अथालंद
From जैनकोष
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 155/353/4 परिषहोपसर्गजयेसमर्थाः, अनिगूहितबलवीर्याः, आत्मानं मनसां तुल्यंति। ....परिहारस्यासमर्थाः अथालंदविधिमुपगंतुकामास्त्रयः पंच सप्त नव वा ज्ञानदर्शनसंपन्नास्तीव्रसंवेगमापन्नाः स्थविरमूलनिवासिनः अवधृतात्मसामर्थ्या विदितायुःस्थितयः स्थविरं विज्ञापयंति। आचारो निरूप्यते-अथालंदसयतानां लिंगम् औत्सर्गिकं, देहस्योपकारार्थम् आहारं वा वसति च गृह्णंति, शेषं सकलं त्यजंति। तृणपीठकटफलकादिकम् उपधिं च न गृह्णंति,। .....अप्रतिलेखना एव व्युत्सृष्टशरीरसंस्काराः परीषहान् सहंते नो वा धृतिबलहीनाः। ....त्रयः पंच वा सह प्रवर्तंते। ....वेदनयाः प्रतिक्रियया वर्ज्या यदा तपसातिश्रांतस्तदासहायहस्तावलंबनं कुर्वंति। वाचनादिकं च न कुर्वंति। यामाष्टकेऽप्यनिद्रा एकचित्ताध्याने यतंते.....अकृतप्रतिज्ञा, लेखनां कालद्वयेऽपि कुर्वंति।....श्मशानमध्येऽपि तेषां ध्यानमप्रतिषिद्धं, आवश्यकेषु च प्रयतंते। उपकरणप्रतिलेखनां कालद्वयेऽपि कुर्वंति। मिथ्या मे दुष्कुतमिति निवर्तंते। दशविधे समाचारे प्रवर्तंते। दानं, ग्रहणं, अनुपालनं, विनयः, सहजल्पनं च नास्ति संघेन तेषाम्। कारणमपेक्ष्य केषांचिदेक एवं संल्लापः कार्यः। यत्र क्षेत्रे सधर्मा तत्र क्षेत्रे न प्रविशंति। मौनावग्रहनिरताः पंथानं पृच्छंति, शंकितव्यं वा द्रव्यं शय्याधरगृहं वा। एवं तिस्र एव भाषाः। .....गृहे प्रज्वलिते न चलंति चलंति वा। ....व्याघ्रादिव्यालमृगाद्या यद्यापतंति ततोऽपसर्पंति न वा। पादे कंटकालग्ने चक्षुषि रजःप्रवेशे वा, अपनयंति न वा। ....धर्मोपदेशं कुर्वंतः तत्प्रवर्ज्यामि इच्छामि भगवतां पादमूले इत्युक्ता अपि न मनसापि वांछंति। क्षेत्रतः सप्ततिधर्मक्षेत्रेषु भवति। कालतः सर्वदा। चारित्रतः सामायिकछेदोपस्थापनयोः। तीर्थतः सर्वतीर्थकृतां तीर्थेषु। जन्मनि त्रिंशद्वर्षजीविताः श्रामण्येन एकोन्नविंशतिवर्षाः। श्रुतेन नवदशपूर्वधराः। वेदतः पुमांसो नपुंसकाश्च। लेश्यया पद्मशुक्ललेश्याः। ध्यानेन धर्मध्यानाः। संस्थानतः षड्विधेष्वन्यतरसंस्थानाः देशोनसप्तहस्तादि यावत्पंचधनुःशतोत्सेधाः। कालतो भिन्नमुहूर्ताद्यूनपूर्वकोटिकालस्थितयः। विक्रियाचारणताक्षीरस्त्रावित्वादयश्च तेषां जायंते। विरागतया न सेवंते। गच्छविनिर्गतालंदविधिरेष व्याख्यातः। गच्छप्रतिबद्वालंदकविधिरुच्यते-गच्छंनिर्गच्छंतो बहिः सक्रोशयोजने विहरंति। सपराक्रमो गणधरो ददाति क्षेत्राद् बहिर्गत्वार्थपदम्। तेष्वपि समर्था आगत्य शिक्षां गृह्णंति। एको द्वौ त्रयो वा परिज्ञानधारणा गुणसमग्रा गुरुशकाशमायांति। कृतप्रतिप्रश्नकार्याः स्वक्षेत्रे भिक्षाग्रहण कुर्वंति। ....यदि गच्छेत्क्षेत्रांतरं गणः अथालंदिका अपि गुर्वनुज्ञया यांति क्षेत्रम्। ....व्याख्यातोऽयमथालंदविधिः।
= (सल्लेखना धारण विधि के अंतर्गत भक्तप्रत्याख्यान आदि अनेकों विधियों का निरूपण है। तहाँ एक अथालंद विधि भी है। वह दो प्रकार की है-गच्छविनिर्गत और गच्छप्रतिबद्ध। इन दोनों में पहले गच्छविनिर्गत का स्वरूप कहते हैं -)
- परीषह व उपसर्ग को जीतने में समर्थ तथा व्यक्त बल वीर्य परंतु परिहार विधि को धारण करने में असमर्थ साधु इस विधि को धारण करते हैं। ज्ञान दर्शन संपन्न तथा तीव्र संसारभीरु तीन, पाँच, सात अथवा नौ साधु मिलकर धारण करते हैं। धर्माचार्य की शरण में रहते हैं। उनका आचार बताते हैं-औत्सर्गिक (नग्न) लिंग धारण करते हैं। देहोपकारार्थ आहार, वसति, कमंडलु और पिच्छिका का आश्रय लेते हैं। तृण, चटाई, फलक आदि अन्य परिग्रह व उपधिका त्याग करते हैं। बैठते उठते आदि समय पिच्छिका से शरीरस्पर्श रूप प्रतिलेखन नहीं करते। शरीरसंस्कार का त्याग करते हैं, परीषह सहते हैं, तीन वा पाँच आदि मिलकर वृत्ति करते हैं, वेदना का इलाज नहीं करते, तपसे अतिशय थक जाने पर सहायकों के हस्तादिका आश्रय लेते हैं, वाचना, पृच्छना आदि का त्याग करते हैं, दिन में व रात को कभी नहीं सोते, परंतु न सोने की प्रतिज्ञा भी नहीं करते, ध्यान में प्रयत रहते हैं, श्मशान में भी ध्यान करने का उन्हें निषेध नहीं है, षडावश्यक क्रियाओं में सदा प्रयत्नशील रहते हैं, सायं व प्रातः पिच्छिका व कमंडलु का संशोधन करते हैं।
`मिथ्या में दुष्कृतम्' इतना बोलकर ही दोषों का निराकरण कर लेते हैं, दस प्रकार के समाचारों में प्रवृत्ति करते हैं। संघ के साथ दान, ग्रहण, विनय आदि का व्यवहार नहीं करते। कार्यवश उनमें-से केवल एक साधु ही बोलता है, जिस क्षेत्र में साधर्मीजन हों वहाँ प्रवेश नहीं करते, मौन का नियम होते हुए भी तीन विषयों में बोलते हैं-मार्ग पूछना, शास्त्र विषयक प्रश्न पूछना, घर का पता पूछना । वसति में आग आदि लग जाने पर उसे त्याग देते हैं अथवा नहीं भी त्यागते, व्याघ्रादि दुष्ट प्राणियों के आ जाने पर मार्ग छोड़ देते हैं अथवा नहीं भी छोड़ते, कंटक आदि लगने या आँख में रजकण पड़ने पर उसे निकालते हैं अथवा नहीं भी निकालते। धर्मोपदेश करते हैं, परंतु दीक्षार्थी को दीक्षा देने का मन में विचार भी नहीं करते। क्षेत्र की अपेक्षा ये साधु सर्व कर्मभूमियों में होते हैं, काल की अपेक्षा सदा होते हैं, चारित्र की अपेक्षा सामायिक व छेदोपस्थापना ये दो चारित्र होते हैं, तीर्थ की अपेक्षा सब तीर्थंकरों के तीर्थों में होते हैं, 30 वर्ष पर्यंत भोग भोगकर 16 वर्ष तक मुनि अवस्था में रहने के पश्चात् ही अथालंद विधि धारण के योग्य होते हैं, ज्ञान की अपेक्षा नौ या दस पूर्वों के ज्ञाता होते हैं, वेदकी अपेक्षा पुरुष या नपुंसकवेदी होते हैं। लेश्या की अपेक्षा पद्म व शुक्ल लेश्या वाले होते हैं, ध्यान की अपेक्षा धर्मध्यानी होते हैं। संस्थान की अपेक्षा छहों में-से किसी भी एक संस्थान वाले होते हैं, अवगाहना की अपेक्षा सात हाथ से 500 धनुषतक के होते हैं, काल की अपेक्षा विधि को धारण करने से पूर्व बीती आयु से हीन पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति वाले होते हैं। (मध्यम जघन्य भी यथायोग्य जानना)। विक्रिया, चारण व क्षीरस्रावी आदि ऋद्धियों के धारक होते हैं, परंतु वैराग्य के कारण उनका सेवन नहीं करते। गच्छविनिर्गत अर्थात् गच्छ से निकलकर उससे पृथक् रहते हुए अथालंद विधि करने वाले मुनियों का यह स्वरूप है। - अब गच्छप्रतिबद्ध अथालंद विधि का विवेचन करते हैं। - गच्छ से निकलकर बाहर एक योजन और एक कोश (5 कोश) पर ये मुनि विहार व निवास करते हैं। शक्तिमान् आचार्य स्वयं अपने क्षेत्र से बाहर जाकर उनको अर्थपद का अध्ययन कराते हैं। अथवा समर्थ होने पर अथालंद विधि वाले साधु स्वयं भी आचार्य के पास जाकर अध्ययन करते हैं। परिज्ञान व धारणा आदि गुणसंपन्न एक, दो या तीन मुनि गुरु के पास आते हैं और उनसे प्रश्नादि करके अपने स्थान पर लौट जाते हैं। यदि गच्छ क्षेत्रांतर को विहार करता है, तो वे भी गुरु की आज्ञा लेकर विहार करते हैं। (शेष विधि पूर्ववत् जानना)
- इस प्रकार अथालंद विधि के दोनों भेदों का कथन किया गया।