन व काय की शुद्धिपूर्वक 13 क्रियाओं की भावना कर। वे 13 क्रियाएँ ये हैं-1. पंच नमस्कार, षड्आवश्यक, चैत्यालय में प्रवेश करते समय तीन बार 'निसही' शब्द का उच्चारण और चैत्यालय से बाहर निकलते समय तीन बार 'असही' शब्द का उच्चारण। (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/8/130/841 </span>) 2. अथवा पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये तेरह प्रकार का चारित्र ही तेरह क्रियाएँ हैं। (देखें [[ चारित्र#1.4 | चारित्र - 1.4]])।</span></p> | <span class="HindiText">हे भव्य, तू मन वचन व काय की शुद्धिपूर्वक 13 क्रियाओं की भावना कर। वे 13 क्रियाएँ ये हैं-1. पंच नमस्कार, षड्आवश्यक, चैत्यालय में प्रवेश करते समय तीन बार 'निसही' शब्द का उच्चारण और चैत्यालय से बाहर निकलते समय तीन बार 'असही' शब्द का उच्चारण। (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/8/130/841 </span>) 2. अथवा पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये तेरह प्रकार का चारित्र ही तेरह क्रियाएँ हैं। (देखें [[ चारित्र#1.4 | चारित्र - 1.4]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ संयत#3 | संयत - 3]]/2 [अर्हदादि की भक्ति, ज्ञानियों में वात्सल्य, श्रमणों के प्रति वंदन, अभ्युत्थान, अनुगमन, व वैयावृत्त्य करना, आहार व नीहार, तत्त्व विचार, धर्मोपदेश, पर्व के दिनों में उपवास, चातुर्मास योग शिरोनति व आवर्त आदि कृतिकर्म सहित प्रतिदिन देव वंदना, आचार्यवंदना, स्वाध्याय, रात्रियोग धारण, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि, ये सब क्रियाएँ शुभोपयोगी साधु को प्रमत्त अवस्था में होती हैं।]।</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ संयत#3 | संयत - 3]]/2 [अर्हदादि की भक्ति, ज्ञानियों में वात्सल्य, श्रमणों के प्रति वंदन, अभ्युत्थान, अनुगमन, व वैयावृत्त्य करना, आहार व नीहार, तत्त्व विचार, धर्मोपदेश, पर्व के दिनों में उपवास, चातुर्मास योग शिरोनति व आवर्त आदि कृतिकर्म सहित प्रतिदिन देव वंदना, आचार्यवंदना, स्वाध्याय, रात्रियोग धारण, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि, ये सब क्रियाएँ शुभोपयोगी साधु को प्रमत्त अवस्था में होती हैं।]।</p> | ||
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<p><span class="PrakritText">मू.आ./गा. पिंडोवधिसेज्जाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो। मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो।916। किं तस्स ठाणमोणं किं काहदि अब्भवगासमादावो। मेत्तिविहूणो समणो सिज्झदि ण हु सिद्धिकंखोवि।924। चंडो चवलो मंदो तह साहू पुट्ठिमंसपडिसेवी। गारवकसायबहुलो दुरासओ होदि सो समणो।955। दंभं परपरिवादं पिसुणत्तण पावसुत्त पडिसेवं। चिरपव्वइदंपि मुणी आरंभजुदं ण सेविज्ज।957।</span> =<span class="HindiText">जो मुनि आहार, उपकरण, आवास इनको न सोधकर सेवन करता है वह मुनि गृहस्थपने को प्राप्त होता है। और लोक में मुनिपने से हीन कहलाता है।916। उस मुनि के कायोत्सर्ग मौन और अभ्रावकाश योग, आतापन योग क्या कर सकता है। जो साधु मैत्री भाव रहित है वह मोक्ष का चाहने वाला होने पर भी मोक्ष को नहीं पा सकता।924। जो अत्यंत क्रोधी हो, चंचलस्वभाव वाला हो, चारित्र में आलसी, पीछे दोष कहने वाला पिशुन हो, गुरुता कषाय बहुत रखता हो ऐसा साधु सेवने योग्य नहीं।955। जो ठगने वाला हो, दूसरों को पीड़ा देने वाला हो, झूठे दोषों को ग्रहण करने वाला हो, मारण आदि मंत्रशास्त्र अथवा हिंसापोषक शास्त्रों का सेवने वाला हो, आरंभ सहित हो, ऐसे बहुत काल से भी दीक्षित मुनि को सदाचरणी नहीं सेवे।957।</span></p> | <p><span class="PrakritText">मू.आ./गा. पिंडोवधिसेज्जाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो। मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो।916। किं तस्स ठाणमोणं किं काहदि अब्भवगासमादावो। मेत्तिविहूणो समणो सिज्झदि ण हु सिद्धिकंखोवि।924। चंडो चवलो मंदो तह साहू पुट्ठिमंसपडिसेवी। गारवकसायबहुलो दुरासओ होदि सो समणो।955। दंभं परपरिवादं पिसुणत्तण पावसुत्त पडिसेवं। चिरपव्वइदंपि मुणी आरंभजुदं ण सेविज्ज।957।</span> =<span class="HindiText">जो मुनि आहार, उपकरण, आवास इनको न सोधकर सेवन करता है वह मुनि गृहस्थपने को प्राप्त होता है। और लोक में मुनिपने से हीन कहलाता है।916। उस मुनि के कायोत्सर्ग मौन और अभ्रावकाश योग, आतापन योग क्या कर सकता है। जो साधु मैत्री भाव रहित है वह मोक्ष का चाहने वाला होने पर भी मोक्ष को नहीं पा सकता।924। जो अत्यंत क्रोधी हो, चंचलस्वभाव वाला हो, चारित्र में आलसी, पीछे दोष कहने वाला पिशुन हो, गुरुता कषाय बहुत रखता हो ऐसा साधु सेवने योग्य नहीं।955। जो ठगने वाला हो, दूसरों को पीड़ा देने वाला हो, झूठे दोषों को ग्रहण करने वाला हो, मारण आदि मंत्रशास्त्र अथवा हिंसापोषक शास्त्रों का सेवने वाला हो, आरंभ सहित हो, ऐसे बहुत काल से भी दीक्षित मुनि को सदाचरणी नहीं सेवे।957।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> रयणसार/100 </span>विकहाइ विप्पमुक्को आहाकम्माइविरहिओ णाणी।100।</span> =<span class="HindiText">यतीश्वर विकथा करने से मुक्त तथा आधाकर्मादि सहित चर्या से रहित हैं। (विशेष देखें [[ कथा#7 | कथा - 7]]; तथा आहार/II/2)।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> रयणसार/100 </span>विकहाइ विप्पमुक्को आहाकम्माइविरहिओ णाणी।100।</span> =<span class="HindiText">यतीश्वर विकथा करने से मुक्त तथा आधाकर्मादि सहित चर्या से रहित हैं। (विशेष देखें [[ कथा#7 | कथा - 7]]; तथा आहार/II/2)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span>मू./69 अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण। पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण।69।</span> =<span class="HindiText">पैशुन्य, हास्य, मत्सर, माया आदि की बहुलतायुक्त श्रमणपने से अथवा उसके नग्नपने से क्या साध्य है। वह तो अपयश का भाजन है।69।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">लिं.पा./मू./3-20 णच्चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूपेण। सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो।4। कलहं वादं जूआ णिच्चं बहुमाणगव्विओ लिंगी। वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगरूवेण।6। कंदप्पाइय वट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं। मायी लिंग विवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो।12। उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण। इरियावह धारंतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।15। रागो करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं व दूसेइ। दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।17। पव्वज्जहीण गहियं णेहि सासम्मि वट्टदे बहुसो। आयार विणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।18। दंसणणाणचरित्ते महिलावग्गम्मि देहि वीसट्ठो। पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो।20।</span> =<span class="HindiText">जो साधु का लिंग ग्रहण करके नृत्य करता है, गाता है, बाजा बजाता है,।3। बहुमान से गर्वित होकर निरंतर कलह व वाद करता है (देखें [[ वाद#7 | वाद - 7]]); द्यूतक्रीड़ा करता है।6। कंदर्पादि भावनाओं में वर्तता है (देखें [[ भावना#1.3 | भावना - 1.3]]) तथा भोजन में रसगृद्धि करता है (देखें [[ आहार#II.2 | आहार - II.2]]); मायाचारी व व्यभिचार का सेवन करता है (देखें [[ ब्रह्मचर्य#3 | ब्रह्मचर्य - 3]])।12। ईर्यापथ सोधे बिना दौड़ते हुए अथवा उछलते हुए चलता है, गिर पड़ता है और फिर उठकर दौड़ता है।15। महिला वर्ग में नित्य राग करता है, और दूसरों में दोष निकलता है।17। गृहस्थों व शिष्यों पर स्नेह रखता है।18। स्त्रियों पर विश्वास करके उनको दर्शन ज्ञान चारित्र प्रदान करता है, वह तिर्यग्योनि है, नरक का पात्र है, भावों से विनष्ट हुआ वह पार्श्वस्थ है साधु नहीं।20।</span></p> | <p><span class="PrakritText">लिं.पा./मू./3-20 णच्चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूपेण। सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो।4। कलहं वादं जूआ णिच्चं बहुमाणगव्विओ लिंगी। वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगरूवेण।6। कंदप्पाइय वट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं। मायी लिंग विवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो।12। उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण। इरियावह धारंतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।15। रागो करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं व दूसेइ। दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।17। पव्वज्जहीण गहियं णेहि सासम्मि वट्टदे बहुसो। आयार विणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।18। दंसणणाणचरित्ते महिलावग्गम्मि देहि वीसट्ठो। पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो।20।</span> =<span class="HindiText">जो साधु का लिंग ग्रहण करके नृत्य करता है, गाता है, बाजा बजाता है,।3। बहुमान से गर्वित होकर निरंतर कलह व वाद करता है (देखें [[ वाद#7 | वाद - 7]]); द्यूतक्रीड़ा करता है।6। कंदर्पादि भावनाओं में वर्तता है (देखें [[ भावना#1.3 | भावना - 1.3]]) तथा भोजन में रसगृद्धि करता है (देखें [[ आहार#II.2 | आहार - II.2]]); मायाचारी व व्यभिचार का सेवन करता है (देखें [[ ब्रह्मचर्य#3 | ब्रह्मचर्य - 3]])।12। ईर्यापथ सोधे बिना दौड़ते हुए अथवा उछलते हुए चलता है, गिर पड़ता है और फिर उठकर दौड़ता है।15। महिला वर्ग में नित्य राग करता है, और दूसरों में दोष निकलता है।17। गृहस्थों व शिष्यों पर स्नेह रखता है।18। स्त्रियों पर विश्वास करके उनको दर्शन ज्ञान चारित्र प्रदान करता है, वह तिर्यग्योनि है, नरक का पात्र है, भावों से विनष्ट हुआ वह पार्श्वस्थ है साधु नहीं।20।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/657 </span>यद्वा मोहात् प्रमादाद्वा कुर्याद् यो लौकिकीं क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चांतर्व्रताच्चयुत:।</span> =<span class="HindiText">जो मोह से अथवा प्रमाद से जितने काल तक लौकिक क्रिया करता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अंतरंग में व्रतों से च्युत भी है।657।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/657 </span>यद्वा मोहात् प्रमादाद्वा कुर्याद् यो लौकिकीं क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चांतर्व्रताच्चयुत:।</span> =<span class="HindiText">जो मोह से अथवा प्रमाद से जितने काल तक लौकिक क्रिया करता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अंतरंग में व्रतों से च्युत भी है।657।</span></p> | ||
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<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> प्रवचनसार/ </span>गा. सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि णेव सामण्णे। सद्दहदि ण सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदि।91। ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि। जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खदे।264। जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छिदा समये। अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं।271।</span> =<span class="HindiText">जो श्रमणावस्था में इन सत्ता संयुक्त सविशेष (नव) पदार्थों की श्रद्धा नहीं करता वह श्रमण नहीं है उससे धर्म का उद्भव नहीं होता।91। सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी यदि जिनोक्त आत्मप्रधान पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता तो वह श्रमण नहीं है ऐसा कहा है।264। भले ही द्रव्यलिंगी के रूप में जिनमत के अनुसार हों तथापि वे 'यह तत्त्व है (वस्तुस्वरूप ऐसा ही है)' इस प्रकार निश्चयपना वर्त्तते हुए पदार्थों को अयथार्थतया ग्रहण करते हैं (जैसे नहीं हैं वैसे समझते हैं) वे अत्यंतफलसमृद्ध आगामी काल में परिभ्रमण करेंगे।271।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> प्रवचनसार/ </span>गा. सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि णेव सामण्णे। सद्दहदि ण सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदि।91। ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि। जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खदे।264। जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छिदा समये। अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं।271।</span> =<span class="HindiText">जो श्रमणावस्था में इन सत्ता संयुक्त सविशेष (नव) पदार्थों की श्रद्धा नहीं करता वह श्रमण नहीं है उससे धर्म का उद्भव नहीं होता।91। सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी यदि जिनोक्त आत्मप्रधान पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता तो वह श्रमण नहीं है ऐसा कहा है।264। भले ही द्रव्यलिंगी के रूप में जिनमत के अनुसार हों तथापि वे 'यह तत्त्व है (वस्तुस्वरूप ऐसा ही है)' इस प्रकार निश्चयपना वर्त्तते हुए पदार्थों को अयथार्थतया ग्रहण करते हैं (जैसे नहीं हैं वैसे समझते हैं) वे अत्यंतफलसमृद्ध आगामी काल में परिभ्रमण करेंगे।271।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> रयणसार/127 </span>वयगुणसीलपरीसयजयं च चरियं च तव षडावसयं। झाणज्झयणं सव्वं सम्मविणा जाण भवबीयं।</span> =<span class="HindiText">बिना सम्यग्दर्शन के व्रत, 28 मूलगुण, 840,00,00 उत्तरगुण, 18000 शील, 22 परीषहों का जीतना, 13 प्रकार का चारित्र, 12 प्रकार तप, षडावश्यक, ध्यान व अध्ययन ये सब संसार के बीज हैं। (और भी देखें [[ चारित्र ]], तप आदि वह-वह नाम)</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> रयणसार/127 </span>वयगुणसीलपरीसयजयं च चरियं च तव षडावसयं। झाणज्झयणं सव्वं सम्मविणा जाण भवबीयं।</span> =<span class="HindiText">बिना सम्यग्दर्शन के व्रत, 28 मूलगुण, 840,00,00 उत्तरगुण, 18000 शील, 22 परीषहों का जीतना, 13 प्रकार का चारित्र, 12 प्रकार तप, षडावश्यक, ध्यान व अध्ययन ये सब संसार के बीज हैं। (और भी देखें [[ चारित्र ]], तप आदि वह-वह नाम)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/97 </span>बहिरसंगविमुक्को णा वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गथो। किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसम्मभावं।97।</span> =<span class="HindiText">बाह्य परिग्रह से रहित होने पर भी मिथ्याभाव से निर्ग्रंथ लिंग धारण करने के कारण वह परिग्रह रहित नहीं है। उसके कायोत्सर्ग और मौन धारने से क्या साध्य है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/264 </span>आगमज्ञोऽपि...श्रमणाभासो भवति। </span> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/264 </span>आगमज्ञोऽपि...श्रमणाभासो भवति। </span> | ||
<span class="HindiText"> (देखें [[ ऊपर ]]<span class="GRef"> प्रवचनसार/264 </span>का अर्थ) इतना कुछ होने पर भी वह श्रमणाभास है।</span></p> | <span class="HindiText"> (देखें [[ ऊपर ]]<span class="GRef"> प्रवचनसार/264 </span>का अर्थ) इतना कुछ होने पर भी वह श्रमणाभास है।</span></p> | ||
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<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> नियमसार/124 </span>किं काहदि वनवासो कायकलेसो विचित्तउववासो। अज्झयणमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स।124।</span> =<span class="HindiText">वनवास, कायक्लेशरूप अनेकप्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि, ये सब समता रहित श्रमण को क्या कर सकते हैं।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> नियमसार/124 </span>किं काहदि वनवासो कायकलेसो विचित्तउववासो। अज्झयणमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स।124।</span> =<span class="HindiText">वनवास, कायक्लेशरूप अनेकप्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि, ये सब समता रहित श्रमण को क्या कर सकते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मू.आ./982 अकसायं तु चारित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि। उवसमदि जम्हि काले तक्काले संजदो होदि।182।</span> =<span class="HindiText">अकषायपने को चारित्र कहते हैं। कषाय के वश होने वाला असंयत है। जिस काल में कषाय नहीं करता उसी काल में संयत है। (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./2/41)</span></p> | <p><span class="PrakritText">मू.आ./982 अकसायं तु चारित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि। उवसमदि जम्हि काले तक्काले संजदो होदि।182।</span> =<span class="HindiText">अकषायपने को चारित्र कहते हैं। कषाय के वश होने वाला असंयत है। जिस काल में कषाय नहीं करता उसी काल में संयत है। (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./2/41)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> सूत्रपाहुड़/15 </span>अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माइ करेइ णिरवसेसाइं। तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारस्थो पुण भणिदो।15। | ||
</span> = <span class="HindiText">सर्व धर्मों को निरवशेषरूप से पालता हुआ भी जो आत्मा की इच्छा नहीं करता वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता बल्कि संसार में ही भ्रमण करता है।15।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">सर्व धर्मों को निरवशेषरूप से पालता हुआ भी जो आत्मा की इच्छा नहीं करता वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता बल्कि संसार में ही भ्रमण करता है।15।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span>मू.122 जे के वि दव्वसमणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति। छिंदंति भावसमणा झाणकुठारेहिं भवरुक्खं।122।</span> =<span class="HindiText">इंद्रिय विषयों के प्रति व्याकुल रहने वाले द्रव्य श्रमण भववृक्ष का छेदन नहीं करते, ध्यानरूपी कुठार के द्वारा भाव श्रमण ही भववृक्ष का छेदन करते हैं। (देखें [[ चारित्र ]]/4/3 तथा लिंग/2/2)</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र ]]/4/3 [मोहादि से रहित व उपशम भाव सहित किये गये ही व्रत, समिति, गुप्ति, तप, परीषह जय आदि मूलगुण व उत्तरगुण संसारछेद के कारण हैं, अन्यथा नहीं।]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र ]]/4/3 [मोहादि से रहित व उपशम भाव सहित किये गये ही व्रत, समिति, गुप्ति, तप, परीषह जय आदि मूलगुण व उत्तरगुण संसारछेद के कारण हैं, अन्यथा नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ ध्यान#2.10 | ध्यान - 2.10 ]][महाव्रत, समिति, गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त आदि सब एक आत्मध्यान में अंतर्भूत हैं।]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ ध्यान#2.10 | ध्यान - 2.10 ]][महाव्रत, समिति, गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त आदि सब एक आत्मध्यान में अंतर्भूत हैं।]</p> | ||
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<p class="HindiText"> देखें [[ साधु#5.7 | साधु - 5.7 ]][पार्श्वस्थादि मुनियों का आचार]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ साधु#5.7 | साधु - 5.7 ]][पार्श्वस्थादि मुनियों का आचार]</p> | ||
<p class="HindiText" id="4.2"> <strong>2. अयथार्थ साधु श्रावक से भी हीन है</strong></p> | <p class="HindiText" id="4.2"> <strong>2. अयथार्थ साधु श्रावक से भी हीन है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span>मू./155 ते वि य भणामि हं जे सयलकलासीलसंजमगुणेहिं। बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो।155।</span> =<span class="HindiText">शील और संयम की कला से पूर्ण है उसी को हम मुनि कहते हैं; परंतु जो बहुत दोषों का आवास है तथा मलिन चित्त है वह श्रावक के समान भी नहीं है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ निंदा#6 | निंदा - 6 ]][मिथ्यादृष्टि व स्वच्छंद द्रव्यलिंगी साधुओं को, पाप श्रमण, नट श्रमण, पाप जीव, तिर्यंचयोनि, नारद, लौकिक, अभव्य, राजवल्लभ, नौकर आदि निंदनीय नाम दिये गये हैं।]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ निंदा#6 | निंदा - 6 ]][मिथ्यादृष्टि व स्वच्छंद द्रव्यलिंगी साधुओं को, पाप श्रमण, नट श्रमण, पाप जीव, तिर्यंचयोनि, नारद, लौकिक, अभव्य, राजवल्लभ, नौकर आदि निंदनीय नाम दिये गये हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="4.3"> <strong>3. अयथार्थ साधु दु:ख का पात्र</strong></p> | <p class="HindiText" id="4.3"> <strong>3. अयथार्थ साधु दु:ख का पात्र</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span>मू./100 पावंति भावसमणा कल्लाणपरंपराइं सोक्खाइं। दुक्खाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए।100।</span> =<span class="HindiText">भावश्रमण तो कल्याण की परंपरा रूप सुख को पाता है और द्रव्य श्रमण तिर्यंच मनुष्य व कुदेव योनियों में दु:ख पाता है।100।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.4"><strong>4. अयथार्थ साधु से यथार्थ श्रावक श्रेष्ठ है</strong></p> | <p class="HindiText" id="4.4"><strong>4. अयथार्थ साधु से यथार्थ श्रावक श्रेष्ठ है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> भगवती आराधना/354/559 </span>पासत्थसदसहस्सादो वि सुसीलो वरं खु एक्को वि। जं संसिदस्स सीलं दंसणणाणचरणाणि वड्ढंति।354। [पासत्थसदसहस्सादो वि पार्श्वस्थग्रहणं चारित्रक्षुद्रोपलक्षणार्थं। (वि.टीका)]</span> =<span class="HindiText">यहाँ पार्श्वस्थ शब्द से चारित्रहीन मुनियों का ग्रहण समझना चाहिए। अर्थात् चारित्रहीन मुनि लक्षावधि हों तो भी एक सुशील मुनि उनसे श्रेष्ठ समझना चाहिए। कारण कि सुशील मुनीश्वर के आश्रय से शील, दर्शन, ज्ञान और चारित्र बढ़ते हैं।'' | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> भगवती आराधना/354/559 </span>पासत्थसदसहस्सादो वि सुसीलो वरं खु एक्को वि। जं संसिदस्स सीलं दंसणणाणचरणाणि वड्ढंति।354। [पासत्थसदसहस्सादो वि पार्श्वस्थग्रहणं चारित्रक्षुद्रोपलक्षणार्थं। (वि.टीका)]</span> =<span class="HindiText">यहाँ पार्श्वस्थ शब्द से चारित्रहीन मुनियों का ग्रहण समझना चाहिए। अर्थात् चारित्रहीन मुनि लक्षावधि हों तो भी एक सुशील मुनि उनसे श्रेष्ठ समझना चाहिए। कारण कि सुशील मुनीश्वर के आश्रय से शील, दर्शन, ज्ञान और चारित्र बढ़ते हैं।'' | ||
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<p class="HindiText" id="5.6"><strong>6. पार्श्वस्थादि मुनि भ्रष्टाचारी हैं-</strong></p> | <p class="HindiText" id="5.6"><strong>6. पार्श्वस्थादि मुनि भ्रष्टाचारी हैं-</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> भगवती आराधना/1306-1315- </span>दूरेण साधुसत्थं छंडिय सो उप्पधेण खु पलादि। सेवदि कुसीलपडिसेवणाओ जो सुत्तदिट्ठाओ।1306। इंदियकसायगुरुगत्तणेण चरणं तणं व पस्संतो। णिद्दंधसो भवित्ता सेवदि हु कुसीलसेवाओ।1307। सो होदि साधु सत्थादु णिग्गदो जो भवे जधाछंदो। उस्सुत्तमणुवदिट्ठं च जधिच्छाए किकप्पंतो।1310। इय एदे पंचविधा जिणेहिं सवणा दुगुंच्छिदा सुत्ते। इंदियकसायगुरुयत्तणेण णिच्चंपि पडिकुद्धा।1315।</span> =<span class="HindiText">भ्रष्टमुनि दूर से ही साधुसार्थ का त्याग करके उन्मार्ग से पलायन करता है तथा आगम में कहे हुए कुशील नामक मुनि के दोषों का आचरण करते हैं।1306। इंद्रिय के विषयों तथा कषाय के तीव्र परिणामों में तत्पर हुए वे मुनि चारित्र को तृणवत् समझते हुए निर्लज्ज होकर कुशील का सेवन करते हैं।1307। जो मुनि साधुसार्थ का त्यागकर स्वतंत्र हुआ है, जो स्वेच्छाचारी बनकर आगमविरुद्ध और पूर्वाचार्यों के द्वारा न कहे हुए आचारों की कल्पना करता है, उसे स्वच्छंद नाम का भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए।1310। इन पाँच तरह के भ्रष्ट मुनियों की जिनेश्वरों ने आगम में निंदा की है। ये पाँचों इंद्रिय व कषाय के गुरुत्व से सिद्धांतानुसार आचरण करने वाले मुनियों के प्रतिपक्षी हैं।1315।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> भगवती आराधना/1306-1315- </span>दूरेण साधुसत्थं छंडिय सो उप्पधेण खु पलादि। सेवदि कुसीलपडिसेवणाओ जो सुत्तदिट्ठाओ।1306। इंदियकसायगुरुगत्तणेण चरणं तणं व पस्संतो। णिद्दंधसो भवित्ता सेवदि हु कुसीलसेवाओ।1307। सो होदि साधु सत्थादु णिग्गदो जो भवे जधाछंदो। उस्सुत्तमणुवदिट्ठं च जधिच्छाए किकप्पंतो।1310। इय एदे पंचविधा जिणेहिं सवणा दुगुंच्छिदा सुत्ते। इंदियकसायगुरुयत्तणेण णिच्चंपि पडिकुद्धा।1315।</span> =<span class="HindiText">भ्रष्टमुनि दूर से ही साधुसार्थ का त्याग करके उन्मार्ग से पलायन करता है तथा आगम में कहे हुए कुशील नामक मुनि के दोषों का आचरण करते हैं।1306। इंद्रिय के विषयों तथा कषाय के तीव्र परिणामों में तत्पर हुए वे मुनि चारित्र को तृणवत् समझते हुए निर्लज्ज होकर कुशील का सेवन करते हैं।1307। जो मुनि साधुसार्थ का त्यागकर स्वतंत्र हुआ है, जो स्वेच्छाचारी बनकर आगमविरुद्ध और पूर्वाचार्यों के द्वारा न कहे हुए आचारों की कल्पना करता है, उसे स्वच्छंद नाम का भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए।1310। इन पाँच तरह के भ्रष्ट मुनियों की जिनेश्वरों ने आगम में निंदा की है। ये पाँचों इंद्रिय व कषाय के गुरुत्व से सिद्धांतानुसार आचरण करने वाले मुनियों के प्रतिपक्षी हैं।1315।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> चारित्रसार/144/2 </span>एते पंच श्रमणा जिनधर्मबाह्या:।</span> =<span class="HindiText">ये पाँचों मुनि जिनधर्मबाह्य हैं। (<span class="GRef"> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> चारित्रसार/144/2 </span>एते पंच श्रमणा जिनधर्मबाह्या:।</span> =<span class="HindiText">ये पाँचों मुनि जिनधर्मबाह्य हैं। (<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/14/137/23 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ प्रायश्चित्त#4.2 | प्रायश्चित्त - 4.2]]/8 [इन पाँचों मुनियों को मूलच्छेद नाम का प्रायश्चित्त दिया जाता है।]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ प्रायश्चित्त#4.2 | प्रायश्चित्त - 4.2]]/8 [इन पाँचों मुनियों को मूलच्छेद नाम का प्रायश्चित्त दिया जाता है।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="5.7"><strong>7. पाँचों के भ्रष्टाचार की प्ररूपणा</strong></p> | <p class="HindiText" id="5.7"><strong>7. पाँचों के भ्रष्टाचार की प्ररूपणा</strong></p> | ||
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<p class="HindiText"> देखें [[ ध्येय#3.4 | ध्येय - 3.4 ]][रत्नत्रय से संपन्न होने के कारण तीनों ही ध्येय हैं।]</p> | <p class="HindiText"> देखें [[ ध्येय#3.4 | ध्येय - 3.4 ]][रत्नत्रय से संपन्न होने के कारण तीनों ही ध्येय हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="6.2"><strong>2. तीनों एक ही आत्मा की पर्यायें हैं</strong></p> | <p class="HindiText" id="6.2"><strong>2. तीनों एक ही आत्मा की पर्यायें हैं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/104 </span>अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहू पंचपरमेट्ठी। ते वि हु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हु मे सरणं।</span> =<span class="HindiText">अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच एक आत्मा में ही चेष्टारूप हैं, इसलिए मुझको एक आत्मा ही शरण है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="6.3"><strong>3. तीनों में कथंचित् भेद</strong></p> | <p class="HindiText" id="6.3"><strong>3. तीनों में कथंचित् भेद</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/638 </span>आचार्य: स्यादुपाध्याय: साधुश्चेति त्रिधा गति:। स्युर्विशिष्टपदारूढास्त्रयोऽपि मुनिकुंजरा:।638।</span> =<span class="HindiText">आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकार उस गुरु की तीन अवस्थाएँ होती हैं, क्योंकि ये तीनों मुनि कुंजर आचार्य आदि विशेष-विशेष पद में आरूढ माने जाते हैं।638।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/638 </span>आचार्य: स्यादुपाध्याय: साधुश्चेति त्रिधा गति:। स्युर्विशिष्टपदारूढास्त्रयोऽपि मुनिकुंजरा:।638।</span> =<span class="HindiText">आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकार उस गुरु की तीन अवस्थाएँ होती हैं, क्योंकि ये तीनों मुनि कुंजर आचार्य आदि विशेष-विशेष पद में आरूढ माने जाते हैं।638।</span></p> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) अर्हंत, सिद्ध, सूरि (आचार्य), उपाध्याय और साधु इन पाँच परमेष्ठियों में पाँचवें परमेष्ठी । ये मोक्षमार्ग (रत्नत्रय) को सिद्ध करने में सदा दत्तचित्त रहते हैं । इन्हें लोक को प्रसन्न करने का प्रयोजन नहीं रहता । इनका समागम पापहारी होता है । ये परोपकारी और दयालु होते हैं । ये बारह प्रकार के तपों द्वारा निर्वाण की साधना करते हैं । निर्वाण की साधना करने से ही इन्हें यह नाम प्राप्त हुआ है । ये मन, वचन और काय से (1-5) पाँच महाव्रतों को धारण करते, (6-10) पाँच समितियों को पालते, (11-15) पांचों इंद्रियों का निरोध करते और (16) समता (17) वंदना, (18) स्तुति, (19) प्रतिक्रमण (20) स्वाध्याय (21) कायोत्सर्ग तथा छ: आवश्यक क्रियाएं और (22) केशलोंच करते हैं (23) स्नान नहीं</p> | <div class="HindiText"> <p id="1"> (1) अर्हंत, सिद्ध, सूरि (आचार्य), उपाध्याय और साधु इन पाँच परमेष्ठियों में पाँचवें परमेष्ठी । ये मोक्षमार्ग (रत्नत्रय) को सिद्ध करने में सदा दत्तचित्त रहते हैं । इन्हें लोक को प्रसन्न करने का प्रयोजन नहीं रहता । इनका समागम पापहारी होता है । ये परोपकारी और दयालु होते हैं । ये बारह प्रकार के तपों द्वारा निर्वाण की साधना करते हैं । निर्वाण की साधना करने से ही इन्हें यह नाम प्राप्त हुआ है । ये मन, वचन और काय से (1-5) पाँच महाव्रतों को धारण करते, (6-10) पाँच समितियों को पालते, (11-15) पांचों इंद्रियों का निरोध करते और (16) समता (17) वंदना, (18) स्तुति, (19) प्रतिक्रमण (20) स्वाध्याय (21) कायोत्सर्ग तथा छ: आवश्यक क्रियाएं और (22) केशलोंच करते हैं (23) स्नान नहीं</p> | ||
<p> करते, (24) वस्त्र धारण नहीं करते, (25) दाँतों का मैल नहीं छुटाते, (26) सदैव पृथिवी पर ही शयन करते, (27) आहार दिन में एक ही बार, (28) | <p> करते, (24) वस्त्र धारण नहीं करते, (25) दाँतों का मैल नहीं छुटाते, (26) सदैव पृथिवी पर ही शयन करते, (27) आहार दिन में एक ही बार, (28) खड़े-खड़े लेते हैं । इनके ये अट्ठाईस मूलगुण हैं जिन्हें ये सतत पालते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 9.162-165, 11. 63-75, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 89.30, 109.89, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.28, 2.117-129 </span></p> | ||
<p id="2">(2) गुण और दोषों में गुणों को ग्रहण करने वाले सत्पुरुष । <span class="GRef"> पद्मपुराण 1.35 </span></p> | <p id="2">(2) गुण और दोषों में गुणों को ग्रहण करने वाले सत्पुरुष । <span class="GRef"> पद्मपुराण 1.35 </span></p> | ||
<p id="3">(3) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25. 163 </span></p> | <p id="3">(3) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25. 163 </span></p> |
Revision as of 15:04, 5 October 2022
सिद्धांतकोष से
पंचमहाव्रत पंच समिति आदि 28 मूलगुणों रूप सकल चारित्र को पालने वाला निर्ग्रंथ मुनि ही साधु संज्ञा को प्राप्त है। परंतु उसमें भी आत्म शुद्धि प्रधान है, जिसके बिना वह नग्न होते हुए भी साधु नहीं कहा जा सकता। पार्श्वस्थ, कुशील आदि पाँच भेद ऐसे ही कुछ भ्रष्ट साधुओं का परिचय देते हैं। आचार्य, उपाध्याय व साधु तीनों ही साधुपने की अपेक्षा समान हैं। अंतर केवल संघकृत उपाधि के कारण है।
- साधु सामान्य निर्देश
- यति, मुनि, ऋषि, श्रमण, गुरु, एकलविहारी, जिनकल्प आदि-देखें वह वह नाम ।
- प्रत्येक तीर्थंकर के काल में साधुओं का प्रमाण।-देखें तीर्थंकर - 5।
- पंचम काल में भी संभव है-देखें संयम - 2.8।
- साधु की विनय व परीक्षा संबंधी-देखें विनय - 4,5।
- साधु की पूजा संबंधी-देखें पूजा - 3।
- साधु का उत्कृष्ट व जघन्य ज्ञान-देखें श्रुतकेवली - 2।
- ऐसे साधु ही गुरु हैं।-देखें गुरु - 1।
- द्रव्यलिंग व भावलिंग-देखें लिंग ।
- व्यवहार साधु निर्देश
- मूलगुण के भेदों के लक्षण आदि-देखें वह वह नाम ।
- शुभोपयोगी साधु भव्यजनों को तार देते हैं-देखें धर्म - 5.2।
- सल्लेखनागत साधु की 12 प्रतिमा-देखें सल्लेखना - 4.11.2।
- आहार, विहार, भिक्षा, प्रव्रज्या, वसतिका, संस्तर आदि।-देखें वह वह नाम ।
- दीक्षा से निर्वाण पर्यंत की चर्या-देखें संस्कार - 2।
- साधु की दिनचर्या-देखें कृतिकर्म - 4।
- एक करवट से अत्यंत अल्प निद्रा-देखें निद्रा ।
- मूलगुणों के मूल्य पर उत्तर गुणों की रक्षा योग्य नहीं।
- मूलगुणों का अखंड पालना आवश्यक है।
- शरीर संस्कार का कड़ा निषेध।
- साधु के लिए कुछ निषिद्ध कार्य।
- परिग्रह व अन्य अपवाद जनक क्रियाएँ तथा उनका समन्वय।-देखें अपवाद - 3,4।
- प्रमादवश लगने वाले दोषों की व उसकी शुभ क्रियाओं की सीमा-देखें संयत - 3।
- साधु व गृहस्थ धर्म में अंतर-देखें संयम - 1.6।
- निश्चय साधु निर्देश
- भावलिंग-देखें लिंग ।
- स्व वश योगी जीवन्मुक्त व जिनेश्वर का लघु नंदन है-देखें जिन ।
- 28 मूलगुणों की मुख्यता गौणता।
- सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के व्यवहारधर्म में अंतर-देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- पंचमकाल में भी भावलिंग संभव है-देखें संयम - 2.8।
- अयथार्थसाधु सामान्य
- द्रव्यलिंग-देखें लिंग ।
- अयथार्थ साधु श्रावक से भी हीन है।
- अयथार्थ साधु दु:ख का पात्र है।
- अयथार्थ साधु से यथार्थ श्रावक श्रेष्ठ है।
- लाखों अयथार्थ साधुओं से एक यथार्थ साधु श्रेष्ठ है।-देखें शीर्षक नं.4।
- पुलाक व पार्श्वस्यादि साधु
- पुलाकादि व पार्श्वस्थादि का नाम निर्देश-देखें साधु - 1.4.3।
- पुलाकादि व पार्श्वस्थादि के लक्षण-देखें वह वह नाम ।
- आचार्य उपाध्याय व साधु
- आचार्य, उपाध्याय, साधु के लक्षण-देखें वह वह नाम ।
- चत्तारिदंडक में 'साधु' शब्द से तीनों का ग्रहण-देखें मंत्र - 2।
साधु सामान्य निर्देश
1. साधु सामान्य का लक्षण
मू.आ./512 णिव्वाणसाधए जोगे सदा जुंजंति साधवो। समा सव्वेसु भूदेसु तम्हा ते सव्वसाधवो।512। =मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले मूलगुणादिक तपश्चरणों को जो साधु सर्वकाल अपने आत्मा से जोड़े और सर्व जीवों में समभाव को प्राप्त हों इसलिए वे सर्वसाधु कहलाते हैं।512।
सर्वार्थसिद्धि/9/24/442/10 चिरप्रव्रजित: साधु:। = [तपस्वी शैक्षादि में भेद दर्शाते हुए] जो चिरकाल से प्रव्रजित होता है उसे साधु कहते हैं।( राजवार्तिक/9/24/11/623/24 ); ( चारित्रसार/151/4 )।
द्रव्यसंग्रह/54/221 दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं। साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स।54।=जो दर्शन और ज्ञान से पूर्ण मोक्ष के मार्गभूत सदाशुद्ध चारित्र को प्रकटरूप से साधते हैं वे मुनि साधु परमेष्ठी हैं। उनको मेरा नमस्कार हो।54। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/667 )।
क्रियाकलाप/सामायिक दंडक की टी./3/1/5/143 ये व्याख्यायंति न शास्त्रं न ददाति दीक्षादिकं च शिष्याणाम् । कर्मोन्मूलनशक्ता ध्यानरतास्तेऽत्र साधवो ज्ञेया:।5। =जो न शास्त्रों की व्याख्या करते हैं और न शिष्यों को दीक्षादि देते हैं। कर्मों के उन्मूलन करने को समर्थ ऐसे ध्यान में जो रत रहते हैं वे साधु जानने चाहिए। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/670 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/203 विरतिप्रवृत्तिसमानात्मरूपश्रामण्यत्वात् श्रमणम् । =विरति की प्रवृत्ति के समान ऐसे श्रामण्यपने के कारण श्रमण हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/671 वैराग्यस्य परां काष्ठामधिरूढोऽधिकप्रभ:। दिगंबरो यथाजातरूपधारी दयापर:।671। =वैराग्य की पराकाष्ठा को प्राप्त होकर प्रभावशाली दिगंबर यथाजात रूप को धारण करने वाले तथा दयापरायण ऐसे साधु होते हैं।
2. साधु के अनेकों सामान्य गुण
धवला 1/1,1,1/ गा.33/51 सीह-गय-वसह-मिय-पसु-मारुद-सुरूवहि-मंदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंबर-सरिसा परम-पय-विभग्गया साहू।33।=सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी या उन्नत, बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह गोचरी वृत्ति करने वाले, पवन के समन नि:संग या सब जगह बे-रोकटोक विचरने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी या सकल तत्त्वों के प्रकाशक, सागर के समान गंभीर, मेरु सम अकंप व अडोल, चंद्रमा के समान शांतिदायक, मणि के समान प्रभापुंजयुक्त, क्षिति के समान सर्वप्रकार की बाधाओं को सहने वाले, सर्प के समान अनियत वसतिका में रहने वाले, आकाश के समान निरालंबी व निर्लेप और सदाकाल परमपद का अन्वेषण करने वाले साधु होते हैं।33।
देखें तपस्वी विषयों की आशा से अतीत, निरारंभ, अपरिग्रही तथा ज्ञान-ध्यान में रत रहने वाले ही प्रशस्त तपस्वी हैं। वही सच्चे गुरु हैं। (और भी देखें साधु - 3.1)।
3. साधु के अपर नाम
देखें अनगार [श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदंत, दांत व यति उसके नाम हैं।]
देखें श्रमण श्रमण को यति मुनि व अनगार भी कहते हैं।
4. साधु के अनेकों भेद
1. यथार्थ व अयथार्थ दो भेद
देखें श्रमण [श्रमण सम्यक् भी होते हैं और मिथ्या भी।]
2. यथार्थ साधु के भेद
प्रवचनसार/245 समणा सुद्धुवजुत्ता सुहोवजुतो य होंति समयम्हि। तेसु वि सुद्धुवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा।254।=शास्त्रों में ऐसा कहा है कि श्रमण शुद्धोपयोगी भी होते हैं और शुभोपयोगी भी। उनमें शुद्धोपयोगी (वीतराग) निरास्रव हैं और शुभोपयोगी (सराग) सास्रव हैं। (देखें श्रमण )
मू.आ./148 गिहिदत्थेय विहारो विदिओऽगिहिदत्थसंसिदो चेव। एत्तो तदियविहारो णाण्णुण्णादो जिणवरेहिं।148। =जिसने जीवादि तत्त्व अच्छी तरह जान लिये हैं ऐसा एकलविहारी और दूसरा अगृहीतार्थ अर्थात् जिसने तत्त्वों को अच्छी तरह ग्रहण नहीं किया है, इन दो के अतिरिक्त तीसरा विहार जिनेंद्रदेव ने नहीं कहा है। इनमें से एकलविहारी देशांतर में जाकर चारित्र का अनुष्ठान करता है और अगृहीतार्थ साधुओं के संघ में रहकर साधन करता है।
चारित्रसार 46/4 भिक्षवो जिनरूपधारिणस्ते बहुधा भवंति अनगारा यतयो मुनय ऋषयश्चेति। =जिनरूप धारी भिक्षु, अनगार, यति, मुनि, ऋषि आदि के भेद से बहुत प्रकार के हैं। (और भी देखें साधु - 1.3); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/249/11 ); (और भी देखें संघ )।
देखें सल्लेखना - 3.1 [जिनकल्पविधिधारी क्षपक का निर्देश किया गया है।]
देखें छेदोपस्थापना - 6 [भगवान् वीर के तीर्थ से पहले जिनकल्पी साधु भी संभव थे पर अब पंचमकाल में केवल स्थविरकल्पी ही होते हैं।]
देखें वैयावृत्त्य [आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दश भेदों की अपेक्षा वैयावृत्त्य 10 प्रकार की है।]
सागार धर्मामृत/2/64 का फुटनोट-ते नामस्थापनाद्रव्यभावन्यासैश्चतुर्विधा:। भवंति मुनय: सर्वेदानमानादिकर्मसु। =दान, मान आदि क्रियाओं के करने के लिए वे सब मुनि नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन निक्षेपों के भेद से चार प्रकार के हैं।
3. पुलाक वकुशादि की अपेक्षा भेद
तत्त्वार्थसूत्र/9/46 पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रंथस्नातक निर्ग्रंथा:। = पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रंथ और स्नातक ये पाँच निर्ग्रंथ हैं। (विशेष देखें वह वह नाम )।
4. भ्रष्टाचारी साधुओं के भेद
मू.आ./593 पसत्थो य कुसीलो संसत्तोसण्ण मिगचरित्तो य। दंसणणाणचरित्ते अणिउत्ता मंदसंवेगा।593। =पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अवसन्न, और मृगचारित्र ये पाँच साधु दर्शन ज्ञान चारित्र में युक्त नहीं हैं और धर्मादि में हर्ष रहित हैं इसलिए वंदने योग्य नहीं हैं। ( भगवती आराधना/1949 ); ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/339/549/91 ); ( चारित्रसार/143/3 )।
व्यवहार साधु निर्देश
1. व्यवहारावलंबी साधु का लक्षण
धवला 1/1,1,1/51/2 पंचमहाव्रतधरास्त्रिगुप्तिगुप्ता: अष्टादशशीलसहस्रधराश्चतुरशीतिशतसहस्रगुणधराश्च साधव:। =जो पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, 18,000 शील के भेदों को धारण करते हैं और 84,00,000 उत्तरगुणों का पालन करते हैं वे साधु परमेष्ठी होते हैं। देखें संयम - 1.2।
नयचक्र बृहद्/330-331 दंसणसुद्धिविसुद्धो मूलाइगुणेहि संजुओ तहय।...330। असुहेण रायरहिओ वयाइरायेण जो हु संजुत्ता। सो इह भणिय सरागो...।331। दर्शनविशुद्धि से जो विशुद्ध है तथा मूलादि गुणों से संयुक्त है।330। अशुभ राग से रहित है, व्रत आदि के राग से संयुक्त है वह सराग श्रमण है।331।
तत्त्वसार/9/5 श्रद्धान: परद्रव्यं बुध्यमानस्तदेव हि। तदेवोपेक्षमाणश्च व्यवहारी स्मृतो मुनि:।5। =जो सातों तत्त्वों का भेदरूप से श्रद्धान करता है, वैसे ही भेदरूप से उसे जानता है तथा वैसे ही भेदरूप से उसे उपेक्षित करता है अर्थात् विकल्पात्मक भेद रत्नत्रय की साधना करता है वह मुनि व्यवहारावलंबी है।5।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/246 शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोगि चारित्रत्वलक्षणम् ।46।=शुद्धात्मा का अनुराग युक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है।
2. व्यवहार साधु के मूल व उत्तर गुण
प्रवचनसार/208-209 वदसमिदिंदियरोधो लोंचावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतधोवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च।208। एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।...।209। =पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इंद्रियों का रोध, केशलोंच, षड्आवश्यक , अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधोवन, खड़े-खेड़े भोजन, एक बार आहार, ये वास्तव में श्रमणों के 28 मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं।208-209। (मू.आ./2-3); ( नयचक्र बृहद्/335 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/745-746 )।
ब्रह्मचर्य/1/6 [(तीन प्रकार की अचेतन स्त्रियाँxमन वचन व कायxकृत कारित अनुमोदनाxपाँच इंद्रियाँxचार कषाय=720); + (तीन प्रकार की चेतन स्त्रियाँxमन वचन कायxकृत कारित अनुमोदनाxपाँच इंद्रियाँxचार संज्ञाxसोलह कषाय=17280);=18000] इस प्रकार ये ब्रह्मचर्य की विराधना के 18000 अंग हैं। इनके त्याग से साधु को 18000 शील गुण कहे जाते हैं। अथवा [मन वचन काय की शुभ क्रिया रूप तीन योगxइन्हीं की शुभ प्रवृत्तिरूप तीन करणxचार संज्ञाxपाँच इंद्रियxपृथिवी आदि दस प्रकार के जीवxदस धर्म-इस प्रकार साधु के 18000 शील कहे जाते हैं।]।
दर्शनपाहुड़/ टी./9/8/18 का भावार्थ-[(पाँच पाप, चार कषाय, जुगुप्सा, भय, रति, अरति ये 13 दोष हैं+मन वचन काय की दुष्टता ये 3+मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनत्व, अज्ञान, पाँच इंद्रियों का निग्रह ये पाँच-इन 21 दोषों का त्याग 21 गुण हैं।) ये उपरोक्त 21 गुणx अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार ये चारxपृथिवी आदि 100 जीवसमासx10 शील विराधना (देखें ब्रह्मचर्य - 2.4)x10 आलोचना के दोष (देखें आलोचना )x10 धर्म=84000,00 उत्तरगुण होते हैं।]
3. व्यवहार साधु के 10 स्थितिकल्प
भगवती आराधना/421 आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे। जेट्ठपडिक्कमणे वि य मासं पज्जो सवणकप्पो।421। =1. अचेलकत्व, 2. उद्दिष्ट भोजन का त्याग, 3. शय्याग्रह अर्थात् वसतिका बनवाने या सुधरवाने वाले के आहार का त्याग, 4. राजपिंड अर्थात् अमीरों के भोजन का त्याग, 5. कृतिकर्म अर्थात् साधुओं की विनय शुश्रूषा आदि करना, 6. व्रत अर्थात् जिसे व्रत का स्वरूप मालूम है उसे ही व्रत देना; 7.ज्येष्ठ अर्थात् अपने से अधिक का योग्य विनय करना, 8. प्रतिक्रमण अर्थात् नित्य लगे दोषों का शोधन, 9. मासैकवासता अर्थात् छहों ऋतुओं में से एक मास पर्यंत एकत्र मुनियों का निवास और 10. पद्य अर्थात् वर्षाकाल में चार मास पर्यंत एक स्थान पर निवास-ये साधु के 10 स्थितिकल्प कहे जाते हैं। (मू.आ./909)।
4. अन्य कर्तव्य
भावपाहुड़ टीका/78/229/11 त्रयोदशक्रिया भावय त्वं त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धया पंचनमस्कारा:, षडावश्यकानि, चैत्यालयमध्ये प्रविशता निसिही निसिही निसिही इति वारत्रयं हृद्युच्चार्यते, जिनप्रतिमावंदनाभक्तिं कृत्वा बहिर्निर्गच्छता भव्यजीवेन असिही असिही असिही इति वारत्रयं हृद्युच्चार्यत इति त्रयोदशक्रिया हे भव्य ! त्वं भावय।...अथवा पंचमहाव्रतानि पंचसमितयस्तिस्रो गुप्तश्चेति त्रयोदशक्रियास्त्रयोदशविधं चारित्रं हे भव्यवरपुंडरीकमुने ! त्वं भावय। = हे भव्य, तू मन वचन व काय की शुद्धिपूर्वक 13 क्रियाओं की भावना कर। वे 13 क्रियाएँ ये हैं-1. पंच नमस्कार, षड्आवश्यक, चैत्यालय में प्रवेश करते समय तीन बार 'निसही' शब्द का उच्चारण और चैत्यालय से बाहर निकलते समय तीन बार 'असही' शब्द का उच्चारण। ( अनगारधर्मामृत/8/130/841 ) 2. अथवा पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये तेरह प्रकार का चारित्र ही तेरह क्रियाएँ हैं। (देखें चारित्र - 1.4)।
देखें संयत - 3/2 [अर्हदादि की भक्ति, ज्ञानियों में वात्सल्य, श्रमणों के प्रति वंदन, अभ्युत्थान, अनुगमन, व वैयावृत्त्य करना, आहार व नीहार, तत्त्व विचार, धर्मोपदेश, पर्व के दिनों में उपवास, चातुर्मास योग शिरोनति व आवर्त आदि कृतिकर्म सहित प्रतिदिन देव वंदना, आचार्यवंदना, स्वाध्याय, रात्रियोग धारण, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि, ये सब क्रियाएँ शुभोपयोगी साधु को प्रमत्त अवस्था में होती हैं।]।
देखें संयम - 1.6 [वीतरागी साधु स्वयं हटकर तथा अन्य साधु पीछी से जीवों को हटाकर उनकी रक्षा करते हैं।]
5. मूलगुणों के मूल्य पर उत्तरगुणों की रक्षा योग्य नहीं
पं.वि./1/40 मुक्त्वा मूलगुणान् यतेर्विदधत: शेषेषु यत्नं परं, दंडो मूलहरो भवत्यविरतं पूजादिकं वांछत:। एकं प्राप्तमरे: प्रहारमतुलं हित्वा शिरश्छेदकं, रक्षत्यंगुलिकोटिखंडनकरं कोऽन्यो रणे बुद्धिमान् ।40। =मूलगुणों को छोड़कर केवल शेष उत्तरगुणों के परिपालन में ही प्रयत्न करने वाले तथा निरंतर पूजा आदि की इच्छा रखने वाले साधु का यह प्रयत्न मूलघातक होगा। कारण कि उत्तरगुणों में दृढ़ता उन मूलगुणों के निमित्त से ही प्राप्त होती है। इसीलिए यह उसका प्रयत्न इस प्रकार का है जिस प्रकार कि युद्ध में कोई मूर्ख सुभट अपने शिर का छेदन करने वाले शत्रु के अनुपम प्रहार की परवाह न करके केवल अँगुली के अग्रभाग को खंडित करने वाले प्रहार से ही रक्षा करने का प्रयत्न करता है।40।
6. मूलगुणों का अखंड पालन आवश्यक है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/743-744 यतेर्मूलगुणाश्चाष्टाविंशतिर्मूलवत्तरो:। नात्राप्यन्यतमेनोना नातिरिक्ता: कदाचन।743। सर्वैरेभि: समस्तैश्च सिद्धं यावन्मुनिव्रतम् । न व्यस्तैर्व्यस्तमात्रं तु यावदंशनयादपि।744। =वृक्ष की जड़ के समान मुनि के 28 मूलगुण होते हैं। किसी भी समय मुनियों में न एक कम होता है, न एक अधिक।743। संपूर्ण मुनिव्रत इन समस्त मूलगुणों से ही सिद्ध होता है, किंतु केवल अंश को ही विषय करने वाले किसी एक नय की अपेक्षा से भी असमस्त मूलगुणों के द्वारा एक देशरूप मुनिव्रत सिद्ध नहीं होता।744।
7. शरीर संस्कार का कड़ा निषेध
मू.आ./836-838 ते छिण्णणेहबंधा णिण्णेहा अप्पणो सरीरम्मि। ण करंति किंचि साहू परिसं ठप्पं सरीरम्मि।836। मुहणयणदंतधोयणमुव्वट्टणपादधोयणं चेव। संवाहणपरिमद्दणसरीरसंठावणं सव्वं।837। धूवणमण विरेयण अंजण अब्भंगलेवणं चेव। णत्थुयवत्थियकम्मं सिखेज्झं अप्पणो सव्वं।838। =पुत्र स्त्री आदि में जिन्होंने प्रेमरूपी बंधन काट दिया है और जो अपने शरीर में भी ममता रहित हैं, ऐसे साधु शरीर में कुछ भी संस्कार नहीं करते हैं।836। मुख नेत्र और दाँतों का धोना शोधना पखारना, उबटन करना, पैर धोना, अंगमर्दन करना, मुट्ठी से शरीर का ताड़न करना, काठ के यंत्र से शरीर का पीड़ना, ये सब शरीर के संस्कार हैं।837। धूप से शरीर का संस्कार करना, कंठशुद्धि के लिए वमन करना, औषध आदि से दस्त लेना, अंजन लगाना, सुगंध तेल मर्दन करना, चंदन, कस्तूरी का लेप करना, सलाई बत्ती आदि से नासिका कर्म व वस्तिकर्म (इनेमा) करना, नसों से लोही का निकालना ये सब संस्कार अपने शरीर में साधुजन नहीं करते।838।
8. साधु के लिए कुछ निषिद्ध कार्य
मू.आ./गा. पिंडोवधिसेज्जाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो। मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो।916। किं तस्स ठाणमोणं किं काहदि अब्भवगासमादावो। मेत्तिविहूणो समणो सिज्झदि ण हु सिद्धिकंखोवि।924। चंडो चवलो मंदो तह साहू पुट्ठिमंसपडिसेवी। गारवकसायबहुलो दुरासओ होदि सो समणो।955। दंभं परपरिवादं पिसुणत्तण पावसुत्त पडिसेवं। चिरपव्वइदंपि मुणी आरंभजुदं ण सेविज्ज।957। =जो मुनि आहार, उपकरण, आवास इनको न सोधकर सेवन करता है वह मुनि गृहस्थपने को प्राप्त होता है। और लोक में मुनिपने से हीन कहलाता है।916। उस मुनि के कायोत्सर्ग मौन और अभ्रावकाश योग, आतापन योग क्या कर सकता है। जो साधु मैत्री भाव रहित है वह मोक्ष का चाहने वाला होने पर भी मोक्ष को नहीं पा सकता।924। जो अत्यंत क्रोधी हो, चंचलस्वभाव वाला हो, चारित्र में आलसी, पीछे दोष कहने वाला पिशुन हो, गुरुता कषाय बहुत रखता हो ऐसा साधु सेवने योग्य नहीं।955। जो ठगने वाला हो, दूसरों को पीड़ा देने वाला हो, झूठे दोषों को ग्रहण करने वाला हो, मारण आदि मंत्रशास्त्र अथवा हिंसापोषक शास्त्रों का सेवने वाला हो, आरंभ सहित हो, ऐसे बहुत काल से भी दीक्षित मुनि को सदाचरणी नहीं सेवे।957।
रयणसार/100 विकहाइ विप्पमुक्को आहाकम्माइविरहिओ णाणी।100। =यतीश्वर विकथा करने से मुक्त तथा आधाकर्मादि सहित चर्या से रहित हैं। (विशेष देखें कथा - 7; तथा आहार/II/2)।
भावपाहुड़/ मू./69 अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण। पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण।69। =पैशुन्य, हास्य, मत्सर, माया आदि की बहुलतायुक्त श्रमणपने से अथवा उसके नग्नपने से क्या साध्य है। वह तो अपयश का भाजन है।69।
लिं.पा./मू./3-20 णच्चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूपेण। सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो।4। कलहं वादं जूआ णिच्चं बहुमाणगव्विओ लिंगी। वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगरूवेण।6। कंदप्पाइय वट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं। मायी लिंग विवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो।12। उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण। इरियावह धारंतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।15। रागो करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं व दूसेइ। दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।17। पव्वज्जहीण गहियं णेहि सासम्मि वट्टदे बहुसो। आयार विणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।18। दंसणणाणचरित्ते महिलावग्गम्मि देहि वीसट्ठो। पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो।20। =जो साधु का लिंग ग्रहण करके नृत्य करता है, गाता है, बाजा बजाता है,।3। बहुमान से गर्वित होकर निरंतर कलह व वाद करता है (देखें वाद - 7); द्यूतक्रीड़ा करता है।6। कंदर्पादि भावनाओं में वर्तता है (देखें भावना - 1.3) तथा भोजन में रसगृद्धि करता है (देखें आहार - II.2); मायाचारी व व्यभिचार का सेवन करता है (देखें ब्रह्मचर्य - 3)।12। ईर्यापथ सोधे बिना दौड़ते हुए अथवा उछलते हुए चलता है, गिर पड़ता है और फिर उठकर दौड़ता है।15। महिला वर्ग में नित्य राग करता है, और दूसरों में दोष निकलता है।17। गृहस्थों व शिष्यों पर स्नेह रखता है।18। स्त्रियों पर विश्वास करके उनको दर्शन ज्ञान चारित्र प्रदान करता है, वह तिर्यग्योनि है, नरक का पात्र है, भावों से विनष्ट हुआ वह पार्श्वस्थ है साधु नहीं।20।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/657 यद्वा मोहात् प्रमादाद्वा कुर्याद् यो लौकिकीं क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चांतर्व्रताच्चयुत:। =जो मोह से अथवा प्रमाद से जितने काल तक लौकिक क्रिया करता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अंतरंग में व्रतों से च्युत भी है।657।
देखें सावद्य - 8 (वैयावृत्त्य आदि शुभक्रियाएँ करते हुए षट् काय के जीवों को बाधा नहीं पहुँचानी चाहिए)।
देखें विहार - 1.1 [स्वच्छंद व एकल विहार करना इस काल में वर्जित है।]
देखें धर्म - 6.6 [अधिक शुभोपयोग में वर्तन करना साधु को योग्य नहीं क्योंकि वैयावृत्त्यादि शुभ कार्य गृहस्थों को प्रधान हैं और साधुओं को गौण।]
देखें मंत्र - 1.3-4 [मंत्र, तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक, वशीकरण, उच्चाटन आदि करना, मंत्र सिद्धि, शस्त्र अंजन सर्प आदिकी सिद्धि करना तथा आजीविका करना साधु के लिए वर्जित है।]
देखें संगति [दुर्जन, लौकिक जन, तरुणजन, स्त्री, पुंश्चली, नपुंसक, पशु आदि की संगति करना निषिद्ध है। आर्यिका से भी सात हाथ दूर रहना योग्य है। पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनियों की संगति वर्जनीय है।]
देखें भिक्षा - 2-3 [भिक्षार्थ वृत्ति करते समय गृहस्थ के घर में अभिमत स्थान से आगे न जावे, छिद्रों में से झाँककर न देखे, अत्यंत तंग व अंधकारयुक्त प्रदेश में प्रवेश न करे। व्यस्त व शोक युक्त घर में, विवाह व यज्ञशाला आदि में प्रवेश न करे। बहुजन संसक्त प्रदेश में प्रवेश न करे। विधर्मी, नीच कुलीन, अति दरिद्रों, तथा राजा आदि का आहार ग्रहण न करे।
देखें आहार - II.2 [मात्रा से अधिक, पौष्टिक व गृद्धता पूर्वक गृहस्थ पर भार डालकर भोजन ग्रहण न करे।]
देखें साधु - 4.1 तथा 5/7 [इतने कार्य करे वह साधु सच्चा नहीं।]
निश्चय साधु निर्देश
1. निश्चय साधु का लक्षण
प्रवचनसार/241 समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पंससणिंदसमो। समलोट्ठुकचंणो पुण जीवितमरणे समो समणो।241। =जिसे शत्रु और बंधुवर्ग समान है, सुख दु:ख समान है, प्रशंसा और निंदा के प्रति जिसको समता है, जिसे लोष्ठ (ढेला) और सुवर्ण समान है, तथा जीवन मरण के प्रति जिसको समता है, वह श्रमण है। (मू.आ./521)।
नियमसार/75 वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता। णिग्गंथा णिम्मोहा साहू एदेरिसा होंति।75। =काय व वचन के व्यापार से मुक्त, चतुर्विध आराधना में सदा रक्त, निर्ग्रंथ और निर्मोह-ऐसे साधु होते हैं।
मू.आ./1000 णिस्संगो णिरारंभो भिक्खाचरियाए सुद्धभावो। य एगागी ज्झाणरदो सव्वगुड्ढो हवे समणो।1000। =जो निष्परिग्रही व निरांभ है, भिक्षाचार्य में शुद्धभाव रखता है, एकाकी ध्यान में लीन होता है, और सब गुणों से परिपूर्ण होता है वह श्रमण है।1000। (और भी देखें तपस्वी तथा लिंग - 1.2)
धवला 1/1,1,1/51/1 अनंतज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयंतीति साधव:। = जो अनंत ज्ञानादिस्वरूप शुद्धात्मा की साधना करते हैं उन्हें साधना कहते हैं।
धवला 8/3,41/87/4 अणंतणाणदंसणवीरियाविरइखइयसम्मत्तादीणं साहया साहू णाम। =अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणों के जो साधक हैं वे साधु कहलाते हैं।
नयचक्र बृहद्/330-331 ...। सुहदु:खाइसमाणो झाणे लीणो हवे समणो।330।...।...मुक्कं दोहणं पि खलु इयरो।331। =सुख दु:ख में जो समान है और ध्यान में लीन है, वह श्रमण होता है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के राग से मुक्त वीतराग श्रमण है।
तत्त्वसार/9/6 स्वद्रव्यं श्रद्धानस्तु बुध्यमानस्तदेव हि। तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तम:।6। =जो निजात्मा को ही श्रद्धानरूप व ज्ञान रूप बना लेता है और उपेक्षारूप ही जिसकी आत्मा की प्रवृत्ति हो जाती है, अर्थात् जो निश्चय व अभेद रत्नत्रय की साधना करता है वह श्रेष्ठ मुनि निश्चयावलंबी माना जाता है।6।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/252/345/16 रत्नत्रयभावनया स्वात्मानं साधयतीति साधु:। =रत्नत्रय की भावनारूप से जो स्वात्मा को साधता है वह साधु है। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/7/14/7 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/667 )
2. निश्चय साधु की पहचान
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/668-674 नोच्याच्चायं यमी किंचिद्धस्तपादादिसंज्ञया। न किंचिद्दर्शयेत् स्वस्थो मनसापि न चिंतयेत् ।668। आस्ते स शुद्धमात्मानमास्तिघ्नुवांनश्च परम् । स्तिमितांतर्बहिर्जल्पो निस्तरंगाब्धिवन्मुनि:।669। नादेशं नोपदेशं वा नादिशेत् स मनागपि। स्वर्गापवर्गमार्गस्य तद्विपक्षस्य किं पुन:।670। वैराग्यस्य परां काष्ठामधिरूढोऽधिकप्रभ:...।671। निर्ग्रंथोंतर्बहिर्मोहग्रंथेरुद्ग्रंथको यमी।...।672। परीषहोपसर्गाद्यैरजय्यो जितमन्मथ:।...।673। इत्याद्यनेकधानेकै: साधु: साधुगुणै: श्रित:। नमस्य: श्रेयसेऽवश्यं नेतरो विदुषां महान् ।674। =यह साधु कुछ नहीं बोले। हाथ पाँव आदि इशारे से कुछ न दर्शावे, आत्मस्थ होकर मन से भी कुछ चिंतवन न करे।668। केवल शुद्धात्मा में लीन होता हुआ वह अंतरंग व बाह्य वाग्व्यापार से रहित निस्तरंग समुद्र की तरह शांत रहता है।669। जब वह मोक्षमार्ग के विषय में ही किंचित् भी उपदेश या आदेश नहीं करता है, तब उससे विपरीत लौकिक मार्ग के उपदेशादि कैसे कर सकता है।670। वह वैराग्य की परम पराकाष्ठा को प्राप्त होकर अधिक प्रभावशाली हो जाता है।671। अंतरंग बहिरंग मोह की ग्रंथि को खोलने वाला वह यमी होता है।672। परीषहों व उपसर्गों के द्वारा वह पराजित नहीं होता, और कामरूप शत्रु को जीतने वाला होता है।673। इत्यादि अनेक प्रकार के गुणों से युक्त वह पूज्य साधु ही मोक्ष की प्राप्ति के लिए तत्त्वज्ञानियों के द्वारा अवश्य नमस्कार किये जाने योग्य है, किंतु उनसे रहित अन्य साधु नहीं।674।
3. साधु में सम्यक्त्व की प्रधानता
प्रवचनसार/ गा. सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि णेव सामण्णे। सद्दहदि ण सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदि।91। ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि। जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खदे।264। जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छिदा समये। अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं।271। =जो श्रमणावस्था में इन सत्ता संयुक्त सविशेष (नव) पदार्थों की श्रद्धा नहीं करता वह श्रमण नहीं है उससे धर्म का उद्भव नहीं होता।91। सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी यदि जिनोक्त आत्मप्रधान पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता तो वह श्रमण नहीं है ऐसा कहा है।264। भले ही द्रव्यलिंगी के रूप में जिनमत के अनुसार हों तथापि वे 'यह तत्त्व है (वस्तुस्वरूप ऐसा ही है)' इस प्रकार निश्चयपना वर्त्तते हुए पदार्थों को अयथार्थतया ग्रहण करते हैं (जैसे नहीं हैं वैसे समझते हैं) वे अत्यंतफलसमृद्ध आगामी काल में परिभ्रमण करेंगे।271।
रयणसार/127 वयगुणसीलपरीसयजयं च चरियं च तव षडावसयं। झाणज्झयणं सव्वं सम्मविणा जाण भवबीयं। =बिना सम्यग्दर्शन के व्रत, 28 मूलगुण, 840,00,00 उत्तरगुण, 18000 शील, 22 परीषहों का जीतना, 13 प्रकार का चारित्र, 12 प्रकार तप, षडावश्यक, ध्यान व अध्ययन ये सब संसार के बीज हैं। (और भी देखें चारित्र , तप आदि वह-वह नाम)
मोक्षपाहुड़/97 बहिरसंगविमुक्को णा वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गथो। किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसम्मभावं।97। =बाह्य परिग्रह से रहित होने पर भी मिथ्याभाव से निर्ग्रंथ लिंग धारण करने के कारण वह परिग्रह रहित नहीं है। उसके कायोत्सर्ग और मौन धारने से क्या साध्य है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/264 आगमज्ञोऽपि...श्रमणाभासो भवति। (देखें ऊपर प्रवचनसार/264 का अर्थ) इतना कुछ होने पर भी वह श्रमणाभास है।
देखें कर्ता - 3.13 [आत्मा को परद्रव्यों का कर्ता देखने वाले भले ही लोकोत्तर हों अर्थात श्रमण हों पर वे लौकिकपने को उल्लंघन नहीं करते।]
देखें लिंग /2/1 [सम्यग्दर्शन युक्त ही नग्नरूप को निर्ग्रंथ संज्ञा प्राप्त है।]
4. निश्चय लक्षण की प्रधानता
भगवती आराधना/1347/1304 घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि कुधिदस्स। बाहिरकरणं किं से काहिदि बगणिहुदकरणस्स।1347। =बगुले की चेष्टा के समान, अंतरंग में कषाय से मलिन साधु की बाह्य क्रिया किस काम की ? वह तो घोड़े की लीद के समान है, जो ऊपर से चिकनी अंदर से दुर्गंधी युक्त होती है।
नियमसार/124 किं काहदि वनवासो कायकलेसो विचित्तउववासो। अज्झयणमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स।124। =वनवास, कायक्लेशरूप अनेकप्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि, ये सब समता रहित श्रमण को क्या कर सकते हैं।
मू.आ./982 अकसायं तु चारित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि। उवसमदि जम्हि काले तक्काले संजदो होदि।182। =अकषायपने को चारित्र कहते हैं। कषाय के वश होने वाला असंयत है। जिस काल में कषाय नहीं करता उसी काल में संयत है। ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/41)
सूत्रपाहुड़/15 अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माइ करेइ णिरवसेसाइं। तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारस्थो पुण भणिदो।15। = सर्व धर्मों को निरवशेषरूप से पालता हुआ भी जो आत्मा की इच्छा नहीं करता वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता बल्कि संसार में ही भ्रमण करता है।15।
भावपाहुड़/ मू.122 जे के वि दव्वसमणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति। छिंदंति भावसमणा झाणकुठारेहिं भवरुक्खं।122। =इंद्रिय विषयों के प्रति व्याकुल रहने वाले द्रव्य श्रमण भववृक्ष का छेदन नहीं करते, ध्यानरूपी कुठार के द्वारा भाव श्रमण ही भववृक्ष का छेदन करते हैं। (देखें चारित्र /4/3 तथा लिंग/2/2)
देखें चारित्र /4/3 [मोहादि से रहित व उपशम भाव सहित किये गये ही व्रत, समिति, गुप्ति, तप, परीषह जय आदि मूलगुण व उत्तरगुण संसारछेद के कारण हैं, अन्यथा नहीं।]
देखें ध्यान - 2.10 [महाव्रत, समिति, गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त आदि सब एक आत्मध्यान में अंतर्भूत हैं।]
देखें अनुभव - 5.5 [निश्चय धर्मध्यान मुनि को ही होता है गृहस्थ को नहीं।]
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ गा. एक एव हि स्वद्रव्यप्रतिबंध उपयोगमार्जकत्वेन मार्जितोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनं, तस्माद्भावादेव परिपूर्णश्रामण्यम् ।214। न चैकाग्रयमंतेरण श्रामण्यं सिद्धयेत् ।232। =एक स्वद्रव्य-प्रतिबंध ही, उपयोग को शुद्ध करने वाला होने से शुद्ध उपयोगरूप श्रामण्य की पूर्णता का आयतन है, क्योंकि उसके सद्भाव से परिपूर्ण श्रामण्य होता है।214। एकाग्रता के बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता।232।
5. निश्चय व्यवहार साधु का समन्वय
रयणसार/11,99 दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। झाणाझयणं मुक्खं जइधम्मं ण तं विणा तहा सो वि।11। तच्चवियारणसीलो मोक्खपहाराहणसहावजुदो। अणवरयं धम्मकहापसंगादो होइ मुणिराओ।99। = दान व पूजा ये श्रावक के मुख्य धर्म हैं। इनके बिना श्रावक नहीं होता। परंतु साधुओं को ध्यान व अध्ययन प्रधान हैं। इनके बिना यतिधर्म नहीं होता।11। जो मुनिराज सदा तत्त्वविचार में लीन रहते हैं, मोक्षमार्ग (रत्नत्र) का आराधन करना जिसका स्वभाव है और जो निरंतर धर्मकथा में लीन रहते हैं अर्थात् यथा अवकाश रत्नत्रय की आराधना व धर्मोपदेशादि रूप दोनों प्रकार की क्रियाएँ करते हैं वे यथार्थ मुनि हैं।99।
प्रवचनसार/214 चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि। पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो। = जो श्रमण (अंतरंग में तो) सदा ज्ञान व दर्शन आदि में प्रतिबद्ध रहता है और (बाह्य में) मूलगुणों में प्रयत्नशील विचरण करता है, वह परिपूर्ण श्रामण्यवान् है।214।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/245 ये खलु श्रामण्यपरिणतिं प्रतिज्ञायापि जीवितकषायकणतया समस्तपरद्रव्यनिवृत्तिप्रवृत्तिप्रवृत्तसुविशुद्धदृशिज्ञप्तिस्वभावात्मतत्त्ववृत्तिरूपां शुद्धोपयोगभूमिकामधिरोढुं न क्षमंते ते तदुपकंठनिविष्टा: कषायकुंठीकृतशक्तयो नितांतमुत्कंठुलमनस: श्रमणा: किं भवेयुर्न वेत्यत्राभिधीयते। 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं' इति स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छुभोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थसमवाय:। तत: शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसद्भावाद्भवेयु: श्रमणा: किंतु तेषां शुद्धोपयोगिभि: समं समकाष्ठत्वं न भवेत्, यत: शुद्धोपयोगिनो निरस्तसमस्तकषायत्वादनास्रवा एव। इमे पुनरनवकीर्णकषायकणत्वात्सास्रवा एव।=प्रश्न-जो वास्तव में श्रामण्यपरिणति की प्रतिज्ञा करके भी, कषायकण के जीवित होने से समस्त परद्रव्य से निवृत्ति से प्रवर्त्तमान जो सुविशुद्ध दर्शनज्ञान स्वभाव आत्मतत्त्व में परिणतिरूप शुद्धोपयोग भूमिका उसमें आरोहण करने को असमर्थ हैं; वे (शुभोपयोगी) जीव-जो कि शुद्धोपयोगभूमिका के उपकंठ (तलहटी में) निवास कर रहे हैं, और कषाय ने जिनकी शक्ति कुंठित की है, तथा जो अत्यंत उत्कंठित मन वाले हैं, वे श्रमण हैं या नहीं ? उत्तर-(आचार्य ने इसी ग्रंथ की 11वीं गाथा में) स्वयं ऐसा कहा है कि धर्म से परिणमित स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्धोपयोग में युक्त हो तो मोक्ष सुख को प्राप्त करता है, और यदि शुभोपयोगवाला हो तो स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है।11। इसलिए शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थ समवाय है। इसलिए शुभोपयोगी भी उनके धर्म का सद्भाव होने से श्रमण है। किंतु वे शुद्धोपयोगियों के साथ समान कोटि के नहीं हैं। क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों के निरस्त किया होने से निरास्रव ही हैं, और ये शुभोपयोगी तो कषायकण के विनष्ट न होने से सास्रव ही हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/252 यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्ते: श्रमणस्य तत्प्रच्यावनहेतो: कस्याप्युपसर्गस्योनिपात: स्यात् स शुभोपयोगिन: स्वशक्त्या प्रतिचिकीर्षा प्रवृत्तिकाल:। इतरस्तु स्वयं शुद्धात्मवृत्ते: समधिगमनाय केवलं निवृत्तिकाल एव। =जब शुद्धात्म परिणति को प्राप्त श्रमण को, उससे च्युत करने वाले कारण-कोई उपसर्ग आ जाय, तब वह काल, शुद्धोपयोगी को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिकार करने की इच्छारूप प्रवृत्तिकाल है; और उसके अतिरिक्त का काल अपनी शुद्धात्मपरिणति की प्राप्ति के लिए केवल निवृत्ति का काल है।
अयथार्थ साधु सामान्य निर्देश
1. अयथार्थ साधु की पहचान
भगवती आराधना/290-293 एसा गणधरमेरा आयारत्थाण वण्णिया सुत्तें। लोगसुहाणुरदाणं अप्पच्छंदो जहिच्छेए।290। सीदावेइ विहारं सुहसीलगुणेहिंजो अबुद्धीओ। सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो।291। पिंडं उवधिं सेज्जामविसोधिय जो खु भुंजमाणो हु। मूलट्ठाणं पत्तो बालोत्तिय णो समणकालो।292। कुलगामणयररज्जं पयहिय तेसु कुणइ दु ममत्तिं जो। सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिरसारो।293।=जो लोकों का अनुसरण करते हैं और सुख की इच्छा करते हैं उनका आचरण मर्यादा स्वरूप माना नहीं जाता है। उनमें अनुरक्त साधु स्वेच्छा से प्रवर्तते हैं ऐसा समझना चाहिए।290। यथेष्ट आहारादि सुखों में तल्लीन होकर जो मूर्ख मुनि रत्नत्रय में अपनी प्रवृत्ति शिथिल करता है वह द्रव्यलिंगी है ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि, वह इंद्रिय संयम और प्राणिसंयम से नि:सार है।291। उद्गमादि दोषों से युक्त आहार, उपकरण, वसतिका, इनका जो साधु ग्रहण करता है। जिसको प्राणिसंयम और इंद्रियसंयम है ही नहीं, वह साधु मूलस्थान-प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है (देखें प्रायश्चित्त - 4.2)। वे अज्ञानी हैं, केवल नग्न हैं, वह यति भी नहीं है और न आचार्य है।292। जो मुनि कुल, गाँव, नगर और राज्य को छोड़कर उनमें पुन: प्रेम करता है अर्थात् उनमें मेरेपने की बुद्धि करता है, वह केवल नग्न है, संयम से रहित है।293। ( भगवती आराधना/1319-1325 )
रयणसार/106-114 देहादिसु अणुरत्ता विसयासत्ता कसायसंजुत्ता। अप्पसहावे सुत्ता ते साहू सम्मपरिचत्ता।106। संघविरोहकुसीला सच्छंदा रहियगुरुकुला मूढा। रायाइसेवया ते जिणधम्मविराहिया साहू।108। ण सहंति इयरदप्पं थुवंति अप्पाण अप्पमाहप्पं। जिब्भ णिमित्तं कुणंति ते साहू सम्मउम्मुक्का।114। =जो मुनि शरीर भोग व सांसारिक कार्यों में अनुरक्त रहते हैं, जो विषयों के सदा अधीन रहते हैं, कषायों को धारण करते हैं, आत्मस्वभाव में सुप्त हैं, वे साधु सम्यक्त्व रहित हैं।106। ( भगवती आराधना/1316-1347 ) जो संघ से विरोध करता है, कुशील सेवन करता है, स्वच्छंद रहता है, गुरुकुल में नहीं रहता, राजा आदि की सेवा करता है वह अज्ञानी है, जिनधर्म का विराधक है।108। जो दूसरे के ऐश्वर्य व अभिमान को सहन नहीं करता, अपनी महिमा आप प्रगट करता है और वह भी केवल स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति के लिए, वह साधु सम्यक्त्व रहित है।114।
देखें मंत्र - 1.3 [मंत्र, तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक, उच्चाटन, वशीकरण आदि करने वाला साधु नहीं है।]
देखें श्रुतकेवली - 1.3 [विद्यानुवाद के समाप्त होने पर आयी हुई रोहिणी आदि विद्याओं के द्वारा दिखाये गये प्रलोभन में जो नहीं आते हैं वे अभिन्न दशपूर्वी है और लोभ को प्राप्त हो जाने वाले भिन्न दशपूर्वी हैं।]
देखें साधु - 5.7 [पार्श्वस्थादि मुनियों का आचार]
2. अयथार्थ साधु श्रावक से भी हीन है
भावपाहुड़/ मू./155 ते वि य भणामि हं जे सयलकलासीलसंजमगुणेहिं। बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो।155। =शील और संयम की कला से पूर्ण है उसी को हम मुनि कहते हैं; परंतु जो बहुत दोषों का आवास है तथा मलिन चित्त है वह श्रावक के समान भी नहीं है।
देखें निंदा - 6 [मिथ्यादृष्टि व स्वच्छंद द्रव्यलिंगी साधुओं को, पाप श्रमण, नट श्रमण, पाप जीव, तिर्यंचयोनि, नारद, लौकिक, अभव्य, राजवल्लभ, नौकर आदि निंदनीय नाम दिये गये हैं।]
3. अयथार्थ साधु दु:ख का पात्र
भावपाहुड़/ मू./100 पावंति भावसमणा कल्लाणपरंपराइं सोक्खाइं। दुक्खाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए।100। =भावश्रमण तो कल्याण की परंपरा रूप सुख को पाता है और द्रव्य श्रमण तिर्यंच मनुष्य व कुदेव योनियों में दु:ख पाता है।100।
4. अयथार्थ साधु से यथार्थ श्रावक श्रेष्ठ है
भगवती आराधना/354/559 पासत्थसदसहस्सादो वि सुसीलो वरं खु एक्को वि। जं संसिदस्स सीलं दंसणणाणचरणाणि वड्ढंति।354। [पासत्थसदसहस्सादो वि पार्श्वस्थग्रहणं चारित्रक्षुद्रोपलक्षणार्थं। (वि.टीका)] =यहाँ पार्श्वस्थ शब्द से चारित्रहीन मुनियों का ग्रहण समझना चाहिए। अर्थात् चारित्रहीन मुनि लक्षावधि हों तो भी एक सुशील मुनि उनसे श्रेष्ठ समझना चाहिए। कारण कि सुशील मुनीश्वर के आश्रय से शील, दर्शन, ज्ञान और चारित्र बढ़ते हैं।
रत्नकरंड श्रावकाचार/33- गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुने:।33। =दर्शनमोहरहित गृहस्थ भी मोक्षमार्ग में स्थित है किंतु मोहवान् मुनि भी मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। इस कारण मोही मुनि से निर्मोही सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है।
देखें विनय - 5.3 [इस निकृष्ट काल के श्रावकों में तो किसी प्रकार श्रावकपना बन भी जाता है पर अयथार्थ मुनियों में किसी प्रकार भी मुनिपना संभव नहीं।]
पुलाक व पार्श्वस्थ आदि साधु
1. पुलाकादि में संयम श्रुतादिक की प्ररूपणा
प्रमाण-( समयसार/9/47/461/8 ); ( राजवार्तिक/9/47/4/637/32 ); ( चारित्रसार/103/2 )।
संकेत- =इसके समान ;सा.=सामायिक संयम; छेद=छेदोपस्थाप संयम। परि.=परिहार विशुद्धि संयम; सूक्ष्म.=सूक्ष्म सांप्राय संयम।
2. पुलाकादि में संयम लब्धिस्थान
( सर्वार्थसिद्धि/9/47/462/12 ); ( राजवार्तिक/9/47/4/638/19 ); ( चारित्रसार/106/1 )। संकेत-असं.=असंख्यात
स्थान | स्वामित्व |
प्र.असं.स्थान | पुलाक व कषाय कुशील। |
द्वि.असं.स्थान | केवल कषाय कुशील। |
तृ.असं.स्थान | कषाय व प्रतिसेवना कुशील और बकुश। |
चतु.असं.स्थान | कषाय व प्रतिसेवना कुशील। |
पंच.असं.स्थान | केवल कषाय कुशील। |
षष्ठ.असं.स्थान | निर्ग्रंथों के अकषाय स्थान। |
अंतिम 1 स्थान | स्नातकों का अकषाय स्थान। |
3. पुलाक आदि पाँचों निर्ग्रंथ हैं-
सर्वार्थसिद्धि/9/46/460/12- त एते पंचापि निर्ग्रंथा:। चारित्रपरिणामस्य प्रकर्षापकर्षभेदे सत्यपि नैगमसंग्रहादिनयापेक्षया सर्वेऽपि ते निर्ग्रंथा इत्युच्यंते। = ये पाँचों ही निर्ग्रंथ होते हैं। इनमें चारित्ररूप परिणामों की न्यूनाधिकता के कारण भेद होने पर भी नैगम और संग्रह आदि (द्रव्यार्थिक) नयों की अपेक्षा वे सब निर्ग्रंथ कहलाते हैं। ( चारित्रसार/101/1 )
4. पुलाकादि के निर्ग्रंथ होने संबंधी शंका समाधान-
राजवार्तिक/9/46/6-12/637/1- यथा गृहस्थश्चारित्रभेदांनिर्ग्रंथव्यपदेशभाग् न भवति तथा पुलाकादीनामपि प्रकृष्टाप्रकृष्टमध्यचारित्रभेदांनिर्ग्रंथत्वं नोपपद्यते।6।...न वैष दोष:। कुत:...यथा जात्या चारित्राध्ययनादिभेदेन भिन्नेषु ब्राह्मणशब्दोऽवशिष्टो वर्तते तथा निर्ग्रंथशब्दोऽपि इति।7। किंच, ...यद्यपि निश्चयनयापेक्षया गुणहीनेषु न प्रवर्तते तथापि संग्रहव्यवहारनय-विवक्षावशात् सकलविशेषसंग्रहो भवति।8। किंच दृष्टिरूपसामान्यात् ।9। भग्नव्रते वृत्तावतिप्रसंग इति चेत्; न; रूपाभावात् ।10। अन्यस्मिन् सरूपेऽतिप्रसंग इति चेत्; न; दृष्टयभावात् ।11। ...किमर्थ: पुलाकादिव्यपदेश: ... चारित्रगुणस्योत्तरोत्तरप्रकर्षे वृत्तिविशेषख्यापनार्थ: पुलाकाद्युपदेश: क्रियते।12। = प्रश्न-जैसे गृहस्थ चारित्रभेद होने के कारण निर्ग्रंथ नहीं कहा जाता, वैसे ही पुलाकादि को भी उत्कृष्ट मध्यम जघन्य आदि चारित्र भेद होने पर भी निर्ग्रंथ नहीं कहना चाहिए ? उत्तर-1. जैसे चारित्र व अध्ययन आदि का भेद होने पर भी सभी ब्राह्मणों में जाति की दृष्टि से ब्राह्मण शब्द का प्रयोग समानरूप से होता है, उसी प्रकार पुलाक आदि में भी निर्ग्रंथ शब्द का प्रयोग हो जाता है। 2. यद्यपि निश्चय नय से गुणहीनों में निर्ग्रंथ शब्द नहीं प्रवर्तता परंतु संग्रह और व्यवहार नय की अपेक्षा वहाँ भी उस शब्द का प्रयोग सर्वसंग्रहार्थ कर लिया जाता है। 3. सम्यग्दर्शन और नग्नरूप की अपेक्षा भी वे सब समान हैं। प्रश्न-यदि व्रतों का भंग हो जाने पर भी आप इनमें निर्ग्रंथ शब्द की वृत्ति मानते हैं तब तो गृहस्थों में भी इसकी वृत्ति होने का प्रसंग प्राप्त होता है? उत्तर-नहीं होता, क्योंकि वे नग्नरूपधारी नहीं है। प्रश्न-तब जिस किसी भी नग्नरूपधारी मिथ्यादृष्टि में उसकी वृत्ति का प्रसंग प्राप्त हो जायगा ? उत्तर-नहीं उनमें सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता है [और सम्यग्दर्शन युक्त ही नग्नरूप को निर्ग्रंथ संज्ञा प्राप्त है-(देखें लिंग /2/1)] प्रश्न-फिर उसमें पुलाक आदि भेदों का व्यपदेश ही क्यों किया? उत्तर-चारित्रगुण का क्रमिक विकास और क्रमप्रकर्ष दिखाने के लिए इनकी चर्चा की है।
5. निर्ग्रंथ होते हुए भी इनमें कृष्ण लेश्या क्यों-
सर्वार्थसिद्धि/9/47/462/ फुटनोट में अन्य पुस्तक से उपलब्ध पाठ-कृष्णलेश्यादित्रयं तयो: कथमिति चेदुच्यते-तयोरुपकरणासक्तिसंभवादार्तध्यानं कदाचित्संभवति, आर्तध्यानेन च कृष्णादिलेश्यात्रितयं संभवतीति। =प्रश्न-बकुश और प्रतिसेवना कुशील (यदि निर्ग्रंथ हैं तो) इन दोनों के कृष्ण नील कापोत ये तीन लेश्याएँ कैसे हो सकती हैं ? उत्तर-उनमें उपकरणों के प्रति आसक्ति भाव की संभावना होने से कदाचित् आर्तध्यान संभव है और आर्तध्यान में कृष्णादि तीनों लेश्याओं का होना संभव है। ( तत्त्वार्थवृत्ति/9/47/316/21 )
तत्त्वार्थवृत्ति/9/47/316/23 मतांतरम्-परिग्रहसंस्काराकांक्षायां स्वमेवोत्तरगुणविराधनायामार्तसंभवादार्ताविनाभावि च लेश्याषट्कम् । पुलाकस्यार्तकारणाभावान्न षड् लेश्या:। =दूसरे मत की अपेक्षा परिग्रह और शरीर संस्कार की आकांक्षा में स्वयमेव उत्तर गुणों की विराधना होती है, जिससे कि आर्तध्यान संभव है। और उसके होने पर उसकी अविनाभावी छहों लेश्याएँ भी संभव हैं। पुलाक साधु के आर्त के उन कारणों का अभाव होने से छह लेश्या नहीं हैं।
6. पार्श्वस्थादि मुनि भ्रष्टाचारी हैं-
भगवती आराधना/1306-1315- दूरेण साधुसत्थं छंडिय सो उप्पधेण खु पलादि। सेवदि कुसीलपडिसेवणाओ जो सुत्तदिट्ठाओ।1306। इंदियकसायगुरुगत्तणेण चरणं तणं व पस्संतो। णिद्दंधसो भवित्ता सेवदि हु कुसीलसेवाओ।1307। सो होदि साधु सत्थादु णिग्गदो जो भवे जधाछंदो। उस्सुत्तमणुवदिट्ठं च जधिच्छाए किकप्पंतो।1310। इय एदे पंचविधा जिणेहिं सवणा दुगुंच्छिदा सुत्ते। इंदियकसायगुरुयत्तणेण णिच्चंपि पडिकुद्धा।1315। =भ्रष्टमुनि दूर से ही साधुसार्थ का त्याग करके उन्मार्ग से पलायन करता है तथा आगम में कहे हुए कुशील नामक मुनि के दोषों का आचरण करते हैं।1306। इंद्रिय के विषयों तथा कषाय के तीव्र परिणामों में तत्पर हुए वे मुनि चारित्र को तृणवत् समझते हुए निर्लज्ज होकर कुशील का सेवन करते हैं।1307। जो मुनि साधुसार्थ का त्यागकर स्वतंत्र हुआ है, जो स्वेच्छाचारी बनकर आगमविरुद्ध और पूर्वाचार्यों के द्वारा न कहे हुए आचारों की कल्पना करता है, उसे स्वच्छंद नाम का भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए।1310। इन पाँच तरह के भ्रष्ट मुनियों की जिनेश्वरों ने आगम में निंदा की है। ये पाँचों इंद्रिय व कषाय के गुरुत्व से सिद्धांतानुसार आचरण करने वाले मुनियों के प्रतिपक्षी हैं।1315।
चारित्रसार/144/2 एते पंच श्रमणा जिनधर्मबाह्या:। =ये पाँचों मुनि जिनधर्मबाह्य हैं। ( भावपाहुड़ टीका/14/137/23 )।
देखें प्रायश्चित्त - 4.2/8 [इन पाँचों मुनियों को मूलच्छेद नाम का प्रायश्चित्त दिया जाता है।]
7. पाँचों के भ्रष्टाचार की प्ररूपणा
भगवती आराधना/1952-1957 सुहसादा किंमज्झा गुणसायी पावसुत्तपडिसेवी। विसयासापडिबद्धा गारवगुरुया पमाइल्ला।1952। समिदीसु य गुत्तीसु य अभाविदा सीलसंजमगुणेसु। परतत्तीसु पसत्ता अणाहिदा भावसुद्धीए।1953। गंथाणियत्ततण्हा बहुमोहा सबलसेवणासेवी। सद्दरसरूवगंधे फासेसु य मुच्छिदा घडिदा।1954। परलोगणिप्पिवासा इहलोगे चेव जे सुपडिबद्धा। सज्झायादीसु य जे अणुट्ठिदा संकिलिट्ठमदी।1955। सव्वेसु य मूलुत्तरगुणेसु तह ते सदा अइचरंता। ण लहंति खवोवसमं चरित्तमोहस्स कम्मस्स।1956। एवं मूढमदीया अवंतदोसा करेंति जे कालं। ते देवदुब्भगत्तं मायामोसेण पावंति।1957। = ये पाँचों मुनि सुखस्वभावी होते हैं। इसलिए 'मेरा इनसे कुछ भी संबंध नहीं' यह विचारकर संघ के सब कार्य से उदासीन हो जाते हैं। सम्यग्दर्शनादि गुणों के प्रति निरुत्साही हो जाते हैं। नीति, वैद्यक, सामुद्रिक आदि पाप शास्त्रों का आदर करते हैं। इष्ट विषयों की आशा से बँधे हुए हैं। तीन गारव से सदा युक्त और पंद्रह प्रमादों से पूर्ण हैं।1952। समिति गुप्ति की भावनाओं से दूर रहते हैं। संयम के भेदरूप जो उत्तरगुण व शील वगैरह इनसे भी दूर रहते हैं। दूसरों के कार्यों की चिंता में लगे रहते हैं। आत्मकल्याण के कार्यों से कोसों दूर हैं, इसलिए इनमें रत्नत्रय की शुद्धि नहीं रहती।1953। परिग्रह में सदा तृष्णा, अधिक मोह व अज्ञान, गृहस्थों सरीखे आरंभ करना, शब्द रस गंध रूप और स्पर्श इन विषयों में आसक्ति।1954। परलोक के विषय में निस्पृह, ऐहिक कार्यों में सदा तत्पर, स्वाध्याय आदि कार्यों में मन न लगना, संक्लेश परिणाम।1955। मूल व उत्तर गुणों में सदा अतिचार युक्तता, चारित्रमोह का क्षयोपशम न होना।1956। ये सब उन अवसन्नादि मुनियों के दोष हैं, जिन्हें नहीं हटाते हुए वे अपना सर्व आयुष्य व्यतीत कर देते हैं। जिससे कि इन मायावी मुनियों को देव दुर्गति अर्थात् नीच देवयोनि की प्राप्ति होती है।1957।
8. पार्श्वस्थादि की संगति का निषेध
भगवती आराधना/339,341 पासत्थादीपणयं णिच्चं वज्जेह सव्वधा तुम्हे। हंदि हु गेलणदोसेण होइ पुरिसस्स तम्मयदा।339। संविग्गस्सपि संसग्गीए पीदी तदो य वीसंभो। सदि वीसंभे य रदी होइ रदीए वि तम्मयदा।341। =पार्श्वस्थादि पाँच भ्रष्ट मुनियों का तुम दूर से त्याग करो, क्योंकि उनके संसर्ग से तुम भी वैसे ही हो जाओगे।339। वह ऐसे कि संसारभययुक्त मुनि भी इनका सहवास करने से, पहले तो प्रीतियुक्त हो जाता है और तदनंतर उनके विषय में मन में विश्वास होता है, अनंतर उनमें चित्त विश्रांति पाता है अर्थात् आसक्त होता है और तदनंतर पार्श्वस्थादिमय बन जाता है।341।
आचार्य, उपाध्याय व साधु
1. चारित्रादि की अपेक्षा तीनों एक हैं
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/2 ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारयुक्तत्वात्संभावितपरमशुद्धोपयोगभूमिकानाचार्योपाध्यायसाधुत्वविशिष्टान् श्रमणांश्च प्रणमामि। =ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचारयुक्त होने से जिन्होंने शुद्धोपयोग भूमिका को प्राप्त किया है, ऐसे श्रमणों को-जो कि आचार्यत्व उपाध्यायत्व और साधुत्वरूप विशेषों से विशिष्ट हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/2/4/20 श्रमणशब्दवाच्यानाचार्योपाध्यायसाधूंश्च। =आचार्य, उपाध्याय व साधु ये तीनों श्रमण शब्द के वाच्य हैं। (और भी देखें मंत्र - 2/5)।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/639-644 एको हेतु: क्रियाप्येका वेषश्चैको बहि: सम:। तपो द्वादशधा चैकं व्रतं चैकं च पंचधा।639। त्रयोदविधं चैकं चारित्रं समतैकधा। मूलोत्तरगुणैश्चैके संयमोऽप्येकधा मत:।640। परीषहोपसर्गाणां सहनं च समं स्मृतम् । आहारादिविधिश्चैकश्चर्या स्थानासनादय:।641। मार्गो मोक्षस्य सद्दृष्टिर्ज्ञानं चारित्रमात्मन:। रत्नत्रयं समं तेषामपि चांतर्बहि:स्थितम् ।642। ध्याता ध्यानं च ध्येयं च ज्ञाता ज्ञानं च ज्ञेयसात् । चतुर्धाराधना चापि तुल्या क्रोधादिजिष्णुता।643। किंवात्र बहुनोक्तेन तद्विशेषोऽवशिष्यते। विशेषाच्छेषनि:शेषो न्यायादस्त्यविशेषभाक् ।644। =उन आचार्यादिक तीनों का एक ही प्रयोजन है, क्रिया भी एक है, बाह्य वेष, बारह प्रकार का तप और पंच महाव्रत भी एक हैं।639। तेरह प्रकार का चारित्र, समता, मूल तथा उत्तर गुण, संयम।640। परीषह और उपसर्गों का सहन, आहारादि की विधि, चर्या, शय्या, आसन।641। मोक्षमार्ग रूप आत्म के सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र-इस प्रकार ये अंतरंग और बहिरंग रत्नत्रय।642। ध्याता ध्यान व ध्येय, ज्ञाता, ज्ञेयाधीन ज्ञान, चार प्रकार आराधना तथा क्रोध आदि का जीतना ये सब समान व एक हैं।643। अधिक कहाँ तक कहा जाय उन तीनों की सब ही विषयों में समानता है।644। (और भी देखें आचार्य व उपाध्याय के लक्षण )।
देखें देव - I.1.4-5 [रत्नत्रय की अपेक्षा तीनों में कुछ भी भेद न होने से तीनों ही देवत्व को प्राप्त है।]
देखें ध्येय - 3.4 [रत्नत्रय से संपन्न होने के कारण तीनों ही ध्येय हैं।]
2. तीनों एक ही आत्मा की पर्यायें हैं
मोक्षपाहुड़/104 अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहू पंचपरमेट्ठी। ते वि हु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हु मे सरणं। =अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच एक आत्मा में ही चेष्टारूप हैं, इसलिए मुझको एक आत्मा ही शरण है।
3. तीनों में कथंचित् भेद
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/638 आचार्य: स्यादुपाध्याय: साधुश्चेति त्रिधा गति:। स्युर्विशिष्टपदारूढास्त्रयोऽपि मुनिकुंजरा:।638। =आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकार उस गुरु की तीन अवस्थाएँ होती हैं, क्योंकि ये तीनों मुनि कुंजर आचार्य आदि विशेष-विशेष पद में आरूढ माने जाते हैं।638।
देखें उपाध्याय धवला 1/1,1,1/ पृ.50/1 [संग्रह अनुग्रह को छोड़कर शेष बातों में आचार्य व उपाध्याय समान हैं।] (विशेष देखें उस उसके लक्षण )।
4. श्रेणी आदि आरोहण के समय इन उपाधियों का त्याग
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/709-713 किंचास्ति यौगिकी रूढि: प्रसिद्धा परमागमे। बिना साधुपदं न स्यात्केवलोत्पत्तिरंजसा।709। तत्र चोक्तमिदं सम्यक् साक्षात्सर्वार्थसाक्षिणा। क्षणमस्ति स्वत: श्रेण्यामधिरूढस्य तत्पदम् ।710। यतोऽवश्यं स सूरिर्वा पाठक: श्रेण्यनेहसि। कृत्स्नचिंतानिरोधात्मलक्षणं ध्यानमाश्रयेत् ।711। तत: सिद्धमनायासात्तत्पदत्वं तयोरिह। नूनं बाह्योपयोगस्य नावकाशोऽस्ति यत्र तत् ।712। न पुनश्चरणं तत्र छेदोपस्थापनां वरम् । प्रागादाय क्षणं पश्चात्सूरि: साधुपदं श्रयेत् ।713। =परमागम में यह अन्वर्थ रूढि प्रसिद्ध है कि वास्तव में साधु पद के ग्रहण किये बिना किसी को भी केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है।709। तथा वहाँ प्रत्यक्ष ज्ञाता सर्वज्ञ देव ने अच्छी तरह कहा है कि श्रेणी पर अधिरूढ आचार्य आदि को क्षण भर में वह साधु पद स्वयं प्राप्त हो जाता है।710। क्योंकि, वह आचार्य और उपाध्याय श्रेणी चढ़ने के काल में संपूर्ण चिंताओं के निरोधरूप ध्यान को अवश्य ही धारण करते हैं।711। इसलिए सिद्ध होता है कि श्रेणी काल में उनको अनायास ही वह साधुपद प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वहाँ पर निश्चय से बाह्य उपयोग के लिए बिलकुल अवकाश नहीं मिलता।712। किंतु ऐसा नहीं है कि आचार्य श्रेणी के आरोहण काल में पहिले छेदोपस्थापनारूप चारित्र को ग्रहण करके पीछे साधुपद को ग्रहण करते हो।713।
पुराणकोष से
(1) अर्हंत, सिद्ध, सूरि (आचार्य), उपाध्याय और साधु इन पाँच परमेष्ठियों में पाँचवें परमेष्ठी । ये मोक्षमार्ग (रत्नत्रय) को सिद्ध करने में सदा दत्तचित्त रहते हैं । इन्हें लोक को प्रसन्न करने का प्रयोजन नहीं रहता । इनका समागम पापहारी होता है । ये परोपकारी और दयालु होते हैं । ये बारह प्रकार के तपों द्वारा निर्वाण की साधना करते हैं । निर्वाण की साधना करने से ही इन्हें यह नाम प्राप्त हुआ है । ये मन, वचन और काय से (1-5) पाँच महाव्रतों को धारण करते, (6-10) पाँच समितियों को पालते, (11-15) पांचों इंद्रियों का निरोध करते और (16) समता (17) वंदना, (18) स्तुति, (19) प्रतिक्रमण (20) स्वाध्याय (21) कायोत्सर्ग तथा छ: आवश्यक क्रियाएं और (22) केशलोंच करते हैं (23) स्नान नहीं
करते, (24) वस्त्र धारण नहीं करते, (25) दाँतों का मैल नहीं छुटाते, (26) सदैव पृथिवी पर ही शयन करते, (27) आहार दिन में एक ही बार, (28) खड़े-खड़े लेते हैं । इनके ये अट्ठाईस मूलगुण हैं जिन्हें ये सतत पालते हैं । महापुराण 9.162-165, 11. 63-75, पद्मपुराण 89.30, 109.89, हरिवंशपुराण 1.28, 2.117-129
(2) गुण और दोषों में गुणों को ग्रहण करने वाले सत्पुरुष । पद्मपुराण 1.35
(3) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25. 163