ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 115
From जैनकोष
एक सौ पंद्रहवां पर्व
अथानंतर आसन को छोड़ते हुए इंद्र को नमस्कार कर नाना प्रकार के उत्कट भाव को धारण करने वाले सुर और असुर यथायोग्य स्थानों पर गये ॥1॥ उनमें से राम और लक्ष्मण के स्नेह की परीक्षा करने के लिए चेष्टा करने वाले, क्रीड़ा के रसिक तथा पारस्परिक प्रेम से सहित दो देवों ने कुतूहलवश यह निश्चय किया, यह सलाह बाँधी कि चलो इन दोनों की प्रीति देखें ॥2-3॥ जो उनके एक दिन के भी अदर्शन को सहन नहीं कर पाता है ऐसा नारायण अपने अग्रज के मरण का समाचार पाकर देखें क्या चेष्टा करता है ? शोक से विह्वल नारायण की चेष्टा देखते हुए क्षण भरके लिए परिहास करें। चलो, अयोध्यापुरी चलें और देखें कि विष्णु का शोकाकुल मुख कैसा होता है ? वह किसके प्रति क्रोध करता है और क्या कहता है ? ऐसी सलाह कर रत्नचूल और मृगचूल नाम के दो दुराचारी देव अयोध्या की ओर चले ।।4-7॥ वहाँ जाकर उन्होंने राम के भवन में दिव्य माया से अंतःपुर की समस्त स्त्रियों के रुदन का शब्द कराया तथा ऐसी विक्रिया की कि द्वारपाल, मित्र, मंत्री, पुरोहित तथा आगे चलने वाले अन्य पुरुष नीचा मुख किये लक्ष्मण के पास गये और राम की मृत्यु का समाचार कहने लगे। उन्होंने कहा कि 'हे. नाथ ! राम की मृत्यु हुई है। यह सुनते ही लक्ष्मण के नेत्रं मंद-मंद वायु से कंपित नीलोत्पल के वन समान चंचल हो उठे ।।8-10॥ 'हाय यह क्या हुआ ?' वे इस शब्द का आधा उच्चारण हो कर पाये थे कि उनका मन शून्य हो गया और वे अश्रु छोड़ने लगे ॥11॥ वन से ताड़ित हुए के समान वे स्वर्ण के खंभे से टिक गये और सिंहासन पर बैठे-बैठे ही मिट्टी के पुतले की तरह निश्चेष्ट हो गये ॥12॥ उनके नेत्र यद्यपि बंद नहीं हुए थे तथापि उनका शरीर ज्यों का त्यों निश्चेष्ट हो गया। वे उस समय उस जीवित मनुष्य का रूप धारणकर रहे थे जिसका कि. चित्त कहीं अन्यत्र लगा हुआ है ।।13॥ भाई की मृत्यु रूपी अग्नि से ताड़ित लक्ष्मण को निर्जीव देख दोनों देव बहुत व्याकुल हुए परंतु वे जीवन देने में समर्थ नहीं हो सके ॥14॥ 'निश्चय ही इसकी इसी विधि से मृत्यु होनी होगी' ऐसा विचारकर विषाद और आश्चर्य से भरे हुए दोनों देव निष्प्रभ हो सौधर्म स्वर्ग चले गये ॥15॥ पश्चात्ताप रूपी अग्नि की ज्वाला से जिनका मन समस्त रूपसे व्याप्त हो रहा था तथा जिनकी आत्मा अत्यंत निंदित थी ऐसे वे दोनों देव स्वर्ग में कभी धैर्य को प्राप्त नहीं होते थे अर्थात् रात-दिन पश्चात्ताप की ज्वाला में झुलसते रहते थे ॥16॥ सो ठीक ही है क्योंकि विना विचारे काम करने वाले नीच, पापी मनुष्यों का किया कार्य उन्हें स्वयं संताप का कारण होता है ॥17॥
तदनंतर 'यह कार्य लक्ष्मण ने अपनी दिव्य माया से किया है। ऐसा जानकर उस समय उनकी उत्तमोत्तम खियाँ उन्हें प्रसन्न करने के लिए उद्यत हुई ॥18।। कोई स्त्री कहने लगी कि हे नाथ ! सौभाग्य के गर्व को धारण करने वाली किस अकृतज्ञ, मूर्ख और कुचतुर स्त्री ने आपका अपमान किया है ? ॥19॥ हे देव ! प्रसन्न हूजिए, क्रोध छोड़िए तथा यह दुःखदायी आसन भी दूर कीजिए । यथार्थ में जिस पर आपका क्रोध हो उसका जो चाहें सो कीजिए ॥20॥ यह कह कर परम प्रेम की भूमि तथा नाना प्रकार के मधुर वचन कहने में तत्पर कितनी ही स्त्रियाँ आलि इन कर उनके चरणों में लोट गई॥21॥ प्रसन्न करने की भावना रखने वाली कितनी ही स्त्रियाँ गोद में वीणा रख उनके गुण-समूह से संबंध रखने वाला अत्यंत मधुर गान गाने लगीं ॥22॥ सैकड़ों प्रिय वचन कहने में तत्पर कितनी ही स्त्रियाँ उनका मख देख वार्तालाप कराने के लिए सामूहिक यत्न कर रही थीं ॥23॥ उज्ज्वल शोभा को धारण करने वाली कितनी ही स्त्रियों स्तनों को पीड़ित करने वाला आलिंगन कर पति के कुंडलमंडित सुंदर कपोल को सूंघ रही थीं ॥24॥ मधुर भाषण करने वाली कितनी ही स्त्रियाँ, विकसित कमल के भीतरी भाग के समान सुंदर उनके पैर को कुछ ऊपर उठाकर शिर पर रख रही थीं ।।25॥ बालमृगी के समान चश्चल नेत्री को धारण करने वाली कितनी ही स्त्रियाँ उन्माद तथा विभ्रम के साथ छोड़े हुए कटाक्ष रूपी नील कमलों का सेहरा बनाने के लिए ही मानो उद्यत थीं ॥26॥ लंबी जमुहाई लेने वाली कितनी ही स्त्रियाँ उनके मुख की ओर दृष्टि डालकर धीरे-धीरे अंगड़ाई ले रही थीं और अँगुलियों की संधिया चटका रही थीं ॥27॥ इस प्रकार चेष्टा करने वाली उन उत्तम स्त्रियों का सब यत्न चेतनारहित लक्ष्मण के विषय में निरर्थकपने को प्राप्त हो गया ॥28।। गौतम स्वामी कहते हैं कि उस समय लक्ष्मण की सत्रह हजार स्त्रियाँ मंद-मंद वायु से कंपित नाना प्रकार के कमल वन की शोभा धारण कर रही थीं ॥29।।
तदनंतर जब लक्ष्मण उसी प्रकार स्थित रहे आये तब बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुए संशय ने उन स्त्रियों के व्यग्र मन में अपना पैर रक्खा ॥30॥ मोह में पड़ी हुई वे भोली-भाली स्त्रियाँ मनमें ऐसा विचार करती हुई उनका स्पर्श कर रही थीं कि संभव है हम लोगों ने इनके प्रति मनमें कुछ खोटा विचार किया हो, कोई न कहने योग्य शब्द कहा हो, अथवा जिसका सुनना भी दुःखदायी है, ऐसा कोई भाव किया हो ॥31॥ इंद्राणियों के समूह के समान चेष्टा और तेज को धारण करने वाली वे स्त्रियाँ उस समय शोक से ऐसी संतप्त हो गई कि उनकी सब सुंदरता समाप्त हो गई ॥32॥
अथानंतर अंतःपुरचारी प्रतिहारों के मुख से यह समाचार सुन मंत्रियों से घिरे राम घबड़ाहट के साथ वहाँ आये ॥33॥ उस समय घबड़ाये हुए लोगों ने देखा कि परम प्रामाणिक जनों से घिरे राम जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते हुए अंतःपुर में प्रवेश कर रहे हैं ॥34॥ तदनंतर उन्होंने जिसको सुंदर कांति निकल चुकी थी और जो प्रातःकालीन चंद्रमा के समान पांडुर वर्ण था ऐसा लक्ष्मण का मुख देखा ॥35॥ वह मुख पहले के समान व्यवस्थित नहीं था, स्वभाव से बिलकुल भ्रष्ट हो चुका था, और तत्काल उखाड़े हुए कमल की सदृशता को प्राप्त हो रहा था ॥36॥ वे विचार करने लगे कि ऐसा कौन-सा कारण आ पड़ा कि जिससे आज लक्ष्मण मुझसे रूखा तथा विषादयुक्त हो शिर को कुछ नीचा झुकाकर बैठा है ॥37।। राम ने पास जाकर बड़े स्नेह से बार-बार उनके मस्तक पर सूंघा और तुषार से पीड़ित वृक्ष के समान आकार वाले उनका बार-बार आलिंगन किया ॥38।। यद्यपि राम सब ओर से मृतक के चिह्न देख रहे थे तथापि स्नेह से परिपूर्ण होने के कारण वे उन्हें अमृत अर्थात् जीवित ही समझ रहे थे ॥36॥ उनकी शरीर-यष्टि झुक गई थी, गरदन टेढ़ी हो गई थी, भुजा रूपी अर्गल ढीले पड़ गये थे और शरीर, साँस लेना, हस्त-पादादिक अवयवों को सिकोड़ना तथा नेत्रों का टिमकार पड़ना आदि चेष्टाओं से रहित हो गया था ॥40॥ इस प्रकार लक्ष्मण को अपनी आत्मा से विमुक्त देख उद्वेग तथा तीव्र भय से आक्रांत राम पसीना से तर हो गये ॥41॥
अथानंतर जिनका मुख अत्यंत दीन हो रहा था, जो बार-बार मूर्च्छित हो जाते थे, और जिनके नेत्र आँसुओं से व्याप्त थे, ऐसे राम सब ओर से उनके अंगों को देख रहे थे ॥42॥ वे कह रहे थे कि इस शरीर में कहीं नख की खरोंच बराबर भी तो घाव नहीं दिखाई देता फिर यह ऐसी अवस्था को किसके द्वारा प्राप्त कराया गया ?― इसकी यह दशा किसने कर दी? ॥43॥ ऐसा विचार करते-करते राम के शरीर में कँपकँपी छूटने लगी तथा उनकी आत्मा विषाद से भा गई । यद्यपि वे स्वयं विद्वान थे तथापि उन्होंने शीघ्र ही इस विषय के जानकार लोगों को बुलवाया ॥44॥ जब मंत्र और औषधि में निपुण, कला के पारगामी समस्त वैद्यों ने परीक्षा कर उत्तर दे दिया तब निराशा को प्राप्त हुए राम मूर्च्छा को प्राप्त हो गये और उखड़े वृक्ष के समान पृथिवी पर गिर पड़े ॥45-46॥ जब हार, चंदन मिश्रित जल और तालवृंत के अनुकूल पवन के द्वारा बड़ी कठिनाई से मूर्च्छा छुड़ाई गई तब अत्यंत विह्वल हो विलाप करने लगे ॥47॥ चूंकि राम शोक और विषाद के द्वारा साथ ही साथ पीड़ा को प्राप्त हुए थे इसीलिए वे मुख को आच्छादित करने वाला अश्रुओं का प्रवाह छोड़ रहे थे ॥48॥ उस समय आँसुओं से आच्छादित राम का मुख बिरले-बिरले मेघों से टँके चंद्रमंडल के समान जान पडता था|4।। उस प्रकार के गंभीर हृदय राम को अत्यंत दुःखी देख अंतःपुर रूपी महासागर निर्मर्याद अवस्था को प्राप्त हो गया अर्थात् उसके शोक की सीमा नहीं रही ॥50।। जो दुःखरूपी सागर में निमग्न थीं तथा जिनके शरीर सूख गये थे ऐसी उत्तम स्त्रियों ने अत्यधिक आँसू और रोने की ध्वनि से पृथिवी तथा आकाश को एक साथ व्याप्त कर दिया था ॥51॥ वे कह रही थीं कि हा नाथ ! हा जगदानंद ! हा सर्वसुंदर जीवित ! प्रिय वचन देओ, कहाँ हो ? किस लिए चले गये हो ? ॥52॥ इस तरह अपराध के बिना ही हम लोगों को क्यों छोड़ रहे हो ? और अपराध यदि सत्य भी हो तो भी वह मनुष्य में दीर्घ काल तक नहीं रहता ॥53॥
इसी बीच में यह समाचार सुनकर परम विषाद को प्राप्त हुए लवण और अंकुश इस प्रकार विचार करने लगे कि सारहीन इस मनुष्य-पर्याय को धिक्कार हो। इससे बढ़कर दूसरा महानीच नहीं है क्योंकि मृत्यु बिना जाने ही निमेषमात्र में इस पर आक्रमण कर देती है ॥54-55॥ जिसे देव और विद्याधर भी वश नहीं कर सके थे ऐसा यह नारायण भी काल के पाश से वशीभूत अवस्था को प्राप्त हो गया ।।56।। इन नश्वर शरीर और नश्वर धन से हमें क्या आवश्यकता है ? ऐसा विचारकर सीता के दोनों पुत्र प्रतिबोध को प्राप्त हो गये ॥57॥ तदनंतर 'पुनः गर्भवास में न जाना पड़े इससे भयभीत हुए दोनों वीर, पिता के चरण-युगल को नमस्कार कर पालकी में बैठ महेंद्रोदय नामक उद्यान में चले गये ॥58।। वहाँ अमृतस्वर नामक मुनिराज की शरण प्राप्त कर दोनों बड़भागी मुनि हो गये ॥59।। उत्तम चित्त के धारक लवण और अंकुश जब दीक्षा ग्रहण कर रहे थे तब विशाल पृथिवी के ऊपर उनकी मिट्टी के गोले के समान अनादरपूर्ण बुद्धि हो रही थी ॥60॥ एक ओर पुत्रों का विरह और दूसरी ओर भाई की मृत्यु को दुःख-इस प्रकार राम शोक रूपी बड़ी भंवर में घूम रहे थे ॥61॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि राम को लक्ष्मण राज्य से, पत्र से, स्त्री से और अपने द्वारा धारण किये जीवन से भी कहीं अधिक प्रिय थे ॥62॥ संसार में मनुष्य नाना प्रकार के हृदय के धारक हैं इसीलिए कर्मयोग से आप्तजनों के ऐसी अशोभन अवस्था को प्राप्त होने पर कोई तो शोक को प्राप्त होते हैं और कोई वैराग्य को प्राप्त होते हैं ॥63॥ जब समय पाकर स्वकृत कर्म का उदयरूप अंतरंग निमित्त मिलता है तब बाह्य में किसी भी परपदार्थ का निमित्त पाकर जीवों के प्रतिबोध रूपी सूर्य उदित होता है उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो जाता है ॥34॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा विरचित पद्मपुराण में लक्ष्मण का मरण और लवणांकुश के तप का वर्णन करने वाला एक सौ पंद्रहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥115॥