निकाचित व निधत्त
From जैनकोष
- लक्षण
गो.क./मू. व जी.प्र./४४०/५९३ उदये संकममुदये चउसु वि दादु कमेण णो सक्कं। उवसंतं च णिधत्तिं णिकाचिदं होदि जं कम्मं। यत्कर्म...उदयावल्यां निक्षेप्तं संक्रामयितुं चाशक्यं तन्निधत्तिर्नाम। उदयावल्यां निक्षेप्तुं संक्रामयितुमुत्कर्षयितुमपकर्षयितुं चाशक्यं तन्निकाचित्तं नाम भवति।=जो कर्म उदयावलीविषै प्राप्त करने कौ वा अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करनेकौ समर्थ न हूजे सो निधत्त कहिये। बहुरि जो कर्म उदयावली विषै प्राप्त करनेकौ, वा अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करनेकौ, वा उत्कर्षण करनेकौ समर्थ न हूजे सो निकाचित कहिए। - निकाचित व निधत्त सम्बन्धी नियम
गो.क./मू. व जी.प्र./४५०/५९९ उवसंतं च णिधत्तिं णिकाचिदं तं अपुव्वोत्ति।४५०। तत् अपूर्वकरणगुणस्थानपर्यन्तमेव स्यात् । तदुपरि गुणस्थानेषु यथासंभवं शक्यमित्यर्थ:।=उपशान्त, निधत्त व निकाचित ये तीनों प्रकार के कर्म अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यंत ही है। ऊपर के गुणस्थानों में यथासम्भव शक्य अर्थात् जो उदयावली विषै प्राप्त करनेकू समर्थ हूजै ऐसे ही कर्मपरमाणु पाइए है। - निधत्त व निकाचित कर्मों का भंजन भी सम्भव है
ध.६/१,९-९,२२/४२७/९ जिणबिंबदंसणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो। =जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय होता देखा जाता है।