वीरसेन
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
- पञ्चस्तूप संघ के अन्वय में आप आर्यनन्दि के शिष्य और जिनसेन के गुरु थे। चित्रकूट निवासी ऐलाचार्य के निकट सिद्धान्त शास्त्रों का अध्ययन करके आप वाटग्राम (बड़ौदा) आ गए। वहाँ के जिनालय में षटखण्डागम तथा कषायपाहुड़ की आ. बप्पदेव कृत व्याख्या देखी जिससे प्रेरित होकर आपने इन दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर धवला तथा जयधवला नाम की विस्तृत टीकायें लिखीं। इनमें से जयधवला की टीका इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने ई.837 में पूरी की थी। धवला की पूर्ति के विषय में मतभेद है। कोई ई.816 में और कोई ई.781 में मानते हैं। हरिवंश पुराण में पुन्नाटसंघीय जिनषेण द्वारा जयधवलाकार जिनसेन का नामोल्लेख प्राप्त होने से यह बात निश्चित है कि शक 703 (ई.781) में उनकी विद्यमानता अवश्य थी। (देखें कोष - 2 में परिशिष्ट 1)। पुन्नाट संघ की गुर्वावली के साथ इसकी तुलना करने पर हम वीरसेन स्वामी को शक 690-741 (ई.770-827) में स्थापित कर सकते हैं। (जै./1/255), (ती./2/324)।
- माथुरसंघ की गुर्वावली के अनुसार आप रामसेन के शिष्य और देवसेन के गुरु थे। समय–वि.950-980 (ई.883-923)। (देखें इतिहास - 7.11)।
- लाड़बागड़ गच्छ की गुर्वावली के अनुसार आप ब्रह्मसेन के शिष्य और गुणसेन के गुरु थे। समय–वि.1105 (ई.1048)। (देखें इतिहास - 7.10)।
- ह.पु./43/श्लो.नं.- वटपुर नगर का राजा था।163। राजा मधु द्वारा स्त्री का अपहरण हो जाने पर पागल हो गया।177। तापस होकर तप किया, जिसके प्रभाव से धूमकेतु नाम का विद्याधर हुआ।221। यह प्रद्युम्न कुमार को हरण करने वाले धूमकेतु का पूर्व भव है।–देखें धूमकेतु ।
पुराणकोष से
महावीर का अपर नाम । मपु 74.3
(2) महापुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य के गुरु मुलसंघाधान्वय में सेनसंघ के एक आचार्य । ये कविवृन्दावन, लोकविर, काव्य के ज्ञाता और भट्टारक थे । इन्होंने षट्खण्डागम तथा कसायपाहुड इन सिद्धान्त ग्रन्थों की धवला, जयधवला टीकाएँ लिखी थी । सिद्धपद्धति ग्रन्थ की टीका का कर्ता भी इन्हें कहा गया है । महापुराण 1.55-58, 76. 527-528, प्रशस्ति 2-8, हरिवंशपुराण 1.39
(3) राजा मान्धाता का पुत्र और प्रतिमन्यु का पिता । पद्मपुराण 22.155
(4) वटपुर नगर का राजा । अपने यहाँ अयोध्या के राजा महापुराण के आने पर इसने उसका यथेष्ट सम्मान किया था । राजा महापुराण इसकी पत्नी चन्द्राभा पर आसक्त हो गया था । फलस्वरूप उसने छल-बल से चन्द्राभा को अपनी स्त्री बना ली थी । महापुराण द्वारा अपनी स्त्री का अप हरिवंशपुराण ण किये जाने से यह विच्छिन्न होकर आर्तध्यान से मरा और चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा । अन्त में मनुष्य पर्याय प्राप्त कर इसने तप किया । इस तय के प्रभाव से आयु के अन्त में मरकर यह धूमकेतु देव हुआ । पद्मपुराण 109.135-148, हरिवंशपुराण 43. 159-165, 171-177, 220-221