विवाह
From जैनकोष
- विवाह
रा.वा./७/२८/१/५५४/२२ सद्वेद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयात् विवहन कन्यावरणं विवाह इत्याख्यायते। = साता वेदनीय और चारित्रमोह के उदय से कन्या के वरण करने को विवाह कहते हैं।
- विवाह सम्बन्धी विधि विधान– देखें - संस्कार / २ ।
- विवाह सन्तानोत्पत्ति के लिए किया जाता है, विलास के लिए नहीं
म.पु./३८/१३४ संतानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो भजेत्। = केवल सन्तान उत्पन्न करने की इच्छा से ऋतुकाल में ही परस्पर कामसेवन करें।
- मामा फूफी आदि की सन्तान में परस्पर विवाह की प्रसिद्धि
ह.पु./३३/२९ स्वसारं प्रददौ तस्मै देवकी गुरुदक्षिणाम्। = कंसने गुरुदक्षिणास्वरूप वसुदेव को अपनी ‘देवकी’ नाम की बहन प्रदान कर दी। [यह देवकी वसुदेव के चचा देवसेन की पुत्री थी ] ।
म.पु./७/१०६ पितृष्वस्रीय एवायं तव भर्ता भविष्यति। = हे पुत्री ! वह ललितांग तेरी बुआ के ही पुत्र उत्पन्न हुआ है और वही तेरा भर्ता होगा।
म.पु./१०/१४३ चक्रिणोऽभयघोषस्य स्वस्रयोऽयं यतो युवा। ततश्चक्रिसुतानेन परिणिन्ये मनोरमा।१४३। = तरुण अवस्था को धारण करने वाला वह सुविधि अभयघोष चक्रवर्ती का भानजा था, इसलिए उसने उन्हें चक्रवर्ती की पुत्री मनोरमा के साथ विवाह किया था।१४३।
म.पु./७२/२२७-२३० का भावार्थ– (सोमदेव के–सोमदत्त सोमिल और सोमभूति ये तीन पुत्र थे। उन तीनों के मामा अग्निभूति के धनश्री, मित्रश्री और नागश्री नाम की तीन कन्याएँ थीं, जो उसने उपरोक्त तीनों पुत्रों के साथ-साथ परणा दीं।)
- चक्रवर्ती द्वारा म्लेच्छ कन्याओं का ग्रहण– देखें - प्रव्रज्या / १ / ३ ।
- गन्धर्व आदि विवाहों का निषेध
देखें - ब्रह्मचर्य / २ / ३ / २ परस्त्री त्याग व्रत की शुद्धि की इच्छा से गन्धर्व विवाह आदि नहीं करने चाहिए और न ही किन्हीं कन्याओं की निन्दा करनी चाहिए।
- धर्मपत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों का निषेध– देखें - स्त्री / १२ ।