वात्सल्य
From जैनकोष
- वात्सल्य
पं.ध./उ./470 तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसां शमात्। वात्सल्यं तद्गुणोत्कर्षहेतवे सोद्यतं मनः।470। = दर्शनमोहनीय का उपशम होने से मन वचन काय के उद्धतपने के अभाव को भक्ति कहते हैं, तथा उनके गुणों के उत्कर्ष के लिए तत्पर मन को वात्सल्य कहते हैं।
- वात्सल्य अंग का व्यवहार लक्षण
मू.आ./263 चादुवण्णे संघे चदुगदिसंसारणित्थरणभूदे। वच्छल्लं कादव्वं वच्छे गावी जहा गिद्धी । = चतुर्गतिरूप संसार से तिरने के कारणभूत मुनि आर्यिका आदि चार प्रकार संघ में, बछड़े में गाय की प्रीति की तरह प्रीति करना चाहिए। यही वात्सल्य गुण है। - (विशेष देखें आगे प्रवचन वात्सल्य का लक्षण ) (पु.सि.उ./29)
भ.आ./वि./45/150/5 धर्मस्थेषु मातरि पितरि भ्रातरि वानुरागो वात्सल्यम्। = धार्मिक लोगों पर और माता-पिता भ्राता के ऊपर प्रेम रखना वात्सल्य गुण है।
चा.सा./5/3 सद्यः प्रसूता यथा गौर्वत्से स्निह्यति। तथा चातुर्वर्ण्ये संघेऽकृत्रिमस्नेहकरणं वात्सल्यम्। = जिस प्रकार तुरत की प्रसूता गाय अपने बच्चे पर प्रेम करती है,उसी प्रकार चार प्रकार के संघ पर अकृत्रिम या स्वाभाविक प्रेम करना वात्सल्य अंग कहा जाता है। - (देखें आगे शीर्षक सं - 4)
का.आ./मू./421 जो धम्मिएसु भत्ते अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए। पिय वयणं जप्पंतो वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ।221। = जो सम्यग्दृष्टि जीव प्रिय वचन बोलता हुआ अत्यन्त श्रद्धा से धार्मिक जनों में भक्ति रखता है तथा उनके अनुसार आचरण करता है, उस भव्य जीव के वात्सल्य गुण कहा है।
द्र.सं./टी./41/175/11 बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयाधारे चतुर्विधसंघे वत्से धेतुवत्पञ्चेन्द्रियविषयनिमित्तं पुत्रकलंत्रसुवर्णादिस्नेहवंद्धा यदकृत्रिमस्नेहकरणं तद्व्यवहारेण वात्सल्यं भण्यते। = बाह्य और अभ्यन्तर रत्नत्रय को धारण करने वाले मुनि आर्यिका श्रावक तथा श्राविका रूप चारों प्रकार के संघ में; जैसे गाय की बछड़े में प्रीति रहती है उसके समान, अथवा पाँचों इन्द्रियों के विषयों के निमित्त पुत्र, स्त्री, सुवर्ण आदि में जो स्नेह रहता है, उसके समान स्वाभाविक स्नेह करना, वह व्यवहारनय की अपेक्ष से वात्सल्य कहा जाता है।
पं.ध./उ./806 वात्सल्यं नाम दासत्वं सिद्धार्हद्विम्बवेश्मसु। संघे चतुविधे शास्त्रे स्वामिकार्ये सुभृत्यवत्। = स्वामी के कार्य में उत्तम सेवक की तरह सिद्ध प्रतिमा, जिनबिम्ब, जिनमन्दिर, चार प्रकार के संघ में और शास्त्र में जो दासत्व भाव रखना है, वही सम्यग्दृष्टि का वात्सल्य नामक अंग या गुण है।
देखें अगले शीर्षक में स सा.की व्याख्या-`त्रयाणां साधूनां' इस पद के दो अर्थ होते हैं। व्यवहार की अपेक्षा अर्थ करने पर आचार्य, उपाध्याय व साधु इन तीन साधुओं से वात्सल्य करना सम्यग्दृष्टि का गुण है। )
- वात्सल्य का निश्चय लक्षण
स.सा./मू./235 जो कुणदि वच्छलत्तं तियेह साहूण मोक्खमग्गम्मि। सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो। = जो (चेतयिता) मोक्षमार्ग में स्थित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप तीन साधकों या साधनों के प्रति (अथवा व्यवहार से आचार्य उपाध्याय और मुनि इन तीन साधुओं के प्रति) वात्सल्य करता है, वह वात्सल्यभाव से युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
रा.वा./6/24/1/529/15 जिनप्रणीतधर्मामृते नित्यानुरागता वात्सल्यम् । = जिन प्रणीत (रत्नत्रय) धर्मरूप अमृत के प्रति नित्य अनुराग करना वात्सल्य है। (म.पु./63/320); (चा.सा./5/3)
भ.आ./वि./45/150/5 वात्सल्यं, रत्नत्रयादरो व आत्मनः। = अथवा अपने रत्नत्रय धर्म में आदर करना वात्सल्य है।
पु.सि.उ./29 अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे। सर्वेष्वपि च सधर्मिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यम्। = मोक्षसुखकी सम्पदा के कारणभूत जैनधर्म में, अहिंसा में और समस्त ही उक्त धर्मयुक्त साधर्मी जनों में निरन्तर उत्कृष्ट वात्सल्य व प्रीति को अवलम्बन करना चाहिए।
द्र.सं./टी./41/176/10 निश्चयवात्सल्यं पुनस्तस्यैव व्यवहारवात्सल्यगुणस्य सहकारित्वेन धर्मे दृढत्वे जाते सति मिथ्यात्वरागादिसमस्तशुभाशुभाबहिर्भावेषु प्रीतिं त्यक्त्वा रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यसंवित्तिसंजातसदानन्दैक-लक्षणसुखामृतरसास्वादं प्रति प्रीतिकरणमेवेति सप्तमाङ्ग व्याख्यातम् । = पूर्वोक्त व्यवहार वात्सल्य गुण के सहकारीपने से जब धर्म में दृढता हो जाती है, तब मिथ्यात्व, राग आदि समस्त शुभ अशुभ बाह्य पदार्थों में प्रीति छोड़कर रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित परमस्वास्थ्य के अनुभव से उत्पन्न सदा आनन्दरूप सुखमय अमृत के आस्वाद के प्रति प्रीति का करना ही निश्चय वात्सल्य है। इस प्रकार सप्तम वात्सल्य अंग का व्याख्यान हुआ।
- प्रवचन वात्सल्य का लक्षण
स.सि./6/24/339/6 वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वम् । = जैसे गाय बछड़े पर स्नेह रखती है उसी प्रकार साधर्मियों पर स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व है। (भा.पा./टी./77/221/17)
रा.वा./6/24/13/530/20 यथा धेनुर्वत्से अकृ़त्रिमस्नेहमुत्पादयति तथा सधर्माणमवलोक्य्य तद्गतस्नेहाद्री-कृतचित्तता प्रवचनवत्सलत्वमित्युच्युते। यः सधर्मणि स्नेहः स एव प्रवचनस्नेहः इति । = जैसे गाय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह करती है उसी तरह धर्मिक जन को देखकर स्नेह से ओतप्रोत हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। जो धार्मिकों में स्नेह है वही तो प्रवचन स्नेह है।
ध.8/3, 41/90/7 तेसु अणुरागो आकंखा ममेदंभावो पवयणवच्छलदा णाम। = ( उक्त प्रवचनों अर्थात् सिद्धान्त या बारह अंगों में अथवा उनमें होने वाले देशव्रती महाव्रती व असंयतसम्यग्दृष्टियों में - (देखें प्रवचन )) जो अनुराग, आकांक्ष अथवा ममेदं बुद्धि होती है, उसका नाम प्रवचनवत्सलता है। (चा.सा./56/5)
- एक प्रवचनवात्सल्य से तीर्थंकर प्रकृति बन्ध सम्भावना में हेतु
ध.8/3, 41/90/8 तीए तित्थयरकम्मं बज्झइ। कुदो। पञ्चमहव्वदादिआगमत्थविसयसुक्कट्ठाणुरागस्स दंसणविसुज्झ-दादोहि अविणाभावादो ।
चा.सा./57/1 तेनैकेनापि तीर्थंकरनामकर्मबन्धो भवति । = उस एक प्रवचन वात्सल्य से ही तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध हो जाता है, क्योंकि पाँच महाव्रतादिरूप आगमार्थविषयक उत्कृष्ट अनुराग का दर्शनविशुद्धतादिकों के साथ अविनाभाव है। (चा.सा./57/1); (और भी.देखें भावना - 2)
- वात्सल्य रहित धर्म निरर्थक है
कुरल काव्य/8/7 अस्थिहीनं यथा कीटं सूर्यो दहति तेजसा। तथा दहति धर्मश्च प्रेमशून्यं नृकीटकम् ।7। = देखो, अस्थिहीन कीड़े को सूर्य किस तरह जला देता है। ठीक उसी तरह धर्मशीलता उस मनुष्य को जला डालती है जो प्रेम नहीं करता।