ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 60
From जैनकोष
अथानंतर धर्मकथा पूर्ण होने पर विनय को धारण करने वाली देवकी ने हाथ जोड़कर भगवान् को नमस्कार किया और उसके बाद यह पूछा कि भगवन् ! आज सुवर्ण के समान सुंदर दो मुनियों का युगल मेरे भवन में तीन बार आया और फिर-फिर से उसने, तीन बार आहार लिया । हे प्रभो ! जब मुनियों के भोजन की बेला एक है और एक ही बार वे भोजन करते हैं तब मुनि एक ही घर में अनेक बार क्यों प्रवेश करते हैं ? ॥1-3॥ अथवा यह भी हो सकता है कि वह तीन मुनियों का युगल हो और अत्यंत सदृशरूप होने के कारण मैं भ्रांतिवश उन्हें देख नहीं सकी हूँ । परंतु इतना अवश्य है कि मेरा उन सबमें पुत्रों के समान स्नेह उत्पन्न हुआ था ॥4॥
देवकी के इस प्रकार कहने पर भगवान् ने कहा कि ये छहों मुनि तेरे पुत्र हैं और कृष्ण के पहले तीन युगल के रूप में तूने इन्हें उत्पन्न किया था ॥5॥ देव ने कंस से इनकी रक्षा की और भद्रिल पुर में सुदृष्टि सेठ तथा अलका सेठानी के यहाँ पुत्ररूप से इनका लालन-पालन हुआ ॥6॥ धर्म श्रवण कर ये सबके सब एक साथ मेरी शिष्यता को प्राप्त हो गये― मुनि हो गये और कर्मो का क्षय कर इसी जन्म में सिद्धि को प्राप्त होंगे ॥7॥ तेरा इन सबमें जो स्नेह हुआ था वह अपत्यकृत था पत्र होने से किया गया था सो ठीक ही है क्योंकि समस्त धर्मात्मा जनों में प्रेम होता है फिर जो पुत्र होकर धर्मात्मा हैं उनका तो कहना हो क्या है ? ॥8॥ तदनंतर देवकी ने संतुष्ट होकर उन पुत्ररूप मुनियों को नमस्कार किया तथा कृष्ण आदि समस्त यादवों ने नम्रीभूत होकर उनकी स्तुति की ॥9॥
तत्पश्चात् कृष्ण को पट्टरानी सत्यभामा ने भगवान् को प्रणाम कर अपने पूर्वभव पूछे । उत्तर में दिव्यनेत्र-केवलज्ञान के धारक भगवान् यादवों और देवों के समक्ष इस प्रकार उसके पूर्वभव कहने लगे ॥10॥
पहले भद्रिलपुर नगर में मुंडशलायन नाम का एक ब्राह्मण रहता था जो मरीचि ब्राह्मण और कपिला ब्राह्मणी का पुत्र था, काव्य को रचना में निपुण था और अपने-आपको पंडित मानता था ॥11॥ श्री पुष्पदंत जिनेंद्र के तीर्थ में धर्म का व्युच्छेद हो जाने से जब भरतक्षेत्र की भूमि में जिनमार्ग के ज्ञाता भव्य जीवों का अभाव हो गया तब उस विषयों से पीड़ित ब्राह्मण ने पृथिवी पर पापबंध में कारणभूत गाय, कन्या तथा सुवर्ण आदि से दान की प्रवृत्ति चलायी ॥12-13 ॥ मूर्ख जनों को मोहित कर वह राजपुरुषों के आगे तक पहुँच गया अर्थात् क्रम-क्रम से उसने राजा-प्रजा सभी को अपने चक्र में फंसा लिया और पापाचार में प्रवृत्त हो अंत में वह सातवें नरक गया ॥14॥ वहाँ से निकलकर भी तिर्यंच और नारकियों की योनि में परिभ्रमण करता रहा । तदनंतर कदा चित् काकतालीयन्याय से मनुष्य पर्याय को प्राप्त हआ ॥15॥ गंधावती नदी के किनारे गंधमादन पर्वत पर बह वल्लरी नामक स्त्री का स्वामी पर्वतक नाम का भील हुआ ॥16॥ कदाचित् उस पर्वत पर श्रीधर और धर्म नाम के दो चारणऋद्धिधारी मुनि आये । उनके दर्शन कर इसके परिणामों में कुछ शांति आयी जिससे मुनियों ने उससे उपवास कराया । अंत में वह धर्मपूर्वक मरण को प्राप्त हो विजयार्ध पर्वत की अलका नगरी में महाबल नामक विद्याधर से ज्योतिर्माला नाम की विद्या धरी में शतबली का भाई हरिवाहन नाम का पुत्र हुआ ॥17-18॥ कदाचित् राजा महाबल, शत बली और हरिवाहन नामक दोनों पुत्रों को राज्य-कार्य में नियुक्त कर श्रीधर गुरु के पास दीक्षित हो गया और दीक्षा का मुख्य फल मोक्षसंबंधी सुख उसे प्राप्त हो गया ॥ 19॥ किसी कारण शतबली और हरिवाहन में विरोध पड़ गया जिससे बड़े भाई शतबली ने उसे निकाल दिया । निर्वासित हरिवाहन भगली देश के अंबुदावर्त नामक पर्वतपर स्थित था ॥20॥ उसी समय वहाँ श्रीधर्म और अनंतवीर्य नामक दो चारणऋद्धिधारी मुनि आये । उनके दर्शन कर हरिवाहन ने दीक्षा ले ली और अंत में सल्लेखना धारण कर वह ऐशान स्वर्ग को प्राप्त हुआ ॥21॥ हरिवाहन के जीव देव ने वहाँ देवों के सुखों का उपभोग किया परंतु संक्लेशमय परिणाम होने के कारण वहाँ से च्युत होकर राजा सुकेतु की रानी स्वयंप्रभा के गर्भ में तू सत्यभामा नाम की कन्या हुई ॥22॥ इस जन्म में तपकर तू अंत में उत्तम देव होगी और वहाँ से च्युत हो जिनेंद्र प्रणीत तप कर मोक्ष सुख को प्राप्त होगी ॥23॥
इस प्रकार अपने भव सुनकर तथा निकट काल में हमें मोक्ष प्राप्त होने वाला है यह जानकर सत्यभामा ने हर्षित हो भगवान् को नमस्कार किया ॥24॥
तदनंतर रानी रुक्मिणी ने भी अपने पूर्वभव पूछे सो समस्त पदार्थों के ज्ञाता भगवान नेमिनाथ, इस प्रकार कथन करने लगे । उस समय समस्त लोग सुनने के लिए एकाग्रचित्त होकर बैठे थे ॥25॥
इसी भरत क्षेत्र के मगध देश में एक लक्ष्मी नाम का ग्राम है । उसमें एक सोमदेव नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी लक्ष्मीमती नाम की ब्राह्मणी थी जो कि लक्ष्मी के समान उत्तम लक्षणों की धारक थी और अपने रूप के अभिमान से मूढ़ होकर पूज्य जनों को भी कुछ नहीं समझती थी ॥26-27॥ चित्त को हरण करने वाली वह लक्ष्मीमती, एक दिन आभूषण धारण कर नेत्रों को प्रिय तथा चंद्रमा के समान आभा वाले मणिमय दर्पण में अपना मुख देख रही थी उसी समय तप से अतिशय कृश समाधिगुप्त नाम के मुनि भिक्षा के लिए आये । उन्हें देख ग्लानि युक्त हो उसने उनकी निंदा की ॥28-29 ॥ मुनिनिंदा के बहुत भारी पाप से वह सात दिन के भीतर ही उदुंबर कुष्ठ से पीड़ित हो गयी और इतनी अधिक पीड़ित हुई कि वह अग्नि में प्रवेश कर मर गयी । 30 ॥ आर्तध्यान के साथ मरकर वह गधी हुई । उस पर नमक लादा जाता था । सो उसके भार से मर कर वह मान कषाय के दोष से राजगृह नगर में शकरी हुई ॥31॥ उस बेचारी को भी लोगों ने मार दिया जिससे मरकर वह गोष्ठ― गायों के रहने के स्थान में कुत्ती हुई । एक दिन उस गोष्ठ में भयंकर दावाग्नि लग गयी जिससे वह कुत्ती उसी दावाग्नि में जल गयी ॥32॥ और मरकर मंडूक ग्राम में रहने वाले त्रिपद नामक धीवर की मंडूकी नामक स्त्री से पूतिगंधिका नामक पुत्री हुई ॥33॥ अपने पाप के उदय से माता ने उसे छोड़ दिया अर्थात् उसकी माता मर गयी जिससे दादी ने उसका पालन-पोषण किया । एक दिन इसके घर के उपवन में वही समाधिगुप्त मुनिराज विहार करते हुए आय और वटवृक्ष के नीचे विराजमान हो गये । रात्रि के समय शीत की अधिकता देख पूति गंधा ने उन मुनिराज को जाल से ढक दिया ॥ 34 ॥ मुनिराज अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक थे इसलिए उन्हें उसको दशा देख दया आ गयी । उन्होंने उसे समझाया और उसके पूर्व भव सुनाये जिससे उसने धम धारण कर लिया ॥ 35 ॥ एक बार वह पूतिगंधा सोपारक नगर गयी । वहाँ आर्यिकाओं की उपासना कर वह उन्हीं के साथ आचाम्ल नाम का तप करती हुई राजगृह नगर चली गयी ॥36 ॥ वहाँ वंदना करने योग्य जो सिद्धशिला थी उसकी वंदना कर वहीं नीलगुहा में रहने लगी और सल्लेखना धारण कर मृत्यु को प्राप्त हुई ॥37॥ मरकर वह सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेंद्र की गगनवल्लभा नाम की अतिशय प्रिय महादेवी हुई । सोलहवें स्वर्ग में स्त्रियों की उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्य की है सो वह उसी उत्कृष्ट स्थिति की धारक हुई थी ॥38॥ वहाँ से चयकर तू कुंडिनपुर में राजा भीष्म की श्रीमती रानी से रुक्मी की बहन रुक्मिणी नाम की हुई है ॥39 ॥ इस उत्तम पर्याय में तू दीक्षा धारण कर उत्तम देव होगी और वहाँ से च्युत हो निर्ग्रंथ तपश्चरण कर निश्चित ही मोक्ष प्राप्त करेगी ॥40॥ अपने पूर्व भव सुनकर रुक्मिणी भयंकर संसार से भयभीत हो गयी और अपने लिए निकट काल में मोक्ष प्राप्त होगा यह जानकर बड़े हर्ष से उसने भगवान् को नमस्कार किया ॥41॥
तदनंतर कृष्ण की तीसरी पट्टरानी जांबवती ने श्रीनेमिजिनेंद्र से अपने पूर्वभव पूछे सो संसार से भयभीत समस्त प्राणियों के समक्ष वे उसके पूर्वभव इस प्रकार कहने लगे ॥42॥ जंबूद्वीप की पुष्कलावती देश में एक वीतशोका नाम की नगरी थी । उसमें देविल नाम का एक गृहस्थ रहता था । उसकी देवमती नाम की स्त्री से यशस्विनी नाम की पुत्री हुई थी ॥43॥ यशस्विनी गृहपति (गहोई) की लड़की थी और गृहपति (गहोई) के पुत्र सुमित्र के लिए दी गयी थी । परंतु पति के मर जाने पर वह बहुत दुःखी हुई ॥ 44॥ जिनधर्म का उपदेश देने वाले किसी जिनदेव नामक जैन ने उसे उपदेश देकर शांत किया परंतु मोह के उदय से वह सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकी ॥ 45 ॥ वह पतिव्रता लौकिक दान तथा उपवास करती रही और उनके प्रभाव से मरकर नंदनवन में व्यंतरदेव की मेरुनंदना नाम की स्त्री हुई ॥46॥ तीस हजार अस्सी वर्ष तक वहाँ के भोग-भोगकर वह चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करती रही ॥47॥ तदनंतर इसी जंबूद्वीप के ऐरावतक्षेत्र में विजयपुर नगर के राजा बंधुषेण की बंधुमती नामक स्त्री से बंधुयशा नाम की कन्या हुई । बंधुयशा ने कन्या अवस्था में ही श्रीमती नामक आर्यिका से जिनदेव प्ररूपित प्रोषधव्रत धारण किया था इसलिए वह मरकर कुबेर को स्वयं प्रभा नाम की स्त्री हुई । आयु के अंत में वहाँ से च्युत हो जंबूद्वीप की पुंडरीकिणी नामक विशालपुरी में वज्रमुष्टि की सुभद्रा स्त्री से सुमति नाम की पुत्री हुई । वहाँ उसने सुंदरी नामक आर्यिका से प्रेरित हो उनके समीप रत्नावली नाम का तप किया जिसके प्रभाव से मरकर वह तेरह पल्य की आयु की धारक ब्रह्मेंद्र की प्रधान इंद्राणी हुई । तदनंतर वहाँ से भी च्युत होकर भरतक्षेत्र संबंधी विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में जांबव नामक नगर के विद्याधर राजा जांबव की जांबवती नामक रानी से तू जांबवती नाम की पुत्री हुई ॥48-53 ॥ इस भव में तू तपस्विनी होकर तप करेगी और स्वर्ग का उत्तम देव होकर वहाँ से च्युत हो राजपुत्र होगी । तदनंतर तप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त होगी ॥ 54॥ इस प्रकार भगवान् के द्वारा अपने पूर्वभव कहे जाने पर जिसका सब संशय दूर हो गया था तथा जो शीलरूपी अलंकार से सुशोभित थी ऐसी जांबवती रानी जिनेंद्र देव को प्रणाम कर मैं संसार से पार हो गयी ऐसा मानती हुई सुख से आसीन हुई ॥55॥
तदनंतर सुशीमा नामक चौथी पट्टरानी ने विनयपूर्वक जिनेंद्र भगवान् से अपने भवांतर पूछे सो भगवान् सभासदों के मन को आनंद उत्पन्न करने वाली दिव्यध्वनि से उसके भवांतर इस प्रकार वर्णन करने लगे―
धातकीखंड द्वीप के पूर्वार्ध में जो मेरु पर्वत है उससे पूर्व की ओर के विदेह क्षेत्र में एक मंगलावती नाम का देश है । उसके रत्नसंचय नामक नगर में किसी समय विश्वसेन राजा रहता था उसकी स्त्री का नाम अनुंधरी था । इसी राजा का एक सुमति नाम का प्रसिद्ध मंत्री था जो श्रावक धर्म का प्रतिपालक था ॥56-58॥ कदाचित् अयोध्या के राजा पद्मसेन ने राजा विश्वसेन को युद्ध में प्राणरहित कर दिया जिससे उसकी स्त्री अनुंधरी बहुत दुःखी हुई । सुमति मंत्री ने उसे धर्म का उपदेश दिया परंतु मोह के कारण वह सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं हो सकी और आयु के अंत में मरकर विजयद्वार पर निवास करने वाले विजय नामक व्यंतर देव की ज्वलनवेगा नाम की व्यंतरी हुई ॥59-60॥ दस हजार वर्ष तक वहाँ के सुख भोगकर वह वहाँ से च्युत हुई और चिरकाल तक भयंकर संसार-सागर में परिभ्रमण करती रही ॥61॥ तदनंतर जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक रम्य नाम का सुंदर क्षेत्र है । उसके महाधन संपन्न शालिग्राम नामक नगर में एक यक्षिल नाम का गृहपति रहता था । उसकी स्त्री का नाम देवसेना था ज्वलनवेगा का जीव इन्हीं दोनों के एक पुत्री हुआ । वह पुत्री चूंकि यक्ष की आराधना से प्राप्त हुई थी इसलिए उसका यक्षदेवी यही नाम प्रसिद्ध हो गया ॥62-63 ॥ किसी समय वह यक्षदेवी यक्ष गृह की पूजा के लिए गयी थी । वहाँ उसने धर्मसेन गुरु के समीप बड़े गौरव से धर्म का उपदेश सुना ॥64॥ किसी दिन उस भक्तिमती कन्या ने उक्त मुनि के लिए आहारदान दिया और उसके फलस्वरूप पुण्यबंध बांधा ॥65॥ किसी समय वह यक्षदेवी सखियों के साथ क्रीड़ा करने के लिए विमल नामक पर्वत पर गयी थी वहाँ अकाल वर्षा से पीड़ित होकर वह एक गुफा में घुस गयी ॥66॥ उस गुफा में पहले से सिंह बैठा था सो उस सिंह ने देखते ही यक्षदेवी को खा लिया । यक्षदेवी अपना शरीर छोड़ हरिवर्ष क्षेत्र में दो पल्य की धारक आर्या हुई ॥67॥ वहाँ से चयकर वह ज्योतिष लोक में एक पल्य की आयु वाली देवी हुई । तदनंतर वहाँ से च्युत हो जंबूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के पुष्कलावती देश में वीतशोका नामक नगरी के राजा अशोक की श्रीमती नामक रानी से श्रीकांता नाम की पुत्री हुई ॥68-69॥ श्रीकांता ने कुमारी अवस्था में ही जिनदत्ता आर्यिका के पास दीक्षा लेकर रत्नावली नाम का तप किया और उसके फलस्वरूप वह माहेंद्र स्वर्ग के इंद्र को ग्यारह पल्य की आयु वाली प्रिय देवी हुई । स्वर्ग के सुख भोगकर वहाँ से च्युत हुई और सुराष्ट्र देश के गिरिनगर में राष्ट्रवर्धन राजा की सुज्येष्ठा नामक रानी से तू सुसीमा नाम की पुत्री हुई है । अब तू तप की शक्ति से देव होगी और तदनंतर मनुष्य पर्याय प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करेगी ॥70-72॥ इस प्रकार अपने भव श्रवण कर तथा अपना संसार अत्यंत निकट जानकर सुसीमा बहुत प्रसन्न हुई और उसने कृतकृत्य भगवान् नेमिजिनेंद्र को नमस्कार किया ॥73॥
तदनंतर लक्ष्मणा नामक पाँचवीं पट्टरानी ने नमस्कार कर भगवान से अपने पूर्वभव पूछे सो भगवान् उसके पूर्वभव कहने लगे । चूंकि समस्त तीर्थंकर भगवान् प्रश्नों का उत्तर निरूपण करते हैं इसलिए वे सर्वहितकारी कहलाते हैं ॥ 74 ॥ उन्होंने कहा कि इसी जंबूद्वीप की सीतानदी के उत्तरतट पर एक कच्छकावती नाम का देश है । उसके अरिष्टपुर नगर में किसी समय इंद्र की उपमा को धारण करने वाला एक वासव नाम का राजा रहता था । उसकी सुमित्रा नाम की वल्लभा थी । एक दिन वह अपनी वल्लभा के साथ, सहस्राम्रवन में स्थित सागरसेन नामक मुनिराज की वंदना करने के लिए गया ॥75-76॥ राजा वासव, मुनिराज से धर्मश्रवण कर विरक्त हो गया और वसुसेन नामक पुत्र को राज्यभार सौंपकर दीक्षित हो गया परंतु पुत्र के मोह से रानी सुमित्रा दीक्षा नहीं ले सकी ॥77॥
कदाचित् पुत्र का भी वियोग हो गया अतः पति और पुत्र के वियोग जन्य तीव्र शोक से उत्पन्न दुःख से पीड़ित होकर वह मर गयी और मरकर भीलिनी पर्याय को प्राप्त हुई । एक दिन उस भीलिनी ने अवधिज्ञान के धारक नंदिभद्र नामक चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के दर्शन कर उनसे अपने पूर्वभव सुने । पूर्वभवों को स्मरण कर उसने तीन दिन का अनशन किया और मरकर नारद नामक देव की मेघमालिनी नाम की स्त्री हुई । वहाँ से च्युत होकर भरत क्षेत्र के दक्षिण तट पर चंदनपुर नामक नगर में राजा महेंद्र की अनुंधरी रानी से विद्याधरों के मन को हरण करने वाली कनकमाला नाम की पुत्री हुई ॥78-81 ॥ कनकमाला स्वयंवर में महेंद्र नगर के राजा हरिवाहन विद्याधर को वर कर उसकी माननीय वल्लभा हो गयी ॥ 82॥ किसी समय कनक माला जिन-प्रतिमाओं की पूजा करने के लिए सिद्धकूट गयी थी । वहाँ चारण ऋद्धि के धारक मुनिराज से अपने पूर्वभव श्रवण कर वह आर्यिका हो गयी और मुक्तावली नाम का तपकर सनत्कुमार स्वर्ग के इंद्र की प्रियदेवी हुई । वहाँ उसकी नौ पल्य की आयु थी । सुख भोगकर वह वहाँ से च्युत हो यहाँ राजा श्लक्ष्णरोम की कुरुमती रानी से लक्ष्मणा नाम की पुत्री हुई है । तीसरे भव में तेरी मुक्ति होगी । इस प्रकार भवांतर कहे जाने पर लक्ष्मणा रानी ने भगवान् नेमिजिनेंद्र को नमस्कार किया ॥83-85 ॥
तदनंतर कृष्ण की छठी पट्टरानी गांधारी के द्वारा प्रश्न किये जाने पर भगवान् उसके पूर्वभव कहने लगे । उन्होंने कहा कि कोशल देश की अयोध्या नगरी में किसी समय रुद्रदत्त नाम का राजा रहता था । उसकी विनयश्री नाम की रानी थी । उसने एक समय सिद्धार्थक नामक वन में अपने पति के साथ, श्रीधर नामक मुनिराज के लिए आहार दान दिया ॥ 86-87 ॥ दान के प्रभाव से मरने के बाद वह उत्तरकुरु में तीन पल्य को आयु की धारक आर्या हुई । उसके बाद पल्य के आठवें भाग बराबर आयु की धारक चंद्रमा की प्रिया हुई ॥88॥ तदनंतर इसी विजयार्ध की उत्तर श्रेणी में गगनवल्लभ नगर के स्वामी राजा विद्युद्वेग की विद्युन्मती नामक रानी से महाकांति की धारक विनयश्री नाम की कन्या हुई । यह कन्या गुणों से अत्यंत प्रसिद्ध थी और नित्यालोक नगर के स्वामी राजा महेंद्रविक्रम की गुणवती स्त्री हुई । कदाचित् सुमेरु पर्वतपर चारण ऋद्धि के धारक युगल मुनियों से धर्म श्रवण कर राजा महेंद्रविक्रम संसार से विरक्त हो गया और उसने हरिवाहन नामक पुत्र को राज्य-कार्य में नियुक्त कर दीक्षा धारण कर ली ॥89-91॥ विनयश्री ने भी संसार से विरक्त हो सर्वभद्र नामक उपवास किया और उसके प्रभाव से वह पाँच पल्य की स्थिति की धारक सौधर्मेंद्र की देवी हुई ॥92॥ अब तू स्वर्ग से च्युत होकर गांधार देश की पुष्कलावती नगरी में राजा इंद्रगिरि को मेरुमती नामक रानी से गांधारी नाम की पुत्री हुई ॥93॥ तू तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करेगी । इस प्रकार अपने भवांतर के कहे जाने पर गांधारी ने जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार किया । तदनंतर कृष्ण को सातवीं पट्टरानी गौरी ने नमस्कार कर अपने पूर्वभव पूछे सो समस्त पदार्थों को जानने वाले भगवान् इस प्रकार उसके पूर्वभव कहने लगे ॥94॥
इस भरत क्षेत्र के इभ्यपुर नगर में किसी समय धनदेव नाम का एक सेठ रहता था । उसकी यशस्विनी नाम की स्त्री थी । एक दिन यशस्विनी अपने महल की छत पर खड़ी थी वहाँ उसने आकाश में जाते हुए दो चारण ऋद्धिधारी मुनि देखे ॥95 ॥ उन्हें देखते उसे अपने समस्त पूर्वभवों का स्मरण हो गया । उसे मालूम हो गया कि मैं धातकीखंड द्वीप के पूर्व मेरु को पश्चिम दिशा में विद्यमान विदेह क्षेत्र के अंतर्गत नंदशोक नामक नगर में आनंद नामक सेठ की पत्नी थी । वहाँ मैंने अपने पति के साथ मितसागर नामक मुनिराज के लिए आहार दान दिया । जिसके फलस्वरूप मैंने हर्षपूर्वक देवों के द्वारा किये हुए पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । कदाचित् हम दोनों ने आकाश से पड़ता हुआ वर्षा का पानी पिया । वह पानी विष-सहित था इसलिए पति के साथ मेरा मरण हो गया ॥96-98॥
मरकर मैं देवकुरु में आर्या हुई । उसके बाद ऐशानेंद्र की प्रिया हुई और उसके बाद यहाँ यशस्विनी हुई हूँ । इस प्रकार जानकर संसार से भयभीत होती हुई यशस्विनी ने सुभद्र नामक मुनिराज को नमस्कार कर उनसे प्रोषधव्रत ग्रहण किया । तदनंतर मरकर पाँच पल्य की आयु की धारक प्रथम स्वर्ग के इंद्र की इंद्राणी हुई ॥99-100॥
वहाँ से च्युत हो कौशांबी नगरी में सुभद्र सेठ की सुमित्रा नाम की स्त्री से सदा धर्म में बुद्धि लगाने वाली धर्ममति नाम की कन्या हुई ॥101॥ धर्ममति ने जिनमति आर्यिका के पास जिनगुण नाम का तप लेकर उपवास किये और उनके फलस्वरूप वह महाशुक्र स्वर्ग के इंद्र की वल्लभा हुई ॥102॥ वहाँ उसकी इक्कीस पल्य की आयु थी । वहाँ से च्युत होकर अब तू वीतशोका नगरी में राजा मेरुचंद्र की चंद्रमति स्त्री से गौरी नाम की पुत्री हुई है ॥103 ॥ तीन भव में तुझे मुक्ति की प्राप्ति होगी । इस प्रकार कहे जाने पर गौरी ने नम्रीभूत होकर भगवान् को प्रणाम किया । तदनंतर कृष्ण की आठवीं पट्टरानी पद्मावती ने भी अपने पूर्वभव पूछे जिसके उत्तर में भगवान् उसके पूर्वभव इस प्रकार कहने लगे ॥104॥
इसी भरतक्षेत्र की उज्जयिनी नगरी में किसी समय अपराजित नाम का राजा रहता था । उसकी स्त्री विजया थी और उन दोनों के विनयश्री नाम की पुत्री थी ॥105॥ विनयश्री हस्तिनापुर के राजा हरिषेण पति को प्राप्त हुई थी अर्थात् उसका विवाह हस्तिनापुर के राजा हरिषेण के साथ हुआ था । एक दिन उसने पति के साथ, वरदत्त मुनिराज के लिए आहारदान दिया ॥106॥ कदाचित् वह अपने पति के साथ गर्भगृह में शयन कर रही थी कि कालागुरु की धूप से उसका प्राणांत हो गया । मरकर वह हैमवत क्षेत्र में एक पल्य की आयु वाली आर्या हुई । वहाँ के सुख भोगकर वह चंद्रदेव की चंद्रप्रभा नाम की देवी हुई । वहाँ पल्य के आठवें भाग उसकी आयु थी । वहाँ से च्युत हो भरतक्षेत्र के मगधदेश संबंधी शाल्मलीखंड नामक ग्राम में देविला और जयदेव नामक दंपती के पद्मदेवी नाम की पुत्री हुई ॥107-109॥ एक समय उसने वरधर्म नामक आचार्य से यह व्रत लिया कि मैं जीवन पर्यंत अज्ञात फल का भक्षण नहीं करूंगी ॥110॥ किसी एक दिन असमय में चंडबाण नामक शक्तिशाली भील शाल्मलीखंड ग्राम पर आक्रमण कर वहाँ की समस्त प्रजा को हर ले गया ॥111॥ साथ ही पद्मदेवी को भी पकड़कर अपने कारागार में ले गया । वह उसे अपनी स्त्री बनाना चाहता था परंतु शीलवती पद्मदेवी ने किसी नीति से उसका निराकरण कर दिया ॥112॥ उसी समय राजगृह के राजा सिंहरथ ने हठपूर्वक उस भील को मार डाला जिससे उसके बंधन में स्थित शाल्मलीखंड ग्राम की समस्त जनता छूटकर शरणरहित वन में इधर-उधर भ्रमण करने लगी ॥113॥ मूढबुद्धि लोग दिशा भ्रांति होने से उस वन में मृगों की भाँति भटक गये और भूख से पीड़ित हो किंपाक फल खाकर दुःख से मर गये ॥114॥ पद्मदेवी अपने व्रत में दृढ़ थी इसलिए उसने अज्ञात फल होने से उन फलों को नहीं खाया और संन्यास मरण कर वह अंत में हैमवत क्षेत्र में एक पल्य को आयु वाली आर्या हुई ॥115 ॥ तदनंतर स्वयंभूरमण द्वीप के स्वयंप्रभ नामक पर्वतपर स्वयंप्रभ नामक व्यंतर देव की स्वयंप्रभा नाम की देवी हुई ॥116 ॥ वहाँ से आकर भरत क्षेत्र संबंधी जयंत नगर के स्वामी राजा श्रीधर की श्रीमती नामक रानी से विमलश्री नाम की पुत्री हुई ॥117॥ विमलश्री, भद्रिलपुर के राजा मेघनाद के लिए दी गयी । उसके संयोग से उसने पृथिवी पर मेघघोष नाम से प्रसिद्ध पुत्र प्राप्त किया ॥118॥ कदाचित् पति का स्वर्गवास हो जाने पर उसने पद्मावती आर्यिका के समीप दीक्षा लेकर आचाम्लवर्धन नाम का तप तपा और उसके प्रभाव से वह स्वर्ग गयी ॥119 ॥ स्वर्ग में वह सहस्रार स्वर्ग के इंद्र की प्रधान देवी हुई और पैंतालीस पल्य प्रमाण वहाँ का काल व्यतीत करती रही ॥120॥ अब वहाँ से च्युत होकर तू अरिष्टपुर के राजा स्वर्णनाभ की श्रीमती रानी से पद्मावती नाम की पुत्री हुई है ॥12॥ तपकर तू स्वर्ग में देव होगी और वहाँ से च्युत हो तप के सामर्थ्य से मोक्ष प्राप्त करेगी । इस प्रकार कहे जाने पर अपने भवांतर सुन पद्मावती ने नेमि जिनेंद्र को नमस्कार किया ॥122 ॥
रोहिणी देवकी आदि देवियों और अन्य यादवों ने भी अपने-अपने भव पूछे तथा श्रवण कर वे संसार से भयभीत हुए ॥123॥ इस प्रकार सुर, असुर तथा यादव लोग जिनेंद्र भगवान् की स्तुति कर तथा उन्हें नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर चले जाते थे और पूजा के लिए बार-बार आ जाते थे ॥ 124 ॥ तदनंतर नेमिजिनेंद्र ने भव्यजीवों के हित के लिए पुनः अनेक देशों में विहार किया सो ठीक ही है क्योंकि उनकी चर्या सूर्य के समान जगत् के हित के लिए ही थी ॥ 125 ॥
इधर देवकी ने कृष्ण के पश्चात् गजकुमार नाम का एक दूसरा पुत्र उत्पन्न किया जो वसु देव के समान कांति का धारक था, श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय था एवं अत्यंत शुभ था ॥126॥ जब गजकुमार कन्याओं के मन को हरण करने वाले यौवन को प्राप्त हुआ तब कृष्ण ने उत्तमोत्तम राजकुमारियों के साथ उसका विवाह कराया ॥127॥ सोमशर्मा ब्राह्मण की एक सोमा नाम की अत्यंत सुंदर कन्या थी जो उसकी क्षत्रिया स्त्री से उत्पन्न हुई थी । श्रीकृष्ण ने गजकुमार के लिए उसका भी वरण किया ॥ 128 ॥
जब उसके विवाह के प्रारंभ का समय आया तब समस्त यादव अत्यंत प्रसन्न हुए और उसी समय विहार करते हुए भगवान् नेमिनाथ द्वारिकापुरी आये ॥129॥ जब भगवान् आकर गिरनार पर्वतपर विराजमान हो गये तब समस्त यादव अनेक मंगल द्रव्य लिये हुए उनकी वंदना करने के लिए नगर से बाहर निकले ॥130॥ द्वारिका में होने वाले इस आटोप (हलचल ) को देखकर गजकुमार ने किसी कंचुकी से पूछा और प्रारंभ से ही जिनेंद्र भगवान् की समस्त हितकारी चेष्टा को जान लिया ॥ 131॥ तदनंतर गजकुमार भी हर्ष से रोमांच धारण करता हुआ सूर्य के समान वर्ण वाले रथ पर सवार हो जिनेंद्र भगवान् की वंदना करने के लिए गया ॥132॥ वहाँ आर्हंत्य लक्ष्मी से युक्त तथा बारह सभाओं से घिरे हुए जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर गजकुमार श्रीकृष्ण के साथ मनुष्यों की सभा में बैठ गया ॥133॥ भगवान् नेमि जिनेंद्र ने, मनुष्य, सुर तथा असुरों की उस सभा में उस धर्म का निरूपण किया जो संसार-सागर से पार होने का एकमात्र उपाय था एवं जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्̖चारित्ररूपी रत्नत्रय से उज्ज्वल था ॥134॥ अवसर आने पर अत्यंत आदर से पूर्ण इच्छा के धारक श्रीकृष्ण ने जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर श्रोताओं के हित की इच्छा से तीर्थंकरों, चक्रवतियों, अर्ध चक्रवतियों, बलभद्रों और प्रतिनारायणों की उत्पत्ति तथा तीर्थंकरों के अंतराल को पूछा ॥135-136 ॥
तदनंतर भगवान् प्रश्न के अनुसार श्रीकृष्ण के लिए त्रेसठ शलाकापुरुषों में प्रमुख चौबीस तीर्थंकरों की उत्पत्ति इस प्रकार कहने लगे ॥ 137 ॥ उन्होंने कहा कि इस युग में सबसे पहले तीर्थंकर वृषभनाथ हुए । उनके पश्चात् क्रम से अजितनाथ, संभवनाथ, अभि नंदननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चंद्रप्रभ, सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयोनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनंतजित्, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, शल्यरूपी कुश को निकालने वाले मल्लिनाथ, मुनियों के स्वामी मुनि सुव्रतनाथ और नमिनाथ तीर्थंकर हुए हैं । ये सभी निर्वाण को प्राप्त हो चुके हैं । बाईसवां तीर्थंकर मैं नेमिनाथ अभी वर्तमान हूँ और पार्श्वनाथ तथा महावीर ये दो तीर्थंकर आगे होंगे ॥138-141॥ इन तीर्थंकरों में से आठ तीर्थंकर पूर्वभव में जंबूद्वीप के विदेहक्षेत्र में, पांच भरतक्षेत्र में, सात धातकी-खंड में और चार पुष्करार्ध में उत्पन्न हुए थे ॥142 ॥ जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र में उत्पन्न हुए आठ तीर्थंकरों का विवरण इस प्रकार है― वृषभनाथ और शांतिनाथ पूर्वभव में जंबूद्वीप संबंधी विदेहक्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी में, अजितनाथ सुसीमा नगरी में, अरनाथ क्षेमपुरी में, कुंथुनाथ, संभवनाथ और अभिनंदननाथ रत्नसंचय नगर में और मल्लिनाथ वीतशोका नगरी में उत्पन्न हुए थे ॥143-144॥ भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए पांच तीर्थंकर इस प्रकार हैं― मुनि सुव्रतनाथ चंपापूरी में, नमिनाथ कौशांबी नगरी में, नेमिनाथ हस्तिनापुर में, पार्श्वनाथ अयोध्या में और महावीर छत्राकारपुर में पूर्वभव में उत्पन्न हुए थे ॥145-146॥
धातकीखंड द्वीप के पूर्वार्ध में जन्म लेने वाले सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ और चंद्रप्रभ इन चार तीर्थंकरों की पूर्वभव की नगरियां क्रम से अखंड लक्ष्मी की धारक पुंडरीकिणीपुरी, सुसीमापुरी, क्षेमपुरी और रत्नसंचयपुरी थीं । सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयोनाथ और वासुपूज्य इन चार तीर्थंकरों की पूर्व जन्म की नगरियाँ क्रम से पूर्व पुष्करार्धसंबंधी पुंडरीकिणी, सुसीमा, क्षेमपुरी और रत्नसंचयपुरी थीं ॥147-148॥ अनंतजित् ( अनंतनाथ ) भगवान् पूर्व भव में धातकीखंड द्वीप के पश्चिम ऐरावत क्षेत्र-संबंधी अरिष्टपुर नगर में उत्पन्न हुए थे ॥149 ॥ विमलनाथ पूर्वार्ध संबंधी भरत-क्षेत्र के महापुर नगर में और धर्मनाथ भद्रिलपुर नगर में उत्पन्न हुए थे । इन तीर्थंकरों के पूर्वभव के नाम इस प्रकार हैं― 11 नलिनगुल्म, 12पद्मोत्तर, 13 पद्मासन, 14 पद्म, 15 दसरथ, 16 मेघरथ, 17 सिंहरथ, 18 धनपति, 19 वैश्रवण, 20श्रीधर्म, 21 सिद्धार्थ, 22सुप्रतिष्ठ, 23 आनंद और 24 नंदन ॥150-155॥ इनमें भगवान वृषभनाथ पूर्वभव में चक्रवर्ती तथा चौदह पूर्वों के धारक थे और शेष तीर्थंकर महामंडलेश्वर और ग्यारह अंग के वेत्ता थे । उक्त सभी तीर्थंकर पूर्वभव में अपने शरीरों की अपेक्षा सुवर्ण के समान कांति वाले थे ॥156 ॥ सभी तीर्थंकरों ने पूर्वभव में सिंहनिष्क्रीडित तपकर एक महीने के उपवास के साथ प्रायोपगमन संन्यास धारण किया था और सभी यथायोग्य स्वर्गगामी थे- अपनी-अपनी साधना के अनुसार स्वर्गों में उत्पन्न हुए थे ॥157 ॥
तीर्थंकरों के पूर्व जन्म के गुरु क्रम से 1 वज्रसेन, 2 अरिंदम, 3 स्वयंप्रभ, 4 विमलवाहन, 5सीमंधर, 6पिहितास्रव, 7 अरिंदम, 8युगंधर, 9 सबका हित करने वाले सर्वजनानंद, 10 उभयानंद, 11 वज्रदत्त, 12 वज्रनाभि, 13 सर्वगुप्त, 14 त्रिगुप्त, 15 चित्तरक्ष, 16 निर्मल आचार से सहित माननीय विमलवाहन, 17 धनरथ, 18संवर से सहित संवर, 19 तीन लोक के द्वारा स्तुति करने के योग्य वरधर्म, 20 सुनंद, 21 नंद, 22 व्यतीतशोक, 23 दामर और 24 प्रोष्ठिल थे ॥158-163 ॥ वृषभनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ और कुंथुनाथ ये चार तीर्थंकर सर्वार्थसिद्धि से, अभिनंदन विजय विमान से, चंद्रप्रभ और सुमतिनाथ वैजयंत विमान से, नेमि और अरनाथ जयंत विमान से, नमि और मल्लिनाथ अपराजित विमान से, पुष्पदंत आरण स्वर्ग से, शीतलनाथ अच्युत स्वर्ग से, श्रेयोनाथ, अनंतनाथ और महावीर पुष्पोत्तर विमान से, विमलनाथ, पार्श्वनाथ और मुनिसुव्रतनाथ सहस्रार स्वर्ग से, संभवनाथ, सुपार्श्वनाथ और पद्मप्रभ क्रमशः अधोग्रैवेयक, मध्यग्रैवेयक और उपरिम ग्रैवेयक से तथा वासुपूज्य महाशुक्र स्वर्ग से चयकर भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे । इस प्रकार ऋषभादि तीर्थंकरों के पूर्वभव के स्वर्ग कहे जाते हैं ॥164-168॥
भगवान् वृषभनाथ चैत्र कृष्ण नवमी के दिन उत्पन्न हुए थे । अजितनाथ माघ शुक्ल नवमी के दिन, संभवनाथ मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा के दिन, अभिनंदननाथ माघ शुक्ल द्वादशी के दिन, सुमतिनाथ श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन, पद्मप्रभ कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन, सुपार्श्व नाथ ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन, चंद्रप्रभ पौष कृष्ण एकादशी के दिन, सुविधिनाथ मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा के दिन, शीतलनाथ माघ कृष्ण द्वादशी के दिन, श्रेयोनाथ फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन, वासुपूज्य फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन, निर्मल आत्मा के धारक विमलनाथ माघ शुक्ल चतुर्दशी के दिन, अनंतनाथ ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन, धर्मनाथ माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन शांति के करने वाले शांतिनाथ ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन, कुंथुनाथ वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन, अरनाथ मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी के दिन, मल्लिनाथ मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन, सुव्रत नाथ आसौज शुक्ल द्वादशी के दिन, नमिनाथ आषाढ़ कृष्ण दसमी के दिन और नेमिनाथ वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन उत्पन्न हुए थे । इसी प्रकार पार्श्वनाथ पौष कृष्ण एकादशी को और महा वीर चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को अपने जन्म से अलंकृत करते हुए उत्पन्न होंगे ॥169-180॥ अब चौबीस तीर्थंकरों के माता-पिता, जन्म नक्षत्र, जन्मभूमि, चैत्यवृक्ष और निर्वाणभूमि को कहते हैं सो ज्ञात करो ॥181॥
जिनकी जन्मनगरी विनीता-अयोध्या, माता मरुदेवी, पिता नाभि, चैत्यवृक्ष वट, निर्वाण भूमि कैलास और जन्म नक्षत्र उत्तराषाढ़ था, वे वृषभनाथ भगवान् मनुष्यों में अत्यंत श्रेष्ठ थे॥182॥ जिनकी जन्मनगरी अयोध्या, माता विजया, पिता राजा जितशत्रु, निर्वाणक्षेत्र सम्मेदाचल, जन्म नक्षत्र रोहिणी और चैत्यवृक्ष सप्तपर्ण था, वे अजितनाथ भगवान् सबके हर्ष के लिए हों ॥ 183 ॥ श्रावस्ती नगरी, सेना माता, जितारि पिता, शाल चैत्यवृक्ष, ज्येष्ठा जन्मनक्षत्र, सम्मेदाचल निर्वाणक्षेत्र और संभवनाथ जिनेंद्र ये सब तुम्हारे पापों को पवित्र करें ॥ 184 ॥ चैत्यवृक्ष सरल, पिता संवर, माता सिद्धार्था, अयोध्या नगरी, पुनर्वसु नक्षत्र, अभिनंदन जिनेंद्र और सम्मेदगिरि निर्वाणक्षेत्र ये सज्जनों के आनंद के लिए हों ॥185 ॥ मेघप्रभ पिता, मघा नक्षत्र, अयोध्या नगरी, प्रियंगु वक्ष, समंगला माता सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र और सुमति जिनेंद्र ये सब तुम्हें सुमति-सद्बुद्धि प्रदान करें ॥186॥ कौशांबी नगरी, धरण पिता, चित्रा नक्षत्र, सुसीमा माता, पद्मप्रभ जिनेंद्र, प्रियंगु वृक्ष और सम्मेद शिखर निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हारे लिए मंगलरूप हों ॥187॥ पृथिवी माता, सुप्रतिष्ठ पिता, काशी नगरी, सम्मेद शिखर निर्वाणक्षेत्र, विशाखा नक्षत्र, शिरीष वृक्ष और सुपार्श्व जिनेंद्र ये सब तुम्हारे लिए मंगलस्वरूप हों ॥ 188 ॥ चंद्रपुरी नगरी, चंद्रप्रभ जिनेंद्र, नागवृक्ष, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र, अनुराधा नक्षत्र, महा सेन पिता और लक्ष्मणा माता ये सब सज्जनों के लिए वंदना करने योग्य हैं ॥ 189 ॥ काकंदी नगरी, पुष्पदंत भगवान्, रामा माता, सुग्रीव पिता, मूल नक्षत्र, शालि वृक्ष और सम्मेदशिखर पर्वत ये सब तुम्हारे वैभव के लिए हों ॥190॥ भद्रिलापुरी, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, प्लक्ष वृक्ष, दृढ़रथ राजा पिता, सुनंदा माता, शीतलनाथ जिनेंद्र और सम्मेदगिरि निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हारा हित चाहने वाले हों ॥191॥ विष्णुश्री माता, विष्णुराज पिता, सिंहनाद पुर, श्रवण नक्षत्र, श्रेयांस जिनेंद्र, तेंदू का वृक्ष और सम्मेदशिखर पर्वत ये सब तुम्हें सुख प्रदान करें ॥192॥ जन्मभूमि तथा निर्वाणभूमि चंपानगरी, वासुपूज्य जिनेंद्र, जया माता, चैत्यवृक्ष पाटला, वसुपूज्य पिता और शतभिषा नक्षत्र ये सब पूजनीय हैं ॥193॥
शर्मा माता, कृतवर्मा पिता, जामुन चैत्यवृक्ष, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र, कांपिल्य नगरी, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र और श्री विमलनाथ भगवान ये सब तुम्हारे शल्य को दूर करें ॥ 194 ॥ अयोध्या नगरी, सिंहसेन पिता, रेवती नक्षत्र, पीपल चैत्यवृक्ष, सर्वयशा माता, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र और अनंतनाथ जिनेंद्र ये सदा तुम्हें सद् बुद्धि प्रदान करें ॥ 195 ॥ धर्मनाथ जिनेंद्र, दधिपर्ण चैत्य वृक्ष, भानुराज पिता, सुव्रता माता, पुष्य नक्षत्र, रत्नपुर नगर और सम्मेदशिखर सिद्धिक्षेत्र ये सब तुम्हें धर्मबुद्धि देवें ॥ 196 ॥ ऐरा माता, विश्वसेन पिता, भरणी नक्षत्र, हस्तिनापुर नगर, नंदी चैत्यवृक्ष, शांतिनाथ जिनेंद्र और सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हें शांति प्रदान करें ॥ 197 ॥ सम्मेद शिखर निर्वाणक्षेत्र, हस्तिनापुर नगर, सूर्य पिता, श्रीमती माता, कृत्ति का नक्षत्र, तिलक वृक्ष और कुंथुनाथ भगवान् ये तुम्हारे पापों को नष्ट करें ॥198॥ आम्र वृक्ष, हस्तिनापुर नगर, मित्रा माता, सुदर्शन राजा पिता, सम्मेद शिखर निर्वाणक्षेत्र, रोहिणी नक्षत्र और अरनाथ जिनेंद्र ये सब तुम्हारे पाप को खंडित करें ॥199 ॥ मिथिला नगरी, रक्षिता माता, कुंभ पिता, मल्लिनाथ जिनेंद्र अश्विनी नक्षत्र अशोक वक्ष और सम्मेद शिखर निर्वाण क्षेत्र ये सब तुम्हारे अशोक-शोक दूर करने के लिए हों ॥ 200॥ पद्मावती माता, सुमित्र पिता, कुशाग्र नगर, चंपक वृक्ष, श्रवण नक्षत्र और सम्मेद शिखर पर्वत ये सब तुम्हारे हर्ष के लिए हों ॥ 201॥ मिथिला नगरी, विजय पिता, वप्रा माता, वकुल वृक्ष, नमिनाथ जिनेंद्र, अश्विनी नक्षत्र और सम्मेद शिखर पर्वत महामानी मनुष्य को आपके समक्ष नम्रीभूत करें ॥ 202 ॥ नेमिनाथ भगवान्, सूर्यपुर नगर, चित्रा नक्षत्र, समुद्रविजय पिता, शिवा माता, ऊर्जयंत पर्वत और मेषशृंग ( मेढ़ासिंगी) वृक्ष ये सब तुम्हारे लिए जय प्रदान करें ॥ 203 ॥ वाराणसी नगरी, वर्मा माता, विशाखा नक्षत्र, धव चैत्यवृक्ष, अश्वसेन राजा पिता, पार्श्वनाथ जिनेंद्र और सम्मेद शिखर निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हारे आनंद के लिए हों ॥ 204॥ शाल वृक्ष, कुंडपुर नगर, वीर जिनेंद्र, सिद्धार्थ पिता, प्रियकारिणी माता, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, और पावापुरी निर्वाणक्षेत्र ये सब सदा तुम्हारे पापों को नष्ट करें ॥ 205॥
भगवान महावीर का चैत्यवृक्ष बत्तीस धनुष ऊंचा होगा और शेष तीर्थंकरों के चैत्यवृक्षों की ऊंचाई उनके शरीर को ऊंचाई से बारह गुनी मानी गयी है ॥206॥ सुपार्श्वनाथ भगवान् अनुराधा नक्षत्र में, चंद्रप्रभ ज्येष्ठा नक्षत्र में, श्रेयोनाथ धनिष्ठा नक्षत्र में, वासुपूज्य अश्विनी नक्षत्र में, मल्लि जिनेंद्र भरणी नक्षत्र में, महावीर स्वाति नक्षत्र में निर्वाण को प्राप्त हुए हैं और शेष तीर्थंकरों का निर्वाण अपने-अपने जन्म नक्षत्रों में हो हुआ है ॥ 207-208 ॥ शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ ये तीन तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती हुए तथा शेष सब तीर्थंकर सामान्य राजा हुए ॥209॥ चंद्रप्रभ भगवान् चंद्रमा के समान आभा वाले, सुविधिनाथ शंख के समान कांति के धारक, सुपार्श्वनाथ प्रियंगुवृक्ष को मंजरों के समूह के समान हरितवर्ण, धरणेंद्र के द्वारा स्तुत श्रीमान् पार्श्वजिनेंद्र मेध के समान श्यामल शरीर, पद्मप्रभ जिनराज पद्मगर्भ के समान लाल वर्ण, वासुपूज्य जिनेंद्र रक्त पलाश पुष्प के समान लाल मुनियों के स्वामी मुनिसुव्रतनाथ नीलगिरि अथवा अंजनगिरि के समान नीलवर्ण, नेमिनाथ नीलकंठ मयूर के सुंदर कंठ के समान नीलवर्ण और शेष जिनेंद्र तपाये हुए सुवर्ण के समान कांति वाले कहे गये हैं ॥ 210-213॥ वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमान इन पांच तीर्थंकरों ने कुमारकाल में ही दीक्षा धारण को थी और शेष तीर्थंकरों ने राजा होने के बाद दीक्षा धारण की थी ॥214 ॥
भगवान् वृषभदेव का दीक्षाकल्याणक विनीता में, नेमिनाथ का द्वारवती में और शेष तीर्थंकरों का अपनी-अपनी जन्मभूमि में हुआ था ॥215॥ सुमतिनाथ और मल्लिनाथ ने भोजन करने के बाद दीक्षा धारण की थी तथा दीक्षा के बाद तीन दिन का उपवास लिया था । पार्श्वनाथ तथा वासुपूज्य भगवान् ने दीक्षा के बाद एक दिन का उपवास धारण किया था और शेष तीर्थंकरों ने दो दिन का उपवास लिया था । श्रेयोनाथ, सुमतिनाथ, मल्लिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ तीर्थंकरों ने दिन के पूर्वाह्नकाल में और अन्य तीर्थंकरों ने अपराह्न काल में दीक्षा धारण की थी । भगवान् महावीर ने ज्ञातृवन में, वासुपूज्य ने क्रीड़ोद्यान में, वृषभदेव ने सिद्धार्थ वन में, धर्मनाथ ने वप्रका स्थान में, मुनि सुव्रतनाथ ने नीलगुहा के समीप, पार्श्वनाथ ने तापसों के तपोवन के समीप मनोरम नामक उद्यान में और शेष तीर्थंकरों ने सहस्राम्रवन को आदि लेकर नगर के उद्यानों में दीक्षा धारण की थी ऐसा विद्वानों को जानना चाहिए ॥ 216-220॥ 1 सुदर्शना, 2 सुप्रभा, 3 सिद्धार्थ, 4 अर्थसिद्धा, 5 अभयंकरी, 6 निवृत्तिकरी, 7 सुमनोरमा, 8 मनोहरा, 9 सूर्यप्रभा, 10 शुक्रप्रभा, 11 विमलप्रभा, 12 पुष्पाभा, 13 देवदत्ता, 14 सागरपत्रिका, 15 नागदत्ता, 16 सिद्धार्थसिद्धिका, 17 विजया, 18 वैजयंती, 19 जयंता, 20 अपराजिता, 21 उत्तर कुरु, 22 देवकुरु, 23 विमला और 24 चंद्राभा ये क्रम से ऋषभादि तीर्थंकरों की शिविका पालकियों के नाम हैं ॥221-225 ॥
चैत्र कृष्ण नवमी को भगवान् वृषभदेव की, वैशाख कृष्ण नवमी को मुनिसुव्रतनाथ की, वैशाख सुदी प्रतिपदा के दिन कुंथुनाथ की, वैशाख सुदी नवमी के दिन सुमतिनाथ की, ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन अनंतनाथ जिनेंद्र की, ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी के दिन शांतिनाथ की, ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन सुपार्श्व जिनेंद्र की, आषाढ़ कृष्ण दसमी के दिन नमिनाथ की, सावन सुदी चतुर्थी को नेमिनाथ की, कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को पद्मप्रभ की, मार्गशीर्ष कृष्ण दसमी को सुमति नाथ को, मार्गशीर्ष सुदी प्रतिपदा के दिन पुष्पदंत जिनेंद्र की, मार्गशीर्ष सुदी दसमी को अरनाथ की, मार्गशीर्ष सुदी पूर्णिमा को संभवनाथ की, मार्गशीर्ष सुदी एकादशी को मल्लिनाथ की, पौष कृष्ण एकादशी को चंदप्रभ और पार्श्वनाथ की, माघ कृष्ण द्वादशी को शीतलनाथ की, माघ शुक्ल चतुर्थी को विमलनाथ की, माघ शुक्ल नवमी को अजितनाथ की, माघ शुक्ल द्वादशी को अभिनंदननाथ की, माघ शुक्ल त्रयोदशी को धर्मनाथ की, फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी के दिन श्रेयांस नाथ की और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन वासुपूज्य भगवान की दीक्षा हुई थी ॥226-236 ॥
श्री आदि जिनेंद्र की प्रथम पारणा एक वर्ष में, मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ की चौथे दिन तथा शेष तीर्थंकरों की तीसरे दिन हुई थी । भावार्थ― आदि जिनेंद्र ने छह माह का योग लिया था और छह माह विधि न मिलने से भ्रमण करते रहे इसलिए एक वर्ष बाद उन्हें आहार मिला । मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ ने दीक्षा के समय तीन दिन के उपवास का नियम लिया था इसलिए उन्हें चौथे दिन आहार मिला और शेष तीर्थंकरों ने दो दिन का उपवास किया था ॥ 237 ॥ श्री आदिनाथ भगवान ने पारणा के दिन उत्तम इक्षुरस को पवित्र किया था और शेष तीर्थंकरों ने लालसा से रहित हो गो-दुग्ध के द्वारा निर्मित खीर के द्वारा आहार किया था ॥ 238 ॥ 1 श्रीसुंदर हस्तिनापुर, 2 शुभ अयोध्या, 3 श्रावस्ती, 4 विनीता, 5 विजयपुर, 6 मंगलपुर, 7 पाटली खंड, 8 पद्मखंडपुर, 9 श्वेतपुर, 10 अरिष्टपुर, 11 सिद्धार्थपुर, 12 महापुर, 13 धान्यवटपुर, 14 वर्धमानपुर, 15 सोमनसपुर, 16 मंदरपुर, 17 हस्तिनापुर, 18 चक्रपुर, 19 मिथिला, 20 राजगह, 21 वीरपुर, 22 द्वारवती, 23 काम्यकृति और 24 कुंडपूर ये यथाक्रम से वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के प्रथम पारणा के दिन प्रसिद्ध हैं ॥ 239-244॥ 1 राजा श्रेयांस, 2 ब्रह्म दत्त, 3 संपत्ति के द्वारा सुरेंद्र की समानता करने वाला राजा सुरेंद्रदत्त, 4 इंद्रदत्त, 5 पद्मक, 6 सोमदत्त, 7 महादत्त, 8 सोमदेव, 9 पुष्पक, 10 पुनवंसु 11 सुनंद, 12 जय, 13 विशाख, 14 धर्मसिंह,15 सुमित्र, 16 धर्ममित्र, 17 अपराजित, 18 नंदिषेण, 19 वृषभदत्त, 20 उत्तम नीति का धारक दत्त, 21 वरदत्त, 22 नृपति, 23 धन्य और 24 बकूल ये वृषभादि तीर्थंकरों को प्रथम पारणाओं के समय दान देने वाले स्मरण किये गये हैं ॥245-248॥ समस्त तीर्थंकरों की आदि पारणाओं और वर्धमान स्वामी की सभी पारणाओं में नियम से रत्नवृष्टि हुआ करती थी । वह रत्नवृष्टि उत्कृष्टता से साढ़े बारह करोड़ और जघन्य रूप से साढ़े बारह लाख प्रमाण होती थी ॥249-250 ॥ इन दाताओं में आदि के दो दाता और अंत के दो दाता श्यामवर्ण के थे और शेष सभी दाता तपाये हुए सुवर्ण के समान वर्ण वाले थे ॥ 251 ॥ इनमें कितने ही दाता तो तपश्चरण कर उसी जन्म से मोक्ष चले गये और कितने ही जिनेंद्र भगवान् के मोक्ष जाने के बाद तीसरे भव में मोक्ष गये ॥ 252॥
वृषभनाथ, मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ को तेला के बाद, वासुपूज्य को एक उपवास के बाद और शेष तीर्थंकरों को वेला के बाद केवलज्ञान को प्राप्ति हुई थी ॥ 253 ॥ वृषभनाथ भगवान् को पूर्वताल नगर के शकटामुख वन में, नेमिनाथ को गिरिनार पर्वतपर, पार्श्वनाथ भगवान् को आश्रम के समीप, महावीर भगवान् को ऋजुकूला नदी के तट पर और शेष तीर्थंकरों को अपने-अपने नगर के उद्यान में ही केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था ॥ 254-255 ॥ वृषभनाथ, श्रेयांसनाथ, मल्लिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ भगवान् को पूर्वाह्नकाल में तथा शेष तीर्थंकरों को अपराह्न काल में केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई थी ॥ 256 ॥
फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन वृषभनाथ, फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन मल्लिनाथ, फाल्गुन कृष्ण षष्ठी के दिन मुनिसुव्रतनाथ, फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन सुपार्श्वनाथ और चंद्रप्रभ, चैत्र कृष्ण चतुर्थी के दिन पार्श्वनाथ, चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन अनंत जिनेंद्र, चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन नमिनाथ और कुंथुनाथ, चैत्रशुक्ल दसमी के दिन सुमतिनाथ और पद्मप्रभ भगवान् वैशाख शुक्ल दसमी के दिन महावीर, आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को नेमिनाथ, कार्तिक कृष्ण पंचमी को संभवनाथ, कार्तिक शुक्ल तृतीया को सुविधिनाथ, कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अरनाथ, पौष कृष्ण चतुर्दशी को शीतलनाथ, पौष कृष्ण दसमी को विमलनाथ, पौष शुक्ल एकादशी को शांति नाथ, पौष शुक्ल चतुर्दशी को अजितनाथ, पौष शुक्ल पूर्णिमा को अभिनंदन और धर्मनाथ, माघकृष्ण अमावस को श्रेयांसनाथ और माघ शुक्ल द्वितीया को वासुपूज्य भगवान् केवलज्ञान को प्राप्त हुए थे ॥ 257-265 ॥
माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन वृषभनाथ का, फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन पद्मप्रभ का, फाल्गुन कृष्ण षष्ठी के दिन सुपार्श्वनाथ का, फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन मुनिसुव्रतनाथ का, फाल्गुन शुक्ल पंचमी के दिन मल्लिनाथ और श्री वासुपूज्य का निर्वाण हुआ है । चैत्र की अमावस्या निर्वाण को प्राप्त हुए अनंतनाथ और अरनाथ जिनेंद्र के द्वारा पवित्र की गयी है । चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन अजितनाथ, चैत्र शुक्ल षष्ठी के दिन संभवनाथ और चैत्र शुक्ल दसमी के दिन इंद्रों के समूह से स्तुत सुमतिनाथ निर्वाण को प्राप्त हुए हैं ॥ 266-269 ॥ वैशाख कृष्ण चतुर्दशी को नमिनाथ भगवान्, वैशाख शुक्ल प्रतिपदा को कुंथुनाथ ने और वैशाख शुक्ल सप्तमी को अभिनंदननाथ ने अपने निर्वाण से पवित्र किया है ॥270॥ ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी शांतिनाथ भगवान् की, ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी धर्मनाथ की, आषाढ़ कृष्ण अष्टमी विमलनाथ की और आषाढ़ शुक्ल अष्टमी नेमिनाथ भगवान् की निर्वाण तिथि मानी जाती है ॥271-272॥ श्रावण शुक्ल सप्तमी को पार्श्वनाथ का और श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को धनिष्ठा नक्षत्र में श्रेयांसनाथ का निर्वाण हुआ है ॥ 273 ॥
भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को चंद्रप्रभ, भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को पुष्पदंत और आश्विन शुक्ल पंचमी को शीतलनाथ निर्वाण को प्राप्त हुए हैं एवं कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को श्री भगवान् महावीर का निर्वाण निश्चित है ॥ 274-275 ॥
वृषभनाथ, अजितनाथ, श्रेयांसनाथ, शीतलनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, सुपार्श्वनाथ और चंद्रप्रभ ये पूर्वाह्नकाल में, संभवनाथ, पद्मप्रभ, संसार-भ्रमण का अंत करने वाले पुष्पदंत और वासुपूज्य ये अपराह्न काल में सिद्ध हुए हैं ॥276-277॥ विमलनाथ, अनंतनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की सायंकाल में मुक्ति जानना चाहिए ॥278॥
और अष्ट प्रकार के कर्मों को नष्ट करने वाले धर्मनाथ, अरनाथ, नमिनाथ और महावीर जिनेंद्र की प्रातःकाल में सिद्धि कही गयी है ॥ 279 ॥
भगवान् वृषभनाथ, वासुपूज्य और नेमिनाथ पर्यंक आसन से तथा शेष तीर्थंकर कायोत्सर्ग आसन से स्थित हो मोक्ष गये हैं ॥280॥
आदि जिनेंद्र भगवान् वृषभदेव, मुक्ति के पूर्व चौदह दिन तक विहार को संकोच कर मोक्ष हो गये हैं । भगवान् महावीर दो दिन और शेष तीर्थंकर एक मास पूर्व विहार बंद कर मोक्षगामी हुए हैं ॥281॥
महावीर भगवान् का एकाकी―अकेले का, पार्श्वनाथ का छब्बीस मुनियों के साथ, नेमिनाथ का पांच सौ छत्तीस मुनियों के साथ निर्वाण हुआ है ॥ 282 ॥
मल्लिनाथ पाँच सौ, शांतिनाथ नो सौ, धर्मनाथ आठ सौ एक, वासुपूज्य छह सौ एक, विमलनाथ छह हजार, अनंतनाथ सात हजार, सुपार्श्वनाथ पाँच सौ, पद्मप्रभ तीन हजार आठ सौ, वृषभनाथ दस हजार और शेष तीर्थंकर एक-एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए हैं ॥283-285॥
भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, सुभूम, महापद्म, हरिषेण, जय और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती छह खंडों के स्वामी हुए ॥286-287॥ त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुष पुंडरीक, (पुंडरीक) दत्त, नारायण (लक्ष्मण) और कृष्ण ये नौ वासुदेव कहे गये हैं । ये तीन खंड भरत के स्वामी होते हैं तथा इनका पराक्रम दूसरों के द्वारा खंडित नहीं होता ॥288-289॥
विजय, अचल, सुधर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नांदी, नंदिमित्र, राम और पद्म ये नौ बलभद्र हैं ॥290॥ अश्वग्रीव, पृथिवी में प्रसिद्ध तारक, मेरुक, निशुंभ, सुशोभित कमल के समान मुख वाला मधु, कैटभ, बलि, प्रहरण, विद्याधर वंशज रावण और भूमिगोचरी जरासंध ये नौ प्रतिनारायण हैं ॥291-292॥ बलभद्र ऊर्ध्वगामी-स्वर्ग अथवा मोक्षगामी होते हैं तथा भवांतर में कोई निदान नहीं बाँधते और नारायण अधोगामी होते हैं एवं भवांतर में निदान बाँधते हैं ॥ 293 ॥
चक्रवर्ती भरत वृषभनाथ के समय में हुआ, सगर चक्रवर्ती अजितनाथ के काल में हुआ, मघवा और सनत्कुमार धर्मनाथ तथा शांतिनाथ के अंतराल में हुए । शांति, कुंथु और अरनाथ चक्र वर्ती का काल अपना-अपना अंतराल काल है । सुभूम चक्रवर्ती अरनाथ और मल्लिनाथ के अंत राल में हुआ । महापद्म मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ के अंतराल में हुआ । हरिषेण, मुनिसुव्रत और नमिनाथ के अंतराल में हुआ । जयसेन चक्रवर्ती नमिनाथ नेमिनाथ के अंतर में हुआ और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती, नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ जिनेंद्र के अंतराल में हुआ है ॥294-296 ॥ इन बारह चक्रवतियों में आठ को मुक्ति प्राप्त हुई है, ब्रह्मदत्त और सुभूम सातवीं पृथिवी गये हैं तथा मघवा और सनत्कुमार तीसरे स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं ॥297॥
त्रिपृष्ठ से लेकर पुरुषसिंह तक के पाँच नारायणों ने श्रेयांसनाथ से लेकर धर्मनाथ तक के पाँच तीर्थंकरों के अंतराल काल को बलभद्रों के साथ देखा है अर्थात् त्रिपृष्ठादि पाँच नारायण और विजय आदि पांच बलभद्र श्रेयांसनाथ से लेकर धर्मनाथ तक के अंतराल में हुए हैं । पुंडरीक, अरनाथ और मल्लिनाथ के अंतराल में, दत्त, मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ के अंतराल में, नारायण (लक्ष्मण), मुनि सुव्रतनाथ और नमिनाथ के अंतराल में हआ है और कृष्ण पद्म के साथ नेमि नाथ को वंदना करने वाला प्रत्यक्ष विद्यमान है ही ॥ 298-301॥ इन नारायणों में प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ सातवीं पृथिवी गया । दूसरे से लेकर छठे तक पांच नारायण छठी पृथिवी गये । सातवाँ पांचवीं पृथिवी गया और आठवाँ तीसरी पृथिवी गया और नौवां भी तीसरी पृथिवी जायेगा ॥302 ॥
प्रारंभ के आठ बलभद्रों ने तप के माहात्म्य से मुक्तिप्राप्त की है और अंतिम बलभद्र पाँचवें ब्रह्मस्वर्ग जायेगा । यह वहाँ से आकर जब कृष्ण तीर्थंकर होगा तब उसके तीर्थ में सिद्ध होगा― मोक्ष प्राप्त करेगा ॥303॥
वृषभ जिनेंद्र के शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष थी, फिर आठ तीर्थंकरों की ऊँचाई पचास-पचास धनुष कम होती गयी । उसके बाद तीर्थंकरों की दस-दस धनुष कम हुई । तदनंतर आठ तीर्थंकरों की पांच-पाँच धनुष कम हुई ॥304॥
पार्श्वनाथ की नौ हाथ और महावीर की सात हाथ ऊंचाई होगी । इस प्रकार क्रम से तीर्थंकरों की ऊँचाई जानना चाहिए ॥305 ॥
प्रथम चक्रवर्ती की ऊंचाई पांच सौ धनुष, दूसरे सगर चक्रवर्ती की साढ़े चार सौ धनुष, तीसरे की साढ़े बयालीस धनुष, चौथे की साढ़े इकतालीस धनुष, पांचवें की चालीस धनुष, छठे की पैंतीस धनुष, सातवें की तीस धनुष, आठवें की अट्ठाईस धनुष, नौवें महापद्म की बाईस धनुष, दसवें की बीस धनुष, ग्यारहवें की चौदह धनुष, और बारहवें की सात धनुष थी । इस प्रकार चक्रवर्तियों की ऊंचाई का वर्णन किया ॥306-309॥ _ अस्सी, सत्तर, साठ, पचपन, चालीस, छब्बीस, बाईस, सोलह और दस धनुष यह क्रम से नारायण, बलभद्र और प्रतिनारायणों की ऊंचाई है ॥310-311॥
प्रारंभ से लेकर दसवें तीर्थंकर तक की आयु क्रम से चौरासी लाख पूर्व, बहत्तर लाख पूर्व, साठ लाख पूर्व, चालीस लाख पूर्व, तीस लाख पूर्व, बीस लाख पूर्व, दस लाख पूर्व, दो लाख पूर्व और एक लाख पूर्व कही गयी है ॥ 312-313 ॥
तदनंतर श्रेयांसनाथ से लेकर महावीर पर्यंत की आयु क्रम से चौरासी लाख वर्ष, बहत्तर लाख वर्ष, साठ लाख वर्ष, तीस लाख वर्ष, दस लाख वर्ष, एक लाख वर्ष, पंचानवे हजार वर्ष, चौरासी हजार वर्ष, पचपन हजार वर्ष, तीस हजार वर्ष, दस हजार वर्ष, एक हजार वर्ष, सौ वर्ष और बहत्तर वर्ष की है । इस प्रकार क्रम से तीर्थंकरों की आयु कही । यह तुम्हारी आयु वृद्धि करे ॥314-316 ॥
चौरासी लाख पूर्व, बहत्तर लाख पूर्व, पाँच लाख, तीन लाख, एक लाख, पंचानवे हजार, चौरासी हजार, अड़सठ हजार, तीस हजार, छब्बीस हजार, तीन हजार और सात सौ वर्ष यह क्रम से चक्रवतियों की आयु का प्रमाण कहा गया है ॥ 317-319॥
चौरासी लाख, बहत्तर लाख, साठ लाख, तीस लाख, दस लाख, पैंसठ हजार, बत्तीस हजार, बारह हजार और एक हजार वर्ष यह क्रम से नौ नारायणों की आयु का प्रमाण विद्वानों के द्वारा माना गया है ॥ 320-321॥
सतासी लाख, सत्तर लाख, सड़सठ लाख, पैंतीस लाख, दस लाख, साठ हजार, तीस हजार, सत्रह हजार और बारह सौ वर्ष यह क्रम से बलभद्रों की आयु है ॥322-323 ॥ तीर्थंकरों के काल में चक्रवर्ती तथा नारायणों का क्रम जानने के लिए चौंतीस कोठा का एक यंत्र बनाना चाहिए । उसके नीचे चौंतीस-चौंतीस कोठा के दो यंत्र और बनाना चाहिए । ऊपर के यंत्र में तीर्थंकरों का, बीच के यंत्र में चक्रवतियों का और नीचे के यंत्र में नारायणों का विन्यास करे । यंत्र में तीर्थंकरों के लिए एक का अंक, चक्रवतियों के लिए दो का अंक और नारायणों के लिए तीन का अंक प्रयुक्त किया जाता है । ऊपर के यंत्र में ऋषभनाथ से लेकर धर्मनाथ तक पंद्रह तीर्थंकरों का क्रम से विन्यास करना चाहिए अर्थात् प्रारंभ से लेकर पंद्रह खानों में एक-एक लिखना चाहिए । उसके बाद दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर एक शून्य और फिर लगातार दो तीर्थंकर इस प्रकार तीर्थंकरों का विन्यास करना चाहिए । तदनंतर नीचे के यंत्र में भरत आदि दो चक्रवर्ती, फिर तेरह शून्य, फिर छह चक्रवर्ती, फिर तीन शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर एक शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर दो शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर तीन शून्य, फिर एक चक्रवर्ती और फिर दो शून्य इस प्रकार चक्रवर्तियों का क्रम से विन्यास करे । तदनंतर नीचे के यंत्र में प्रारंभ में दस शून्य, फिर त्रिपृष्ट आदि पांच नारायण, फिर छह शून्य, फिर एक नारायण, फिर एक शून्य, फिर एक नारायण, फिर तीन शून्य, फिर एक नारायण, फिर दो शून्य फिर एक नारायण और फिर तीन शून्य इस प्रकार क्रम से नारायणों का विन्यास करे । इसकी संदृष्टि इस प्रकार है―
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भावार्थ― भरत चक्रवर्ती वृषभनाथ के समक्ष, सगर चक्रवर्ती अजितेश्वर के समक्ष तथा मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्रवर्ती, धर्मनाथ और शांतिनाथ के अंतराल में हुए हैं । शांति,
कुंथु और अर ये तीन स्वयं तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती हुए हैं । सुभौम चक्रवर्ती अरनाथ और मल्लि नाथ के अंतराल मे पद्म चक्रवर्ती, मल्लि और मुनिसुव्रत के अंतराल में, हरिषेण चक्रवर्ती सुव्रत और नमिनाथ के अंतराल में, जयसेन चक्रवर्ती नमिनाथ और नेमिनाथ के अंतराल में तथा ब्रह्म दत्त चक्रवर्ती नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के अंतराल में हुए हैं । यहाँ जो चक्रवर्ती तीर्थंकरों के समक्ष न होकर अंतराल में हुए हैं उनके ऊपर तीर्थंकरों के कोष्ठक में शून्य रखे गये हैं और जो तीर्थंकरों के समक्ष हुए हैं उनके ऊपर तीर्थंकरों के कोष्ठक में एक लिखा गया है । जिन तीर्थंकरों के समक्ष चक्रवर्ती हुए हैं उनके नीचे चक्रवर्ती के कोष्ठक में दो का अंक लिखा गया है और जिनके सम अभाव रहा है उनके नीचे शून्य रखा गया है । इसी प्रकार नारायणों के विषय में जानना चाहिए अर्थात् पहले से लेकर दसम तीर्थंकर तक तो कोई भी नारायण नहीं हुआ पश्चात् ग्यारहवें से पंद्रहवें तक पांच नारायण हुए । तदनंतर अर और मल्लिनाथ के अंतराल में, मल्लि और मुनि सुव्रत के अंतराल में, सुव्रत और नमि के अंतराल में और नेमिनाथ के समय में नारायण हुए । जहाँ नारायणों का अभाव है वहाँ कोष्ठकों में शून्य और जहाँ सद्भाव है, वहाँ तीन का अंक लिखा गया है ॥319-329॥
भगवान् वृषभदेव की आयु चौरासी लाख पूर्व की थी । उसका एक चतुर्थ भाग अर्थात् बीस लाख पूर्व का कुमार काल था । शेष संयम के काल को घटाकर जो बचता है वह राज्य काल था । भावार्थ― भगवान् वृषभदेव ने बीस लाख पूर्व कुमार काल बिताया, त्रेसठ लाख पूर्व राज्य किया, एक हजार वर्ष तप किया और एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व केवली काल व्यतीत किया ॥330॥
अजितनाथ से लेकर अठारहवें अरनाथ तक तीर्थंकरों की जो पूर्ण आयु थी उसका एक चतुर्थ भाग कुमारकाल था, और पूर्ण आयु में से कुमारकाल छोड़ देने पर जो शेष रहता है वह उनके राज्य तथा संयम का काल था । अंतिम छह तीर्थंकरों का कुमारकाल क्रम से सौ वर्ष, साढ़े सात हजार वर्ष, अढ़ाई हजार वर्ष, तीन सौ वर्ष, तीस वर्ष और तीस वर्ष था ॥331 ॥ वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ये पाँच तीर्थंकर बाल-ब्रह्मचारी तीर्थंकर थे, इसलिए इनकी आयु का जो काल था उसमें संयम का काल कम देने पर उनका कुमार काल कहा जाता है ॥ 332 ॥
श्री वृषभनाथ भगवान् का संयमकाल एक लाख पूर्व था । अजितनाथ का एक पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, सुमतिनाथ का बारह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, अभिनंदननाथ का आठ पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, सुमतिनाथ का बारह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, पद्मप्रभ का सोलह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, सुपार्श्वनाथ का बीस पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, चंद्रप्रभ का चौबीस पूर्वांग कम, पुष्पदंत का अट्ठाईस पूर्वांग कम, वासुपूज्य का पूर्ण आयु का तीन चौथाई भाग, (चौवन लाख वर्ष) मल्लिनाथ का सौ वर्ष कम पूर्ण आयु (सौ वर्ष कम पचपन हजार), नेमिनाथ का तीन सौ वर्ष कम पूर्ण आयु (सात सौ वर्ष), पार्श्वनाथ का तीस वर्ष कम पूर्ण आयु (सत्तर वर्ष), महावीर का तीस वर्ष कम बहत्तर वर्ष (बयालीस वर्ष) और शेष दस तीर्थंकरों का अपनी आयु का एक चौथाई भाग संयमकाल था । समस्त तीर्थंकरों का यह संयमकाल छद्मस्थ काल और केवलिकाल की अपेक्षा दो प्रकार का है ॥333-336 ॥ वृषभनाथ का छद्मस्थ काल एक हजार वर्ष, अजितनाथ का बारह वर्ष, संभवनाथ का चौदह वर्ष, अभिनंदननाथ का अठारह वर्ष, सुमतिनाथ का बीस वर्ष, पद्मप्रभ का छह मास, सुपार्श्वनाथ का नौ वर्ष, चंद्रप्रभ का तीन मास, पुष्पदंत का चार मास, शीतलनाथ का तीन मास, श्रेयांसनाथ का दो मास, वासुपूज्य का एक मास, विमलनाथ का तीन मास, अनंतनाथ का दो मास, धर्मनाथ का एक मास, शांति, कुंथु और अरनाथ का सोलह-सोलह वर्ष, मल्लिनाथ का छह दिन, मुनिसुव्रतनाथ का ग्यारह मास, नमिनाथ का नौ वर्ष, नेमिनाथ का छप्पन दिन, पार्श्वनाथ का चार मास और महावीर का बारह वर्ष है । इस छद्मस्थ काल के बाद सभी तीर्थंकर केवली हुए हैं ॥337-340॥
भगवान् ऋषभदेव के चौरासी गणधर थे, अजितनाथ के नब्बे, संभवनाथ के एक सौ पाँच, अभिनंदननाथ के एक सौ तीन, सुमतिनाथ के एक सौ सोलह, पद्मप्रभ के एक सौ ग्यारह, सुपार्श्वनाथ के पंचानवे, चंद्रप्रभ के तेरानवे, पुष्पदंत के अठासी, शीतलनाथ के इक्यासी, श्रेयांसनाथ के सतहत्तर, वासुपूज्य के छयासठ, विमलनाथ के पचपन, अनंतनाथ के पचास, धर्मनाथ के तैंतालीस, शांतिनाथ के छत्तीस, कुंथुनाथ के पैंतीस, अरनाथ के तीस, मल्लिनाथ के अट्ठाईस, मुनिसुव्रतनाथ के अठारह, नमिनाथ के सत्तरह, नेमिनाथ के ग्यारह, पार्श्वनाथ के दस और महावीर के ग्यारह गणधर थे ॥341-345॥
आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रथम गणधर वृषभसेन, अजितनाथ के सिंहसेन, संभवनाथ के चारुदत्त, अभिनंदन के वज्र, सुमतिनाथ के चमर, पद्मप्रभ के वज्रचमर, सुपार्श्वनाथ के बलि, चंद्र प्रभ के दत्तक, पुष्पदंत के वैदर्भ, शीतलनाथ के अनगार, श्रेयांसनाथ के कुंथु, वासुपूज्य के सुधर्म, विमलनाथ के मंदराय, अनंतनाथ के जय, धर्मनाथ के अरिष्टसेन, शांतिनाथ के चक्रायुध, कुंथुनाथ के स्वयंभू, अरनाथ के कुंथु, मल्लिनाथ के विशाख, मुनिसुव्रत के मल्लि, नमिनाथ के सोमक, नेमिनाथ के वरदत्त, पार्श्वनाथ के स्वयंभू और महावीर के इंद्रभूति थे । ये सभी गणधर सात ऋद्धियों से युक्त तथा समस्त शास्त्रों के पारगामी थे ॥346-349॥
भगवान् महावीर ने अकेले ही दीक्षा ली थी अर्थात् उनके साथ किसी ने दीक्षा नहीं ली थी । मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ ने तीन-तीन सौ राजाओं के साथ, वासुपूज्य ने छह सौ छह राजाओं के साथ, वृषभनाथ ने चार हजार राजाओं के साथ और शेष तीर्थंकरों ने एक-एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ली थी ॥350-351॥
भगवान् ऋषभदेव के समस्त गणों-मुनियों की संख्या चौरासी हजार थी । अजितनाथ की एक लाख, संभवनाथ की दो लाख, अभिनंदननाथ की तीन लाख, सुमतिनाथ की तीन लाख बीस हजार, पद्मप्रभ की तीन लाख तीस हजार, सुपार्श्वनाथ की तीन लाख, चंद्रप्रभ की अढ़ाई लाख, पुष्पदंत की दो लाख, शीतलनाथ की एक लाख, श्रेयांसनाथ की चौरासी हजार, वासुपूज्य को बहत्तर हजार, विमलनाथ की अड़सठ हजार, अनंतनाथ की छियासठ हजार, धर्मनाथ की चौंसठ हजार, कुंथुनाथ की साठ हजार, अरनाथ की पचास हजार, मल्लिनाथ की चालीस हजार, मुनिसुव्रतनाथ की तीस हजार, नमिनाथ की बीस हजार, नेमिनाथ की अठारह हजार, पार्श्वनाथ की सोलह हजार और महावीर की चौदह हजार संख्या थी ॥352-356॥
तीर्थंकर भगवान् का यह संघ 1 पूर्वधर, 2 शिक्षक, 3 अवधिज्ञानी, 4 केवलज्ञानी, 5 वादी, 6 विक्रियाऋद्धि के धारक और 7 विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान के धारक के भेद से सात प्रकार का होता है ॥357 ॥ भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में चार हजार सात सौ पचास पूर्वधारी, चार हजार एक सौ पचास शिक्षक, नौ हजार अवधिज्ञानी, बीस हजार सत्पुरुषों के द्वारा पूजनीय केवली, बीस हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, बारह हजार सात सौ पचास विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और इतने ही वादी थे ॥358-361॥
अजितनाथ के समवसरण में समीचीन सभ्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय तीन हजार सात सौ पचास पूर्वधारी, इक्कीस हजार छह सौ शिक्षक, नौ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, बीस हजार केवली, बीस हजार चार सौ पचास विक्रिया ऋद्धि के धारक, बारह हजार चार सौ विपुलमति ज्ञान के धारक और इतने ही वादी थे ॥362-365 ॥
संभवनाथ के समवसरण में दो हजार एक सौ पचास पूर्वो के सद्भाव का निरूपण करने वाले पूजनीय पूर्वधारी जानने योग्य हैं ॥336॥ एक लाख उनतीस हजार तीन सौ शिक्षक साधुओं की संख्या स्मरण की गयी है ॥ 367॥ नौ हजार छह सौ अवधिज्ञानी माने गये हैं, पंद्रह हजार केवलज्ञानी स्मृत किये गये हैं ॥ 368॥ उन्नीस हजार आठ सौ पचास विक्रिया शक्ति की धारण करने वाले वैक्रियक साधु थे । बारह हजार विपुल मतिज्ञान के धारक थे और बारह हजार एक सौ वादी मुनि थे ॥369॥
अभिनंदननाथ के समवसरण में दो हजार पाँच सौ पूर्व के धारक, दो लाख तीस हजार पचास शिक्षक, नौ हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, सोलह हजार केवलज्ञानी, उन्नीस हजार विक्रियाऋद्धि के धारक, ग्यारह हजार छह सौ पचास विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और भव्यजीवों को हित का उपदेश देने वाले उतने ही वादी थे ॥370-374 ॥
सुमतिनाथ के समवसरण में दो हजार चार सौ पूर्वधारी, दो लाख चौवन हजार तीन सौ पचास शिक्षक, ग्यारह हजार निर्मल अवधिज्ञानी, तेरह हजार केवलज्ञानी, अठारह हजार चार सौ विक्रियाऋद्धि के धारक, दस हजार चार सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के धारक और उनसे पचास अधिक अर्थात् दस हजार चार सौ पचास वादी थे ॥375-378॥
पद्मप्रभ के समवसरण में दो हजार तीन सौ पूर्वधारी, दो लाख उनहत्तर हजार शिक्षक, दस हजार अवधिज्ञानी, बारह हजार आठ सौ केवलज्ञानी, सोलह हजार तीन सौ विक्रियाऋद्धि के धारक, नौ हजार वादी और दस हजार छह सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी थे ॥379-381 ॥
सुपार्श्वनाथ के समवसरण में दो हजार तीस पूर्वधारी, दो लाख चवालीस हजार नौ सौ बीस शिक्षक, नौ हजार अवधिज्ञानी, ग्यारह हजार तीन सौ केवली, पंद्रह हजार एक सौ पचास विक्रियाऋद्धि के धारक, नौ हजार छह सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और आठ हजार वादी थे ।
चंद्रप्रभ के समवसरण में दो हजार पूर्वधारी, दो लाख चार सौ शिक्षक, आठ हजार विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी, आठ हजार अवधिज्ञानी, दस हजार केवलज्ञानी, दस हजार चार सौ विक्रियाऋद्धि के धारक और सात हजार छह सौ वादी थे ।
सुविधिनाथ के समवसरण में पाँच हजार पूर्वधारी, एक लाख पचपन हजार पाँच सौ शिक्षक, आठ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, सात हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, तेरह हजार विक्रियाऋद्धि के धारक, छह हजार पाँच सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और सात हजार छह सौ वादी थे ॥382-390॥
शीतलनाथ के समवसरण में एक हजार चार सौ पूर्ववेदी, उनसठ हजार दो सौ शिक्षक, सात हजार दो सौ अवधिज्ञानी, सात हजार केवलज्ञानी, बारह हजार विक्रियाऋद्धि के धारक, सात हजार पाँच सौ विपुलमतिज्ञान के स्वामी और पाँच हजार सात सौ उत्तमवादी थे ॥391-393॥
श्रेयांसनाथ के समवसरण में तेरह सौ पूर्वधारी, अड़तालीस हजार दो सौ शिक्षक, छह हजार अवधिज्ञानी, छह हजार पांच सौ केवलज्ञानी, ग्यारह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, छह हजार विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और पांच हजार वादी थे । वासुपूज्य के समवसरण में बारह सौ पूर्वधारी, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक, पांच हजार चार सौ अवधिज्ञानी, छह हजार केवलज्ञानी, दस हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, छह हजार विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और चार हजार दो सौ वादी थे ॥394-398॥
विमलनाथ के ग्यारह सौ पूर्वधारी, अड़तीस हजार पाँच सौ शिक्षक, चार हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, पाँच हजार पाँच सौ केवली, नौ हजार विक्रियाऋद्धि के धारक, नौ हजार विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और तीन हजार छह सौ वादी निश्चित थे ॥399-401॥
अनंतनाथ के समवसरण में एक हजार पूर्वधारी, उनतालीस हजार पाँच सौ शिक्षक, चार हजार तीन सौ अवधिज्ञानी, पाँच हजार केवलज्ञानी, आठ हजार विक्रियाऋद्धि के धारक और तीन हजार दो सौ वादी थे ॥402-403॥
धर्मनाथ के समवसरण में नौ सौ पूर्वधारी, चालीस हजार सात सौ शिक्षक, तीन हजार छह सो अवधिज्ञानी, चार हजार पांच सौ केवलज्ञानी, सात हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, चार हजार पांच सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और दो हजार आठ सौ वादी थे ॥404-406॥
शांतिनाथ के समवसरण में आठ सौ पूर्वधारी, इकतालीस हजार आठ सौ शिक्षक, तीन हजार अवधिज्ञानी, चार हजार केवलज्ञानी, छह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, चार हजार विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और दो हजार चार सौ वादी थे ।
कुंथुनाथ के समवसरण में सात सौ पूर्वधारी, तैंतालीस हजार एक सौ पचास शिक्षक, दो हजार पाँच सौ अवधिज्ञानी, तीन हजार दो सौ केवली, पाँच हजार एक सौ विक्रियाऋद्धि के धारक, तीन हजार तीन सौ पचास विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और दो हजार वादी को जीतने वाले वादी थे ॥ 407-411 ॥
अरनाथ के समवसरण में छह सौ दस पूर्वधारी, पैंतीस हजार आठ सौ पैंतीस शिक्षक, दो हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, इतने ही केवलज्ञानी, चार हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, दो हजार पचपन विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और सोलह सौ उत्तम वाद करने वाले वादी थे ।
मल्लिनाथ के समवसरण में सात सौ पचास पूर्वधारी, उनतीस हजार शिक्षक, बाईस सौ अवधिज्ञानी, दो हजार छह सौ पचास केवलज्ञानी, एक हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धिक दो हजार दो सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और उतने ही प्रतिवादियों को जीतने वाले वादी थे ॥412-418॥
मुनि सुव्रतनाथ के समवसरण में पाँच सौ पूर्वधारी, इक्कीस हजार शिक्षा से युक्त शिक्षक, अठारह सौ अवधिज्ञानी, अठारह सौ केवलज्ञानी, बाईस सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, पंद्रह सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और बारह सौ वादी थे ॥ 419-420 ॥
नमिनाथ के समवसरण में चार सौ पचास पूर्वधारी, बारह हजार छह सौ शिक्षक, सोलह सौ अवधिज्ञानी, सोलह सौ केवलज्ञानी, पंद्रह सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, बारह सौ पचास विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और एक हजार प्रतिवादियों से रहित वादी थे ॥ 421-423 ॥
नेमिनाथ के समवसरण में चार सौ पूर्वधारी, ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक, एक हजार पाँच सौ अवधिज्ञानी, एक हजार पाँच सौ केवली, एक हजार एक सौ शुभ विक्रिया करने वाले विक्रियाऋद्धि के धारक, नौ सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के धारक और आठ सौ अनुपम प्रतिभा से युक्तवादी थे ॥424-426॥
पार्श्वनाथ के समवसरण में तीन सौ पचास पूर्वधारी, दस हजार नौ सौ शिक्षक, एक हजार चार सौ निर्मल अवधिज्ञान के धारक, एक हजार केवलज्ञानी, एक हजार विक्रियाऋद्धि के धारक, सात सौ पचास विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और छह सौ वाद-विवाद में निपुणवादी थे ॥427-429॥
और वर्धमान जिनेंद्र के समवसरण में तीन सौ पूर्वधारी, नौ हजार नौ सौ शिक्षक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, नौ सौ विक्रियाऋद्धि के धारक, पाँच सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और चार सौ वादी कहे गये हैं ॥430-421॥
भगवान् वृषभदेव के समवसरण में आर्यिकाएं तीन लाख पचास हजार, अजितनाथ के समवसरण में तीन लाख बीस हजार, संभवनाथ के समवसरण में तीन लाख तीस हजार, अभिनंदननाथ के समवसरण में तीन लाख तीस हजार, सुमतिनाथ के समवसरण में तीन लाख तीस हजार, पद्मप्रभ के समवसरण में हजारों किरणों के समान चार लाख बीस हजार, सुपार्श्वनाथ के समवसरण में तीन लाख तीस हजार, चंद्रप्रभ के समवसरण में तीन लाख अस्सी हजार, पुष्पदंत के समवसरण में तीन लाख अस्सी हजार, शीतलनाथ के समवसरण में तीन लाख अस्सी हजार, श्रेयांसनाथ के समवसरण में एक लाख बीस हजार, वासुपूज्य के समवसरण में एक लाख छह हजार, विमलनाथ के समवसरण में एक लाख तीन हजार, अनंतनाथ के समवसरण में एक लाख आठ हजार, धर्मनाथ के समवसरण में बासठ हजार चार सौ, शांतिनाथ के समवसरण में साठ हजार तीन सौ, कुंथुनाथ के समवसरण में साठ हजार तीन सौ पचास, अरनाथ के समवसरण में साठ हजार, मल्लिनाथ के समवसरण में पचपन हजार, मुनिसुव्रतनाथ के समवसरण में पचास हजार, नमिनाथ के समवसरण में पैंतालीस हजार, नेमिनाथ के समवसरण में चालीस हजार, पार्श्वनाथ के समवसरण में अड़तीस हजार और चौबीसवें महावीर भगवान् के समवसरण में पैंतीस हजार आर्यिकाएं मानी गयी हैं ॥432-440॥
प्रारंभ से लेकर आठ तीर्थंकरों के समवसरण में प्रत्येक के तीन-तीन लाख, फिर आठ तीर्थंकरों के प्रत्येक के दो-दो लाख और तदनंतर शेष आठ तीर्थंकरों के प्रत्येक के एक-एक लाख श्रावक थे ॥ 441॥
इसी प्रकार प्रारंभ के आठ तीर्थंकरों के समवसरण में प्रत्येक की पांच-पाँच लाख, फिर आठ तीर्थंकरों की प्रत्येक की चार-चार लाख और तदनंतर शेष आठ तीर्थंकरों की प्रत्येक की तीन-तीन लाख श्राविकाएं थीं ॥ 442 ॥
भगवान् वृषभनाथ के मोक्ष जाने वाले शिष्यों की संख्या साठ हजार नौ सौ, अजितनाथ के सत्तर हजार एक सौ, संभवनाथ के एक लाख सत्तर हजार एक सौ, अभिनंदननाथ के दो लाख अस्सी हजार एक सौ, सुमतिनाथ के तीन लाख एक हजार छह सौ, पद्मप्रभ के तीन लाख तेरह हजार छह सौ, चंद्रप्रभ के दो लाख चौंतीस हजार, सुविधिनाथ के एक लाख उन्यासी हजार छह सौ, शीतलनाथ के अस्सी हजार छह सौ, श्रेयांसनाथ के पैंसठ हजार छह सौ, वासुपूज्य के चौवन हजार छह सौ, विमलनाथ के इक्यावन हजार तीन सौ, अनंतनाथ के इक्यावन हजार, धर्मनाथ के उनचास हजार सात सौ, शांतिनाथ के अड़तालीस हजार चार सौ, कुंथुनाथ के छयालीस हजार आठ सौ, अरनाथ के सैंतीस हजार दो सौ, मल्लिनाथ के अट्ठाईस हजार आठ सौ, मुनिसुव्रतनाथ के उन्नीस हजार दो सौ, नमिनाथ के नौ हजार छह सौ, नेमिनाथ के आठ हजार, पार्श्वनाथ के छह हजार दो सौ और भगवान् महावीर के सात हजार दो सौ हैं ॥443-453॥
किन्हीं आचार्यों का मत है कि― प्रारंभ से लेकर सोलह तीर्थंकरों के शिष्य, जिस समय उन्हें केवलज्ञान हुआ था उसी समय सिद्धि को प्राप्त हो गये थे । तदनंतर चार तीर्थंकरों के शिष्य क्रम से एक, दो, तीन और छह मास में सिद्धि को प्राप्त हुए और उनके बाद चार तीर्थंकरों के शिष्य एक, दो, तीन और चार वर्ष में सिद्धि को प्राप्त हुए ॥454-455 ॥
प्रारंभ से लेकर तीन तीर्थंकरों के बीस-बीस हजार, फिर पाँच तीर्थंकरों के बारह-बारह हजार, फिर पाँच तीर्थंकरों के ग्यारह-ग्यारह हजार, फिर पाँच तीर्थंकरों के दस-दस हजार, फिर पाँच तीर्थंकरों के अठासी-अठासी सौ और महावीर के छह हजार शिष्य अनुत्तरविमानों में उत्पन्न होने वाले हैं ॥456॥
सौधर्म स्वर्ग से लेकर ऊर्ध्व ग्रैवेयक तक के विमानों में भगवान् वृषभदेव के तीन हजार एक सौ, अजितनाथ के उनतीस सौ, संभवनाथ के नौ हजार नौ सौ, अभिनंदननाथ के सात हजार नौ सो, सुमतिनाथ के छह हजार चार सौ, पद्मप्रभ के चार हजार चार सौ, सुपार्श्वनाथ के दो हजार चार सौ, चंद्रप्रभ के चार हजार, पुष्पदंत के नौ हजार चार सौ, शीतलनाथ के आठ हजार चार सौ, श्रेयांसनाथ के सात हजार चार सौ, वासुपूज्य के छह हजार चार सौ, विमलनाथ के पाँच हजार सात सौ, अनंतनाथ के पाँच हजार, धर्मनाथ के चार हजार तीन सौ, शांतिनाथ के तीन हजार छह सौ, कुंथुनाथ के तीन हजार दो सौ, अरनाथ के दो हजार आठ सौ, मल्लिनाथ के दो हजार चार सौ, मुनि सुव्रतनाथ के दो हजार, नमिनाथ के एक हजार छह सौ, नेमि नाथ के एक हजार दो सौ, पार्श्वनाथ के एक हजार, और महावीर के आठ सौ शिष्य उत्पन्न हुए हैं ॥ 457-466॥
पचास लाख करोड़, तीस लाख करोड़, दस लाख करोड़, नौ लाख करोड़, नब्बे हजार करोड़, नौ हजार करोड़, नौ सौ करोड़, नब्बे करोड़ और नौ करोड़ सागर यह क्रम से वृषभादि नौ तीर्थंकरों के मुक्त होने का अंतरकाल है ॥467-468॥ छियासठ लाख छब्बीस हजार एक सौ कम एक करोड़ सागर प्रमाण दसवां अंतर है अर्थात् शीतलनाथ भगवान् के मुक्ति जाने के बाद इतना समय बीत जाने पर श्रेयांसनाथ भगवान् मुक्ति गये ॥462॥ तदनंतर चौवन, तीस, नौ, चार और पौन पल्य कम तीन हजार सागर यह वासुपूज्य से लेकर शांति जिनेंद्र तक का अंतरकाल है । तत्पश्चात् अर्ध पल्य, एक हजार करोड़ वर्ष कम पाव पल्य, एक हजार करोड़, चौवन लाख, छह लाख, पाँच लाख, तेरासी हजार सात सौ पचास और अढ़ाई सौ वर्ष प्रमाण क्रम से कुंथुनाथ से लेकर महावीर पर्यंत का अंतर है ॥ 470-472 ॥
महावीर भगवान् का तीर्थकाल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण पाँचवाँ काल और इतना हो छठा काल इस प्रकार बयालीस हजार वर्ष प्रमाण है ॥473 ॥ आदि के आठ और अंत के आठ इस प्रकार सोलह तीर्थ तो इस भरतक्षेत्र में अविच्छिन्न रूप से प्रवृत्त हुए परंतु बीच के सात तीर्थ व्युच्छिन्न होकर पुनः-पुनः प्रवृत्त हुए ॥474॥ पाव पल्य, अर्ध पल्य, पोन पल्य, एक पल्य, पौन पल्य, अर्ध पल्य और पाव पल्य, यह क्रम से व्युच्छिन्न तीर्थों के विच्छेद काल का प्रमाण है । भावार्थ वृषभदेव से लेकर पुष्पदंत तक तो तीर्थ अविच्छिन्न रूप से चलते रहे उसके बाद पुष्पदंत के तीर्थ में जब पाव पल्य प्रमाण काल बाकी रह गया तब तीर्थ-धर्म का विच्छेद हो गया । तदनंतर शीतलनाथ के केवली होनेपर पुनः तीर्थ प्रारंभ हुआ, इसी प्रकार धर्मनाथ पर्यंत ऊपर लिखे अनुसार तीर्थ विच्छेद समझना चाहिए । शांतिनाथ से लेकर महावीर पर्यंत बीच में तीर्थ का विच्छेद नहीं है । महावीर का तीर्थ बयालीस हजार वर्ष तक चलेगा, उसके बाद विच्छिन्न हो जायेगा । तदनंतर आगामी उत्सर्पिणी युग में जब प्रथम तीर्थंकर को केवलज्ञान होगा तब पुनः तीर्थ का प्रारंभ होगा ॥475॥
प्रारंभ से लेकर सात तीर्थंकरों के तीर्थ में केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी निरंतर विद्यमान रही । उसके पश्चात् चंद्रप्रभ और पुष्पदंत के तीर्थ में नब्बे-नब्बे, शीतलनाथ के तीर्थ में चौरासी, श्रेयांसनाथ के तीर्थ में बहत्तर, वासुपूज्य के तीर्थ में चौवालीस, फिर विमलनाथ से लेकर नेमिनाथ तक दस तीर्थंकरों के तीर्थ में चार-चार कम और अंतिम दो तीर्थंकरों के तीर्थ में तीन-तीन केवली अनुबद्ध हुए हैं अर्थात् एक के मोक्ष जाने के बाद दूसरे को केवलज्ञान हो गया है ॥476-478॥
महावीर स्वामी के केवलियों का काल बासठ वर्ष कहा गया है उसके बाद सौ वर्ष चौदह पूर्व धारियों का काल है, तदनंतर एक सौ तेरासी वर्ष दस पूर्व धारियों का समय है, फिर दो सौ बीस वर्ष ग्यारह अंग के पाठियों का काल है, और इसके बाद एक सौ अठारह वर्ष आचारांग के धारियों का काल कहा गया है । महावीर स्वामी के केवलियों की संख्या तीन, चौदह पूर्व के धारियों की संख्या पाँच, दस पूर्व धारियों की संख्या ग्यारह, ग्यारह अंग के धारियों की संख्या पाँच और आचारांग के पाठियों की संख्या चार है ॥ 479-481 ॥ महावीर भगवान् के गणधरों की आयु क्रम से बानवे वर्ष, चौबीस वर्ष, सत्तर वर्ष, अस्सी वर्ष, सौ वर्ष, तेरासी वर्ष, पंचानवे वर्ष, अठहत्तर वर्ष, बहत्तर वर्ष, साठ वर्ष और चालीस वर्ष है ॥ 482-483 ॥ छह कालों में से जब तृतीय काल में पल्य का आठवां भाग बाकी रहा था तब क्रम से चौदह कुलकरों और उनके बाद वृषभदेव का जन्म हुआ था । शेष तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बलभद्रों और नारायणों का जन्म चौथे काल में निश्चित है ॥484-485 ॥ जब तीसरे काल में तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी रहे थे तब भगवान् ऋषभदेव का मोक्ष हुआ था और जब चौथे काल में तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष रहेंगे तब महावीर का मोक्ष होगा ॥ 486॥
जिस समय भगवान् महावीर का निर्वाण होगा उस समय यहाँ अवंति पुत्र पालक नाम के राजा का राज्याभिषेक होगा । वह राजा प्रजा का अच्छी तरह पालन करेगा और उसका राज्य साठ वर्ष तक रहेगा । उसके बाद तद्-तद् देशों के राजाओं का एक सौ पचपन वर्ष तक राज्य होगा ॥ 487-488॥ फिर चालीस वर्ष तक पुरुढ राजाओं का अखंड भूमंडल होगा । तदनंतर तीस वर्ष तक पुष्पमित्र का, साठ वर्ष तक वसु और अग्निमित्र का, सौ वर्ष तक रासभ राजाओं का, फिर चालीस वर्ष तक नरवाहन का, फिर दो सौ बयालीस वर्ष तक कल्कि राजा का राज्य होगा । उसके बाद अजितंजय नाम का राजा होगा जिसकी राजधानी इंद्रपुर नगर होगी ॥482-492॥ अब इनके आगे चक्रवर्ती आदिकी, कुमार अवस्था, मंडलेश्वर दशा, दिग्विजय, राज्य और संयम में जो काल व्यतीत हुआ है उसका यथायोग्य निरूपण किया जाता है ॥ 493॥
पहले भरतचक्रवर्ती का आयु काल चौरासी लाख पूर्व की थी, उसमें सतहत्तर लाख पूर्व तो कुमारकाल में बीते, एक हजार वर्ष मंडलेश्वर अवस्था में व्यतीत हुए, साठ हजार वर्ष तक दिग्विजय किया, एक पूर्व कम छह लाख पूर्व चक्रवर्ती होकर राज्य किया तथा एक लाख पूर्व तेरासी लाख निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे पूर्वांग और तेरासी लाख नौ हजार तीस वर्ष पर्यंत संयमी तथा केवली रहे ॥494-497॥
दूसरे सगर चक्रवर्ती की आयु बहत्तर लाख पूर्व थी उसमें पचास हजार पूर्व तो कुमारकाल में बीते, इतने ही मंडलेश्वर अवस्था में व्यतीत हुए, तीस हजार वर्ष दिग्विजय में गये, उनहत्तर लाख सत्तर हजार पूर्व, निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे पूर्वांग और तेरासी लाख वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य किया और एक लाख पूर्व तक संयमी रहे ॥ 498-500॥
तीसरे मघवा चक्रवर्ती की कुल आयु पाँच लाख वर्ष की थी । उसमें पचीस हजार वर्ष कुमारकाल में, पचीस हजार वर्ष मांडलीक अवस्था में, दस हजार वर्ष दिग्विजय में, तीन लाख नब्बे हजार वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्यकार्य में और पचास हजार वर्ष संयमी अवस्था में व्यतीत हुए ॥ 501-502॥
चौथे सनत्कुमार चक्रवर्ती की कुल आयु तीन लाख वर्ष की थी । उसमें पचास हजार वर्ष कुमारकाल में, पचास हजार वर्ष मांडलीक अवस्था में, दस हजार वर्ष दिग्विजय में, नब्बे हजार वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य के उपभोग में और एक लाख वर्ष संयमी अवस्था में व्यतीत हुए ॥ 503-504॥
पांचवें शांतिनाथ चक्रवर्ती को कुल आयु एक लाख वर्ष की थी, उसमें पचीस हजार वर्ष कुमार अवस्था में, पच्चीस हजार वर्ष मांडलीक अवस्था में, आठ सौ वर्ष दिग्विजय में बीते और शेष विवरण तीर्थंकरों के वर्णन के समय में कहा जा चुका है ॥505॥
छठे कुंथुनाथ चकवर्ती को कुल आयु पंचानवे हजार वर्ष की थी, उसमें तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमारकाल में, इतने ही मांडलिक अवस्था में और छह सौ वर्ष दिग्विजय काल में व्यतीत हुए तथा शेष वर्णन पहले कर चुके हैं ॥ 506 ॥
सातवें अरनाथ चक्रवर्ती की कुल आयु पचासी हजार वर्ष की थी । उसमें इक्कीस हजार वर्ष कुमार अवस्था में, इतने ही मांडलिक अवस्था में और चार सौ वर्ष दिग्विजय में व्यतीत हुए । शेष वर्णन पहले किया जा चुका है ॥ 507॥
आठवें सुभौम चक्रवर्ती की कुल आयु पचासी हजार वर्ष की थी, उसमें पाँच हजार वर्ष कुमार अवस्था में, पाँच सौ वर्ष दिग्विजय में और साढ़े बासठ हजार वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य अवस्था में बीते । ये परशुराम के भय से आश्रम में पले थे इसीलिए मंडलीक पद प्राप्त नहीं कर सके । ये पृथिवी मंडल पर अतिशय तीक्ष्ण प्रकृति के थे तथा अज्ञानी दशा में रहने के कारण संयम धारण नहीं कर सके और मरकर सातवें नरक गये ॥508-509॥
नौवें महापद्म चक्रवर्ती की आयु तीस हजार वर्ष की थी । उसमें पांच सौ वर्ष कुमार अवस्था में, पांच सौ वर्ष मंडलीक अवस्था में, तीन सौ वर्ष दिग्विजय में, अठारह हजार सात सौ वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य अवस्था में और दस हजार वर्ष संयमी अवस्था में व्यतीत हुए हैं ॥510-511॥
दसवें हरिषेण चक्रवर्ती की आयु छब्बीस हजार वर्ष की थी । उसमें तीन सौ पचीस वर्ष कुमार अवस्था में, एक सौ पचास वर्ष दिग्विजय में, पचीस हजार एक सौ पचहत्तर वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य अवस्था में और तीन सौ पचास वर्ष संयमी अवस्था में व्यतीत हुए ॥512-513॥
ग्यारहवें जयसेन चक्रवर्ती की कुल आयु तीन हजार वर्ष की थी । उसमें तीन सौ वर्ष कुमार अवस्था में, तीन सौ वर्ष मंडलीक अवस्था में, सौ वर्ष दिग्विजय में, एक हजार नौ सौ वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य अवस्था में और चार सौ वर्ष संयम अवस्था में व्यतीत हुए ।
और बारहवें ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की आयु सात सौ वर्ष की थी । उसमें अट्ठाईस वर्ष कुमार अवस्था में, छप्पन वर्ष मंडलीक अवस्था में, सोलह वर्ष दिग्विजय में और छह सौ वर्ष राज्य अवस्था में व्यतीत हुए । ये संयम धारण नहीं कर सके और मरकर सातवें नरक गये । इस प्रकार चक्रवर्तियों की आयु का विवरण कहा और नारायणों की आयु का विवरण कहा जाता है ॥ 514-516 ॥
स्नेह को धारण करनेवाले त्रिपृष्ठ नारायण की कुल आयु चौरासी लाख वर्ष की थी । उसमें पचीस हजार वर्ष कुमार अवस्था में, एक हजार वर्ष दिग्विजय में और तेरासी लाख चौहत्तर हजार वर्ष राज्य अवस्था में व्यतीत हुए ॥517-518॥ ।
द्विपृष्ठ नारायण की कुल आयु बहत्तर लाख वर्ष की थी । उसमें पचीस-पचीस हजार वर्ष कुमार अवस्था तथा मंडलीक अवस्था में, सौ वर्ष दिग्विजय में और इकहत्तर लाख उनचास हजार नौ सौ वर्ष पर्यंत राज्य किया ॥ 519-520॥
स्वयंभू नारायण की कुल आयु साठ लाख वर्ष की थी । उसमें बारह हजार पाँच सौ वर्ष कुमार अवस्था में, इतने ही मंडलीक अवस्था में, नब्बे वर्ष दिग्विजय में और उनसठ लाख चौहत्तर हजार नौ सौ दस वर्ष राज्य अवस्था में व्यतीत हुए ॥521-522 ॥
पुरुषोत्तम नारायण की कुल आयु तीस लाख वर्ष की थी । उसमें सात सौ वर्ष कुमार अवस्था में, एक हजार तीन सौ वर्ष मंडलीक अवस्था में, अस्सी वर्ष दिग्विजय में और उनतीस लाख संतानवे हजार नौ सौ बीस वर्ष पृथिवीतल पर नारायणपद धारण करते हुए राज्य अवस्था में व्यतीत हुए ॥523-525॥
पुरुषसिंह नारायण की कुल आयु दस लाख वर्ष की थी । उसमें तीन सौ वर्ष कुमार अवस्था में, एक सौ पचीस वर्ष मंडलीक अवस्था में,सत्तर वर्ष दिग्विजय में और नौ लाख निन्यानवे हजार पांच सौ पांच वर्ष राज्य अवस्था में व्यतीत हुए ॥526-227॥
पुंडरीक नारायण की कुल आयु पैंसठ हजार वर्ष की थी । उनमें दो सौ पचास वर्ष कुमार अवस्था में, इतने ही मंडलीक अवस्था में, साठ वर्ष दिग्विजय में, और चौंसठ हजार चार सौ चालीस वर्ष राज्य अवस्था में व्यतीत हुए ॥528-529॥
दत्त नारायण की कुल आयु बत्तीस हजार वर्ष की थी । उसमें सौ वर्ष कुमार अवस्था में पचास वर्ष मंडलीक अवस्था में, पचास वर्ष दिग्विजय में और इकतीस हजार सात सौ वर्ष राज्य अवस्था में व्यतीत हुए ॥530 ॥
लक्ष्मण नारायण की कुल आयु बारह हजार वर्ष की थी । उसमें सौ वर्ष कुमार अवस्था में, चालीस वर्ष दिग्विजय में और ग्यारह हजार आठ सौ साठ वर्ष राज्य अवस्था में व्यतीत हुए ॥ 531 ॥
कृष्ण नारायण की कुल आयु एक हजार वर्ष को है । उसमें सोलह वर्ष कुमार अवस्था में, छप्पन वर्ष मंडलीक अवस्था में आठ वर्ष दिग्विजय में और नौ सौ बीस वर्ष राज्य अवस्था में व्यतीत होंगे । इस प्रकार नारायणों के काल का वर्णन किया । अब ग्यारह रुद्रों के काल और संख्या का वर्णन करते हैं ॥ 532-533॥
रुद्र ग्यारह होते हैं । उसमें भगवान् वृषभदेव के तीर्थ में भीमावलि, अजितनाथ के तीर्थ में जितशत्रु, पुष्पदंत के तीर्थ में रुद्र, शीतलनाथ के तीर्थ में विश्वानल, श्रेयांसनाथ के तीर्थ में सुप्रतिष्ठक, वासुपूज्य के तीर्थ में अचल, विमलनाथ के तीर्थ में पुंडरीक, अनंतनाथ के तीर्थ में अजितंधर, धर्मनाथ के तीर्थ में अजितनाभि, शांतिनाथ के तीर्थ में पीठ नाम का रुद्र हुआ है तथा महावीर के तीर्थ में सत्यकि पुत्र रुद्र होगा ॥ 534-536 ॥
भीमावली के शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष, जितशत्रु को साढ़े चार सौ धनुष, रुद्र की सौ धनुष, विश्वानल की नब्बे धनुष, सुप्रतिष्ठक की अस्सी धनुष अचल की सत्तर धनुष, पुंडरीक की साठ धनुष, अजितंधर को पचास धनुष, अजितनाभि की अट्ठाईस धनुष, पीठ की चौबीस धनुष, और सत्यकि पुत्र की सात धनुष मानी जाती है ॥ 537-538॥
इन रुद्रों की आयु क्रम से तेरासी लाख पूर्व, इकहत्तर लाख पूर्व, दो लाख पूर्व, एक लाख पूर्व, चौरासी लाख वर्ष, साठ लाख वर्ष, पचास लाख वर्ष, चालीस लाख वर्ष, बीस लाख वर्ष, दस लाख वर्ष और उनहत्तर वर्ष है । ये सभी रुद्र दस पूर्व के पाठी होते हैं और रोद्र कार्य के करने वाले हैं ॥ 539-541॥
इन सभी रुद्रों के क्रम से तीन काल होते हैं― 1 कुमारकाल, 2 संयमकाल और 3 गृहीत संयम को छोड़कर असंयमी होने का काल ॥542 ॥ इनमें चार का संयमकाल त्रिभाग शेष से कुछ अधिक था अर्थात् कुमारकाल और असंयमकाल से कुछ अधिक था, दो के तीनों काल बराबर थे, सातवें का कुमारकाल, आठवें का असंयमकाल, नौवें का कुमारकाल, और दसवें का संयमकाल अधिक था । ग्यारहवें रुद्र का कुमारकाल सात वर्ष का, संयमकाल अट्ठाईस वर्ष का और असंयमकाल चौंतीस वर्ष का होगा ॥ 543-545 ॥
इनमें प्रारंभ के दो रुद्र सातवीं पृथिवी, पाँच रुद्र छठी पृथिवी, एक पांचवीं पृथिवी और दो चौथी पृथिवी गये हैं तथा अंतिम रुद्र तीसरी भूमि में जावेगा । इन रुद्रों के जीवन में असंयम का भार अधिक होता है, इसलिए उन्हें नरकगामी होना पड़ता है ॥ 546-547॥
भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, चतुर्मुख, नरवक्त्र और उन्मुख, ये नौ नारद माने गये हैं । उनकी आयु नारायणों की आयु के बराबर होती है तथा वे नारायणों के समय ही होते हैं । वे कलह में प्रीति से युक्त होते हैं, कदाचित् धर्म से भी स्नेह रखते हैं, हिंसा में आनंद मानते हैं तथा महाभव्य और जिनेंद्र भगवान् के अनुगामी होते हैं ॥ 548-550॥
भगवान् महावीर के मोक्ष जाने के पश्चात् छह सौ पाँच वर्ष पाँच मास बीत जाने पर राजा शक होगा और हजार-हजार वर्ष बाद एक-एक कल्की राजा होता रहेगा जो जैनधर्म का विरोधी होगा ॥ 551-552 ॥ जिस प्रकार इस अवसर्पिणी में तीर्थंकर आदि हुए हैं उसी प्रकार आगे आने वाली उत्सर्पिणी में भी दूसरे-दूसरे तीर्थंकर आदि होंगे ॥553 ॥ जब आने वाले दुःषमा नामक काल में एक हजार शेष रह जावेंगे तब पहले क्रम से ये चौदह कुलकर होंगे― 1 देदीप्यमान स्वर्ण के समान कांति वाला कनक, 2 कनकप्रभ, 3 कनकराज, 4 कनकध्वज, 5 कनकपुंगव, 6 कमलिनी के पत्ते के समान वर्ण वाला नलिन, 7 नलिनप्रभ, 8 नलिनराज, 9 नलिनध्वज, 10 नलिनपुंगव, 11 पद्मप्रभ, 12 पद्मराज, 13 पद्मध्वज और 14 पद्मपुंगव ॥ 554-557 ॥
कुलकरों के बाद क्रम से निम्नलिखित चौबीस तीर्थंकर होंगे― 1 महापद्म, 2 सुरदेव, 3 सुपार्श्व, 4 स्वयंप्रभ, 5 सर्वात्मभूत, 6 देवदेव, 7 प्रभोदय, 8 उदंक, 9 प्रश्नकीर्ति, 10 जय कीर्ति, 11 सुव्रत, 12 अर, 13 पुण्यमूर्ति, 14 निष्कषाय, 15 विपुल, 16 निर्मल, 17 चित्रगुप्त, 18 समाधिगुप्त, 19 स्वयंभू, 20 अनिवर्तक, 21 जय, 22 विमल, 23 दिव्यपाद और 24 अनंतवीर्य । ये सभी वीर्य, धैर्य आदि सद्गुणों से सहित होते हैं ॥558-562 ॥
1 भरत, 2 दीर्घदंत, 3 जन्मदत्त, 4 गूढदत्त, 5 श्रीषेण, 6 श्रीभूति, 7 श्रीकांत, 8 पद्मनामक, 9 महापद्म, 10 चित्रवाहन, 11 मल के संपर्क से रहित विमलवाहन और 12 अरिष्टसेन ये होने वाले बारह चक्रवर्ती कहे गये हैं ॥ 563-565 ॥
1 नंदी, 2 नंदिमित्र, 3 नंदिन, 4 नंदिभूतिक, 5 महाबल, 6 अतिबल, 7 बलभद्र, 8 द्विपृष्ठ और 5 त्रिपृष्ठ ये नौ भविष्यत् काल में होने वाले नारायण हैं । ये अंजन के समान कांति के धारक होते हैं तथा अपनी कांति से दिशाओं के अंतराल को व्याप्त करते हैं ॥566-567 ॥
1 चंद्र, 2 महाचंद्र, 3 चंद्रधर, 4 सिंहचंद्र, 5 हरिश्चंद्र, 6 श्रीचंद्र, 7 पूर्णचंद्र, 8 सुचंद्र और 9 बालचंद्र ये नौ आगामीकाल में होने वाले बलभद्र हैं । ये सभी चंद्रमा के समान कांति के धारक होते हैं ।
1 श्रीकंठ, 2 हरिकंठ, 3 नीलकंठ, 4 अश्वकंठ, 5 सुकंठ, 6 शिखिकंठ, 7 अश्वग्रीव, 8 हयग्रीव और 9 मयूरग्रीव ये नौ प्रतिनारायण होंगे ॥ 568-570॥
1 प्रमद, 2 सम्मद, 3 हर्ष, 4 प्रकाम, 5 कामद, 6 भव, 7 हर, 8 मनोभव, 9 मार, 10 काम और 11 अंगज ये ग्यारह रुद्र होंगे । ये सब भव्य होंगे तथा कुछ ही भवों में मोक्ष प्राप्त करेंगे । इनके शरीर भी रत्नत्रय से पवित्र होंगे तथा उत्तम महापुरुष होंगे ॥571-572 ॥
एक सम्यग्दर्शनरूपी रत्न अंतर्मुहूर्त के लिए भी प्राप्त होकर छूट जाता है तो वह भी शीघ्र ही मोक्ष प्राप्ति का कारण होता है, फिर संसार में अतिशय पवित्र एवं साक्षात् भव भ्रमण को नष्ट करने वाले रत्नत्रय की तो बात ही क्या है ? ॥573 ॥
इस प्रकार भगवान् नेमिनाथ की कर्णों को सुख उपजाने वाली एवं त्रिकालविषयक पदार्थों का वर्णन करने वाली दिव्यध्वनि सुनकर कृष्ण आदि राजा तथा इंद्र और सूर्य आदि देव, धर्म के यथार्थ तत्त्व को ग्रहण कर एवं नेमिजिनेंद्र को नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥ 574 ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में त्रैशठ शलाकापुरुषों का चरित्र तथा तीर्थंकरों के अंतराल का वर्णन करने वाला साठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥60॥