मनु: Difference between revisions
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Revision as of 21:47, 14 October 2022
सिद्धांतकोष से
- विजयार्ध की उत्तर श्रेणी का एक नगर–देखें विद्याधर ;
- कुलकर का अपर नाम–देखें शलाका पुरुष - 9.3 धवला 1/1,1,2/20/1 मनुःज्ञानं = मनु ज्ञान को कहते हैं।
पुराणकोष से
(1) भरतक्षेत्र में भोगभूमि की स्थिति समाप्त होने पर तीसरे काल में पल्य का आठवां भाग शेष रहने पर उत्पन्न हुए कुलों के कर्त्ता-कुलकर ये चौदह हुए हैं । वे हैं― प्रतिश्रुत, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विपुलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचंद्र चंद्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराय । इन्होंने हा, मा और धिक् ऐसे शब्दों का दंड रूप में प्रयोग करके प्रजा के कष्ट को दूर किया था । ये प्रजा के जीवन का उपाय जानने, मनन करने और बताने से इस नाम से विख्यात हुए थे । आर्य पुरुषों को कुल की भांति इकट्ठे रहने का उपदेश देने के ये कुलकर, वंश-संस्थापक होने से कुलधर और युग के आदि में होने से युगादि पुरुष भी कहे जाते थे । इन कुलकरों में आदि के पाँच ने अपराधी मनुष्यों के लिए ‘‘हाँ’’ नामक दंड की व्यवस्था की थी । छठे से दसवें कुलकर तक हुए पाँच कुलकरों ने ‘‘हाँ’’ ‘‘मा’’ और शेष ने ‘‘हाँ’’ ‘‘मा’’ ‘‘धिक्’’ इस प्रकार की दंड व्यवस्था की थी । वृषभदेव तीर्थंकर भी थे और कुलकर भी । कल्पवृक्षों का ह्रास होने पर ये गंगा और सिंधु महानदियों के दक्षिण भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे । प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति की ऊँचाई अठारह सौ धनुष, इसके पुत्र दूसरे कुलकर सन्मति की तेरह सौ धनुष और तीसरे कुलकर क्षेमंकर की आठ सौ धनुष थी । आगे प्रत्येक कुलकर की ऊँचाई पच्चीस-पच्चीस धनुष कम होती गयी । अंतिम कुलकर नाभिराय की ऊँचाई पांच सौ धनुष थी । सभी कुलकर समचतुरस्रसंस्थान और वज्रवृषभनाराचसंहनन से युक्त गंभीर तथा उदार थे । इन्हें अपने पूर्वभव का स्मरण था । इनकी मनु संज्ञा थी । इनके चक्षुष्मान्, यशस्वी और प्रसेनजित् ये तीन प्रियंगुपुष्प के समान श्याम-कांति के धारी थे । चंद्राभ चंद्रमा के समान और शेष तप्त स्वर्णप्रभा से युक्त थे । मपु 3. 211-215, 229-232 हरिवंशपुराण 7.123-124, 171-175, 8.1 पांडवपुराण 2.103-107
(2) अदिति देवी द्वारा नमि और विनमि को दिये गये विद्याओं के आठ निकायों में प्रथम निकाय । हरिवंशपुराण 22.57
(3) विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का सत्ताईसवाँ नगर । हरिवंशपुराण 22.88
(4) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.171