ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 108
From जैनकोष
एक सौ आठवां पर्व
अथानंतर राजा श्रेणिक राम का पापापहारी चरित सुनकर अपने आपको संशययुक्त मानता हुआ मन में इस प्रकार विचार करने लगा कि यद्यपि सीता ने दूर तक बढ़ा हुआ उस प्रकार का स्नेहबंधन तोड़ दिया है फिर भी सुकुमार शरीर की धारक सीता महाचर्या को किस प्रकार कर सकेगी ? ॥1-2॥ देखो, विधाता ने मृग के समान नेत्रों को धारण करने वाले, सर्व ऋद्धि और कांति से संपन्न दोनों लवणांकुश कुमारों को माता का विरह प्राप्त करा दिया। अब पिता ही उनके शेष रह गये सो निरंतर सुख से वृद्धि को प्राप्त हुए दोनों कुमार माता के वियोग जन्य-दुःख को किस प्रकार सहन करेंगे ? ॥3-4॥ जब महाप्रतापी बड़े-बड़े पुरुषों की भी ऐसी विषम दशा होती है तब अन्य लोगों की तो बात ही क्या है ? ऐसा विचार कर श्रेणिक राजा ने गौतम गणधर से कहा कि सर्वज्ञदेव ने जगत् का जो स्वरूप देखा है उसका मुझे प्रत्यय है, श्रद्धान है। तदनंतर इंद्रभूति गणधर, श्रेणिक के लिए लवणांकुश का चरित कहने लगे ॥5-6॥
उन्होंने कहा कि हे राजन् ! काकंदी नगरी में राजा रतिवर्धन रहता था। उसकी स्त्री का नाम सुदर्शन था और उन दोनों के प्रियंकर-हितंकर नामक दो पुत्र थे ॥7॥ राजा का एक सर्वगुप्त नाम का मंत्री था जो यद्यपि राज्यलक्ष्मी का भार धारण करने वाला था तथापि वह राजा के साथ भीतर ही भीतर स्पर्धा रखता था और उसके मारने के उपाय जुटाने में तत्पर रहता था ॥8॥ मंत्री की स्त्री विजयावली राजा में अनुरक्त थी इसलिए उसने धीरे से जाकर राजा को मंत्री की सब चेष्टा बतला दी ।।9।। राजा ने बाह्य में तो विजयावली की बात का विश्वास नहीं किया किंतु अंतरंग में उसका विश्वास कर लिया। तदनंतर विजयावली ने राजा के लिए उसका चिह्न भी बतलाया ॥10॥ उसने कहा कि मंत्री कल सभा में आपकी कलह को बढ़ावेगा अर्थात् आपके प्रति बक-झक करेगा। परस्त्री विरत राजा ने इस बात को बुद्धि से ही पुनः ग्रहण किया अर्थात् अंतरंग में तो इसका विश्वास किया बाह्य में नहीं ॥11।। बाह्य में राजा ने कहा कि हे विजयावलि ! वह तो मेरा परम भक्त है वह ऐसा विरुद्ध भाषण कैसे कर सकता है ? तुमने जो कहा है वह तो किसी तरह संभव नहीं है ॥12॥
तदनंतर दूसरे दिन राजा ने उक्त चिह्न जानकर अर्थात् कलह का अवसर जान क्षमारूप शस्त्र के द्वारा उस अनिष्ट को टाल दिया ।।13।। 'यह राजा मेरे प्रति क्रोध रखता है-अपशब्द कहता है' ऐसा कहकर पापी मंत्री ने सब सामंतों को भीतर ही भीतर फोड़ लिया ॥14॥ तदनंतर किसी दिन उसने रात्रि के समय राजा के निवासगृह को बहुत भारी ईंधन से प्रज्वलित कर दिया परंतु राजा सदा सावधान रहता था ॥15।। इसलिए वह बुद्धिमान, स्त्री और दोनों पुत्रों को लेकर प्राकार-पुट से सुगुप्त प्रदेश में होता हुआ सुरंग से धीरे-धीरे से बाहर निकल गया ॥16।। उस मार्ग से निकलकर वह काशीपुरी के राजा कशिपु के पास गया। राजा कशिपु न्यायशील, उग्रवंश का प्रधान एवं उसका सामंत था ॥17॥ तदनंतर जब सर्वगुप्त मंत्री राज्यगद्दी पर बैठा तब उसने दूत द्वारा संदेश भेजा कि हे कशिपो ! मुझे नमस्कार करो। इसके उत्तर में कशिपु ने कहा ॥18॥ वह स्वामी का घात करने वाला दुष्ट दुःखपूर्ण दुर्गति को प्राप्त होगा। ऐसे दुष्ट का तो नाम भी नहीं लिया जाता फिर सेवा कैसे की जावे ॥19॥ जिसने स्त्री और पुत्रों सहित अपने स्वामी रतिवर्धन को जला दिया उस स्वामी, स्त्री और बालघाती का तो स्मरण करना भी योग्य नहीं है ॥20॥ इस पापी का सब लोगों के देखते-देखते शिर काटकर आज ही रतिवर्धन का बदला चुकाऊँगा, यह निश्चय समझो ॥21॥ इस तरह, जिस प्रकार विवेकी मनुष्य मिथ्यामत को दूर हटा देता है उसी प्रकार उस दूत को दूर हटाकर तथा उसकी बात काटकर वह करने योग्य कार्य में तत्पर हो गया ॥22॥ तदनंतर स्वामि-भक्ति में तत्पर इस बलशाली कशिपु की दृष्टि, सदा चढ़ाई करने के योग्य मंत्री के प्रति लगी रहती थी ॥23॥
तदनंतर दूत से प्रेरित, चक्रवर्ती के समान मानी, सर्वगुप्त मंत्री बड़ी भारी सेना लेकर अनेक राजाओं के साथ आ पहुँचा ॥24॥ यद्यपि समुद्र के समान विशाल सर्वगुप्त, लंबे चौड़े काशी देश में प्रविष्ट हो चुका था तथापि कशिपु ने संधि करने की इच्छा नहीं की किंतु युद्ध करना चाहिए इसी निश्चय पर वह दृढ़ रहा आया ॥25।। उसी दिन रात्रि का प्रारंभ होते ही रतिवर्धन राजा के द्वारा कशिपु के प्रति भेजा हुआ एक युवा दंड हाथ में लिये वहाँ आया और बोला कि हे देव ! आप भाग्य से बढ़ रहे हैं क्योंकि राजा रतिवर्द्धन यहाँ विद्यमान हैं। इसके उत्तर में हर्ष से फूले हुए कशिपु ने संतुष्ट होकर कहा कि वे कहाँ हैं ? वे कहाँ हैं ? 26-27।। 'उद्यान में स्थित हैं। इस प्रकार कहने पर अत्यंत हर्ष से युक्त कशिपु अंतःपुर के साथ अर्घ तथा पादोदक साथ ले निकला ॥28॥ 'जो किसी के द्वारा जीता न जाय ऐसा राजाधिराज रतिवर्धन जयवंत है। यह सोचकर उसके दर्शन होनेपर कशिपु ने दान-सन्मान आदि से बड़ा उत्सव किया ॥29॥
तदनंतर युद्ध में सर्वगुप्त जीवित पकड़ा गया और राजा रतिवर्धन को राज्य की प्राप्ति हुई ॥30॥ जो सामंत पहले सर्वगुप्त से आ मिले थे वे स्वामी रतिवर्धन को जीवित जानकर रण के बीच में ही सर्वगुप्त को छोड़ उसके पास आ गये थे ॥31।। बड़े-बड़े दान सन्मान देवताओं का पूजन आदि से रतिवर्धन राजा का फिर से जन्मोत्सव किया गया ॥32॥ और सर्वगुप्त मंत्री चांडाल के समान नगर के बाहर बसाया गया, वह मृतक के समान निस्तेज हो गया, उस पापी की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता था तथा सर्वलोक में वह निंदित हुआ ॥33॥ महाकांति को धारण करने वाला काशी का राजा कशिपु वाराणसी में उत्कृष्ट लक्ष्मी से ऐसी क्रीड़ा करता था मानो दूसरा लोकपाल ही हो ॥34॥
अथानंतर किसी समय राजा रतिवर्धन ने भोगों से विरक्त हो सुभानु नामक मुनिराज के समीप जिनदीक्षा धारण कर ली ॥35॥ सर्वगुप्त ने निश्चय कर लिया कि यह सब भेद उसकी स्त्री विजयावली का किया हुआ है इससे वह परम विद्वेष्यता को प्राप्त हुई अर्थात् मंत्री ने अपनी स्त्री से अधिक द्वेष किया ॥36॥ विजयावली ने देखा कि मैं न तो राजा की हो सकी और न पति की हो रही इसीलिए शोकयुक्त हो अकाम तप कर वह राक्षसी हुई ॥37॥ तीव्र वैर के कारण उसने रतिवर्धन मुनि के ऊपर घोर उपसर्ग किया परंतु वे उत्तम ध्यान में लीन हो केवलज्ञान रूपी राज्य को प्राप्त हुए ॥38॥
राजा रतिवर्धन के पुत्र प्रियंकर और हितंकर निर्मल मुनिपद धारण कर ग्रैवेयक में उत्पन्न हुए। इस भव से पूर्व चतुर्थ भव में वे शामली नामक नगर में दामदेव नामक ब्राह्मण के वसुदेव और सुदेव नाम के गुणी पुत्र थे ॥36-40॥ विश्वा और प्रियंगु नाम की उनकी स्त्रियाँ थीं जिनके कारण उनका गृहस्थ पद विद्वज्जनों के द्वारा प्रशंसनीय था ॥41॥ श्रीतिलक नामक मुनिराज के लिए उत्तम भावों से दान देकर वे स्त्री सहित उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में तीन पल्य की आयु को प्राप्त हुए ॥42॥ वहाँ साधु-दान रूपी वृक्ष से उत्पन्न महाफल से प्राप्त हुए उत्तम भोग भोग कर वे ऐशान स्वर्ग में निवास को प्राप्त हुए ॥43॥ तदनंतर जो आत्मज्ञान रूपी लक्ष्मी से सहित थे, तथा जिनके दुर्गतिदायक कर्म क्षीण हो गये थे ऐसे दोनों देव, वहाँ से भोग भोग कर च्युत हुए तथा पूर्वोक्त राजा रतिवर्धन के प्रियंकर और हितंकर नामक पुत्र हुए ॥44॥
रतिवर्धन मुनिराज शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा अघातिया कर्मरूपी वन को जला कर निर्वाण को प्राप्त हुए ॥45॥ संक्षेप से जिन प्रियंकर और हितकर वीरों का वर्णन किया गया है वे ग्रैवेयक से ही च्युत हो भव्य लवण और अंकुश हुए ॥46॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! काकंदी के राजा रतिवर्धन की जो पुत्रों से अत्यंत स्नेह करने वाली सुदर्शना नाम की रानी थी वह पति और पुत्रों के वियोग से पीड़ित हो स्त्री स्वभाव के कारण निदान बंध रूपी साँकल से बद्ध होती हुई दुःख रूपी संकट में घूमती रही और नाना योनियों में स्त्री पर्याय का उपभोग कर तथा बड़ी कठिनाई से उसे जीत कर क्रम से मनुष्य हुई । उसमें भी पुण्य से प्रेरित धार्मिक तथा विद्याओं की विधि में निपुण सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक हुई ॥47-49॥ उनमें पूर्व स्नेह होने के कारण इस क्षुल्लक ने लवण और अंकुश कुमारों को विद्याओं से इस प्रकार संस्कृत― सुशोभित किया जिससे कि वे देवों के द्वारा भी दुर्जय हो गये ॥50॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार 'संसार में प्राणी को माता पिता सदा सुलभ हैं। ऐसा जान कर विद्वानों को प्रयत्नपूर्वक ऐसा काम करना चाहिए कि जिससे वे शरीर संबंधी दुःख से छूट जावें ॥51॥ संसार वृद्धि के कारण, विशाल दुःखों के जनक एवं निंदित समस्त कर्म को छोड़ कर हे भव्यजनो ! जैनमत में कहा हुआ तप कर तथा सूर्य को तिरस्कृत कर मोक्ष की ओर प्रयाण करो ॥52॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा कथित, पद्मपुराण में लवणांकुश के पूर्वभवों का वर्णन करने वाला एक सौ आठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥108॥