कायोत्सर्ग
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/467-468 जल्लमललित्तगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो। मुहधोवणादि-विरओ भोयणसेज्जदिणिरवे-क्खो।467। ससरूवचिंतणरओ दुज्जणसुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममत्ते काओसग्गो तओ तस्स।468। = जिस मुनि का शरीर जल और मल से लिप्त हो, जो दुस्सह रोग के हो जाने पर भी उसका इलाज नहीं करता हो, मुख धोना आदि शरीर के संस्कार से उदासीन हो और भोजन शय्या आदि की अपेक्षा नहीं करता हो, तथा अपने स्वरूप के चिंतन में ही लीन रहता हो, दुर्जन और सज्जन में मध्यस्थ हो और शरीर से भी ममत्व न करता हो, उस मुनि के कायोत्सर्ग नाम का तप होता है।
अन्य परिभाषाओं के लिए देखें व्युत्सर्ग - 1
पुराणकोष से
ध्यान का एक आसन । इसमें शरीर के समस्त अंग सम रखे जाते हैं और आचारशास्त्र में कहे गये बत्तीस दोषों का बचाव किया जाता है । पर्यकासन के समान ध्यान के लिए यह भी एक सुखासन है । इसमें दोनों पैर बराबर रखे जाते हैं तथा निश्चल खड़े रहकर एक निश्चित समय तक शरीर के प्रति ममता का त्याग किया जाता है । महापुराण 21.69-71, हरिवंशपुराण - 9.101-102, 111, 22.24, 34.146