नरक
From जैनकोष
प्रचुररूप से पापकर्मों के फलस्वरूप अनेकों प्रकार के असह्य दु:खों को भोगने वाले जीव विशेष नारकी कहलाते हैं। उनकी गति को नरकगति कहते हैं, और उनके रहने का स्थान नरक कहलाता है, जो शीत, उष्ण, दुर्गन्धि आदि असंख्य दु:खों की तीव्रता का केन्द्र होता है। वहाँ पर जीव बिलों अर्थात् सुरंगों में उत्पन्न होते व रहते हैं और परस्पर में एक दूसरे को मारने-काटने आदि के द्वारा दु:ख भोगते रहते हैं।
- नरकगति सामान्य निर्देश
- नरक सामान्य का लक्षण।
- नरकगति या नारकी का लक्षण।
- नारकियों के भेद (निक्षेपों की अपेक्षा)।
- नारकी के भेदों के लक्षण।
- नरकगति में गति, इन्द्रिय आदि १४ मार्गणाओं के स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ। –देखें - सत् ।
- नरकगति सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। –दे०वह वह नाम।
- नरकायु के बन्धयोग्य परिणाम।– देखें - आयु / ३ ।
- नरकगति में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, सत्त्व-विषयक प्ररूपणाएँ।–दे०वह वह नाम।
- नरकगति में जन्म मरण विषयक गति अगति प्ररूपणाएँ।– देखें - जन्म / ६ ।
- सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें - मार्गणा।
- नरक सामान्य का लक्षण।
- नरकगति के दु:खों का निर्देश
- नरक में दु:ख के सामान्य भेद।
- शारीरिक दु:ख निर्देश।
- क्षेत्रकृत दु:ख निर्देश।
- असुर देवोंकृत दु:ख निर्देश।
- मानसिक दु:ख निर्देश।
- नरक में दु:ख के सामान्य भेद।
- नारकियों के शरीर की विशेषताएँ
- जन्मने व पर्याप्त होने सम्बन्धी विशेषता।
- शरीर की अशुभ आकृति।
- वैक्रियक भी वह मांस आदि युक्त होता है।
- इनके मूँछ-दाढ़ी नहीं होती।
- इनके शरीर में निगोदराशि नहीं होती।
- नारकियों की आयु व अवगाहना।–दे०वह वह नाम।
- नारकियों की अपमृत्यु नहीं होती।– देखें - मरण / ४ ।
- छिन्न भिन्न होने पर वह स्वत: पुन: पुन: मिल जाता है।
- आयु पूर्ण होने पर वह काफूरवत् उड़ जाता है।
- नरके में प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियों के ही शरीर की विक्रिया हैं।
- नारकियों को पृथक् विक्रया नहीं होती।– देखें - वैक्रियक / १ ।
- छह पृथिवीयों में आयुधोंरूप विक्रिया होती है और सातवीं में कीड़ों रूप।
- जन्मने व पर्याप्त होने सम्बन्धी विशेषता।
- वहाँ जल अग्नि आदि जीवों का भी अस्तित्व है।– देखें - काय / २ / ५ ।
- नारकियों में सम्भव भाव व गुणस्थान आदि
- सदा अशुभ परिणामों से युक्त रहते हैं।
- वहाँ सम्भव वेद, लेश्या आदि।–दे०वह वह नाम।
- २-३. नरकगति में सम्यक्त्वों व गुणस्थानों का स्वामित्व।
- मिथ्यादृष्टि से अन्य गुणस्थान वहाँ कैसे सम्भव है।
- वहाँ सासादन की सम्भावना कैसे है ?
- मरकर पुन: जी जाने वाले उनकी अपर्याप्तावस्था में भी सासादन व मिश्र कैसे नहीं मानते ?
- वहाँ सम्यग्दर्शन कैसे सम्भव है ?
- अशुभ लेश्या में भी सम्यक्त्व कैसे उत्पन्न होता है।– देखें - लेश्या / ४ ।
- सम्यक्त्वादिकों सहित जन्ममरण सम्बन्धी नियम।– देखें - जन्म / ६ ।
- सासादन, मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते। इसमें हेतु।
- ऊपर के गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते।
- नरकलोक निर्देश
- नरक की सात पृथिवियों के नाम निर्देश।
- अधोलोक सामान्य परिचय।
- रत्नप्रभा पृथिवी खरपंक भाग आदि रूप विभाग।–देखें - रत्नप्रभा।
- पटलों व बिलों का सामान्य परिचय।
- बिलों में स्थित जन्मभूमियों का परिचय।
- नरक भूमियों में मिट्टी, आहार व शरीर आदि की दुर्गन्धियों का निर्देश।
- नरकबिलों में अन्धकार व भयंकरता।
- नरकों में शीत उष्णता का निर्देश।
- नरक पृथिवियों में बादर अप् तेज व वनस्पतिकायिकों का अस्तित्व।– देखें - काय / २ / ५ ।
- सातों पृथिवियों का सामान्य अवस्थान।– देखें - लोक / २ ।
- सातों पृथिवियों की मोटाई व बिलों आदि का प्रमाण।
- सातों पृथिवियों के बिलों का विस्तार।
- बिलों में परस्पर अन्तराल।
- पटलों के नाम व तहाँ स्थित बिलों का परिचय।
- नरकलोक के नक्शे।– देखें - लोक / ७ ।
- नरकगति सामान्य का लक्षण
- नरक सामान्य का लक्षण
रा.वा./२/५०/२-३/१५६/१३ शीतोष्णासद्वेद्योदयापादितवेदनया नरान् कायन्तीति शब्दायन्त इति नारका:। अथवा पापकृत: प्राणिन आत्यन्तिकं दु:खं नृणन्ति नयन्तीति नारकाणि। औणादिक: कर्तर्यक:। =जो नरों को शीत, उष्ण आदि वेदनाओं से शब्दाकुलित कर रहे दे वह नरक है। अथवा पापी जीवों को आत्यन्तिक दु:खों को प्राप्त कराने वाले नरक हैं।
ध.१४/५,६,६४१/४९५/८ णिरयसेडिबद्धाणि णिरयाणि णाम। =नरक के श्रेणीबद्ध बिल नरक कहलाते हैं। - नरकगति या नारकी का लक्षण
ति.प./१/६० ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल भावे य। अण्णोण्णेहि य णिच्चं तम्हा ते णारया भणिया।६०। =यत; तत्स्थानवर्ती द्रव्य में, क्षेत्र में, काल में, और भाव में जो जीव रमते नहीं हैं, तथा परस्पर में भी जो कभी भी प्रीति को प्राप्त नहीं होते हैं, अतएव वे नारक या नारकी कहे जाते हैं। (ध.१/१,१,२४/गा.१२८/२०२) (गो.जी./मू./१४७/३६९)।
रा.वा./२/५०/३/१५६/१७ नरकेषु भवा नारका:। =नरकों में जन्म लेने वाले जीव नारक हैं। (गो.जी./जी.प्र./१४७/३६९/१८)।
ध.१/१,१,२४/२०१/६ हिंसादिष्वसदनुष्ठानेषु व्यापृता: निरतास्तेषां गतिर्निरतगति:। अथवा नरान् प्राणिन: कायति पातयति खलीकरोति इति नरक: कर्म, तस्य नरकस्यापत्यानि नारकास्तेषां गतिर्नारकगति:। अथवा यस्या उदय: सकलाशुभकर्मणामुदयस्य सहकारिकारणं भवति सा नरकगति:। अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वन्योन्येषु च विरता: नरता:, तेषां गति: नरतगति:। =- जो हिंसादि असमीचीन कार्यों में व्यापृत हैं उन्हें निरत कहते हैं और उनकी गति को निरतगति कहते हैं।
- अथवा जो नर अर्थात् प्राणियों को काता है अर्थात् गिराता है, पीसता है, उसे नरक कहते हैं। नरक यह एक कर्म है। इससे जिनकी उत्पत्ति होती है उनको नारक कहते हैं, और उनकी गति को नारकगति कहते हैं।
- अथवा जिस गति का उदय सम्पूर्ण अशुभ कर्मों के उदय का सहकारी कारण है उसे नरकगति कहते हैं।
- अथवा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में तथा परस्पर में रत नहीं हैं, अर्थात् प्रीति नहीं रखते हैं, उन्हें नरत कहते हैं और उनकी गति को नरतगति कहते हैं। (गो.जी./जी.प्र./१४७/३६९/१९)।
ध.१३/५,५,१४०/३९२/२ न रमन्त इति नारका:। =जो रमते नहीं हैं वे नारक कहलाते हैं।
गो.जी./जी.प्र./१४७/३६९/१६ यस्मात्कारणात् ये जीवा: नरकगतिसंबन्ध्यन्नपानादिद्रव्ये, तद्भूतलरूपक्षेत्रे, समयादिस्वायुरवसानकाले चित्पर्यायरूपभावे भवान्तरवैरोद्भवतज्जनितक्रोधादिभ्योऽन्योन्यै: सह नूतनपुरातननारका: परस्परं च न रमन्ते तस्मात्कारणात् ते जीवा नरता इति भणिता:। नरता एव नारता:। ...अथवा निर्गतोऽय: पुण्यं एभ्य: ते निरया: तेषां गति: निरयगति: इति व्युत्पत्तिभिरपि नारकगतिलक्षणं कथितं। =क्योंकि जो जीव नरक सम्बन्धी अन्नपान आदि द्रव्य में, तहाँ की पृथिवीरूप क्षेत्र में, तिस गति सम्बन्धी प्रथम समय से लगाकर अपना आयुपर्यन्त काल में तथा जीवों के चैतन्यरूप भावों में कभी भी रति नहीं मानते। ५. और पूर्व के अन्य भवों सम्बन्धी वैर के कारण इस भव में उपजे क्रोधादिक के द्वारा नये व पुराने नारकी कभी भी परस्पर में नहीं रमते, इसलिए उनको कभी भी प्रीति नहीं होने से वे ‘नरत’ कहलाते हैं। नरत को ही नारत जानना। तिनकी गति को नारतगति जानना। ६. अथवा ‘निर्गत’ कहिये गया है ‘अय:’ कहिये पुण्यकर्म जिनसे ऐसे जो निरय, तिनकी गति सो निरय गति जानना। इस प्रकार निरुक्ति द्वारा नारकगति का लक्षण कहा।
- नारकियों के भेद
पं.का./मू./११८ णेरइया पुढविभेयगदा। =रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियों के भेद से ( देखें - नरक / ५ ) नारकी भी सात प्रकार के हैं। (नि.सा./मू./१६)।
ध.७/२,१,४/२९/१३ अधवा णामट्ठवणदव्वभावभेएण णेरइया चउव्विहा होंति। =अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से नारकी चार प्रकार के होते हैं। (विशेष देखें - निक्षेप / १ )।
- नारकी के भेदों के लक्षण
देखें - नय / III / १ / ८ (नैगम नय आदि सात नयों की अपेक्षा नारकी कहने की विवक्षा)।
ध.७/२,१,४/३०/४ कम्मणेरइओ णाम णिरयगदिसहगदकम्मदव्वसमूहो। पासपंजरजंतादीणि णोकम्मदव्वाणि णेरइयभावकारणाणि णोकम्मदव्वणेरहओ णाम। =नरकगति के साथ आये हुए कर्मद्रव्यसमूह को कर्मनारकी कहते हैं। पाश, पंजर, यन्त्र आदि नोकर्मद्रव्य जो नारकभाव की उत्पत्ति में कारणभूत होते हैं, नोकर्म द्रव्यनारकी हैं। (शेष देखें - निक्षेप )।
- नरक सामान्य का लक्षण
- नरक गति के दु:खों का निर्देश
- नरक में दु:खों के सामान्य भेद
त.सू./३/४-५ परस्परोदीरितदु:खा:।४। संक्लिष्टासुरोदीरितदु:खाश्च प्राक् चतुर्थ्या:।५। =वे परस्पर उत्पन्न किये गये दु:ख वाले होते हैं।४। और चौथी भूमि से पहले तक अर्थात् पहिले दूसरे व तीसरे नरक में संक्लिष्ट असुरों के द्वारा उत्पन्न किये दु:ख वाले होते हैं।५।
त्रि.सा./१९७ खेत्तजणिदं असादं सारीरं माणसं च असुरकयं। भुंजंति जहावसरं भवट्ठिदी चरिमसमयो त्ति।१९७।=क्षेत्र जनित, शारीरिक, मानसिक और असुरकृत ऐसी चार प्रकार की असाता यथा अवसर अपनी पर्याय के अन्तसमयपर्यन्त भोगता है। (का.अ./मू./३५)।
- शारीरिक दु:ख निर्देश
- नरक में उत्पन्न होकर उछलने सम्बन्धी दु:ख
ति.प./२/३१४-३१५ भीदीए कंपमाणो चलिदुं दुक्खेण पट्ठिओ संतो। छत्तीसाउहमज्झे पडिदूणं तत्थ उप्पलइ।३१४। उच्छेहजोयणाणिं सत्त धणू छस्सहस्सपंचसया। उप्पलइ पढमखेत्ते दुगुणं दुगुणं कमेण सेसेसु।३१५।=वह नारकी जीव (पर्याप्ति पूर्ण करते ही) भय से काँपता हुआ बड़े कष्ट से चलने के लिए प्रस्तुत होकर, छत्तीस आयुधों के मध्य में गिरकर वहाँ से उछलता है।३१४। प्रथम पृथिवी में सात योजन ६५०० धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है। इससे आगे शेष छ: पृथिवियों में उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना दूना है।३१५। (ह.पु./४/३५५-३६१) (म.पु./१०/३५-३७) (त्रि.सा./१८१-१८२) (ज्ञा./३६/१८-१९)।
- परस्पर कृत दु:ख निर्देश
ति.प./२/३१६-३४२ का भावार्थ–उसको वहाँ उछलता देखकर पहले नारकी उसकी ओर दौड़ते हैं।३१६। शस्त्रों, भयंकर पशुओं व वृक्ष नदियों आदि का रूप धरकर ( देखें - नरक / ३ )।३१७। उसे मारते हैं व खाते हैं।३२२। हज़ारों यन्त्रों में पेलते हैं।३२३। साकलों से बँधते हैं व अग्नि में फेंकते हैं।३२४। करोंत से चोरते हैं व भालों से बींधते हैं।३२५। पकते तेल में फेंकते हैं।३२६। शीतल जल समझकर यदि वह वेतरणी नदी में प्रवेश करता है तो भी वे उसे छेदते हैं।३२७-३२८। कछुओं आदि का रूप धरकर उसे भक्षण करते हैं।३२९। जब आश्रय ढूँढ़ने के लिए बिलों में प्रवेश करता है तो वहाँ अग्नि की ज्वालाओं का सामना करना पड़ता है।३३०। शीतल छाया के भ्रम से असिपत्र वन में जाते हैं।३३१। वहाँ उन वृक्षों के तलवार के समान पत्तों से अथवा अन्य शस्त्रास्त्रों से छेदे जाते हैं।३३२-३३३। गृद्ध आदि पक्षी बनकर नारकी उसे चूँट-चूँट कर खाते हैं।३३४-३३५। अंगोपांग चूर्ण कर उसमें क्षार जल डालते हैं।३३६। फिर खण्ड-खण्ड करके चूल्हों में डालते हैं।३३७। तप्त लोहे की पुतलियों से आलिंगन कराते हैं।३३८। उसी के मांस को काटकर उसी के मुख में देते हैं।३३९। गलाया हुआ लोहा व ताँबा उसे पिलाते हैं।३४०। पर फिर भी वे मरण को प्राप्त नहीं होते हैं ( देखें - नरक / ३ )।३४१। अनेक प्रकार के शस्त्रों आदि रूप से परिणत होकर वे नारकी एक दूसरे को इस प्रकार दुख देते हैं।३४२। (भ.आ./मू./१५६५-१५८०), (स.सि./२/५/२०९/७), (रा.वा./३/५/८/३१), (ह.पु./४/३६३-३६५), (म.पु./१०/३८-६३), (त्रि.सा./१८३-१९०), (ज.प./११/१५७-१७७), (का.अ./३६-३९), (ज्ञा./३६/६१-७६), (वसु.श्रा./१६६-१६९)।
स.सि./३/४/२०८/३ नारका: भवप्रत्ययेनावधिना ...दूरादेव दु:खहेतूनवगम्योत्पन्नदु:खा: प्रत्यासत्तौ परस्परालोकनाच्च प्रज्वलितकोपाग्नय: पूर्वभवानुस्मरणाच्चातितीव्रानुबद्धवैराश्च श्वशृगालादिवत्स्वाभिघाते प्रवर्तमान: स्वविक्रियाकृत...आयुधै: स्वकरचरणदशनैश्च छेदनभेदनतक्षणदंशनादिभि: परस्परस्यातितीव्रं दु:खमुत्पादयन्ति। =नारकियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। उसके कारण दूर से ही दु:ख के कारणों को जानकर उनको दु:ख उत्पन्न हो जाता है और समीप में आने पर एक दूसरे को देखने से उनकी कोपाग्नि भभक उठती है। तथा पूर्वभव का स्मरण होने से उनकी वैर की गाँठ और दृढ़तर हो जाती है, जिससे वे कुत्ता और गीदड़ के समान एक दूसरे का घात करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। वे अपनी विक्रिया से अस्त्रशस्त्र बना कर ( देखें - नरक / ३ ) उनसे तथा अपने हाथ पाँव और दाँतों से छेदना, भेदना, छीलना और काटना आदि के द्वारा परस्पर अति तीव्र दु:ख को उत्पन्न करते हैं। (रा.वा./३/४/१/१६५/४), (म.पु./१०/४०,१०३)
- आहार सम्बन्धी दु:ख निर्देश
ति.प./२/३४३-३४६ का भावार्थ–अत्यन्त तीखी व कड़वी थोड़ी सी मिट्टी को चिरकाल में खाते हैं।३४३। अत्यन्त दुर्गन्धवाला व ग्लानि युक्त आहार करते हैं।३४४-३४६।
देखें - नरक / ५ / ५ (सातों पृथिवियों में मिट्टी की दुर्गन्धी का प्रमाण)
ह.पु./४/३६६ का भावार्थ–अत्यन्त तीक्ष्ण खारा व गरम वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गन्धी युक्त मिट्टी का आहार करते हैं।
त्रि.सा./१९२ सादिकुहिदातिगंधं सणिमणं मट्टियं विभुंजंति। घम्मभवा वंसादिसु असंखगुणिदासहं तत्तो।१९२। =कुत्ते आदि जीवों की विष्टा से भी अधिक दुर्गन्धित मिट्टी का भोजन करते हैं। और वह भी उनको अत्यन्त अल्प मिलती है, जबकि उनकी भूख बहुत अधिक होती है।
- भूख-प्यास सम्बन्धी दु:ख निर्देश
ज्ञा./३६/७७-७८ बुभुक्षा जायतेऽत्यर्थं नरके तत्र देहिनाम् । यां न शामयितुं शक्त: पुद्गलप्रचयोऽखिल:।७७। तृष्णा भवति या तेषु वाडवाग्निरिवोल्वणा। न सा शाम्यति नि:शेषपीतैरप्यम्बुराशिभि:।७८। =नरक में नारकी जीवों को भूख ऐसी लगती है, कि समस्त पुद्गलों का समूह भी उसको शमन करने में समर्थ नहीं।७७। तथा वहाँ पर तृष्णा बड़वाग्नि के समान इतनी उत्कट होती है कि समस्त समुद्रों का जल भी पी लें तो नहीं मिटती।७८।
- रोगों सम्बन्धी दु:ख निर्देश
ज्ञा./३६/२० दु:सहा निष्प्रतीकारा ये रोगा: सन्ति केचन। साकल्येनैव गात्रेषु नारकाणां भवन्ति ते।२०। =दुस्सह तथा निष्प्रतिकार जितने भी रोग इस संसार में हैं वे सबके सब नारकियों के शरीर में रोमरोम में होते हैं।
- नरक में उत्पन्न होकर उछलने सम्बन्धी दु:ख
- शीत व उष्ण सम्बन्धी दु:ख निर्देश
देखें - नरक / ५ / ७ (नारक पृथिवी में अत्यन्त शीत व उष्ण होती हैं।)
- नरक में दु:खों के सामान्य भेद
- क्षेत्रकृत दु:ख निर्देश
देखें - नरक / ५ / ६ -८ नरक बिल, वहाँ की मिट्टी तथा नारकियों के शरीर अत्यन्त दुर्गन्धी युक्त होते हैं।६। वहाँ के बिल अत्यन्त अन्धकार पूर्ण तथा शीत या उष्ण होते हैं।७-८।
- असुर देवोंकृत दु:ख निर्देश
ति.प./२/३४८-३५० सिकतानन.../...।३४८।...वेतरणिपहुदि असुरसुरा। गंतूण बालुकंतं णारइयाणं पकोपंति।३४९। इह खेत्ते जह मणुवा पेच्छंते मेसमहिसजुद्धादिं। तह णिरये असुरसुरा णारयकलहं पतुट्ठमणा।३५०। =सिकतानन...वैतरणी आदिक ( देखें - असुर / २ ) असुरकुमार जाति के देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी तक जाकर नारकियों को क्रोधित कराते हैं।३४८-३४९। इस क्षेत्र में जिस प्रकार मनुष्य, मेंढे और भैंसे आदि के युद्ध को देखते हैं, उसी प्रकार असुरकुमार जाति के देव नारकियों के युद्ध को देखते हैं और मन में सन्तुष्ट होते हैं। (म.पु./१०/६४)
स.सि./३/५/२०९/७ सुतप्तायोरसपायननिष्टप्तायस्तम्भालिङ्गन...निष्पीडनादिभिर्नारकाणां दु:खमुत्पादयन्ति। =खूब तपाया हुआ लोहे का रस पिलाना, अत्यन्त तपाये गये लोहस्तम्भ का आलिंगन कराना, ...यन्त्र में पेलना आदि के द्वारा नारकियों को परस्पर दु:ख उत्पन्न कराते हैं। (विशेष देखें - पहिले परस्परकृत दु :ख) (भ.आ./मू./१५६८-१५७०), (रा.वा./३/५/८/३६१/३१), (ज.प./११/१६८-१६९)
म.पु./१०/४१ चोदयन्त्यसुराश्चैनान् यूयं युध्यध्वमित्यरम् । संस्मार्य पूर्ववैराणि प्राक्चतुर्थ्या: सुदारुणा: ।४१।=पहले की तीन पृथिवियों तक अतिशय भयंकर असुरकुमार जाति के देव जाकर वहाँ के नारकियों को उनके पूर्वभव वैर का स्मरण कराकर परस्पर में लड़ने के लिए प्रेरणा करते रहते हैं। (वसु.श्रा./१७०)
देखें - असुर / ३ (अम्बरीष आदि कुछ ही प्रकार के असुर देव नरकों में जाते हैं, सब नहीं)
- मानसिक दु:ख निर्देश
म.पु./१०/६७-८६ का भावार्थ–अहो ! अग्नि के फुलिंगों के समान यह वायु, तप्त धूलिका वर्षा।६७-६८। विष सरीखा असिपत्र वन।६९। जबरदस्ती आलिंगन करने वाली ये लोहे की गरम पुतलियाँ।७०। हमको परस्पर में लड़ाने वाले ये दुष्ट यमराजतुल्य असुर देव।७१। हमारा भक्षण करने के लिए यह सामने से आ रहे जो भयंकर पशु।७२। तीक्ष्ण शस्त्रों से युक्त ये भयानक नारकी।७३-७५। यह सन्ताप जनक करुण क्रन्दन की आवाज़।७६। शृगालों की हृदयविदारक ध्वनियाँ।७७। असिपत्रवन में गिरने वाले पत्तों को कठोर शब्द।७८। काँटों वाले सेमर वृक्ष।७९। भयानक वैतरणी नदी।८०। अग्नि की ज्वालाओं युक्त ये विलें।८१। कितने दु:स्सह व भयंकर हैं। प्राण भी आयु पूर्ण हुए बिना छूटते नहीं।८२। अरे-अरे ! अब हम कहाँ जावें।८३। इन दु:खों से हम कब तिरेंगे।८४। इस प्रकार प्रतिक्षण चिन्तवन करते रहने से उन्हें दु:सह मानसिक सन्ताप उत्पन्न होता है, तथा हर समय उन्हें मरने का संशय बना रहता है।८५।
ज्ञा./३६/२७-६० का भावार्थ–हाय हाय ! पापकर्म के उदय से हम इस ( उपरोक्तवत् ) भयानक नरक में पड़े हैं।२७। ऐसा विचारते हुए वज्राग्नि के समान सन्तापकारी पश्चात्ताप करते हैं।२८। हाय हाय ! हमने सत्पुरुषों व वीतरागी साधुओं के कल्याणकारी उपदेशों का तिरस्कार किया है।२९-३३। मिथ्यात्व व अविद्या के कारण विषयान्ध होकर मैंने पाँचों पाप किये।३४-३७। पूर्वभवों में मैंने जिनको सताया है वे यहाँ मुझको सिंह के समान मारने को उद्यत है।३८-४०। मनुष्य भव में मैंने हिताहित का विचार न किया, अब यहाँ क्या कर सकता हूँ।४१-४४। अब किसकी शरण में जाऊँ।४५। यह दु:ख अब मैं कैसे सहूँगा।४६। जिनके लिए मैंने पाप कार्य किये वे कुटुम्बीजन अब क्यों आकर मेरी सहायता नहीं करते।४७-५१। इस संसार में धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सहायक नहीं।५२-५९। इस प्रकार निरन्तर अपने पूर्वकृत पापों आदि का सोच करता रहता है।६०।
- नारकियों के शरीर की विशेषताएँ
- जन्मने व पर्याप्त होने सम्बन्धी
ति.प./२/३१३ पावेण णिरयबिले जादूणं ता मुहुत्तगं मेत्ते। छप्पज्जत्ती पाविय आकस्मियभयजुदो होदि।३१३। =नारकी जीव पाप से नरक बिल में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्र में छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर आकस्मिक भय से युक्त होता है। (म.पु./१०/३४)
म.पु./१०/३३ तत्र वीभत्सुनि स्थाने जाले मधुकृतामिव। तेऽधोमुखा प्रजायन्ते पापिनामुन्नतिं कुत:।३३। =उन पृथिवियों में वे जीव मधु-मक्खियों के छत्ते के समान लटकते हुए घृणित स्थानों में नीचे की ओर मुख करके पैदा होते हैं।
- शरीर की अशुभ प्रकृति
स.सि./३/३/२०७/४ देहाश्च तेषामशुभनामकर्मोदयादत्यन्ताशुभतरा विकृताकृतयो हुण्डसंस्थाना दुर्दर्शना:। =नारकियों के शरीर अशुभ नामकर्म के उदय से होने के कारण उत्तरोत्तर (आगे-आगे की पृथिवियों में) अशुभ हैं। उनकी विकृत आकृति है, हुंडक संस्थान है, और देखने में बुरे लगते हैं। (रा.वा./३/३/४/१६४/१२), (ह.पु./४/३६८), (म.पु./१०/३४,९५), (विशेष देखें - उदय / ६ / ३ )
- वैक्रियक भी वह मांसादि युक्त होता है
रा.वा./३/३/४/१६४/१४ यथेह श्लेष्ममूत्रपुरीषमलरुधिरवसामेद: पूयवमनपूतिमांसकेशास्थिचर्माद्यशुभमौदारिकगतं ततोऽप्यतीवाशुभत्वं नारकाणां वैक्रियकशरीरत्वेऽपि। =जिस प्रकार के श्लेष्म, मूत्र, पुरीष, मल, रुधिर, वसा, मेद, पीप, वमन, पूति, मांस, केश, अस्थि, चर्म अशुभ सामग्री युक्त औदारिक शरीर होता है, उससे भी अतीव अशुभ इस सामग्री युक्त नारकियों का वैक्रियक भी शरीर होता है। अर्थात् वैक्रियक होते हुए भी उनका शरीर उपरोक्त वीभत्स सामग्रीयुक्त होता है।
- इनके मूँछ दाढ़ी नहीं होती
बो.पा./टी./३२ में उद्धृत-देवा वि य नेरइया हलहर चक्की य तह य तित्थयरा। सव्वे केसव रामा कामा निक्कुंचिया होंति।१।–सभी देव, नारकी, हलधर, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर, प्रतिनारायण, नारायण व कामदेव ये सब बिना मूँछ दाढ़ी वाले होते हैं।
- इनके शरीर में निगोद राशि नहीं होती
ध.१४/५,६,९१/८१/८ पुढवि-आउ-तेज-वाउक्काइया देव-णेरइया आहारसरीरा पमत्तसंजदा सजोगिअजोगिकेवलिणो च पत्तेयसरीरा वुच्चंति; एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो।=पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, देव, नारकी, आहारकशरीर, प्रमत्तसंयत, सयोगकेवली और अयोगकेवली ये जीव प्रत्येक शरीर वाले होते हैं; क्योंकि, इनका निगोद जीवों के साथ सम्बन्ध नहीं होता।
- छिन्न-भिन्न होने पर वह स्वत: पुन: पुन: मिल जाता है
ति.प./२/३४१ करवालपहरभिण्णं कूवजलं जह पुणो वि संघडदि। तह णारयाण अंगं छिज्जंतं विविहसत्थेहिं।३४१। =जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ कुएँ का जल फिर से भी मिल जाता है, इसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से छेदा गया नारकियों का शरीर भी फिर से मिल जाता है।; (ह.पु./४/३६४); (म.पु./१०/३९); (त्रि.सा./१९४) (ज्ञा./३६/८०)।
- आयु पूर्ण होने पर वह काफूरवत् उड़ जाता है
ति.प./२/३५३ कदलीघादेण विणा णारयगत्ताणि आउअवसाणे। मारुदपहदब्भाइ व णिस्सेसाणिं विलीयंते।३५३। =नारकियों के शरीर कदलीघात के बिना ( देखें - मरण / ४ ) आयु के अन्त में वायु से ताड़ित मेघों के समान नि:शेष विलीन हो जाते हैं। (त्रि.सा./१९६)।
- नरक में प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियों के ही शरीर की विक्रिया है
ति.प./२/३१८-३२१ चक्कसरसूलतोमरमोग्गरकरवत्तकोंतसूईणं। मुसलासिप्पहुदीणं वणणगदावाणलादीणं ।३१८। वयवग्घतरच्छसिगालसाणमज्जालसीहपहुदीणं। अण्णोण्णं चसदा ते णियणियदेहं विगुव्वंति।३१९। गहिरबिलधूममारुदअइतत्तकहल्लिजंतचुल्लीणं। कंडणिपीसणिदव्वीण रूवमण्णे विकुव्वंति।३२०। सूवरवणग्गिसोणिदकिमिसरिदहकूववाइपहुदीणं। पुहुपुहुरूवविहीणा णियणियदेहं पकुव्वंति।३२१। =वे नारकी जीव चक्र, वाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोंत, भाला, सूई, मूसल, और तलवार इत्यादिक शस्त्रास्त्र; वन एवं पर्वत की आग; तथा भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष, शृगाल, कुत्ता, बिलाव, और सिंह, इन पशुओं के अनुरूप परस्पर में सदैव अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं।३१८-३१९। अन्य नारकी जीव गहरा बिल, धुआँ, वायु, अत्यन्त तपा हुआ खप्पर, यन्त्र, चूल्हा, कण्डनी, (एक प्रकार का कूटने का उपकरण), चक्की और दर्वी (बर्छी), इनके आकाररूप अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं।३२०। उपर्युक्त नारकी शूकर, दावानल, तथा शोणित और कीड़ों से युक्त सरित्, द्रह, कूप, और वापी आदिरूप पृथक्-पृथक् रूप से रहित अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं। (तात्पर्य यह कि नारकियों के अपृथक् विक्रिया होती है। देवों के समान उनके पृथक् विक्रिया नहीं होती।३२१। (स.सि./३/४/२०८/६); (रा.वा./३/४/१६५/४); (ह.पु./४/३६३); (ज्ञा./३६/६७); (वसु.श्रा./१६६); (और भी देखें - अगला शीर्षक )।
- छह पृथिवियों में आयुधों रूप विक्रिया होती है और सातवीं में कीड़ों रूप
रा.वा./२/४७/४/१५२/११ नारकाणां त्रिशूलचक्रासिमुद्गरपरशुभिण्डिपालाद्यनेकायुधैकत्वविक्रिवा–आ षष्ठया:। सप्तम्यां महागोकीटकप्रमाणलोहितकुन्थुरूपैकत्वविक्रिया। =छठे नरक तक के नारकियों के त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर, परशु, भिण्डिपाल आदि अनेक आयुधरूप एकत्व विक्रिया होती है ( देखें - वैक्रियक / १ )। सातवें नरक में गाय बराबर कीड़े लोहू, चींटी आदि रूप से एकत्व विक्रिया होती है।
- जन्मने व पर्याप्त होने सम्बन्धी
- नारकियों में सम्भव भाव व गुणस्थान आदि
- सदा अशुभ परिणामों से युक्त रहते हैं
त.सू./३/३ नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया:। =नारकी निरन्तर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना व विक्रिया वाले हैं। (विशेष देखें - लेश्या / ४ )।
- नरकगति में सम्यक्त्वों का स्वामित्व
ष.ख.१/१,१/सूत्र १५१-१५५/३९९-४०१ णेरइया अत्थि मिच्छाइट्ठी सासण-सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति।१५१। एवं जाव सत्तसु पुढवीसु।१५२। णेरइया असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि।१५३। एवं पढमाए पुढवीए णेरइआ।१५४। विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अत्थि।१५५। =नारकी जीव मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते हैं।१५१। इस प्रकार सातों पृथिवियों में प्रारम्भ के चार गुणस्थान होते हैं।१५२। नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं।१५३। इसी प्रकार प्रथम पृथिवी में नारकी जीव होते हैं।१५४। दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकी जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। शेष दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।१५५।
- नरकगति में गुणस्थानों का स्वामित्व
ष.ख.१/१,१/सू.२५/२०४ णेरइया चउट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइंट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठित्ति।२५।
ष.ख.१/१,१/सू.७९-८३/३१९-३२३ णेरइया मिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।७१। सासणसम्माइट्ठिसम्मामिच्छाइट्ठिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।८०। एवं पढमाए पुढवीए णेरइया।८१। विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया मिच्छाइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।८२। सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।८३। =मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में नारकी होते हैं।२५। नारकी जीव मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं।७९। नारकी जीव सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक ही होते हैं।८०। इसी प्रकार प्रथम पृथिवी में नारकी होते हैं।८१। दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक रहने वाले नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं।८२। पर वे (२-७ पृथिवी के नारकी) सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होते हैं।८३।
- मिथ्यादृष्टि से अन्य गुणस्थान वहाँ कैसे सम्भव है
ध.१/१,१,२५/२०५/३ अस्तु मिथ्यादृष्टिगुणे तेषां सत्त्वं मिथ्यादृष्टिषु तत्रोत्पत्तिनिमित्तमिथ्यात्वस्य सत्त्वात् । नेतरेषु तेषां सत्त्वं तत्रोत्पत्तिनिमित्तस्य मिथ्यात्वस्यासत्त्वादिति चेन्न, आयुषो बन्धमन्तरेण मिथ्यात्वाविरतिकषायाणां तत्रोत्पादनसामर्थ्याभावात् । न च बद्धस्यायुष: सम्यक्त्वान्निरन्वयविनाश: आर्षविरोधात् । न हि बद्धायुष: सम्यक्त्वं संयममिव न प्रतिपद्यन्ते सूत्रविरोधात् । =प्रश्न–मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नारकियों का सत्त्व रहा आवे, क्योंकि, वहाँ पर (अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में) नारकियों में उत्पत्ति का निमित्तकारण मिथ्यादर्शन पाया जाता है। किन्तु दूसरे गुणस्थान में नारकियों का सत्त्व नहीं पाया जाना चाहिए; क्योंकि, अन्य गुणस्थान सहित नारकियों में उत्पत्ति का निमित्त कारण मिथ्यात्व नहीं पाया जाता है। (अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही नरकायु का बन्ध सम्भव है, अन्य गुणस्थानों में नहीं) ? उत्तर–ऐसा नहीं है; क्योंकि, नरकायु के बन्ध बिना मिथ्यादर्शन, अविरत और कषाय की नरक में उत्पन्न कराने की सामर्थ्य नहीं है। (अर्थात् नरकायु ही नरक में उत्पत्ति का कारण है, मिथ्या, अविरति व कषाय नहीं)। और पहले बँधी हुई आयु का पीछे से उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन द्वारा निरन्वय नाश भी नहीं होता है; क्योंकि, ऐसा मान लेने पर आर्ष से विरोध आता है। जिन्होंने नरकायु का बन्ध कर लिया है, ऐसे जीव जिस प्रकार संयम को प्राप्त नहीं हो सकते हैं, उसी प्रकार सम्यक्त्व को भी प्राप्त नहीं होते, यह बात भी नहीं है; क्योंकि, ऐसा मान लेने पर भी सूत्र से विरोध आता है ( देखें - आयु / ६ / ७ )।
- वहाँ सासादन की सम्भावना कैसे है
ध.१/१,१,२५/२०५/८ सम्यग्दृष्टीनां बद्धायुषां तत्रोत्पत्तिरस्तीति सन्ति तत्रासंयतसम्यग्दृष्टय:, न सासादनगुणवतां तत्रोत्पत्तिस्तद्गुणस्य तत्रोत्पत्त्या सह विरोधात् । तहिं कथं तद्वतां तत्र सत्त्वमिति चेन्न, पर्याप्तनरकगत्या सहापर्याप्तया इव तस्य विरोधाभावात् । किमित्यपर्याप्तया विरोधश्चेत्स्वभावोऽयं, न हि स्वभावा: परपर्यनुयोगार्हा:। ...कथं पुनस्तयोस्तत्र सत्त्वमिति चेन्न, परिणामप्रत्ययेन तदुत्पत्तिसिद्धे:। =जिन जीवों ने पहले नरकायु का बन्ध किया है और जिन्हें पीछे से सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है, ऐसे बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टियों की नरक में उत्पत्ति है, इसलिए नरक में असंयत सम्यग्दृष्टि भले ही पाये जावें, परन्तु सासादन गुणस्थान वालों की मरकर नरक में उत्पत्ति नहीं हो सकती ( देखें - जन्म / ४ / १ ) क्योंकि सासादन गुणस्थान का नरक में उत्पत्ति के साथ विरोध है। प्रश्न–तो फिर, सासादन गुणस्थान वालों का नरक में सद्भाव कैसे पाया जा सकता है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार नरकगति में अपर्याप्त अवस्था के साथ सासादन गुणस्थान का विरोध है उसी प्रकार पर्याप्तावस्था सहित नरकगति के साथ सासादन गुणस्थान का विरोध नहीं है। प्रश्न–अपर्याप्त अवस्था के साथ उसका विरोध क्यों है ? उत्तर–यह नारकियों का स्वभाव है और स्वभाव दूसरों के प्रश्न के योग्य नहीं होते हैं। (अन्य गतियों में इसका अपर्याप्त काल के साथ विरोध नहीं है, परन्तु मिश्र गुणस्थान का तो सभी गतियों में अपर्याप्त काल के साथ विरोध है।) (ध.१/१,१,८०/३२०/८)। प्रश्न–तो फिर सासादन और मिश्र इन दोनों गुणस्थानों का नरक गति सत्त्व कैसे सम्भव है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, परिणामों के निमित्त से नरकगति की पर्याप्त अवस्था में उनकी उत्पत्ति बन जाती है।
- मर-मरकर पुन:-पुन: जो उठने वाले नारकियों की अपर्याप्तावस्था में भी सासादन व मिश्र मान लेने चाहिए ?
ध.१/१,१,८०/३२१/१ नारकाणामग्निसंबन्धाद्भस्मसाद्भावमुपगतानां पुनर्भस्मनि समुत्पद्यमानानामपर्याप्ताद्धायां गुणद्वयस्य सत्त्वाविरोधान्नियमेन पर्याप्ता इति न घटत इति चेन्न, तेषां मरणाभावात् । भावे वा न ते तत्रोत्पद्यन्ते।...आयुषोऽवसाने म्रियमाणानामेष नियमश्चेन्न, तेषामपमृत्योरसत्त्वात् । भस्मसाद्भावमुपगतानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्त्यनिमित्तत्वात् ।=प्रश्न–अग्नि के सम्बन्ध से भस्मीभाव को प्राप्त होने वाले नारकियों के अपर्याप्त काल में इन दो गुणस्थानों के होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए, इन गुणस्थानों में नारकी नियम से पर्याप्त होते हैं, यह नियम नहीं बनता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, अग्नि आदि निमित्तों से नारकियों का मरण नहीं होता है ( देखें - नरक / ३ / ६ )। यदि नारकियों का मरण हो जावे तो पुन: वे वहीं पर उत्पन्न नहीं होते हैं ( देखें - जन्म / ६ / ६ )। प्रश्न–आयु के अन्त में मरने वालों के लिए ही यह सूत्रोक्त (नारकी मरकर नरक व देवगति में नहीं जाता, मनुष्य या तिर्यंचगति में जाता है) नियम लागू होना चाहिए? उत्तर–नहीं, क्योंकि नारकी जीवों के अपमृत्यु का सद्भाव नहीं पाया जाता ( देखें - मरण / ४ ) अर्थात् नारकियों का आयु के अन्त में ही मरण होता है, बीच में नहीं। प्रश्न–यदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती तो जिनका शरीर भस्मीभाव को प्राप्त हो गया है, ऐसे नारकियों का, (आयु के अन्त में) पुनर्मरण कैसे बनेगा ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, देह का विकार आयुकर्म के विनाश का निमित्त नहीं है। (विशेष देखें - मरण / २ )।
- वहाँ सम्यग्दर्शन कैसे सम्भव है
ध.१/१,१,२५/२०६/७ तर्हि सम्यग्दृष्टयोऽपि तथैव सन्तीति चेन्न, इष्टत्वात् । सासादनस्येव सम्यग्दृष्टेरपि तत्रोत्पत्तिर्मा भूदिति चेन्न, प्रथमपृथिव्युत्पत्ति प्रति निषेधाभावात् । प्रथमपृथिव्यामिव द्वितीयादिषु पृथिवीषु सम्यग्दृष्टय: किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यक्त्वस्य तत्रतन्यापर्याप्ताद्धया सह विरोधात् ।=प्रश्न–तो फिर सम्यग्दृष्टि भी उसी प्रकार होते हैं ऐसा मानना चाहिए। अर्थात् सासादन की भाँति सम्यग्दर्शन की भी वहाँ उत्पत्ति मानना चाहिए ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, यह बात तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् सातों पृथिवियों की पर्याप्त अवस्था में सम्यग्दृष्टियों का सद्भाव माना गया है। प्रश्न–जिस प्रकार सासादन सम्यग्दृष्टि नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टियों की भी मरकर वहाँ उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए? उत्तर–सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम पृथिवी में उत्पन्न होते हैं, इसका आगम में निषेध नहीं है। प्रश्न–जिस प्रकार प्रथम पृथिवी में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार द्वितीयादि पृथिवियों में भी सम्यग्दृष्टि क्यों उत्पन्न नहीं होते हैं ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, द्वितीयादि पृथिवियों की अपर्याप्तावस्था के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है।
- सासादन मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते। इसका हेतु
ध.१/१,१,८३/३२३/९ भवतु नाम सम्यग्मिथ्यादृष्टेस्तत्रानुत्पत्ति:। सम्यग्मिथ्यात्वपरिणाममधिष्ठितस्य मरणाभावात् ।...किन्त्वेतन्न युज्यते शेषगुणस्थानप्राणिनस्तत्र नोत्पद्यन्त इति। न तावत् सासादनस्तत्रोत्पद्यते तस्य नरकायुषो बन्धाभावात् । नापि बद्धनरकायुष्क: सासादनं प्रतिपद्य नारकेषूत्पद्यते तस्य तस्मिन् गुणे मरणाभावात् । नासंयतसम्यग्दृष्टयोऽपि तत्रोत्पद्यन्ते तत्रोत्पत्तिर्निमित्ताभावात् । न तावत्कर्मस्कन्धबहुत्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: कारणं क्षपितकर्मांशानामपि जीवानां तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि कर्मस्कन्धाणुत्वं तत्रोत्पत्ते: कारणं गुणितकर्मांशानामपि तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि नरकगतिकर्मण: सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: करणं तत्सत्त्वं प्रत्यविशेषत: सकलपञ्चेन्द्रियाणामपि नरकप्राप्तिप्रसङ्गात् । नित्यनिगोदानामपि विद्यमानत्रसकर्मणां त्रसेषूत्पत्तिप्रसङ्गात् । नाशुभलेश्यानां सत्त्वं तत्रोत्पत्ते: कारणं मरणावस्थायामसंयतसम्यग्दृष्टे: षट् सु पृथिविषूत्पत्तिनिमित्ताशुभलेश्याभावात् । न नरकायुष: सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: कारणं सम्यग्दर्शनासिना छिन्नषट्पृथिव्यायुष्कत्वात् । न च तच्छेदोऽसिद्ध: आर्षात्तत्सिद्धयुपलम्भात् । तत: स्थितमेतत् न सम्यग्दृष्टि: षट्मु पृथिवीषूत्पद्यत इति। =प्रश्न–समयग्मिथ्यादृष्टि जीव की मरकर शेष छह पृथिवियों में भी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणाम को प्राप्त हुए जीव का मरण नहीं होता है ( देखें - मरण / ३ )। किन्तु शेष (सासादन व असंयत सम्यग्दृष्टि) गुणस्थान वाले प्राणी (भी) मरकर वहाँ पर उत्पन्न नहीं होते, यह कहना नहीं बनता ? उत्तर–१. सासादन गुणस्थान वाले तो नरक में उत्पन्न ही नहीं होते हैं; क्योंकि, सासादन गुणस्थान वालों के नरकायु का बन्ध ही नहीं होता है ( देखें - प्रकृति बंध / ७ )। २. जिसने पहले नरकायु का बन्ध कर लिया है ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि नरकायु का बन्ध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण ही नहीं होता है। ३. असंयत सम्यग्दृष्टि जीव भी द्वितीयादि पृथिवियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों के शेष छह पृथिवियों में उत्पन्न होने के निमित्त नहीं पाये जाते हैं। ४. कर्मस्कन्धों की बहुलता को उसके लिए वहाँ उत्पन्न होने का निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, क्षपितकर्मांशिकों की भी नरक में उत्पत्ति देखी जाती है। ५. कर्मस्कन्धों की अल्पता भी उसके लिए वहाँ उत्पन्न होने का निमित्त नहीं है, क्योंकि, गुणितकर्मांशिकों की भी वहाँ उत्पत्ति देखी जाती है। ६. नरक गति नामकर्म का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पत्ति का निमित्त नहीं है; क्योंकि नरकगति के सत्त्व के प्रति कोई विशेषता न होने से सभी पंचेन्द्रिय जीवों की नरकगति की प्राप्ति का प्रसंग आ जायेगा। तथा नित्य निगोदिया जीवों के भी त्रसकर्म की सत्ता रहने के कारण उनकी त्रसों में उत्पत्ति होने लगेगी। ७. अशुभ लेश्या का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पन्न होने का निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, मरण समय असंयत सम्यग्दृष्टि जीव के नीचे की छह पृथिवियों में उत्पत्ति की कारण रूप अशुभ लेश्याएँ नहीं पायी जातीं। ८. नरकायु का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पत्ति का कारण नहीं है; क्योंकि, सम्यग्दर्शन रूपी खङ्ग से नीचे की छह पृथिवी सम्बन्धी आयु काट दी जाती है। और वह आयु का कटना असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि, आगम से इसकी पुष्टि होती है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि नीचे की छह पृथिवियों में सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता।
- ऊपर के गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते
ति.प./२/२७४-२७५ ताण य पच्चक्खाणवरणोदयसहिदसव्वजीवाणं। हिंसाणंदजुदाणं णाणाविहसंकिलेसपउराणं।२७४। देसविरदादिउवरिमदसगुणठाणाण हेदुभूदाओ। जाओ विसोधियाओ कइया वि ण ताओ जायंति।२७५। =अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित, हिंसा में आनन्द मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दु:खों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दश गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं।२७४-२७५।
ध.१/१,१,२५/२०७/३ नोपरिमगुणानां तत्र संभवस्तेषां संयमासंयमसंयमपर्यायेण सह विरोधात् ।=इन चार गुणस्थानों (१-४ तक) के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्भाव नहीं है; क्योंकि, संयमासंयम, और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है।
- सदा अशुभ परिणामों से युक्त रहते हैं
- नरक लोक निर्देश
- नरक की सात पृथिवियों के नाम निर्देश
त.सू./३/१ रत्नशर्कराबालुकापङ्कधूमतमोमहातम:प्रभाभूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठा: सप्ताधोऽध:।१। =रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, और महातम:प्रभा, ये सात भूमियाँ घनाम्बुवात अर्थात् घनोदधि वात और आकाश के सहारे स्थित हैं तथा क्रम से नीचे हैं। (ति.प./१/१५२); (ह.पु./४/४३-४५); (म.पु./१०/३१); (त्रि.सा./१४४); (ज.प./११/११३)।
ति.प./१/१५३ घम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं गोत्तणाभाणि।१५३। =इन पृथिवियों के अपर रूढि नाम क्रम से घर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी भी हैं।४६। (ह.पु./४/४६); (म.पु./१०/३२); (ज.प./११/१११-११२); (त्रि.सा./१४५)।
- अधोलोक सामान्य परिचय
ति.प./२/९,२१,२४-२५ खरपंकप्पबहुलाभागा रयणप्पहाए पुढवीए।९। सत्त चियभूमीओ णवदिसभाएण घणोवहि विलग्गा। अट्ठमभूमी दसदिसभागेसु घणोवहि छिवदि।२४। पुव्वापरदिब्भाए वेत्तासणसंणिहाओ संठाओ। उत्तर दक्खिणदीहा अणादिणिहणा य पुढवीओ।२५।
ति.प./१/१६४ सेढीए सत्तंसो हेट्ठिम लोयस्स होदि मुहवासो। भूमीवासो सेढीमेत्ताअवसाण उच्छेहो।१६४। =अधोलोक में सबसे पहले रत्नप्रभा पृथिवी है, उसके तीन भाग हैं–खरभाग, पंकभाग और अप्पबहुलभाग। (रत्नप्रभा के नीचे क्रम से शर्कराप्रभा आदि छ: पृथिवियाँ हैं।)।९। सातों पृथिवियों में ऊर्ध्वदिशा को छोड़ शेष नौ दिशाओं में घनोदधिवातवलय से लगी हुई हैं, परन्तु आठवीं पृथिवी दशों-दिशाओं में ही घनोदधि वातवलय को छूती है।२४। उपर्युक्त पृथिवियाँ पूर्व और पश्चिम दिशा के अन्तराल में वेत्रासन के सदृश आकारवाली हैं। तथा उत्तर और दक्षिण में समानरूप से दीर्घ एवं अनादिनिधन है।२५। (रा.वा./३/१/१४/१६१/१६); (ह.पु./४/६,४८); (त्रि.सा./१४४,१४६); (ज.प./११/१०६,११५)। अधोलोक के मुख का विस्तार जगश्रेणी का सातवाँ भाग (१ राजू), भूमि का विस्तार जगश्रेणी प्रमाण (७ राजू) और अधोलोक के अन्त तक ऊँचाई भी जगश्रेणीप्रमाण (७ राजू) ही है।१६४। (ह.पु./४/९), (ज.प./११/१०८)
ध.४/१,३,१/९/३ मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो।
ध.४/१,३,३/४२/२ चत्तारि-तिण्णि-रज्जुबाहल्लजगपदरपमाणा अधउड्ढलोगा।=मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है। चार राजू मोटा और जगत्प्रतरप्रयाण लम्बा चौड़ा अधोलोक है।
- पटलों व बिलों का सामान्य परिचय
ति.प./२/२८,३६ सत्तमखिदिबहुमज्झे बिलाणि सेसेसु अप्पबहुलं तं। उवरिं हेट्ठे जोयणसहस्समुज्झिय हवंति पडलकमे।२८। इंदयसेढी बद्धा पइण्णया य हवंति तिवियप्पा। ते सव्वे णिरयबिला दारुण दुक्खाणं संजणणा।३६। =सातवीं पृथिवी के तो ठीक मध्यभाग में ही नारकियों के बिल हैं। परन्तु ऊपर अब्बहुलभाग पर्यन्त शेष छह पृथिवियों में नीचे व ऊपर एक-एक हजार योजन छोड़कर पटलों के क्रम से नारकियों के बिल हैं।२८। वे नारकियों के बिल, इन्द्रक, श्रेणी बद्ध और प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकार के हैं। ये सब ही बिल नारकियों को भयानक दु:ख दिया करते हैं।३६। (रा.वा./३/२/२/१६२/१०), (ह.पु./४/७१-७२), (त्रि.सा./१५०), (ज.प./११/१४२)।
ध.१४/५,६,६४१/४९५/८ णिरयसेडिबाद्धणि णिरयाणि णाम। सेडिबद्धाणं मज्झिमणिरयावासा णिरइंदयाणि णाम। तत्थतणपइण्णया णिरयपत्थडाणि णाम। =नरक के श्रेणीबद्ध नरक कहलाते हैं, श्रेणीबद्धों के मध्य में जो नरकवास हैं वे नरकेन्द्रक कहलाते हैं। तथा वहाँ के प्रकीर्णक नरक प्रस्तर कहलाते हैं।
ति.प./२/९५,१०४ संखेज्जमिंदयाणं रुं दं सेढिगदाण जोयणया। तं होदि असंखेज्जं पइण्णयाणुभयमिस्सं च।९५। संखेज्जवासजुत्ते णिरय-विले होंति णारया जीवा। संखेज्जा णियमेणं इदरम्मि तहा असंखेज्जा।१०४। =इन्द्रक बिलों का विस्तार संख्यात योजन, श्रेणीबद्ध बिलों का असंख्यात योजन और प्रकीर्णक बिलों का विस्तार उभयमिश्र हैं, अर्थात् कुछ का संख्यात और कुछ का असंख्यात योजन है।९५। संख्यात योजनवाले नरक बिलों में नियम से संख्यात नारकी जीव तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों में असंख्यात ही नारकी जीव होते हैं।१०४। (रा.वा./३/२/२/१६३/११); (ह.पु./४/१६९-१७०); (त्रि.सा./१६७-१६८)।
त्रि.सा./१७७ वज्जघणभित्तिभागा वट्टतिचउरंसबहुविहायारा। णिरया सयावि भरिया सव्विदियदुक्खदाईहिं। =वज्र सदृश भीत से युक्त और गोल, तिकोने अथवा चौकोर आदि विविध आकार वाले, वे नरक बिल, सब इन्द्रियों को दु:खदायक, ऐसी सामग्री से पूर्ण हैं।
- बिलों में स्थित जन्मभूमियों का परिचय
ति.प./२/३०२-३१२ का सारार्थ–- इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों के ऊपर अनेक प्रकार की तलवारों से युक्त, अर्धवृत्त और अधोमुख वाली जन्मभूमियाँ हैं। वे जन्मभूमियाँ धर्मा (प्रथम) को आदि लेकर तीसरी पृथिवी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुम्भी, मुद्गलिका, मुद्गर, मृदंग, और नालि के सदृश हैं।३०२-३०३। चतुर्थ व पंचम पृथिवी में जन्मभूमियों का आकार गाय, हाथी, घोड़ा, भस्त्रा, अब्जपुट, अम्बरोष और द्रोणी जैसा है।३०४। छठी और सातवीं पृथिवी की जन्मभूमियाँ झालर (वाद्यविशेष), भल्लक (पात्रविशेष), पात्री, केयूर, मसूर, शानक, किलिंज (तृण की बनी बड़ी टोकरी), ध्वज, द्वीपी, चक्रवाक, शृगाल, अज, खर, करभ, संदोलक (झूला), और रीछ के सदृश हैं। ये जन्मभूमियाँ दुष्प्रेक्ष्य एवं महाभयानक हैं।३०५-३०६। उपर्युक्त नारकियों की जन्मभूमियाँ अन्त में करोंत के सदृश, चारों तरफ़ से गोल, मज्जवमयी (?) और भंयकर हैं।३०७। (रा.वा./३/२/२/१६३/१९); (ह.पु./४/३४७-३४९); (त्रि.सा./१८०)।
- उपर्युक्त जन्मभूमियों का विस्तार जघन्य रूप से ५ कोस, उत्कृष्ट रूप से ४०० कोस, और मध्यम रूप से १०-१५ कोस है।३०९। जन्मभूमियों की ऊँचाई अपने-अपने विस्तार की अपेक्षा पाँचगुणी है।३१०।(ह.पु./४/३५१)। (और भी देखें - नीचे ह .पु. व त्रि.सा.)।
- ये जन्मभूमियाँ ७,३,२,१ और ५ कोणवाली हैं।३१०। जन्मभूमियों में १,२,३,५ और ७ द्वार-कोण और इतने ही दरवाजे होते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था केवल श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों में ही है।३११। इन्द्रक बिलों में ये जन्मभूमियाँ तीन द्वार और तीन कोनों से युक्त हैं। (ह.पु./४/३५२)
ह.पु./४/३५० एकद्वित्रिकगव्यूतियोजनव्याससङ्गता: शतयोजनविस्तीर्णास्तेषूत्कृष्टास्तु वर्णिता:।३५०। = वे जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोश और एक योजन विस्तार से सहित हैं। उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं, वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं।३५०।
त्रि.सा./१८० इगिवितिकोसो वासो जोयणमिव जोयणं सयं जेट्ठं। उट्ठादीणं बहलं सगवित्थारेहिं पंचगुणं।१८०।=एक कोश, दो कोश, तीन कोश, एक योजन, दो योजन, तीन योजन और १०० योजन, इतना घर्मांदि सात पृथिवियों में स्थित उष्ट्रादि आकार वाले उपपादस्थानों की क्रम से चौड़ाई का प्रमाण है।१८०। और बाहल्य अपने विस्तार से पाँच गुणा है।
- नरक भूमियों में दुर्गन्धि निर्देश
- बिलों में दुर्गन्धि
ति.प./२/३४ अजगजमहिसतुरंगमखरोट्ठमर्ज्जारअहिणरादीणं। कुधिदाणं गंधेहिं णिरयबिला ते अणंतगुणा।३४। =बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली, सर्प और मनुष्यादिक के सड़े हुए शरीरों के गन्ध की अपेक्षा वे नारकियों के बिल अनन्तगुणी दुर्गन्ध से युक्त होते हैं।३४। (ति.प./२/३०८); (त्रि.सा./१७८)।
- आहार या मिट्टी की दुर्गन्धि
ति.प./२/३४४-३४६ अजगजमहिसतुरंगमखरोट्ठमर्ज्जारमेसपहुदीणं। कुथिताणं गंधादो अणंतगंधो हुवेदि आहारो।३४४। घम्माए आहारो कोसस्सब्भंतरम्मि ठिदजीवे। इह मारदि गंधेणं सेसे कोसद्धवडि्ढया सत्ति।३४६। =नरकों में बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली और मैढ़े आदि के सड़े हुए शरीर की गन्ध से अनन्तगुणी दुर्गन्ध वाली (मिट्टी का) आहार होता है।३४४। धर्मा पृथिवी में जो आहार (मिट्टी) है, उसकी गन्ध से यहाँ पर एक कोस के भीतर स्थित जीव मर सकते हैं। इसके आगे शेष द्वितीयादि पृथिवियों में इसकी घातक शक्ति, आधा-आधा कोस और भी बढ़ती गयी है।३४६। (ह.पु./४/३४२); (त्रि.सा./१९२-१९३)।
- नारकियों के शरीर की दुर्गन्धि
म.पु./१०/१०० श्वमार्जारखरोष्ट्रादिकुणपानां समाहृतौ। यद्वैगन्ध्यं तदप्येषां देहगन्धस्य नोपमा।१००।=कुत्ता, बिलाव, गधा, ऊँट, आदि जीवों के मृत कलेवरों को इकट्ठा करने से जो दुर्गन्ध उत्पन्न होती है, वह भी इन नारकियों के शरीर की दुर्गन्ध की बराबरी नहीं कर सकती।१००।
- बिलों में दुर्गन्धि
- नरक बिलों में अन्धकार व भयंकरता
ति.प./२/गा.नं. कक्खकवच्छुरोदो खइरिगालातितिक्खसूईए। कुंजरचिक्कारादो णिरयाबिला दारुणा तमसहावा।३५। होरा तिमिरजुत्ता।१०२। दुक्खणिज्जामहाघोरा।३०६। णारयजम्मणभूमीओ भीमा य।३०७। णिच्चंधयारबहुला कत्थुरिहंतो अणंतगुणो।३१२।=स्वभावत: अन्धकार से परिपूर्ण ये नारकियों के बिल कक्षक (क्रकच), कृपाण, छुरिका, खदिर (खैर) की आग, अति तीक्ष्ण सूई और हाथियों की चिक्कार से अत्यन्त भयानक हैं।३५। ये सब बिल अहोरात्र अन्धकार से व्याप्त हैं।१०२। उक्त सभी जन्मभूमियाँ दुष्प्रेक्ष एवं महा भयानक हैं और भयंकर हैं।३०६-३०७। ये सभी जन्मभूमियाँ नित्य ही कस्तूरी से अनन्तगुणित काले अन्धकार से व्याप्त हैं।३१२।
त्रि.सा./१८६-१८७,१९१ वेदालगिरि भीमा जंतसुयक्कडगुहा य पडिमाओ। लोहणिहग्गिकणड्ढा परसूछुरिगासिपत्तवणं।१८६। कूडासामलिरुक्खा वइदरणिणदीउ खारजलपुण्णा। पुहरुहिरा दुगंधा हदा य किमिकोडिकुलकलिदा।१८७। विच्छियसहस्सवेयणसमधियदुक्खं धरित्तिफासादो।१९१। =वेताल सदृश आकृति वाले महाभयानक तो वहाँ पर्वत हैं और सैकड़ों दु:खदायक यन्त्रों से उत्कट ऐसी गुफाएँ हैं। प्रतिमाएँ अर्थात् स्त्री की आकृतियाँ व पुतलियाँ अग्निकणिका से संयुक्त लोहमयी हैं। असिपत्र वन है, सो फरसी, छुरी, खड्ग इत्यादि शस्त्र समान यन्त्रों कर युक्त है।१८६। वहाँ झूठे (मायामयी) शाल्मली वृक्ष हैं जो महादु:खदायक हैं। वेतरणी नामा नदी है सो खारा जलकर सम्पूर्ण भरी है। घिनावने रुधिरवाले महादुर्गन्धित द्रह हैं जो कोड़ों, कृमिकुल से व्याप्त हैं।१८७। हज़ारों बिच्छू काटने से जैसी यहाँ वेदना होती है उससे भी अधिक वेदना वहाँ की भूमि के स्पर्श मात्र से होती है।१९१। - नरकों में शीत-उष्णता का निर्देश
- पृथिवियों में शीत-उष्ण विभाग
ति.प./२/२९-३१ पढमादिबितिचउक्के पंचमपुढवाए तिचउक्कभागंतं। अदिउण्हा णिरयबिला तट्ठियजीवाण तिव्वदाधकरा।२९। पंचमिखिदिए तुरिमे भागे छट्टीय सत्तमे महिए। अदिसीदा णिरयबिला तट्ठिदजीवाण घोरसीदयरा।३०। वासीदिं लक्खाणं उण्हबिला पंचवीसिदिसहस्सा। पणहत्तारिं सहस्सा अदिसीदबिलाणि इगिलक्खं।३१। =पहली पृथिवी से लेकर पाँचवीं पृथिवी के तीन चौथाई भाग में स्थित नारकियों के बिल, अत्यन्त उष्ण होने से वहाँ रहने वाले जीवों को तीव्र गर्मी की पीड़ा पँहुचाने वाले हैं।२९। पाँचवीं पृथिवी के अवशिष्ट चतुर्थ भाग में तथा छठीं, सातवीं पृथिवी में स्थित नारकियों के बिल, अत्यन्त शीत होने से वहाँ रहने वाले जीवों को भयानक शीत की वेदना करने वाले हैं।३०। नारकियों के उपर्युक्त चौरासी लाख बिलों में से बयासी लाख पच्चीस हजार बिल उष्ण और एक लाख पचहत्तर हजार बिल अत्यन्त शीत हैं।३१। (ध.७/२,७,७८/गा.१/४०५), (ह.पु./४/३४६), (म.पु./१०/९०), (त्रि.सा./१५२), (ज्ञा./३६/११)। - नरकों में शीत-उष्ण की तीव्रता
ति.प./२/३२-३३ मेरुसमलोहपिंडं सीदं उण्हे बिलम्मि पक्खित्तं। ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे मयणखंडं व।३२। मेरुसमलोहपिंडं उण्हं सीदे बिलम्मि पक्खित्तं। ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे लवणखंडं व।३३। =यदि उष्ण बिल में मेरु के बराबर लोहे का शीतल पिण्ड डाल दिया जाये, तो वह तलप्रदेश तक न पँहुचकर बीच में ही मैन (मोम) के टुकड़े के समान पिघलकर नष्ट हो जायेगा।३२। इसी प्रकार यदि मेरु पर्वत के बराबर लोहे का उष्ण पिण्ड शीत बिल में डाल दिया जाय तो वह भी तलप्रदेश तक नहीं पँहुचकर बीच में ही नमक के टुकड़े के समान विलीन हो जायेगा।३३। (भ.आ./मू./१५६३-१५६४), (ज्ञा./३६/१२-१३)।
- पृथिवियों में शीत-उष्ण विभाग
- सातों पृथिवियों की मोटार्इ व बिलों का प्रमाण
प्रत्येक कोष्ठक के अंकानुक्रम से प्रमाण– नं.१-२ ( देखें - नरक / ५ / १ )।
नं.३–(ति.प./२/९,२२), (रा.वा./३/१/८/१६०/१९), (ह.पु./४/४८,५७-५८), (त्रि.सा./१४६,१४७), (ज.प./११/११४,१२१-१२२)। नं.४–(ति.प./२/३७), (रा.वा./३/२/२/१६२/११), (ह.पु./४/७५), (त्रि.सा./१५३), (ज.प./११/१४५)।
नं.५,६––(ति.प./२/७७-७९,८२), (रा.वा./३/२/२/१६२/२५), (ह.पु./४/१०४,११७,१२८,१३७,१४४,१४९,१५०), (त्रि.सा./१६३-१६६)। नं.७–(ति.प./२/२६-२७), (रा.वा./३/२/२/१६२/५), (ह.पु./४/७३-७४), (म.पु./१०/९१), (त्रि.सा./१५१), (ज.प./११/१४३-१४४)।
- नरक की सात पृथिवियों के नाम निर्देश
नं. |
नाम १ |
अपर नाम २ |
मोटाई ३ |
बिलों का प्रमाण |
|||
|
|
|
|
४ इन्द्रक |
श्रेणीबद्ध ५ |
प्रकीर्णक ६ |
कुल बिल ७ |
|
|
|
योजन |
|
|
|
|
१ |
रत्नप्रभा |
धर्मा |
१३ |
४४२० |
२९९५५६७ |
३० लाख |
|
|
खरभाग |
|
१६,००० |
|
|
|
|
|
पंक भाग |
|
८४,००० |
|
|
|
|
|
अब्बहुल |
|
८०,००० |
|
|
|
|
२ |
शर्करा |
वंशा |
३२,००० |
११ |
२६८४ |
२४७९३०५ |
२५ लाख |
३ |
बालुका |
मेघा |
२८,००० |
९ |
१४७६ |
१४९८५१५ |
१५ लाख |
४ |
पंक प्र. |
अंजना |
२४,००० |
७ |
७०० |
९९९२९३ |
१० लाख |
५ |
धूम प्र. |
अरिष्टा |
२०,००० |
५ |
२६० |
२९९७३५ |
३ लाख |
६ |
तम प्र. |
मघवी |
१६,००० |
३ |
६० |
९९९३२ |
९९९९५ |
७ |
महातम |
माघवी |
८,००० |
१ |
४ |
× |
५ |
४९ |
९६०४ |
८३९०३४७ |
८४ लाख |
- सातों पृथिवियों के बिलों का विस्तार
देखें - नरक / ५ / ४ (सर्व इन्द्रक बिल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं। सर्व श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। प्रकीर्णक बिल संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले भी।
कोष्ठक नं.१=(देखें - ऊपर कोष्ठक नं .७)। कोष्ठक नं.२-५–(ति.प./२/९६-९९,१०३), (रा.वा./३/२/२/१६३/१३), (ह.पु./४/१६१-१७०), (त्रि.सा./१६७-१६८)।
कोष्ठक नं.६-८–(ति.प./२/१५७), (रा.वा./३/२/२/१६३/१५), (ह.पु./४/२१८-२२४), (त्रि.सा./१७०-१७१)।
पृथिवियों का नं. |
कुल बिल
|
विस्तार की अपेक्षा बिलों का विभाग |
बिलों का बाहुल्य या गहराई |
|||||
संख्यात योजन |
असंख्यात योजन |
|||||||
|
|
इंद्रक |
प्रकीर्णक |
श्रेणीबद्ध |
प्रकीर्णक |
इंद्रक |
श्रेणीबद्ध |
प्रकीर्णक |
|
१ |
२ |
३ |
४ |
५ |
६ |
७ |
८ |
कोस |
कोस |
कोस |
||||||
१ |
३० लाख |
१३ |
५९९९८७ |
४४२० |
२३९५५८० |
१ |
४/३ |
७/३ |
२ |
२५ लाख |
११ |
४९९९८९ |
२६८४ |
१९९७३१६ |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0051.gif" alt="" width="8" height="39" /> |
२ |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0013.gif" alt="" width="8" height="39" /> |
३ |
१५ लाख |
९ |
२९९९९१ |
१४७६ |
११९८५२४ |
२ |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0014.gif" alt="" width="8" height="39" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image008_0014.gif" alt="" width="17" height="39" /> |
४ |
१० लाख |
७ |
१९९९९३ |
७०० |
७९९३०० |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image010_0011.gif" alt="" width="8" height="39" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image012_0022.gif" alt="" width="17" height="39" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image014_0009.gif" alt="" width="17" height="39" /> |
५ |
३ लाख |
५ |
५९९९५ |
२६० |
२३९७४० |
३ |
४ |
७ |
६ |
९९९९५ |
३ |
१९९९६ |
६० |
७९९३६ |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0014.gif" alt="" width="8" height="39" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image008_0015.gif" alt="" width="17" height="39" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image016_0007.gif" alt="" width="17" height="39" /> |
७ |
५ |
१ |
× |
४ |
× |
४ |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image018_0006.gif" alt="" width="17" height="39" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image020_0003.gif" alt="" width="17" height="39" /> |
|
८४ लाख |
४९ |
१६७९९५१ |
९६०४ |
६७१०३९६ |
|
|
|
- बिलों में परस्पर अन्तराल
- तिर्यक् अन्तराल
(ति.प./२/१००); (ह.पु./४/३५४); (त्रि.सा./१७५-१७६)।
- तिर्यक् अन्तराल
नं. |
बिल निर्देश |
जघन्य |
उत्कृष्ट |
|
|
योजन |
योजन |
१ |
संख्यात योजनवाले प्रकीर्णक |
१<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0052.gif" alt="" width="6" height="30" /> योजन |
३ योजन |
२ |
असंख्यात योजनवाले श्रेणीबद्ध व प्र० |
७००० यो० |
असं०यो० |
- स्वस्थान ऊर्ध्व अन्तराल
(प्रत्येक पृथिवी के स्व-स्व पटलों के मध्य बिलों का अन्तराल)।
(ति.प./२/१६७-१९४); (ह.पु./४/२२५-२४८); (त्रि.सा./१७२)।
नं. |
पृथिवी का नाम |
स्वस्थान अन्तराल |
||
इन्द्रकों का |
श्रेणीबद्धों का |
प्रकीर्णकों का |
||
१ |
रत्नप्रभा |
६४९९ यो.२<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0053.gif" alt="" width="12" height="30" /> को |
६४९९ यो.२<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0015.gif" alt="" width="6" height="31" /> को |
६४९९ यो. १<img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0015.gif" alt="" width="12" height="30" /> को |
२ |
शर्कराप्रभा |
२९९९ यो.४७००ध. |
२९९९ यो.३६००ध. |
२९९९ यो. ३०००ध. |
३ |
बालुकाप्रभा |
३२४९ यो.३५००ध. |
३२४९ यो.२०००ध. |
३२४८ यो. ५५००ध. |
४ |
पंकप्रभा |
३६६५ यो.७५००ध. |
३६६५ यो.५५५५<img src="JSKHtmlSample_clip_image008_0016.gif" alt="" width="9" height="31" />ध. |
३६६४ यो.७७२२<img src="JSKHtmlSample_clip_image010_0012.gif" alt="" width="9" height="31" />ध. |
५ |
धूमप्रभा |
४४४९ यो.५००ध. |
४४९८ यो.६०००ध. |
४४९७ यो.६५००ध. |
६ |
तम:प्रभा |
६९९८ यो.५५००ध. |
६९९८ यो.२०००ध. |
६९९६ यो.७५००ध. |
७ |
महातम:प्रभा |
बिलों के ऊपर तले पृथिवीतल की मोटाई |
||
३९९९ यो २<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0016.gif" alt="" width="6" height="31" /> को |
३९९९ यो <img src="JSKHtmlSample_clip_image012_0023.gif" alt="" width="6" height="30" /> को |
× |
- परस्थान ऊर्ध्व अन्तराल
(ऊपर की पृथिवी के अन्तिम पटल व नीचे की पृथिवी के प्रथम पटल के बिलों के मध्य अन्तराल), (रा.वा./३/१/८/१६०/२८); (ति.प./२/गा.नं.); (त्रि.सा./१७३-१७४)।
नं. |
ति.प./गा. |
ऊपर नीचे की पृथिवियों के नाम |
इन्द्रक |
श्रेणीबद्ध |
प्रकीर्णक |
१ |
१६८ |
रत्नप्रभा-शर्करा |
२०,९०००यो.कम १ राजू |
इन्द्रकोंवत् (ति.प./२/१८७-१८८) |
इन्द्रकोंवत् (ति.प./२/१९४) |
२ |
१७० |
शर्करा-बालुका |
२६००० यो.कम १ राजू |
||
३ |
१७२ |
बालुका-पंक |
२२००० यो.कम १ राजू |
||
४ |
१७४ |
पंक-धूम |
१८००० यो.कम १ राजू |
||
५ |
१७६ |
धूम-तम |
१४००० यो.कम १ राजू |
||
६ |
१७८ |
तम-महातम |
३००० यो.कम १ राजू |
||
७ |
× |
महातम- |
× |
- सातों पृथिवियों में पटलों के नाम व उनमें स्थित बिलों का परिचय
देखें - नरक / ५ / ८ / ३ सातों पृथिवियाँ लगभग एक राजू के अन्तराल से नीचे नीचे स्थित हैं।
देखें - नरक / ५ / ३ प्रत्येक पृथिवी नरक प्रस्तर या पटल है, जो एक-एक हजार योजन अन्तराल से ऊपर-नीचे स्थित है।
रा.वा./३/२/२/१६२/११ तत्र त्रयोदश नरकप्रस्तारा: त्रयोदशैव इन्द्रकनरकाणि सीमन्तकनिरय...। =तहाँ (रत्नप्रभा पृथिवी के अब्बहुल भाग में तेरह प्रस्तर हैं और तेरह ही नरक हैं, जिनके नाम सीमन्तक निरय आदि हैं।) अर्थात् पटलों के भी वही नाम हैं जो कि इन्द्रकों के हैं। इन्हीं पटलों व इन्द्रकों के नाम विस्तार आदि का विशेष परिचय आगे कोष्ठकों में दिया गया है।
कोष्ठक नं.१-४–(ति.प./२/४/४५); (रा.वा./३/२/२/१६२/११); (ह.पु./४/७६-८५); (त्रि.सा./१५४-१५९); (ज.प./११/१४६-१५५)।
कोष्ठक नं.५-८––(ति.प./२/३८,५५-५८); (ह.पु./४/८६-१५०); (त्रि.सा./१६३-१६५)।
कोष्ठक नं.९––(ति.प./२/१०८-१५६); (ह.पु./४/१७१-२१७), (त्रि.सा./१६९)।
नं. |
प्रत्येक पृथिवी के पटलों या इन्द्रकों के नाम |
प्रत्येक पटल में इन्द्रक |
प्रत्येक पटल की दिशा व विदिशा में श्रेणीबद्ध बिल |
प्रत्येक इन्द्रक का विस्तार |
|||||
ति.प. |
रा.वा. |
ह.पु. |
त्रि.सा. |
दिशा |
विदिशा |
कुल योग |
|||
|
१ |
२ |
३ |
४ |
५ |
६ |
७ |
८ |
९ |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
योजन |
१ |
रत्नप्रभा पृथिवी |
१३ |
|
|
४४२० |
|
१ |
सीमंतक |
सीमंतक |
सीमंतक |
सीमंतक |
१ |
४९ |
४८ |
३८८ |
४५ लाख |
२ |
निरय |
निरय |
नारक |
निरय |
१ |
४८ |
४७ |
३८० |
४४०८३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0054.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
३ |
रौरुक |
रौरुक |
रौरुक |
रौरव |
१ |
४७ |
४६ |
३७२ |
४३१६६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0017.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
४ |
भ्रान्त |
भ्रान्त |
भ्रान्त |
भ्रान्त |
१ |
४६ |
४५ |
३६४ |
४२२५००० |
५ |
उद्भ्रांत |
उद्भ्रांत |
उद्भ्रांत |
उद्भ्रांत |
१ |
४५ |
४४ |
३५६ |
४१३३३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0055.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
६ |
संभ्रान्त |
संभ्रान्त |
संभ्रान्त |
संभ्रान्त |
१ |
४४ |
४३ |
३४८ |
४०४१६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0018.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
७ |
असंभ्रान्त |
असंभ्रान्त |
असंभ्रान्त |
असंभ्रान्त |
१ |
४३ |
४२ |
३४० |
३९५०००० |
८ |
विभ्रान्त |
विभ्रान्त |
विभ्रान्त |
विभ्रान्त |
१ |
४२ |
४१ |
३३२ |
३८५८३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0056.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
९ |
तप्त |
तप्त |
त्रस्त |
त्रस्त |
१ |
४१ |
४० |
३२४ |
३७६६६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0019.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
१० |
त्रसित |
त्रस्त |
त्रसित |
त्रसित |
१ |
४० |
३९ |
३१६ |
३६७५००० |
११ |
वक्रान्त |
व्युत्क्रान्त |
वक्रान्त |
वक्रान्त |
१ |
३९ |
३८ |
३०८ |
३५८३३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0057.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
१२ |
अवक्रान्त |
अवक्रान्त |
अवक्रान्त |
अवक्रान्त |
१ |
३८ |
३७ |
३०० |
३४९१६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0020.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
१३ |
विक्रान्त |
विक्रान्त |
विक्रान्त |
विक्रान्त |
१ |
३७ |
३६ |
२९२ |
३४००००० |
२ |
शर्करा प्रभा |
११ |
|
|
२६८४ |
|
||||
१ |
स्तनक |
स्तनक |
तरक |
तरक |
१ |
३६ |
३५ |
२८४ |
३३०८३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0058.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
|
२ |
तनक |
संस्तनक |
स्तनक |
स्तनक |
१ |
३५ |
३४ |
२७६ |
३२१६६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0021.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
|
३ |
मनक |
वनक |
मनक |
वनक |
१ |
३४ |
३३ |
२६८ |
३१२५००० |
|
४ |
वनक |
मनक |
वनक |
मनक |
१ |
३३ |
३२ |
२६० |
३०३३३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0059.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
|
५ |
घात |
घाट |
घाट |
खडा |
१ |
३२ |
३१ |
२५२ |
२९४१६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0022.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
|
६ |
संघात |
संघाट |
संघाट |
खडिका |
१ |
३१ |
३० |
२४४ |
२८५०००० |
|
७ |
जिह्वा |
जिह्व |
जिह्वा |
जिह्वा |
१ |
३० |
२९ |
२३६ |
२७५८३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0060.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
|
८ |
जिह्वक |
उज्जिह्वि |
जिह्वक |
जिह्विक |
१ |
२९ |
२८ |
२२८ |
२६६६६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0023.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
|
९ |
लोल |
कालोल |
लोल |
लौकिक |
१ |
२८ |
२७ |
२२० |
२५७५००० |
|
१० |
लोलक |
लोलुक |
लोलुप |
लोलवत्स |
१ |
२७ |
२६ |
२१२ |
२४८३३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0061.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
|
११ |
स्तन-लोलुक |
स्तन-लोलुक |
स्तन-लोलुक |
स्तन-लोलुक |
१ |
२६ |
२५ |
२०४ |
२३९१६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0024.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
|
३ |
बालुका प्रभा |
|
|
|
९ |
|
|
१४७६ |
|
१ |
तप्त |
तप्त |
तप्त |
तप्त |
१ |
२५ |
२४ |
१९६ |
२३००००० |
२ |
शीत |
त्रस्त |
तपित |
तपित |
१ |
२४ |
२३ |
१८८ |
२२०८३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0062.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
३ |
तपन |
तपन |
तपन |
तपन |
१ |
२३ |
२२ |
१८० |
२११६६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0063.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
४ |
तापन |
आतपन |
तापन |
तापन |
१ |
२२ |
२१ |
१७२ |
२०२५००० |
५ |
निदाघ |
निदाघ |
निदाघ |
निदाघ |
१ |
२१ |
२० |
१६४ |
१९३३३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0064.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
६ |
प्रज्वलित |
प्रज्वलित |
प्रज्वलित |
प्रज्वलित |
१ |
२० |
१९ |
१५६ |
१८४१६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0025.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
७ |
उज्जवलित |
उज्जवलित |
उज्जवलित |
उज्जवलित |
१ |
१९ |
१८ |
१४८ |
१७५०००० |
८ |
संज्वलित |
संज्वलित |
संज्वलित |
संज्वलित |
१ |
१८ |
१७ |
१४० |
१६५८३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0065.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
९ |
संप्रज्वलित |
संप्रज्वलित |
संप्रज्वलित |
संप्रज्वलित |
१ |
१७ |
१६ |
१३२ |
१५६६६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0026.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
४ |
पंकप्रभा― |
|
|
|
७ |
|
|
७०० |
|
१ |
आर |
आर |
आर |
आरा |
१ |
१६ |
१५ |
१२४ |
१४७५००० |
२ |
मार |
मार |
तार |
मारा |
१ |
१५ |
१४ |
११६ |
१३८३३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0066.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
३ |
तार |
तार |
मार |
तारा |
१ |
१४ |
१३ |
१०८ |
१२९१६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0027.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
४ |
तत्त्व |
वर्चस्क |
वर्चस्क |
चर्चा |
१ |
१३ |
१२ |
१०० |
१२००००० |
५ |
तमक |
वैमनस्क |
तमक |
तमकी |
१ |
१२ |
११ |
९२ |
११०८३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0067.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
६ |
वाद |
खड |
खड |
घाटा |
१ |
११ |
१० |
८४ |
१०१६६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0028.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
७ |
खडखड |
अखड |
खडखड |
घटा |
१ |
१० |
९ |
७६ |
९२५००० |
५ |
धूमप्रभा― |
|
|
|
५ |
|
|
२६० |
|
१ |
तमक |
तमो |
तम |
तमका |
१ |
९ |
८ |
६८ |
८३३३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0068.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
२ |
भ्रमक |
भ्रम |
भ्रम |
भ्रमका |
१ |
८ |
७ |
६० |
७४१६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0029.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
३ |
झषक |
झष |
झष |
झषका |
१ |
७ |
६ |
५२ |
६५०००० |
४ |
बाविल |
अन्ध |
अन्त |
अंधेंद्रा |
१ |
६ |
५ |
४४ |
५५८३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0069.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
५ |
तिमिश्र |
तमिस्र |
तमिस्र |
तिमिश्रका |
१ |
५ |
४ |
३६ |
४६६६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0030.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
६ |
तम:प्रभा |
|
|
|
३ |
|
|
६० |
|
१ |
हिम |
हिम |
हिम |
हिम |
१ |
४ |
३ |
२८ |
३७५००० |
२ |
वर्दल |
वर्दल |
वर्दल |
वार्दृल |
१ |
३ |
२ |
२० |
२८३३३३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0070.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
३ |
लल्लक |
लल्लक |
लल्लक |
लल्लक |
१ |
२ |
१ |
१२ |
१९१६६६<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0071.gif" alt="" width="6" height="30" /> |
७ |
महातम:प्रभा |
|
|
|
१ |
|
|
४ |
|
१ |
अवधिस्थान |
अप्रतिष्ठान |
अप्रतिष्ठित |
अवधिस्थान |
१ |
१ |
× |
४ |
१००,००० |