वध परिषह: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/9/424/9 </span><span class="SanskritText">निशितविशसनमुशलमुद्गराद्रिप्रहरणताडनपीडनादिभिर्व्यापाद्यमान-<br /> | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/9/424/9 </span><span class="SanskritText">निशितविशसनमुशलमुद्गराद्रिप्रहरणताडनपीडनादिभिर्व्यापाद्यमान-<br /> | ||
शरीरस्य व्यापदकेषु मनागपि मनोविकारमकुर्वती मम पुराकृतदुष्कर्मफलमिदमिमे वराकाः किं कुर्वंति, शरीरमिदं जलबुद्बुद्वद्विशरणस्वभावं व्यसनकारणमेतैबध्यिते, संज्ञानदर्शनचारित्राणि मम न केनचिदुपहन्यते इति चिंतयतो वासिलक्षणचंदनानुलेपनसमदर्शिनो वधपरिषहक्षमा मन्यते ।</span> = <span class="HindiText">तीक्ष्ण तलवार, | शरीरस्य व्यापदकेषु मनागपि मनोविकारमकुर्वती मम पुराकृतदुष्कर्मफलमिदमिमे वराकाः किं कुर्वंति, शरीरमिदं जलबुद्बुद्वद्विशरणस्वभावं व्यसनकारणमेतैबध्यिते, संज्ञानदर्शनचारित्राणि मम न केनचिदुपहन्यते इति चिंतयतो वासिलक्षणचंदनानुलेपनसमदर्शिनो वधपरिषहक्षमा मन्यते ।</span> = <span class="HindiText">तीक्ष्ण तलवार, मूसल और मुद्गर आदि अस्त्रों के द्वारा ताड़न और पीड़न आदि से जिसका शरीर तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है तथापि मारने वालों पर जो लेशमात्र भी मन में विकार नहीं लाता, यह मेरे पहले किये गये दुष्कर्म का फल है, ये बेचारे क्या कर सकते हैं, यह शरीर जल के बुलबुले के समान विशरण स्वभाव है, दुख के कारण को ही ये अतिशय बाधा पहुँचाते हैं, मेरे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र को कोई नष्ट नहीं कर सकता । इस प्रकार जो विचार करता है, वह वसूली से छीलने और चंदन से लेप करने में समदर्शी होता है, इसलिए उसके वध परीषह जय माना जाता है । (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/9/18/611/4 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/129/3 </span>) । </span></p> | ||
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Revision as of 09:23, 15 October 2022
सर्वार्थसिद्धि/9/9/424/9 निशितविशसनमुशलमुद्गराद्रिप्रहरणताडनपीडनादिभिर्व्यापाद्यमान-
शरीरस्य व्यापदकेषु मनागपि मनोविकारमकुर्वती मम पुराकृतदुष्कर्मफलमिदमिमे वराकाः किं कुर्वंति, शरीरमिदं जलबुद्बुद्वद्विशरणस्वभावं व्यसनकारणमेतैबध्यिते, संज्ञानदर्शनचारित्राणि मम न केनचिदुपहन्यते इति चिंतयतो वासिलक्षणचंदनानुलेपनसमदर्शिनो वधपरिषहक्षमा मन्यते । = तीक्ष्ण तलवार, मूसल और मुद्गर आदि अस्त्रों के द्वारा ताड़न और पीड़न आदि से जिसका शरीर तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है तथापि मारने वालों पर जो लेशमात्र भी मन में विकार नहीं लाता, यह मेरे पहले किये गये दुष्कर्म का फल है, ये बेचारे क्या कर सकते हैं, यह शरीर जल के बुलबुले के समान विशरण स्वभाव है, दुख के कारण को ही ये अतिशय बाधा पहुँचाते हैं, मेरे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र को कोई नष्ट नहीं कर सकता । इस प्रकार जो विचार करता है, वह वसूली से छीलने और चंदन से लेप करने में समदर्शी होता है, इसलिए उसके वध परीषह जय माना जाता है । ( राजवार्तिक/9/9/18/611/4 ); ( चारित्रसार/129/3 ) ।