अनुमति
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
स्वयं तो कोई कार्य न करना, पर अन्य को करने की राय देना, अथवा उसके द्वारा स्वयं किया जाने पर प्रसन्न होना, अनुमति कहलाता है।
1. अनुमति सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 6/8,9/514/11
अनुमतशब्दः प्रयोजकस्य मानसपरिणामप्रदर्शनार्थः ॥9॥ यथा मौनव्रतिकश्चक्षुष्मान् पश्यन् क्रियमाणस्य कार्यस्याप्रतिषेधात् अभ्युपगमात् अनुमंता तथा कारयिता प्रयोवतृत्वात् तत्समर्थाचरणावहितमनःपरिणामः अनुमंतेत्यवगम्यते।
= करने वाले के मानस-परिणामों की स्वीकृति अनुमत है। जैसे कोई मौनी व्यक्ति किये जाने वाले कार्य का यदि निषेध नहीं करता तो वह उसका अनुमोदक माना जाता है, उसी तरह कराने वाला प्रयोक्ता होनेसे और उन परिणामों का समर्थक होने से अनुमोदक है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /6/8/325 चारित्रसार पृष्ठ 88/6
2. अनुमति के भेद
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 414
पडिसेवापडिसुण्णं संवासो चेव अणुमदीतिविहा।
= प्रतिसेवा, प्रतिश्रवण, संवास ये तीन भेद अनुमति के हैं।
3. प्रतिसेवा अनुमति
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 414
उद्दिष्टं यदि भुंक्ते भोगयति च भवति प्रतिसेवा।
= उद्दिष्ट आहार का भोजन करने वाले साधु के प्रतिसेवा अनुमति नामका दोष होता है।
4. प्रतिश्रवण अनुमति
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 415
उद्दिट्ठं जदि विचरदि पुव्वं पच्छा व होदि पडिसुण्णं।
= 'यह आहार आपके निमित्त बनाया गया है' आहार से पहिले या पीछे इस प्रकार के वचन दाता के मुखसे सुन लेने पर आहार कर लेना या संतुष्ट तिष्ठना साधु के लिए प्रतिश्रवण अनुमति है।
5. संवास अनुमति
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 415
सावज्ज संकिलिट्ठो ममत्तिभावो दु संवासो ॥415॥
= यदि साधु आहारादि के निमित्त ऐसा ममत्व भाव करे कि ये गृहस्थ लोक हमारे हैं, वह उसके लिए संवास नाम की अनुमति है।
6. अनुमति त्याग प्रतिमा
रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 146
अनुमतिरारंभे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः समंतव्य ॥146॥
= जिसकी आरंभ में अथवा परिग्रह में या इस लोक संबंधी कार्यों में अनुमति नहीं है, वह समबुद्धि वाला निश्चय करके अनुमति त्याग प्रतिमा का धारी मानने योग्य है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 388, वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 300 (गुणभद्र श्रावकाचार/182),
सागार धर्मामृत अधिकार 7/31-34
चैत्यालयस्थः स्वाध्यायं कुर्यांमध्याह्नवंदनात्। ऊर्ध्वमामंत्रितः सोऽद्याद् गृहे स्वस्य परस्य वा ॥31॥ चैयथाप्राप्तमदन् देहसिद्ध्यर्थं खलु भोजनम्। देहश्च धर्मसिद्ध्यर्थं मुमुक्षुभिरपेक्ष्यते ॥32॥ चैसा मे कथं स्यादुद्दिष्टं सावद्याविष्टमश्नतः। कर्हि भैक्षामृतं भोक्ष्ये इति चेच्छेज्जितेंद्रियः ॥33॥ चैपंचाचारक्रियोद्युक्तो निष्क्रमिष्यन्नसौ गृहात्। आपृच्छेत गुरून् बंधूं पुत्रादींश्च यथोचितम् ॥34॥
= इस अनुमति विरति श्रावक को जिनालय में रह कर ही शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए तथा मध्याह्न वंदना आदि कर लेने के पश्चात् किसी के बुलाने पर पुत्रादि के घर अथवा किसी अन्य के घर भोजन करे ॥31॥ भोजन के संबंध में इसे ऐसी भावना रखनी चाहिए कि मुमुक्षुजन शरीर की स्थिति के अर्थ ही भोजन की अपेक्षा रखते हैं और शरीर की स्थिति भी धर्मसिद्धि के अर्थ करते हैं ॥32॥ परंतु उद्दिष्ट आहार करने वाले मुझ को उस धर्म की सिद्धि कैसे हो सकती है, क्योंकि यह तो सावद्ययोग तथा जघन्य क्रियाओं के द्वारा उत्पन्न किया गया है। वह समय कब आयेगा जब कि मैं भिक्षा रूपी अमृत का भोजन करूँगा ॥33॥ पंचाचार पालन करनेवाले तथा गृहत्याग की इच्छा रखनेवाले उसको माता-पिता से, बंधुवर्ग से तथा पुत्रादिकों से यथोचित् रूपसे पूछना चाहिए ॥34॥
पुराणकोष से
(1) जंबूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमित सागर की दूसरी रानी अनंतवीर्य की जननी । महापुराण 62.412-413, पांडवपुराण 4.245-248
(2) गजपुर (हस्तिनापुर) नगर निवासी कापिष्ठलायन ब्राह्मण की भार्या, गौतम की जननी । पुत्र होते ही इसका मरण हो गया था । हरिवंशपुराण 18.103-104
(3) किन्नरगीत नगर के राजा रतिमयूख की रानी सुप्रभा की जननी । पद्मपुराण 5.179
(4) राजा चक्रांग की रानी, साहसगति की जननी । पद्मपुराण 10.4
(5) सीता की सहवर्तिनी एक देवी । यह नेत्र-स्पंदन के फल जानने में निपुण थी । पद्मपुराण 96.7-8