बाह्याभ्यंतर परिग्रह समन्वय
From जैनकोष
- बाह्याभ्यन्तर परिग्रह समन्वय
- दोनों में परस्पर अविनाभावीपना
भ.आ./मू./1915-1916 अब्भंतरसोधीए गंथे णियमेण बाहिरे च यदि। अब्भंतरमइलो चेव बाहिरे गेण्हदि हु गंथे। 1915। अब्भंतर सोधीए बाहिरसोधी वि होदि णियमेण। अब्भंतरदोसेण हु कुणदि णरो बाहिरे दोसे। 1916। = अन्तरंगशुद्धि से बाह्य परिग्रह का नियम से त्याग होता है। अभ्यन्तर अशुद्ध परिणामों से ही वचन और शरीर से दोषों की उत्पत्ति होती है। अन्तरंगशुद्धि होने से बहिरंगशुद्धि भी नियमपूर्वक होती है। यदि अन्तरंगपरिणाम मलिन होंगे तो मनुष्य शरीर और वचनों से अवश्य दोष उत्पन्न करेगा। 1915-1916।
प्र.सा./त.प्र./219 उपधेः, तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसिद्धयदैकान्तिकाशुद्धोपयोगसद्भावस्यैकान्तिकबन्धत्वेन छेदत्वमैकान्तिकमेव... अतएव चापरैरप्यन्तरङ्गच्छेदवत्तदनन्तरीयकत्वात्प्रागेव सर्व एवोपाधिः प्रतिषेध्यः। 2। = परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता, ऐसा जो परिग्रह का सर्वथा अशुद्धोपयोग के साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिद्ध होनेवाले एकान्तिक अशुद्धोपयोग के सद्भाव के कारण परिग्रह तो ऐकान्तिक बन्ध रूप है, इसलिए उसे छेद ऐकान्तिक ही है।... इसलिए दूसरों को भी, अन्तरंगछेद की भाँति प्रथम ही सभी परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योंकि वह अन्तरंग छेद के बिना नहीं होता। (प्र.सा./त.प्र./221), (देखें परिग्रह - 4.3,4)
- बाह्य परिगह के ग्रहण में इच्छा का सद्भाव सिद्ध होता है
स.सा./आ./220-223/क,151 ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किंचित्तथाप्युच्यते, मंक्षे हंत न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते, ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद्ध्रुवम्। = हे ज्ञानी! तुझे कभी कोई भी कर्म करना उचित नहीं है तथापि यदि तू यह कहे कि ‘‘परद्रव्य मेरा कभी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूँ’’ तो तुझसे कहा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकार से भोगने वाला है, जो तेरा नहीं है उसे तू भोगता है, यह महा खेद की बात है! यदि तू कहे कि ‘‘सिद्धान्त में यह कहा है कि परद्रव्य के उपभोग से बंध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ’’ तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है? तू ज्ञानरूप होकर निवास कर, अन्यथा (यदि भोगने की इच्छा करेगा) तू निश्चयतः अपराध से बन्ध को प्राप्त होगा।
- बाह्यपरिग्रह दुःख व इच्छा का कारण है
भ.आ./मू./1914 जह पत्थरो पडंतो खोभेइ दहे पसण्णमवि पंकं। खोभेइ पसंतंपि कसायं जीवस्स तह गंथो। 1914। = जैसे ह्रद में पाषाण पड़ने से तलभाग में दबा हुआ भी कीचड़ क्षुब्ध होकर ऊपर आता है वैसे परिग्रह जीव के प्रशान्त कषायों को भी प्रगट करते हैं। 1914। (भ.आ./मू./1912-1913)।
कुरल/35/1 मन्ये ज्ञानी प्रतिज्ञाय यत्किंचित् परिमुञ्चति। तदुत्पन्नमहादुःखान्निजात्मा तेन रक्षितः। 1। = मनुष्य ने जो वस्तु छोड़ दी है उससे पैदा होनेवाले दुःख से उसने अपने को मुक्त कर लिया है। 1।
प.प्र./मू./108 परु जाणंतु वि परम-मुणि पर-संसग्गु चयंति। परसंगइँ परमप्पयहं लक्खहं जेण चलंति। 108। = परम मुनि उत्कृष्ट आत्म द्रव्य को जानते हुए भी परद्रव्य को छोड़ देते हैं, क्योंकि परद्रव्य के संसर्ग से ध्यान करने योग्य जो परमपद उससे चलायमान हो जाते हैं। 108।
ज्ञा./16/20 अणुमात्रादपि ग्रन्थान्मोहग्रन्थिर्दृढीभवेत्। विसर्पति ततस्तृष्णा यस्यां विश्वं न शान्तये। 20। = अणुमात्र परिग्रह के रखने से मोहकर्म की ग्रन्थि दृढ़ होती है और इससे तृष्णा की ऐसी वृद्धि हो जाती है कि उसकी शान्ति के लिए समस्त लोक की सम्पत्ति से भी पूरा नहीं पड़ता है। 20।
- इच्छा ही परिग्रह ग्रहण का कारण है
भ.आ./मू./1121 रागी लोभी मोहो सण्णाओ गारवाणि य उदिण्णा। तो तइया घेत्तुं जे गंथे बुद्धी णरो कुणइ। 1121। = राग, लोभ और मोह जब मन में उत्पन्न होते हैं तब इस आत्मा में बाह्यपरिग्रह ग्रहण करने की बुद्धि होती है। (भ.आ./मू./1912)।
- आकिंचन्य भावना से परिग्रह का त्याग होता है
स.सा./आ./286-287 अधः कर्मादीन् पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति आत्मकार्यत्वाभावात्, ततोऽधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलद्रव्यं न मम कार्यं नित्यमचेतनत्वे सति मत्कार्यत्वाभावात्, इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं प्रत्याचष्टे। = अधःकर्म आदि पुद्गलद्रव्य के दोषों को आत्मा वास्तव में नहीं करता, क्योंकि वे परद्रव्य के परिणाम हैं इसलिए उन्हें आत्मा के कार्यत्व का अभाव है; इसीलिए अधःकर्म और औद्देशिक पुद्गलकर्म मेरा कार्य नहीं है क्योंकि वह नित्य अचेतन है इसलिए उसको मेरे कार्यत्व का अभाव है, इस प्रकार तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा जैसे नैमित्तिकभूत बन्धसाधक भाव का प्रत्याख्यान करता है।
यो.सा.अ./6/30 स्वरूपमात्मनो भाव्यं परद्रव्यजिहासया। न जहाति परद्रव्यमात्मरूपाभिभावक। 30। = विद्वानों को चाहिए कि पर-पदार्थों के त्याग की इच्छा से आत्मा के स्वरूप की भावना करैं, क्योंकि जो पुरुष आत्मा के स्वरूप की पर्वाह नहीं करते वे परद्रव्य का त्याग कहीं कर सकते हैं। 30।
सामायिक पाठ अमितगति/24 न सन्ति बाह्याः मम किंचनार्थाः, भवामि तेषां न कदाचनाहं। इत्थं विनिश्चिन्त्य विमुच्य बाह्यं स्वस्थं सदा त्वं भव भद्र मुक्त्यै। 24। = ‘किंचित् भी बाह्य पदार्थ मेरा नहीं है, और न मैं कभी इनका हो सकता हूँ’, ऐसा विचार कर हे भद्र! बाह्य को छोड़ और मुक्ति के लिए स्वस्थ हो जा। 24।
अन.ध./4/106 परिमुच्च करणगोचरमरीचिकामुज्झिताखिलारम्भः। त्याज्यं ग्रन्थमशेषं त्यक्त्वापरनिर्ममः स्वशर्म भजेत्। 106। = इन्द्रिय विषय रूपी मरीचिका को छोड़कर, समस्त आरम्भिका को छोड़कर,समस्त गृहिणी आदि बाह्य परिग्रह को छोड़कर तथा शरीरादिक परिग्रहों के विषय में निर्मम होकर - ‘ये मेरे हैं’ इस संकल्प को छोड़कर साधुओं को निजात्मस्वरूप से उत्पन्न सुख का सेवन करना चाहिए। 106।
- अभ्यन्तर त्याग में सर्व बाह्य त्याग अन्तर्भूत है
स.सा./आ./404/क 236 उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्, तथात्तमादेयमशेषतस्तत्। यदात्मनः संहृतसर्वशक्तेः, पूर्णस्य संधारणमात्मनीह। 236। = जिसने सर्वशक्तियों को समेट लिया है (अपने में लीन कर लिया है) ऐसे पूर्ण आत्मा का आत्मा में धारण करना सो ही सब छोड़ने योग्य सब छोड़ा है, और ग्रहण करने योग्य ग्रहण किया है। 236।
- परिग्रह त्याग व्रत का प्रयोजन
रा.वा./9/26/10/625/14 निःसङ्गत्वं निर्भयत्वं जीविताशाव्युदास दोषोच्छेदो मोक्षमार्गभावनापरत्वमित्येवमाद्यर्थो व्युत्सर्गोऽभिधीयते द्विविधः। = निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशात्याग दोषाच्छेद और मोक्षमार्ग भावनातत्परत्व आदि के लिए दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग करना अत्यावश्यक है।
- निश्चय व्यवहार परिग्रह का नयार्थ
ध.9/4,1,67/323/7 ववहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथी, अब्भंतरगंथंकारणत्तादो। एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं। णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो। तेसिं परिच्चागो णिग्गं थत्तं। णइगमएण तिरयणाणुवजोगी बज्झब्भंतरपरिग्गहपरिच्चाओ णिग्गंथत्तं। = व्यवहार नय की अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे कर्मबन्ध के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। नैगमनय की अपेक्षा तो रत्नत्रय में उपयोगी पड़नेवाला जो भी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग है, उसे निर्ग्रन्थता समझना चाहिए।
- दोनों में परस्पर अविनाभावीपना