गृहीत मिथ्यात्व
From जैनकोष
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/56/180/22
यद्येशाभिमुख्येन गृहीतं स्वीकृतम् अश्रद्धानं अभिगृहीतमुच्यते ... यदा परस्य वचनं श्रुत्वा जीवादीनां सत्त्वे अनेकांतात्मकत्वे चोपजातम् अश्रद्धानं अरुचिर्मिथ्यात्ममिति। परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायते यदश्रद्धानं तदनभिगृहीतं मिथ्यात्वम्।
= (जीवादितत्त्व नित्य ही हैं अथवा अनित्य ही हैं, इत्यादि रूप) दूसरों का उपदेश सुनकर जीवादिकों के अस्तित्व में अथवा उनके धर्मों में अश्रद्धा होती है, यह अभिगृहीत मिथ्यात्व है और दूसरे के उपदेश के बिना ही जो अश्रद्धान मिथ्यात्व कर्म के उदय से हो जाता है वह अनभिगृहीत मिथ्यात्व है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1049-1050 )।
देखें मिथ्यादर्शन - 1।