नक्षत्र
From जैनकोष
श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार आप प्रथम ११ अंगधारी थे। समय‒वी.नि.३४५-३६३ (ई.पू./१८२-१६४)। दृष्टि नं.३ के अनुसार वी.नि.४०५-४१७‒ देखें - इतिहास / ४ / ४ ।
- नक्षत्र परिचय तालिका
नं. |
नाम (ति.प./७/२६-२८) (त्रि.सा./४३२-३३) |
अधिपति देवता (त्रि.सा./४३४-३५) |
आकार (ति.प./७/४६५-४६७) (त्रि.सा./४४२-४४४) |
मूल तारों का प्रमाण (ति.प./ ७/४६३-४६४) (त्रि.सा./२४०-४४१) |
परिवार तारों का प्रमाण (ति.प./ ७/४६८-४६९) (त्रि.सा./४४५) |
१ |
कृत्तिका |
अग्नि |
बीजना |
६ |
६६६६ |
२ |
रोहिणी |
प्रजापति |
गाड़ी की उद्धि |
५ |
५५५५ |
३ |
मृगशिरा |
सोम |
हिरण का शिर |
३ |
३३३३ |
४ |
आर्द्रा |
रुद्र |
दीप |
१ |
११११ |
५ |
पुनर्वसु |
दिति |
तोरण |
६ |
६६६६ |
६ |
पुष्य |
देवमन्त्री (बृहस्पति) |
छत्र |
३ |
३३३३ |
७ |
आश्लेषा |
सर्प |
चींटी आदि कृत मिट्टी का पुंज |
६ |
६६६६ |
८ |
मघा |
पिता |
गोमूत्र |
४ |
४४४४ |
९ |
पूर्वाफाल्गुनी |
भग |
शर युगल |
२ |
२२२२ |
१० |
उत्तराफाल्गुनी |
अर्यमा |
हाथ |
२ |
२२२२ |
११ |
हस्त |
दिनकर |
कमल |
५ |
५५५५ |
१२ |
चित्रा |
त्वष्टा |
दीप |
१ |
११११ |
१३ |
स्वाति |
अनिल |
अधिकरण(अहरिणी) |
१ |
११११ |
१४ |
विशाखा |
इन्द्राग्नि |
हार |
४ |
४४४४ |
१५ |
अनुराधा |
मित्र |
वीणा |
६ |
६६६६ |
१६ |
ज्येष्ठा |
इन्द्र |
सींग |
३ |
३३३३ |
१७ |
मूल |
नैर्ऋति |
बिच्छू |
९ |
९९९९ |
१८ |
पूर्वाषाढ़ा |
जल |
जीर्ण वापी |
४ |
४४४४ |
१९ |
उत्तराषाढ़ा |
विश्व |
सिंह का शिर |
४ |
४४४४ |
२० |
अभिजित |
ब्रह्मा |
हाथी का शिर |
३ |
३३३३ |
२१ |
श्रवण |
विष्णु |
मृदंग |
३ |
३३३३ |
२२ |
धनिष्ठा |
वसु |
पतित पक्षी |
५ |
५५५५ |
२३ |
शतभिषा |
वरुण |
सेना |
१११ |
१२३३२१ |
२४ |
पूर्वाभाद्रपदा |
अज |
हाथी का अगला शरीर |
२ |
२२२२ |
२५ |
उत्तराभाद्रपदा |
अभिवृद्धि |
हाथी का पिछला शरीर |
२ |
२२२२ |
२६ |
रेवती |
पूषा |
नौका |
३२ |
३५५५२ |
२७ |
अश्विनी |
अश्व |
घोड़े का शिर |
५ |
५५५५ |
२८ |
भरणी |
यम |
चूल्हा |
३ |
३३३३ |
- नक्षत्रों के उदय व अस्त का क्रम
ति.प./७/४९३ एदि मघा मज्झण्हे कित्तियरिक्खस्य अत्थमणसमए। उदए अणुराहाओ एवं जाणेज्ज सेसाओ।४९३।=कृत्तिका नक्षत्र के अस्तमन काल में मघा मध्याह्न को और अनुराधा उदय को प्राप्त होता है, इसी प्रकार शेष नक्षत्रों के भी उदयादि को जानना चाहिए (विशेषार्थ‒जिस समय किसी विवक्षित नक्षत्र का अस्तमन होता है, उस समय उससे आठवाँ नक्षत्र उदय को प्राप्त होता है। इस नियम के अनुसार कृत्तिकादिक के अतिरिक्त शेष नक्षत्रों के भी अस्तमन मध्याह्न और उदय को स्वयं ही जान लेना चाहिए।)
त्रि.सा./४३६ कित्तियपडतिसमए अट्ठम मघरिक्खमेदि मज्झण्हं। अणुराहारिक्खुदओ एवं सेसे वि, भासिज्जो।४३६।=कृत्तिका नक्षत्र के अस्त के समय इससे आठवाँ मघा नक्षत्र मध्याह्न को प्राप्त होता है अर्थात् बीच में होता है और उस मघा से आठवाँ नक्षत्र उदय को प्राप्त होता है। ऐसे ही रोहिणी आदि नक्षत्रों में से जो विवक्षित नक्षत्र अस्त को प्राप्त होता है उससे आठवाँ नक्षत्र मध्याह्न को और उससे भी आठवाँ नक्षत्र उदय को प्राप्त होता है।
- नक्षत्रों की कुल संख्या, उनका लोक में अवस्थान व संचार विधि‒ देखें - ज्यातिषदेव / २ / ३ ,६,७।