प्राणायाम
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
श्वास को धीरे-धीरे अन्तद खेंचना कुम्भक है, उसे रोके रखना पूरक है,और फिर धीरे-धीरे उसे बाहर छोड़ना रेचक है । ये तीनों मिलकर प्राणायाम संज्ञा को प्राप्त होते हैं । जैनेतर लोग ध्यान व समाधि में इसको प्रधान अंग मानते हैं, पर जैनाचार्य इसको इतनी महत्ता नहीं देते, क्योंकि चित्त की एकाग्रता हो जाने पर श्वास निरोध स्वतः होता है ।
- प्राणायाम सामान्य का लक्षण
म.पु./21/227 प्राणायामो भवेद् योगनिग्रहः शुभभावनः । = मन, वचन और काय इन तीनों योगों का निग्रह करना तथा शुभभावना रखना प्राणायाम कहलाता है ।
- प्राणायाम के तीन अंग
ज्ञा./29/3 त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः । पूरकः कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ।29। = पूर्वाचार्यों ने इस पवन के स्तम्भन स्वरूप प्राणायाम को लक्षण भेद से तीन प्रकार का कहा है - पूरक, कुम्भक और रेचक ।
- प्राणायाम का स्वरूप
ज्ञा./29/9 पर उद्धृत - समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः । नाभिमध्ये स्थिरीकृत्य रोधनं स तु कुम्भकः ।1। यत्कोष्ठादतियत्नेन नासाब्रह्मपुरातनैः । बहिःप्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः ।2।
ज्ञा./29/10,17 शनैः शनैर्मनोऽजस्रं वितन्द्रं सह वायुना । प्रवेश्य ह्रदयाम्भोजकर्णिकायां नियन्त्रयेत् ।10। अचिन्त्यमतिदुर्लक्ष्यं तन्मण्डलचतुष्टयम् । स्वसंवेद्यं प्रजायेत महाभ्यासात्कथंचन ।17। = जिस समय पवन को तालुरन्ध्र से खेंचकर प्राण को धारण करै, शरीर में पूर्णतया थामैं सो पूरक है, और नाभि के मध्य स्थिर करके रोके सो कुम्भक है, तथा जो पवन को कोठे से बड़े यत्न से बाहर प्रक्षेपण करे सो रेचक है, इस प्रकार नासिका ब्रह्म के जानने वाले ब्रह्म पुरुषों ने कहा है ।1-2। इस पवन का अभ्यास करने वाला योगी निष्प्रमादी होकर बड़े यत्न से अपने मन को वायु के साथ मन्द-मन्द निरन्तर हृदय कमल की कर्णिका में प्रवेश कराकर वहीं ही नियन्त्रण करै ।10। यह मण्डल का चतुष्टय (पृथ्वी आदि) है, सो अचिंत्य है, तथा दुर्लभ्य है, इस प्राणायाम के बड़े अभ्यास से तथा बड़े कष्ट से कोई प्रकार का अनुभव गोचर है ।17।
- ध्यान में प्राणायाम का स्थान - देखें पदस्थ ध्यान - 7.1 ।
- प्राणायाम के चार मण्डलों का नाम निर्देश
ज्ञा./29/18 तत्रादौ पार्थिवं ज्ञेयं वारुणं तदनन्तरम् । मरुत्पुरं ततः स्फीतं पर्यन्ते वह्निमण्डलम् ।18। =उन चारों में से प्रथम तौ पार्थिव मण्डल को जानना, पश्चात् वरुण (अप्) मण्डल जानना, तत्पश्चात् पवन मण्डल जानना और अन्त में बड़े हुए वह्नि मण्डल को जानना । इस प्रकार चारों के नाम और अनुक्रम हैं ।
- चारों मण्डलों का स्वरूप - देखें वह वह नाम ।
- मोक्षमार्ग में प्राणायाम कार्यकारी नहीं
रा.वा./9/27/23/627/ प्राणापानविनिग्रहो ध्यानमिति चेत्; न; ... प्राणापाननिग्रहे सति तदुद्भूतवेदनाप्रकर्षात् आश्वेव शरीरस्य पातः प्रस-ज्येत । तस्मान्मन्दमन्दप्राणापानप्रचारस्य ध्यानं युज्यते । = प्रश्न- श्वासोच्छ्वास के निग्रह को ध्यान कहना चाहिए ? उत्तर- नहीं, क्योंकि इसमें श्वासोच्छ्वास रोकने की वेदना से शरीरपात होने का प्रसंग है । इसलिए ध्यानावस्था में श्वासोच्छ्वास का प्रचार स्वाभाविक होना चाहिए ।
ज्ञा./30/4-9 सम्यक्समाधिसिद्धऽर्यं प्रत्याहारः प्रशस्यते । प्राणायामेन विक्षिप्तं मनः स्वास्थ्यं न विन्दति ।4। वायोः संचारचातुर्यमणि- माद्यङ्गसाधनम् । प्रायः प्रत्यूहबीजं स्यान्मुनेर्मुक्तिमभीप्सतः ।6। किमनेन प्रपञ्चेन स्वसंदेहार्त्तहेतुना । सुविचार्यैव तज्ज्ञेयं यन्मुक्ते- र्बीजमग्रिमम् ।7। संविग्नस्य प्रशान्तस्य वीतरागस्य योगिनः । वशीकृताक्षवर्गस्य प्राणायामों न शस्य से ।8। प्राणस्यायमने पीड़ा तस्यां स्यादार्त्तसंभवः । तेन प्रच्याव्यते नूनं ज्ञाततत्त्वोऽपि लक्षितः ।9। = प्राणायाम में पवन के साधन से विक्षिप्त हुआ मन स्वास्थ्य को नहीं प्राप्त होता, इस कारण भले प्रकार समाधि की सिद्धि के लिए प्रत्याहार करना प्रशस्त है ।4। पवन का चातुर्य शरीर को सूक्ष्म स्थूलादि करने रूप अंग का साधन है, इस कारण मुक्ति की वांछा करने वाले मुनि के प्रायः विघ्न का कारण है ।6। पवन संचार की चतुराई के प्रपंच से क्या लाभ, क्योंकि यह आत्मा को सन्देह और पीड़ा का कारण है । ऐसे भले प्रकार विचार करके मुक्ति का प्रधान कारण होय सो जानना चाहिए ।7। जो मुनि संसार देह और भोगों से विरक्त है, कषाय जिसके मन्द हैं, विशुद्ध भाव युक्त है, वीतराग और जितेन्द्रिय है, ऐसे योगी को प्राणायाम प्रशंसा करने योग्य नहीं ।8। प्राणायाम में प्राणों को रोकने से पीड़ा होती है, पीड़ा से आर्त ध्यान होता है । और उस आर्त ध्यान से तत्त्वज्ञानी मुनि भी अपने लक्ष्य से छुड़ाया जाता है ।9।
प.प्र./टी./2/162/274/8 न च परकल्पितवायुधारणारूपेण श्वासनासो ग्राह्यः । कस्मादिति चेत् वायुधारणा तावदीहापूर्विका, ईहा व मोहकार्यरूपो विकल्पः । स च मोहकारणं भवतीति । ... वायुधारणस्य च कार्यं ... न च मुक्तिरिति । यदि मुक्तिरपि भवति तर्हि वायुधारणा- कारकाणामिदानींतनपुरुषाणां मोक्षो किं न भवतीति भावार्थः । = पातंजलिमतवाले वायु धारणा रूप श्वासोच्छ्वास मानते हैं, वह ठीक नहीं है, क्योंकि वायु धारणा वांछापूर्वक होती है, और वांछा है वह मोह से उत्पन्न विकल्परूप है, वांछा मोह का कारण है ।... वायु धारणा से मुक्ति नहीं होती, क्योंकि वायु धारणा शरीर का धर्म है, आत्मा का नहीं । यदि वायु धारणा से मुक्ति होवे तो वायु धारणा को करने वालों को इस दुखम काल में मोक्ष क्यों न होवे ? अर्थात् कभी नहीं होती ।
- प्राणायाम शारीरिक स्वास्थ्य का कारण है ध्यान का नहीं
ज्ञा./29/100-101 कौतुकमात्रफलोऽयं परपुरप्रवेशो महाप्रयासेन । सिद्धऽयति न वा कथंचिन्महतामपि कालयोगेन ।100। ... समस्तरोगक्षयं वपुःस्थैर्यम् । पवनप्रचारचतुरः करोति योगी न संदेहः ।101। = यह पुर प्रवेश है सो कौतुक मात्र है फल जिसका ऐसा है, इसका पारमार्थिक फल कुछ भी नहीं है । और यह बड़े-बड़े तपस्वियों के भी बहुत काल में प्रयास करने से सिद्ध होता है ।100। समस्त रोगों का क्षय करके शरीर में स्थिरता करता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ।101।
प.प्र./टी./2/162/274/10 कुम्भकपूरकरेचकादिसंज्ञा वायुधारणा क्षणमात्रं भवत्येवात्र किंतु अभ्यासवशेन घटिकाप्रहरदिवसादिष्वपि भवति तस्य वायुधारणस्य च कार्यं देहारोगत्वलधुत्वादिकं न च मुक्तिरिति । = कुम्भक, पूरक और रेचक आदि वायु धारणा क्षणमात्र होती है, परन्तु अभ्यास के वश से घड़ी, पहर, दिवस आदि तक भी होती है । उस वायुधारणा का फल ऐसा है, देह अरोग्य होती है, सब रोग मिट जाते हैं, शरीर हलका हो जाता है, परन्तु इस वायु धारणा से मुक्ति नहीं होती है ।
- ध्यान में वायु निरोध स्वतः होता है, करना नहीं पड़ता
प.प्र./टी./2/162/274/5 यदायं जीवो रागादिपरभावशून्यनिर्विकल्पसमाधौ तिष्ठति तदायमुच्छ्वासरूपो वायुर्नासिकाछिद्रद्वयं वर्जयित्वा स्वयमेवानीहितवृत्त्या तालुप्रदेशे यत् केशात् शेषाष्टमभागप्रमाणं छिद्रं तिष्ठति तेन क्षणमात्रं दशमद्वारेण तदनन्तरं रन्ध्रेण कृत्वा निर्गच्छतीति । = जब यह जीव रागादि परभावों से शून्य निर्विकल्प समाधि में होता है, तब यह श्वासोच्छ्वास रूप पवन नासिका के दोनों छिद्रों को छोड़कर स्वयमेव अवांछीक वृत्ति से तालुवा के बाल की अनी के आठवें भाग प्रमाण अति सूक्ष्म छिद्र में (दसवें द्वार में) होकर बारीक निकलती है, नासा के छेद को छोड़कर तालुरन्ध्र में (छेद में) होकर निकलती है । वह संयमी के वायु का निरोध स्वयमेव स्वाभाविक होता है वांछा पूर्वक नहीं ।)
- प्राणायाम की कथंचित् उपादेयता व उसका कारण
ज्ञा./29/श्लोक नं. - सुनिर्णीतसुसिद्धान्तैः प्राणायामः प्रशस्यते । मुनि भिर्ध्यानसिद्धय्यर्थ स्थैर्यार्थं चान्तरात्मनः ।1। अतः साक्षात्स विज्य: पूर्वमेव मनीषिभिः । मनागप्यन्यथा शक्यो न कर्त्तु यत्तनिर्जयः ।2। शनैः शनैर्मनोऽजस्रं वितन्द्रः सह वायुना । प्रवेश्य ह्रदयाम्भोज- कर्णिकायां नियन्त्रयेत् ।10। विकल्पा न प्रसूयन्ते विषयाशा निवर्तते । अन्तः स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्ते स्थिरीकृते ।11। एवं भावयतः स्वान्ते यात्यविद्या क्षयं क्षयात् । विमदीस्युस्तथाक्षाणि कषायरिपुभिः समम् ।12। स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामावलम्बिनाम् । जगद्वृत्तं च निःशेषं प्रत्यक्षमिव जायते ।14। स्मरगरलमनोविजयं ... पवनप्रचार- चतुरः करोति योगी न संदेहः ।101। = भले प्रकार निर्णय रूप किया है सत्यार्थ सिद्धान्त जिन्होंने ऐसे मुनियों ने ध्यान की सिद्धि के तथा मन की एकाग्रता के लिए प्राणायाम प्रशंसनीय कहा है।1। ध्यान की सिद्धि के लिए, मन को एकाग्र करने के लिए पूर्वाचार्यों ने प्रशंसा की है । इसलिए बुद्धिमान् पुरुषों को विशेष प्रकार से जानना चाहिए, अन्यथा मन को जीतने में समर्थ नहीं हो सकते ।2। साधुओं को अप्रमत्त होकर प्राणवायु के साथ धीरे-धीरे अपने मन को अच्छी तरह भीतर प्रविष्ट करके ह्रदय की कर्णिका में रोकना चाहिए । इस तरह प्राणायाम के सिद्ध होने से चित्त स्थिर हो जाया करता है, जिससे कि अन्तरंग में संकल्प विकल्पों का उत्पन्न होना बन्द हो जाता है, विषयों की आशा निवृत्त हो जाती है, और अन्तरंग में विज्ञान की मात्रा बढ़ने लगती है ।10-11। और इस प्रकार मन वश करके भावना करते हुए पुरुष के अविद्या तो क्षणमात्र में क्षय हो जाती है, इन्द्रियाँ मद रहित हो जाती हैं, कषाय क्षीण हो जाती है ।12। प्राणायाम करने वालों के मन इतने स्थिर हो जाते हैं कि उनको जगत् का सम्पूर्ण वृतान्त प्रत्यक्ष दिखने लगता है ।14। प्राणायाम के द्वारा प्राण वायु का प्रचार करने में चतुर योगी कामदेव रूप विष तथा अपने मन पर विजय प्राप्त कर लिया करता है ।101।
पुराणकोष से
योगों का निग्रह । इसमें शुभभावना के साथ मनोयोग, वचनयोग और काययोग इन तीनों योगों का निग्रह किया जाता है । महापुराण 21.227