विशुद्धि
From जैनकोष
साता वेदनीय के बन्ध में कारणभूत परिणाम विशुद्धि तथा असाता वेदनीय के बन्ध में कारणभूत संक्लेश कहे जाते हैं। जीव को प्रायः मरते समय उत्कृष्ट संक्लेश होता है। जागृत तथा साकारोपयोग की दशा में ही उत्कृष्ट संक्लेश या विशुद्धि सम्भव है।
- विशुद्धि व संक्लेश के लक्षण
स.सि./१/२४/१३०/८ तदावरणक्षयोपशमे सति आत्मनः प्रसादो विशुद्धिः। = मनःपर्यय ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम होने पर जो आत्मा में निर्मलता आती है उसे विशुद्धि कहते हैं। (रा.वा./१/२४-/८५/१९)।
ध.६/१, ९-७, २/१८०/६ असादबंधजोग्गपरिणामो संकिलेसो णाम। का विसोही। सादबंधजोग्गपरिणामो। उक्कस्सट्ठिदीदो उवरिमविदियादिट्ठिदीओ बंधमाणस्स परिणामो विसोहि त्ति उच्चदि, जहण्णट्ठिदी उवरिम–विदियादिट्ठिदीओ बंधमाणस्स परिणामो संकिलेसो त्ति के वि आइरिया भणंति, तण्ण घडदे। कुदो। जहण्णुक्कस्सट्ठिदिपरिणामे मोत्तूण सेसमज्झिमट्ठिदीणं सव्वपरिणामाणं पि संकिलेसविसोहित्तप्पसंगादो। ण च एवं, एक्कस्स परिणामस्स लक्खणभेदेण विणा दुभावविरेाहादो। = असाता के बन्धयोग्य परिणाम को संक्लेश कहते हैं और साता के बन्ध योग्य परिणाम को विशुद्धि कहते हैं। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि उत्कृष्ट स्थिति से अधस्तन स्थितियों को बाँधने वाले जीव का परिणाम ‘विशुद्धि’ इस नाम से कहा जाता है और जघन्य स्थिति से उपरिम द्वितीय तृतीय आदि स्थितियों को बाँधने वाले जीव का परिणाम संक्लेश कहलाता है। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है; क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के बँधने के योग्य परिणामों को छोड़कर शेष मध्यम स्थितियों के बाँधने योग्य सर्व परिणामों के भी संक्लेश और विशुद्धता का प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि एक परिणाम के लक्षण भेद के बिना द्विभाव अर्थात् दो प्रकार के होने का विरोध है।
ध.११/४, २, ६, १६९-१७०/३१४/६ अइतिव्वकसायाभावो मंदकसाओ विसुद्धदा त्ति घेत्तव्वा। तत्थ सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा सव्वविसुद्ध त्ति भणिदे सुट्ठुमंदसंकिलेसा त्ति धेत्तव्वं। जहण्णट्ठिदिबंधकारणजीवपरिणामो वा विसुद्धा णाम।....साद चउट्ठाणबंधएहिंतो सादस्सेव तिट्ठाणाणुभागबंधया जीवा संकिलिसट्ठदरा, कसाउक्कड्डा त्ति भणिदं होदि। = अत्यन्त तीव्र कषाय के अभाव में जो मन्द कषाय होती है, उसे विशुद्धता पद से ग्रहण करना चाहिए। (सूत्र में) साता वेदनीय के चतुःस्थानबन्धक जीव सर्वविशुद्ध हैं, ऐसा कहने पर ‘वे अतिशय मन्द संक्लेश से सहित हैं’ ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अथवा जघन्य स्थितिबन्ध का कारणस्वरूप जो जीव का परिणाम है उसे विशुद्धता समझना चाहिए।.......साता के चतुःस्थान बन्ध की अपेक्षा साता के ही त्रिस्थानानुभागबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं, अर्थात् वे उनकी अपेक्षा उत्कृष्ट कषाय वाले हैं, यह अभिप्राय है।
क.पा./४/३-२२/#30/15/13 को संकिलेसो णाम। कोह-माण-माया-लोहपरिणामविसेसो। = क्रोध, मान, माया, लोभरूप परिणाम विशेष को संक्लेश कहते हैं।
- संक्लेश व विशुद्धि स्थान के लक्षण
क.पा./५/४-२२/ञ्च्६१९/३८०/७ काणि विसोहिट्ठाणाणि। बद्धाणुभागसंतस्स घादहेदुजीवपरिणामो। = जीव के जो परिणाम बाँधे गये अनुभाग सत्कर्म के घात के कारण हैं, उन्हें विशुद्धिस्थान कहते हैं।
ध.११/४, २, ६, ५१/२०८/२ संपहि संकिलेसट्ठाणाणं विसोहिट्ठाणाणं च च को भेदो। परियत्तबाणियाणं साद-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सरआदेज्जादीणं सुभपयडीणं बंधकारणभूदकसायट्ठाणाणि विसोहिट्ठाणाणि, असाद-अथिर-असुह दुभग-दुस्सर्रें अणादेज्जादीणं परियत्तमाणियाणमसुहपयडीणं बंधकारणकसाउदयट्ठाणाणि संकलेसट्ठाणाणि त्ति एसो तेसिं भेदो।= प्रश्न–यहाँ संक्लेशस्थानों और विशुद्धिस्थानों में क्या भेद है? उत्तर–साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय आदिक परिवर्तमान शुभ प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत कषायस्थानों को विशुद्धिस्थान कहते हैं; और असाता, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय आदिक परिवर्तमान अशुभ प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत कषायों के उदयस्थानों को संक्लेशस्थान कहते हैं, यह उन दोनों में भेद है।
स.सा./आ./५३-५४ कषायविपाकोद्रेकलक्षणानि संक्लेशस्थानानि।....कषायविपाकानुद्रेकलक्षणानि विशुद्धिस्थानानि। = कषायों के विपाक की अतिशयता जिनका लक्षण है ऐसे जो संक्लेशस्थान तथा कषायों के विपाक की मन्दता जिनका लक्षण है ऐसे जो विशुद्धि स्थान....।
- वर्द्धमान व हीयमान स्थिति को संक्लेश व विशुद्धि कहना ठीक नहीं है
ध.६/१, ९-७, २/१८१/१ संकिलेसविसोहीणं वढ्ढमाण-हीयमाणलक्खणेण भेदो ण विरुज्झदि त्ति चे ण, वड्ढि-हाणि-धम्माणं परिणामत्तादो जीवदव्वावट्ठाणाणं परिणामंतरेसु असंभवाणं परिणामलक्खणत्तविरोहादो। = प्रश्न–वर्द्धमान स्थिति की संक्लेशक का और हीयमान स्थिति को विशुद्धि का लक्षण मान लेने से भेद विरोध को नहीं प्राप्त होता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, परिणाम स्वरूप होने से जीव द्रव्य में अवस्थान को प्राप्त और परिणामान्तरों में असम्भव ऐसे वृद्धि और हानि इन दोनों धर्मों के परिणामलक्षणत्व का विरोध है। विशेषार्थ–स्थितियों की वृद्धि और हानि स्वयं जीव के परिणाम हैं। जो क्रमशः संक्लेश और वृद्धिरूप परिणाम की वृद्धि और हानि से उत्पन्न होते हैं।.....स्थितियों की और संक्लेश विशुद्धि की वृद्धि और हानि में कार्य कारण सम्बन्ध अवश्य है, पर उनमें लक्षण लक्ष्य सम्बन्य नहीं माना जा सकता।]
- वर्द्धमान व हीयमान कषाय को मी संक्लेश विशुद्धि कहना ठीक नहीं
ध.६/१, ९-७, २/१८१/३ ण च कसायवड्ढो संकिलेसलक्खणं ट्ठिदिबंधउड्ढीए अण्णहाणुबबत्तीदो, विसोहिअद्वाए वड्ढमाणकसायस्स संकिलेस सत्तप्पसंगादो ण च विसोहिअद्धाए कसायउड्ढी णत्थि त्ति वोत्तुं जुत्तं, सादादीणं भुजगारबंधाभावप्पसंगा। ण च असादसादबंधाणं संकिलेसधिसोहीओ मोत्तूण अण्णकारणमत्थि अणुबलंभा। ण कसायउड्ढी असादबंधकारणं, तक्काले सादस्स बंधुवलंभा। ण हाणि, तिस्से वि साहारणत्तादो। = कषाय की वृद्धि भी संक्लेश नहीं हैं, क्योंकि १. अन्यथा स्थितिबन्ध की वृद्धि बन नहीं सकती और, २. विशुद्धि के काल में वर्द्धमान कषायवाले जीव के भी संक्लेशत्व का प्रसंग आता है। और विशुद्धि के काल में कषायों की वृद्धि नहीं होती है, ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर साता आदि के भुजगारबन्ध के अभाव का प्रसंग प्राप्त होगा । तथा असाता और साता इन दोनों के बन्ध का संक्लेश और विशुद्धि, इन दोनों को छोड़कर अन्य कोई कारण नहीं है, क्योंकि वैसा कोई कारण पाया नहीं जाता है। ३. कषायों की वृद्धि केवल असाता के बन्ध का कारण नहीं है, क्योंकि उसके अर्थात् कषायों की वृद्धि के काल में साता का बन्ध भी पाया जाता है। इसी प्रकार कषायों की हानि केवल साता के बन्ध का कारण नहीं है, क्योंकि वह भी साधारण है, अर्थात् कषायों की हानि के काल में भी असाता का बन्ध पाया जाता है।
ध.११/४ २, ६, ५१/२०८/६ वड्ढमाणकसाओ संकिलेसो, हायमाणो विसोहि त्ति किण्ण घेप्पदे। ण, संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणं संखाए सामणत्तप्पसंगादो। कुदो। जहण्णुक्कस्सपरिणामाणं जहाकमेण विसोहिसंकिलेसणियमदंसणादो। मज्झिमपरिणामाणं च संकिलेसविसोहिपक्खवुत्तिदंसणादो ण च संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणं संखाए समाणमत्थि-
१. सम्मत्तुप्पत्तीए सादद्धाणपरूवणं कादूण पुणो संकिलेसविसोहीणं परूवणं कुणमाणा वक्खाणाइरिया जाणावेंति जहा हायमाणकसाउदयट्ठाणाणि चेव विसोहिसण्णिदाणि त्ति भणिदे होदु णाम तत्थ तधाभावो, दंसण-चरित्तमोहक्खवणोवसामणासु पुव्विल्लसमए उदयमागदो अणुभागफद्दएहिंतो अणंतगुणहोणफद्दयाणमुदएण जादकसायउदयट्ठाणस्स विसोहित्तमुवगमादो। ण च एस णियमो संसारावत्थाए अत्थि, तत्थ छव्विहवड्ढिहाणीहि कसाउदयट्ठाणाणं उत्पत्तिदंसणादो। संसारावत्थाए वि अंतो मुहुत्तमणंतगुणहीणकमेण अणुभागफद्दयाणं उदओ अत्थि त्ति वुते होदु, तत्थ वि तधाभावं पडुच्च विसोहित्तब्भुवगमादो। ण च एत्थ अणंतगुणहीणफद्दयाणमुदएण उप्पण्णकसाउदयट्ठाणं विसोहि त्ति घेप्पदे, एत्थ एवंविहविवक्खा भावादो। किंतु सादबंधपाओग्गकसाउदयट्ठाणाणि विसोहो, असादबंधपाओग्गकसाउदयट्ठाणाणि संकिलेसो त्ति घेत्तव्यमण्णहा विसोहिट्ठाणाणमुक्कस्सट्ठिदीए थोवत्तविरोहादो त्ति। = प्रश्न–बढ़ती हुई कषाय की संक्लेश और हीन होती हुई कषाय को विशुद्धि क्यों नहीं स्वीकार करते? उत्तर–नहीं, क्योंकि ४. वैसा स्वीकार करने पर संक्लेश स्थानों और विशुद्धिस्थानों की संख्या के समान होने का प्रसंग आता है। कारण यह है कि जघन्य और उत्कृष्ट परिणामों के क्रमशः विशुद्धि और संक्लेश का नियम देखा जाता है, तथा मध्यम परिणामों का संक्लेश अथवा विशुद्धि के पक्ष में अस्तित्व देखा जाता है। परन्तु संक्लेश और विशुद्धिस्थानों में संख्या की अपेक्षा समानता है नहीं। प्रश्न–सम्यक्त्वोत्पत्ति में सातावेदनीय के अध्वान की प्ररूपणा करके पश्चात् संक्लेश व विशुद्धि की प्ररूपणा करते हुए व्याख्यानाचार्य यह ज्ञापित करते हैं कि हानि को प्राप्त होने वाले कषाय के उदयस्थानों की ही विशुद्धि संज्ञा है? उत्तर–वहाँ पर वैसा कथन ठीक है, क्योंकि ५. दर्शन और चारित्र मोह की क्षपणा व उपशामना में पूर्व समय में उदय को प्राप्त हुए अनुभागस्पर्धकों की अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुभागस्पर्धकों के उदय से उत्पन्न हुए कषायोदयस्थान के विशुद्धपना स्वीकार किया गया है। परन्तु यह नियम संसारावस्था में सम्भव नहीं है, क्योंकि वहाँ छह प्रकार की वृद्धि व हानियों से कषायोदयस्थान की उत्पत्ति देखी जाती है। प्रश्न–संसारावस्था में भी अन्तर्मुहूर्त काल तक अनन्तगुणे हीन क्रम से अनुभाग स्पर्धकों का उदय है ही? उत्तर–६. संसारावस्था में भी उनका उदय बना रहे, वहाँ भी उक्त स्वरूप का आश्रय करके विशुद्धता स्वीकार की गयी है। परन्तु यहाँ अनन्तगुणे हीन स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न कषायोदयस्थान को विशुद्धि नहीं ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि यहाँ इस प्रकार की विवक्षा नहीं है। किन्तु सातावेदनीय के बन्धयोग्य कषायोदय स्थानों को विशुद्धि और असातावेदनीय के बन्धयोग्य कषायोदयस्थानों को संक्लेश ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इसके बिना उत्कृष्ट स्थिति में विशुद्धिस्थानों की स्तोकता का विरोध है।
- दर्शन विशुद्धि–देखें - दर्शन विशुद्धि।
- जीवों में विशुद्धि व संक्लेश की तरतमता का निर्देश
ष.खं.११/४, २, ६/सूत्र १६७-१७४/३१२ तत्थ जे ते सादबंधा जीवा ते तिविहा-चउट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा विट्ठाणबंधा ।१६७। असादबंधा जीवा तिविहा विट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा चउट्ठाणबंधा त्ति ।१६८। सव्वविसुद्धा सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा।१६९। तिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्ठदरा।१७०। बिट्ठठाणबंधा जीवा। संकिलिट्ठदरा ।१७१। सव्वविसुहा असादस्स विट्ठाणबंधा जीवा ।१७२। तिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्ठदरा।१७३। चउट्ठाणबंधा जीवा संकि-लिट्ठदरा।१७४। = सातबन्धक जीव तीन प्रकार हैं-चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक।१६७। असातबन्धक जीव तीन प्रकार के हैं–द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक।१६८। सातावेदनीय चतुःस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध हैं।१६९। त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं।१७०। द्विस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं।१७१। असातावेदनीय के द्विस्थानबन्धक जीव सर्वविशुद्ध हैं।१७२। त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं।१७३। चतुःस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं।१७४।
- विशुद्धि व संक्लेश में हानिवृद्धि का क्रम
ध.६/१, ९-७-३/१८२/२ विसोहीओ उक्कस्सट्ठिदिम्हि थोवा होदूण गणणाए वड्ढमाणाओ आगच्छंति जाव जहण्णट्ठिदि त्ति। संकिलेसा पुण जहण्णट्ठिदिम्हि थोवा होदूण उवरि पक्खेउत्तरकमेण वड्ढमाणा गच्छंति जा उक्कस्सिट्ठिदि त्ति। तदो संकिलेसेहिंतो विसोहीओ पुधभूदाओ त्ति दट्ठव्वाओ। तदो ट्ठिदमेदं सादबंधजोग्गपरिणामो विसोहि त्ति। = विशुद्धियाँ उत्कृष्ट स्थिति में अल्प होकर गणना की अपेक्षा बढ़ती हुई जघन्य स्थिति तक चली आती हैं। किन्तु संक्लेश जघन्य स्थिति में अल्प होकर ऊपर प्रक्षेप उत्तर क्रम से, अर्थात् सदृश प्रचयरूप से बढ़ते हुए उत्कृष्ट स्थिति तक चले जाते हैं। इसलिए संक्लेशों से विशुद्धियाँ पृथग्भूत होती हैं; ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए। अतएव यह स्थित हुआ कि साता के बन्ध योग्य परिणाम का नाम विशुद्धि है।
ध.११/४, २, ६, ५१/२१०/१ तदो संकिलेसट्ठाणाणि जहण्णट्ठिदिप्पहुडि विसेसाहियवड्ढीए, उक्कस्सट्ठिदिप्पहुडि विसोहिट्ठाणाणि विसेसाहियवड्ढीए गच्छंति [र्क्तिें] विसोहिट्ठाणेहिंतो संकिलेसट्ठाणाणि विसेसाहियाणि त्ति सिद्धं। = अतएव संक्लेशस्थान जघन्य स्थिति से लेकर उत्तरोत्तर विशेष अधिक के क्रम से तथा विशुद्धिस्थान उत्कृष्टस्थिति से लेकर विशेष अधिक क्रम से जाते हैं। इसलिए विशुद्धिस्थानों की अपेक्षा संक्लेशस्थान विशेष अधिक है।
- द्विचरम समय में ही उत्कृष्ट संक्लेश सम्भव है
ष.खं.१०/४, २ ४/सूत्र ३०/१०७ दुचरिमतिचरिमसमए उक्कस्ससकिलेसं गदो।३०।
ध.१०/४, २, ४, ३०/पृष्ठ/पंक्ति दो समए मोत्तूण बहुसु समएसु णिरंतरमुक्कस्ससंकिलेसं किण्ण णीदो। ण एदे समए मोत्तूण णिरंतरमूक्कस्ससंकिलेसेण बहुकालमवट्ठाणाभावादो्। (१०७/५)। हेट्ठा पुणसव्वत्थ समयविरोहेण उक्कस्ससंकिलेसो चेव। (१०८/२)। = द्विचरम व त्रिचरम समय में उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त हुआ। प्रश्न–उक्त दो समयों को छोड़कर बहुत समय तक निरन्तर उत्कृष्ट संक्लेश को क्यों नहीं प्राप्त कराया गया। उत्तर–नहीं, क्योंकि इन दो समयों को छोड़कर निरन्तर उत्कृष्ट संक्लेश के साथ बहुत काल तक रहना सम्भव नहीं है।....चरम समय के पहिले तो सर्वत्र यथा समय उत्कृष्ट संक्लेश ही होता है।
- मारणान्तिक समुद्धात में उत्कृष्ट संक्लेश सम्भव नहीं
ध.१२/४, २, ७/३७८/३ मारणंतियस्स उक्कस्संकिलेसाभावेण उक्कस्सज गाभावेण य उक्कस्सदव्वसामित्तविरोहादो। = मारणान्तिक समुद्धात में जीव के न तो उत्कृष्ट संक्लेश होता है और न उत्कृष्ट योग ही होता है, अतएव वह उत्कृष्ट द्रव्य का स्वामी नहीं हो सकता।
- अपर्याप्त काल में उत्कृष्ट विशुद्धि सम्भव नहीं
ध.१२/४, २, ७, १३, ३८/३०/७ अप्पज्जत्तकाले सव्वुक्कस्सविसोही णत्थि। अपर्याप्तकाल में सर्वोत्कृष्टविशुद्धि नहीं होती है।
- जागृत साकारोपयोगी को ही उत्कृष्ट संक्लेश विशुद्धि सम्भव है
ध.११/४, २, ६, २०४/३३३/१ दंसणोवजोगकाले अइसंकिलेसविसोहीणमभावादो ।
ध.१२/४, २, ७, ३८/३०/८ सागार जागारद्धासु चेव सव्वुक्कस्सविसोहीयो सव्वुक्कस्ससंकिलेसा च होंति त्ति....। = दर्शनोपयोग के समय में अतिशय (सर्वोत्कृष्ट) संक्लेश और विशुद्धि का अभाव होता है। साकार उपयोग व जागृत समय में ही सर्वोत्कृष्ट विशुद्धियाँ व सर्वोत्कृष्ट संक्लेश होते हैं।