अंजना
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
( पद्मपुराण सर्ग 15/16,91,307)
पुराणकोष से
(1) नरक की चौथी पृथिवी, अपरनाम पंकप्रभा । हरिवंशपुराण - 4.43-46 देखें पंकप्रभा
(2) विजयार्द्धपर्वत की दक्षिण श्रेणी में विद्युत्कांत नगर के स्वामी प्रभंजन विद्याधर की भार्या, अमिततेज की जननी । महापुराण 68.275-276
(3) महेंद्रनगर के राजा महेंद्र और उनकी रानी हृदयवेगा की पुत्री । यह अरिंदम आदि सौ भाइयों की बहिन तथा पवनंजय की पत्नी थी । महापुराण 15.13-16,220 इसकी सहेली मिश्रकेशी को पवनंजय इष्ट नहीं था । उसने पवनंजय और विद्युत्प्रभ की तुलना करते हुए पवनंजय के गोष्पद और विद्युत्प्रभ को समुद्र बताया था । सहेली के इस कथन को पवनंजय ने भी सुन लिया था । पवनंजय ने यह समझकर कि मिश्रकेशी का यह मत अंजना को ओ मान्य है वह कुपित हो गया और उसने इससे विवाह करके असमागम से इसे दु:खी करने का निश्चय किया । अपने इस निश्चय के अनुसार पवनंजय ने इससे विवाह करके इसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा । पति का स्नेह न मिलने से यह सदा अपनी ही निंदा करती थी । पद्मपुराण - 15.154-165, पद्मपुराण - 15.217, पद्मपुराण - 16.1-9 इसी बीच रावण और वरुण का परस्पर विरोध हो गया । रावण ने अपनी सहायता के लिए प्रह्लाद को बुलाया । पवनंजय ने पिता प्रह्लाद से स्वयं जाने की अनुमति प्राप्त की और वह सामंतों के साथ आगे बढ़ गया । प्रस्थान करते समय इसने पवनंजय से अपनी मनो-व्यथा आकर की थी किंतु पवनंजय ने इसे कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं दिया था । पवनंजय को पति से वियुक्त एक चकवी की व्यथा को देखकर इसकी याद आयी । बाईस वर्ष तक अनादर करते रहने के अपराध पर उसे पश्चात्ताप हुआ । गुप्त रूप से पवनंजय इससे मिलने आया । उसने ऋतुकाल के पश्चात् इससे सहवास भी किया । गर्भवती होने की आशंका से इसके निवेदन करने पर पवनंजय ने साक्षी रूप में इसे अपना कड़ा दे दिया । पद्मपुराण - 16.34-240 गर्भ के चिह्न देखकर इसकी सास केतुमती ने इसके अनेक प्रकार से विश्वास दिलाने पर भी इसे घर से निकाल दिया । उसने बसंतमाला सखी के साथ इसे पिता के घर छोड़ने का आदेश दिया । सेवक इसे इसके पिता के घर ले गया किंतु पिता ने भी इसे आश्रय नहीं दिया । पद्मपुराण - 17.1-21, पद्मपुराण - 17.59-60 यह निराश्रित होकर वन में प्रविष्ट हुई । इसे चारणऋद्धिधारी अमितगति मुनि के दर्शन हुए । इसने मुनिराज से अपना पूर्वभव तथा गर्भस्थ शिशु का माहात्म्य जाना । मुनिराज के पर्यकासन से विराजमान होने के कारण जिसे ‘‘पर्यकगुहा’’ नाम प्राप्त हुआ था, उसी गुहा में यह रही । यहाँ अनेक उपसर्ग हुए । सिंह की गर्जना से भयभीत होकर इसने इम गुहा में उपसर्ग पर्यंत के लिए शरीर और आहार का त्याग कर दिया । इस समय मणिचूल गंधर्व ने अष्टापद का रूप धारण करके इसकी रक्षा की इसने इसी गुहा में चैत्र कृष्ण अष्टमी श्रवण नक्षत्र में एक पुत्र को जन्म दिया । अनुरूह द्वीप का निवासी प्रतिसूर्य इसका भाई था । कही जाते हुए उसने इसे पहचान लिया और इसे दु:खी देखकर यह विमान में बैठाकर अपने घर ला रहा था कि मार्ग में एकाएक शिशु उछलकर विमान से नीचे एक शिखा पर जा गिरा । शिला टुकड़े-टुकड़े हो गयी थी किंतु शिशु का बाल भी बाँका नहीं हुआ था । बालक का शैल में जन्म होने तथा शैल को चूर्ण करने के कारण इसने और इसके भाई प्रतिसूर्य ने शिशु का नाम श्रीशैल रखा था । हनुरुह द्वीप में जन्म संस्कार किये जाने से शिशु को हनुमान भी कहा गया । पद्मपुराण - 17.139-403, प्रतिसूर्य ने पवनंजय को ढूंढने के लिए अपने विद्याधरों को चारों ओर भेजा । वे उसे ढूंढ़कर अनुरुह द्वीप लाये । यही अंजना को पाकर पवनंजय बड़ा प्रसन्न हुआ । पद्मपुराण - 18.126-128