जुगुप्सा
From जैनकोष
- जुगुप्सा व जुगुप्सा प्रकृति का लक्षण
स.सि./८/९/३८६/१ यदुदयादात्मदोषसंवरणं परदोषाविष्करणं सा जुगुप्सा। =जिसके उदय से अपने दोषों का संवरण (ढँकना) और परदोषों का आविष्करण (प्रगट करना) होता है वह जुगुप्सा है। (गो.क./जी.प्र./३३/२८/८)द्य
रा.वा./८/९/४/५७४/१८ कुत्साप्रकारो जुगुप्सा। ...आत्मीयदोषसंवरणं जुगुप्सा, परकीयकुलशीलादिदोषाविष्करणावक्षेपणभर्त्सनप्रवणा कुत्सा। =कुत्सा या ग्लानि को जुगुप्सा कहते हैं। तहाँ अपने दोषों को ढाँकना जुगुप्सा है, तथा दूसरे के कुल-शील आदि में दोष लगाना, आक्षेप करना भर्त्सना करना कुत्सा है।
ध.६/१,९-१,२४/४८/१ जुगुप्सन जुगुप्सा जेसिं कम्माणमुदएण दुगुंछा उप्पज्जदि तेसिं दुगुंछा इदि सण्णा। =ग्लानि होने को जुगुप्सा कहते हैं। जिन कर्मों के उदय से ग्लानि होती है उनकी ‘जुगुप्सा’ यह संज्ञा है।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- जुगुप्सा के दो भेद–लौकिक व लोकोत्तर–देखें - सूतक।
- मोक्षमार्ग में जुगुप्सा की इष्टता, अनिष्टता–देखें - सूतक।
- जुगुप्सा द्वेष है– देखें - कषाय / ४ ।
- घृणित पदार्थों से या परिषहों आदि से।
- जुगुप्सा प्रकृति के बन्ध योग्य परिणाम– देखें - मोहनीय / ३ / ६ ।
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- जुगुप्सा के दो भेद–लौकिक व लोकोत्तर–देखें - सूतक।