ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 24
From जैनकोष
अथानंतर एक समय कुमार वसुदेव, इंद्रशर्मा ब्राह्मण के उपदेश से गिरितट नगर के उद्यान में रात को विद्यासिद्ध कर रहे थे कि कुछ धूर्तों ने उन्हें देख लिया ॥1॥ वे उन्हें पिछली रात्रि में पालकी पर बैठाकर कहीं दूर ले गये । वसुदेव वहाँ से चलकर तिलवस्तु नामक नगर पहुँचे ॥2॥ और वहाँ नगर के बाहर जो चैत्यालय था उसके उद्यान में रात्रि के समय सो गये, वहाँ राक्षस के समान एक मनुष्य भक्षी पुरुष ने आकर उन्हें जगाया ॥3॥ वह कहने लगा कि अरे मनुष्य ! जाग-जाग, तू यहाँ कौन सो रहा है ? भूख से पीड़ित बाघ के समान मेरे मुख में तू स्वयं आकर पड़ा है ॥ 4 ॥ शूर-वीर वसुदेव उस भयंकर शब्द से जाग उठे । जब मनुष्य भक्षी पुरुष अपनी भुजा से वसुदेव को मारने के लिए उद्यत हुआ तब उन्होंने भी अपनी भुजाओं से उसे कसकर पिटाई लगायी ॥5॥ तदनंतर प्रबल शक्ति को धारण करने वाले उन दोनों के बीच पृथिवी को कंपा देने वाला युद्ध हुआ । उनका वह युद्ध मुठ्ठियों के प्रबल प्रहार से उत्पन्न घोर शब्द से भयंकर था ॥6॥ वसुदेव बहुत बलवान् थे इसलिए उन्होंने बहुत देर तक युद्ध करने के बाद उस दानवाकार मनुष्य को मल्लयुद्ध में मारकर प्राण-रहित कर दिया ॥7॥ जब प्रातःकाल हुआ तब नगरवासी लोग, उत्तम पौरुष के धारी एवं नरभोजी मनुष्य को नष्ट करने वाले वसुदेव को रथ पर बैठाकर नगर में ले गये और उन्होंने वहाँ उनका बहुत सम्मान किया ॥8॥ कुमार वसुदेव उस नगर में रूप और सौंदर्य को धारण करने वाली कुल और शील से सुशोभित पाँच सौ कन्याएँ प्राप्त कर वहीं रहने लगे ॥9॥ मनुष्यों के मांस को खाने वाला यह दुष्ट मनुष्य यहाँ कहाँ से आया था ? इस प्रकार वसुदेव के पूछने पर वहाँ के वृद्धजनों ने इस प्रकार कहा ॥10॥
कलिंग देश के कांचनपुर नामक नगर में शत्रुओं के समूह को जीतने वाला एक जितशत्रु नाम का राजा था ॥ 11 ॥ अपने देश में उस राजा की आज्ञा का कोई भी उल्लंघन नहीं करता था । वह नीतिपूर्वक देश का पालन करता था, उसकी इच्छा जीव-हिंसा से दूर रहती थी तथा समस्त राज्य में उसने अभय की घोषणा करा रखी थी ॥12॥ उसका एक सौदास नाम का पुत्र था । वह मांस खाने का बड़ा लंपट था इसलिए उसने पिता से मयूर का मांस खाने की आज्ञा प्राप्त कर ली थी ॥13॥ प्रतिदिन रसोइया उसे मयूर का मांस तैयार कर देता था और वह उसे महल के भीतर छिपकर खाया करता था ॥14 ॥ किसी एक दिन तैयार मांस को बिल्ली उठा ले गयी जिससे मांस की तलाश में रसोइया नगर के बाहर गया । वहाँ उसने एक मरा हुआ बालक देखा जिसे वह छिपाकर ले आया और अच्छी तरह तैयार कर उसे सौदास के लिए दे दिया । सौदास ने उस मांस को बड़ी प्रसन्नता से खाया और आदरपूर्वक उस रसोइया से पूछा कि यह मांस किसका है ? ॥15-16॥ वह कहने लगा कि हे भद्र ! मैंने पहले बहुत से मांस खाये हैं पर वे इस मांस के रस के सौवें भाग का भी स्पर्श नहीं करते ॥17॥ हे भले आदमी ! जो बात सत्य और हितकारी हो । वह कहो । यह सच है कि तुम्हें मुझ से कुछ भी भय नहीं है । इस प्रकार कहने पर नीति से युक्त रसोइया ने अपनी सब चेष्टा सौदास के लिए बतला दी ॥18॥ रसोइया की बात सुनकर सौदास ने उसकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि मैं तुम्हारे ऊपर बहुत संतुष्ट हूं, तुम प्रतिदिन मेरे लिए मनुष्य का ही मांस लाया करो ॥19॥
तदनंतर पिता के मरने पर सौदास राज्य-सिंहासन पर आरूढ़ हुआ और उसका रसोइया किसी उपाय से प्रतिदिन बच्चों को मारने लगा ॥20॥ प्रतिदिन एक-एक बच्चे की हानि होती जा रही हैं । यह देख नगरवासी लोगों में खलबली मच गयी । उन्होंने परीक्षा कर सौदास को शिशु-भक्षक पाया और उसे शीघ्र ही देश से बाहर खदेड़ दिया ॥21॥ अब वह अवसर देख व्याघ्र की तरह रात्रि में झपाटा मारकर मनुष्यों को ले जाता है और दिन-भर जंगल में रहता है सो ठोक ही है क्योंकि व्यसन में पड़ा मनुष्य क्या नहीं करता है ? ॥22॥ हे कुमार ! लोगों को भयभीत करने वाला यह वही सौदास था । यह हम लोगों के लिए असाध्य था परंतु असाधारण शक्ति को धारण करने वाले आपने उसे आज यमलोक पहुंचा दिया ॥23॥ इस प्रकार नगर के वयोवृद्ध लोगों ने सौदास की कुचेष्टाओं का वर्णन कर वस्त्र, माला तथा आभूषण आदि से वसुदेव का खूब सत्कार किया ॥24॥
तदनंतर वहाँ से चलकर कुमार वसुदेव ने अचलग्राम के सेठ की वनमाला नामक पुत्री को प्राप्त किया-उसके साथ विवाह किया और वहाँ से वनमाला के साथ चलकर वे वेदसामपुर
पहुंचे ॥25॥ वीर वसुदेव ने वेदसामपुर के राजा कपिलमुनि को युद्ध में जीतकर उसकी कपिला नामक पुत्री के साथ विधि-पूर्वक विवाह किया ॥26 ॥ वहाँ कपिला के भाई अंशुमान नामक साले के साथ वसुदेव परम प्रीति को प्राप्त हुए जिससे वहाँ रहकर उन्होंने कपिला के कपिल नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥27॥ एक दिन जिस नीलकंठ ने पहले नीलयशा का अपहरण किया था वह गंधहस्ती का रूप धरकर वेदसामपुर में आया । उसे बंधन में डालने के लिए जब वसुदेव उस पर आरूढ़ हुए तो उन्हें वह हरकर आकाश में ले गया । यह देख वसुदेव ने उसे मुठ्ठियों के दृढ़ प्रहार से खूब पीटा जिससे शोक वश वह गंधहस्ती का रूप छोड़कर नीलकंठ हो गया ॥28॥ वसुदेव धीरे-धीरे तालाब के जल में गिरे और बिना किसी आकुलता के अटवी से निकलकर शालगुहा नामक नगरी में पहुँच गये ॥ 29 ॥ वहाँ धनुर्वेद के उपदेश से उन्होंने पद्मावती नाम की कन्या प्राप्त की । वहाँ से चलकर जयपुर गये और वहाँ के राजा को जीतकर उसकी कन्या भी प्राप्त की ॥30॥
वहाँ से चलकर वे अपने साले अंशुमान् के साथ भद्रिलपुर नामक श्रेष्ठ नगर गये । वहाँ उस समय पौंड नाम का राजा राज्य करता था । उसकी चारुहासिनी नाम की एक कन्या थी, वह कन्या दिव्य औषधि के प्रभाव से सदा युवा का वेष धारण करती थी । वसुदेव को इसका पता लग गया इसलिए उन्होंने उस अतिशय सुंदरी कन्या के साथ विवाह कर लिया ॥31-32॥ तथा कुछ समय बाद उस कन्या में उन्होंने लक्ष्मी का पात्र एक पौंड्र नाम का पुत्र उत्पन्न किया । एक दिन वसुदेव रात्रि के समय शयन कर रहे थे कि उनका वैरी अंगारक उन्हें हंस का रूप धरकर हर ले गया ॥33॥ जब उससे छूटे तो धीरे-धीरे आकाश से गंगा नदी में गिरे । उसे पार कर जब किनारे पर आये तो सवेरा होते ही उन्होंने इलावर्धन नाम का नगर देखा ॥34॥ वहाँ वे एक दुकान में सेठ के द्वारा दिये हुए उत्तम आसन पर बैठ गये । उनके बैठते ही क्षणमात्र में वह दुकान धन से भर गयी ॥35॥ इसको सेठ, वसुदेव का ही प्रभाव जानकर उन्हें अपने घर ले गया तथा वहाँ ले जाकर उसने भाग्यशाली तरूण वसुदेव के लिए अपनी रत्नवती कन्या प्रदान की ॥36॥ वसुदेव रत्नवती के साथ निरंतराय दिव्य भोगों को भोगते हुए वहीं रहने लगे ।
तदनंतर वे एक समय इंद्रध्वज विधान देखने के लिए महापुर नगर गये ॥37॥ वहाँ उन्होंने नगर के बाहर बहुत से बड़े-बड़े महल देखकर किसी मनुष्य से पूछा कि ये महल किसने किस लिए बनवाये हैं ? ॥38॥ मनुष्य ने कहा कि राजा सोमदत्त ने अपनी कन्या के स्वयंवर में आने वाले राजाओं के ठहरने के लिए ये नाना प्रकार के महल बनवाये थे ॥39॥ परंतु कन्या, किसी कारण स्वयंवर को विधि से विरक्त हो गयो इसलिए स्वयंवर नहीं हो पाया और सब लोग विदा कर दिये गये ॥40॥ यह सुनकर कुमार वसुदेव, उस कन्या के मन की गति का विचार करते हुए इंद्रध्वज विधान देखने के लिए ज्यों ही बैठे त्यों ही रक्षकों के साथ राजा की स्त्रियां सहसा वहाँ आ पहुंची । कुछ समय बाद वे स्त्रियाँ इंद्रध्वज विधान को नमस्कार कर अपने घर की ओर चलीं ॥41-42॥ उसी समय बंधन का खंभा तोड़कर एक मदोन्मत्त हाथी साक्षात् मृत्यु (यम) की तरह मनुष्यों को मारता हुआ वहाँ आ पहुंचा ॥43॥ उस समय जो लोग मारे जा रहे थे तथा जो मार्ग में यह सब देखते हुए चिल्ला रहे थे उनका बहुत भारी कलकल शब्द दशों दिशाओं में व्याप्त हो गया ॥44॥ वह मदोन्मत्त हाथी बड़े वेग से उन स्त्रियों के वाहनों के समीप आया जिससे भयभीत हो एक कन्या वाहन से नीचे पृथिवी पर गिर पड़ी ॥45॥ यह देख कुमार वसुदेव ने उस हाथी को मदरहित कर भय से घबड़ायी हुई उस कन्या की रक्षा की और सब लोगों के देखते-देखते वे उस हाथी के साथ क्रीड़ा करने लगे ॥46॥ तदनंतर जब हाथी थक गया तो उसे छोड़ उन्होंने भय से मूर्च्छित कन्या को सांत्वना दी । कन्या ने उठकर सुंदररूप के धारक वसुदेव को देखा । देखते ही वह गरम और लंबी साँस भरने लगी, उसके नेत्र आँसुओं से व्याप्त हो गये तथा लज्जा से नम्रीभूत होकर उसने स्पर्शजन्य सुख को देने वाला कुमार का हाथ पकड़ लिया ॥47-48॥
तदनंतर वसुदेव यथास्थान चले गये और वृद्धा धाय तथा कुल की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियां उस कन्या को लेकर अंतःपुर चली गयीं ॥49॥ तत्पश्चात् एक दिन कुमार वसुदेव कुबेरदत्त सेठ के घर आभूषण आदि धारण कर बैठे थे कि इतने में राजा को आज्ञा से उनकी द्वारपालिनी आकर कहने लगी कि हे देव ! यह समाचार आपको अच्छी तरह विदित ही है कि यहाँ का राजा सोमदत्त है और उसको रानी पूर्णचंद्र नाम से प्रसिद्ध है ॥ 50-51 ॥ इन दोनों के भूरिश्रवा नाम का पुत्र और सोमश्री नाम को कन्या है । कन्या सोमश्री के स्वयंवर के लिए राजा ने अनेक राजाओं को बुलाया था ॥52॥ परंतु सोमश्री रात्रि के समय महल के ऊपर बैठी थी वहाँ देवों का आगमन देख वह जाति स्मरण से युक्त हो गयी और अपने पूर्व पति के प्रेम को प्रकट करती हुई मूर्च्छित हो गयी ॥53 ॥ जब वह सचेत हुई तो उठकर अपने देव पति का ध्यान करने लगी और स्नान, भोजन आदि की इच्छा छोड़ मौन लेकर बैठ गयी ॥54॥ एकांत में मैंने उससे पूछा तो उसने बड़ी कठिनाई से मुझे बताया कि पूर्वजन्म में मैंने देव के साथ क्रीड़ा की थी, उसने यह भी बताया कि जब मैं देवी थी और वह देव मुझ से पहले ही वहाँ से च्युत हो गया तब केवली भगवान् के सत्य कथन से मुझे मालूम हुआ था कि वह देव हरिवंश में उत्पन्न हुआ है तथा हाथी के भय को नष्ट करने वाले उस पति के साथ मेरा पुनः समागम होगा । इस समय केवली भगवान् का कथन ज्यों का त्यों मिल गया है अर्थात् जैसा उन्होंने बताया था वैसा ही हुआ है इसलिए वह आपके समागम की इच्छा करती है ॥55-57॥ मेरे कथन से सब समाचार जानकर राजा ने मुझे आपके पास भेजा है इसलिए हे सौम्य ! मेरी यही प्रार्थना है कि आप सोमश्री के साथ विवाह मंगल को प्राप्त हों ॥58॥
इस प्रकार पूर्व भव का संबंध बतलाने पर वसुदेव बहुत ही संतुष्ट हुए और उन्होंने राजा सोमदत्त की पुत्री सोमश्री के साथ जो कि उनकी पूर्वभव की प्रिय स्त्री थी विवाह कर लिया ॥59॥ तदनंतर जब अपने मुख कमल को सुगंधि और मकरंद का उपयोग करने वाले सोमश्री और वसुदेव का काल सुख से व्यतीत हो रहा था तब एक दिन रात्रि के समय पति के भुजपंजर में शयन करने वाली लक्ष्मी के समान सुंदर सोमश्री को कोई विद्याधर वैरी हर ले गया ॥60-61 ॥ जब वसुदेव जागे तब पत्नी को न देख बहुत व्याकुल हुए और हे सोमश्री! तू कहाँ गयो ? जल्दी आओ, आओ इस प्रकार उसे पुकारने लगे ॥62॥ जिस विद्याधर ने सोमश्री का हरण किया था उसकी बहन ने वसुदेव के पास आकर सोमश्री का रूप धारण कर लिया और उनके पुकारते ही कहा कि मैं यह तो हूँ इस प्रकार उत्तर देकर पास में खड़ी हुई तथा सोमश्री का रूप धारण करने वाली विद्याधर की बहन को वसुदेव ने देखा ॥ 63॥ उसे देखकर कुमार ने पूछा कि हे प्रिये ! बाहर किस लिए गयी थीं? इसके उत्तर में उसने स्वयं सोमश्री के समान कहा कि गरमी शांत करने के लिए गयी थी ॥64 ॥ इस प्रकार वसुदेव के रूप से वशीभूत हुई शत्रु की बहन रूप बदलकर तथा अपना कन्या भाव छोड़कर उनके साथ क्रीड़ा करने लगी ॥65॥ वह प्रतिदिन भोग भोगने के बाद पति जब सो जाते थे तब सोती थी और उनके पहले ही जागकर जंघा तथा पैर आदि का मर्दन करने लगती थी ॥66॥
अथानंतर किसी दिन वसुदेव उससे पहले जाग गये और रात्रि के समय सोमश्री का रूप छोड़कर सोती हुई उस स्त्री को उन्होंने असली रूप में देख लिया ॥67॥ यह देख धीर-वीर वसुदेव आश्चर्य में पड़ गये । उसी समय वह स्त्री भी सहसा जाग उठी । वसुदेव के उससे पूछा कि अहो! तू सोमश्री के समान कौन है ? ॥68॥ इसके उत्तर में उसने प्रणाम कर कहा कि हे सौम्य ! दक्षिण श्रेणी में एक स्वर्णाभ नाम का नगर है । इसका स्वामी मनोवेग नाम का विद्याधर है ॥69॥ मनोवेग की अंगारवती नाम की अत्यंत सुंदर पत्नी है । उसके मानसवेग नाम का पुत्र और वेगवती नाम की मैं पुत्री हूँ ॥70॥ हमारे पिता मानसवेग को राज्य देकर तपस्या से पाप का उपशम करने के लिए तपोवन में चले गये ॥71 ॥ हे आर्य ! हमारा भाई मानसवेग, सोमश्री को हरकर अपने श्रेष्ठ नगर को ले गया जहाँ वह शील की मर्यादा का अवलंबन लेकर विद्यमान है ॥72॥ मानसवेग ने उसे प्रसन्न करने के लिए मुझे नियुक्त किया था पर मैं इस कार्य में समर्थ नहीं हो सकी अतः आपकी प्रिया के सत्त्व और शील गुण से वशीभूत हो उसकी सखी बन गयी ॥73 ॥ उस समय शीघ्रता से अपना समाचार देने के लिए उसने मुझे आपके पास भेजा था पर मैं आपकी स्त्री बन गयो सो ठीक ही है क्योंकि चित्तवृत्तियाँ नाना प्रकार को होती हैं ॥ 74 ॥ इस प्रकार वेगवती ने कुमार को सब समाचार बताकर उनकी आज्ञानुसार सोमश्री के पिता तथा भाई आदि को भी उसके हरण आदि के सब समाचार क्रम से सुनाये ॥75॥ जिन्हें सुनकर वे सब खेदखिन्न हुए । इधर वेगवती भी अपने असली रूप में रहकर चिरकाल तक पति के साथ क्रीड़ा करती रही ॥76॥
अथानंतर जब भोगी वसुदेव वेगवती के साथ सुख से क्रीड़ा करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे तब वसंत का महीना आ पहुँचा और भ्रमर मधु पी-पीकर उन्मत्त होने लगे ॥77॥ कदाचित् वसुदेव संभोग से खिन्न हुई वेगवती के साथ सो रहे थे कि रात्रि के समय मानसवेग विद्या घर उन्हें शीघ्र ही हर ले गया । जागने पर उन्होंने मुठ्ठियों के दृढ़ प्रहार से उसे इतना पोटा कि उसने भय से विह्वल हो उन्हें गंगा के जल में छोड़ दिया ॥78-79॥ उस समय गंगा के जल में बैठकर एक विद्याधर विद्या सिद्ध कर रहा था सो वसुदेव आकाश से उसके कंधे पर गिरे और उनके गिरते ही उस विद्याधर को विद्या सिद्ध हो गयी ॥80॥ विद्या सिद्ध होने पर वह विद्याधर तो वसुदेव को प्रणाम कर चला गया और एक विद्याधर कन्या उन्हें विजयार्ध पर्वत पर ले गयी ॥ 81 ॥ उनके वहाँ पहुँचते ही आकाश विद्याधरों से व्याप्त हो गया । वे विद्याधर उस समय पाँच रंग के फूलों की वर्षा कर रहे थे तथा सामने आ-आकर प्रणाम करते थे ॥82॥ तदनंतर उन विद्याधरों ने सूर्य के समान देदीप्यमान रथ पर बैठाकर वसुदेव का नगर में प्रवेश कराया । उस समय तुरही और शंखों के शब्द से दशों दिशाएँ भर गयी थीं ॥83॥ वहाँ कामदेव के समान सुंदर शरीर के धारक वसुदेव ने, दधिमुख आदि विद्याधरों के द्वारा प्रदत्त मदनवेगा नामक कन्या के साथ हर्षपूर्वक विवाह किया ॥84॥ और वहीं रहकर काम के वेग से उत्पन्न भाव को धारण करते हुए वसुदेव ने पीनस्तनी मदनवेगा के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा की ॥85॥
कदाचित् कुमार वसुदेव, जिनधर्म के प्रसाद से मदनवेगा के साथ काम जनित सुख का उपभोग कर रहे थे कि रतिकाल में मदनवेगा ने उन्हें अत्यंत आनंद दिया इसलिए प्रसन्न होकर उन्होंने मदनवेगा से कहा कि प्रिये ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ जो वर मांगना हो मांगो । इस प्रकार वह वर पाकर मदनवेगा ने उनसे यही वर माँगा कि हमारे पिता बंधन में पड़े हैं सो उन्हें छुड़ा दीजिए ॥86॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में मदनवेगा के लाभ का वर्णन करने वाला चौबीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥24॥