विमान
From जैनकोष
स.सि./४/१६/२४८/३ विशेषेणात्मस्थान् सुकृतिनो मानयन्तीति विमानानि। = जो विशेषतः अपने में रहने वाले जीवों को पुण्यात्मा मानते हैं वे विमान हैं। (रा.वा./४/१६/१/२२२/२९)।
ध.१४/५, ६, ६४१/४९५/६ बलहि–कूडसमण्णिदा पासादा विमाणाणि णाम। = बलभि और कूट से युक्त प्रासाद विमान कहलाते हैं।
- विमान के भेद
स.सि./४/१६/२४८/४ तानि विमानानि त्रिविधानि-इन्द्रकश्रेणीपुष्पप्रकीर्णभेदेन। = इन्द्रक, श्रेणिबद्ध और पुष्पप्रकीर्णक के भेद से विमान तीन प्रकार के हैं। (रा.वा./४/१६/१/२२२/३०)।
- स्वाभाविक व वैक्रियिक दोनों प्रकार के होते हैं
ति.प./८/४४२-४४३ याणविमाणा दुविहा विक्किरियाए सहावेण।४४२। ते विक्किरियाजादा याणविमाणा विणासिणो होंति। अविणासिणो य णिच्चं सहावजादा परमरम्मा।४४३। = ये विमान दो प्रकार हैं–एक विक्रिया से उत्पन्न हुए और दूसरे स्वभाव से।४४२। विक्रिया से उत्पन्न हुए वे यान विमान विनश्वर और स्वभाव से उत्पन्न हुए वे परम रम्य यान विमान नित्य व अविनश्वर होते हैं।४४३।
- इन्द्रक आदि विमान–दे. वह वह नाम।
- देव वाहनों की बनावट– देखें - स्वर्ग / ३ / ४ ।
- इन्द्रक आदि विमान–दे. वह वह नाम।