मद्य
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
- मद्य की अभक्ष्यता का निर्देश–देखें भक्ष्याभक्ष्य - 2।
- मद्य के निषेध का कारण
देखें मांस - 2 (नवनीत, मद्य, मांस व मधु ये चार महाविकृति हैं।)
पु.सि.उ./62-64 मद्यं मोहयति मनो मोहतिचित्तस्तु विस्मरति धर्मम्। विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति।62। रसजानां च वहनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम्। मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम्।63। अभिमानभयजुगुप्साहास्यरतिशोककामकोपाद्या:। हिंसाया: पर्याया: सर्वेऽपि सरकसंनिहिता:।64। = मद्य मन को मोहित करता है, मोहितचित्त होकर धर्म को भूल जाता है और धर्म को भूला हुआ वह जीव नि:शंकपने हिंसारूप आचरण करने लगता है। 62। रस द्वारा उत्पन्न हुए अनेक एकेन्द्रियादिक जीवों की वह मदिरा योनिभूत है। इसलिए मद्य सेवन करने वाले को हिंसा अवश्य होती है।63। अभिमान, भय, जुगुप्सा, रति, शोक, तथा काम-क्रोधादिक जितने हिंसा के भेद हैं वे सब मदिरा के निकटवर्ती हैं।64।
सा.ध./2/4-5 यदेकबिन्दो: प्रचरन्ति जीवाश्चैतत् त्रिलोकीमपि पूरयन्ति। यद्विक्लवाश्चेयममुं च लोकं यास्यन्ति तत्कश्यमवश्यमस्येत्।4। पीते यत्र रसाङ्गजीवनिवहा: क्षिप्रं म्रियन्तेऽखिला:, कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतय: सावद्यमुद्यन्ति च। तन्मद्यं व्रतयन्न धूर्तिलपरास्कन्दीव यात्यापदं, तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचारं चरन्मज्जति।5। = जिसकी एक बूँद के जीव यदि फैल जायें तो तीनों लोकों को भी पूर्ण कर देते हैं, और जिस मद्य के द्वारा मूर्च्छित हुए मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों को नष्ट कर देते हैं। उस मद्य को कल्याणार्थी मनुष्य अवश्य ही छोड़ें।4। जिसके पीने से मद्य में पैदा होने वाले उस समस्त जीव समूह की मृत्यु हो जाती है, और पाप अथवा निन्दा के साथ-साथ काम, क्रोध, भय, तथा भ्रम आदि प्रधान दोष उदय को प्राप्त होते हैं, उस मद्य को छोड़नेवाला पुरुष धूर्तिल नामक चोर की तरह विपत्ति को प्राप्त नहीं होता है और उसको पीने वाला एकपात नामक संन्यासी की तरह निन्द्य आचरण को करता हुआ दुर्गति के दु:खों को प्राप्त होता है।
ला.सं./2/70 दोषत्वं प्राङ्मतिभ्रंशस्ततो मिथ्यावबोधनम्। रागादयस्तत: कर्म ततो जन्मेह कलेशता।70। = इसके पीने से – पहले तो बुद्धि भ्रष्ट होती है, फिर ज्ञान मिथ्या हो जाता है, अर्थात् माता, बहन आदि को भी त्री समझने लगता है। उससे रागादिक उत्पन्न होते हैं, उनसे अन्यायरूप क्रियाएँ तथा उनसे अत्यन्त क्लेशरूप जन्म-मरण होता है।
- मद्यत्याग के अतिचार
सा.ध./3/11 सन्धानकं त्यजेत्सर्वं दधितक्रं द्वयहोषितम्। काञ्जिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा।11। = दार्शनिक श्रावक अचारमुरब्बा आदि सर्व ही प्रकार के सन्धान को और जिसको दो दिन व दो रात बीत गये हैं ऐस दही व छाछ को, तथा जिस पर फूई आ गयी हो ऐसी कांजी को भी छोड़े, नहीं तो मद्यत्याग व्रत में अतिचार होता है।
ला.सं./2/68-69 भंगाहिफेनधत्तूरखस्खसादिफलं च यत्। माद्यताहेतुरन्यद्वा सर्व मद्यवदीरितम्।68। एवमित्यादि यद्वस्तु सुरेव मदकारकम्। तन्निखिलं त्यजेद्धीमान् श्रेयसे ह्यात्मनो गृही।69। = भाँग, नागफेन, धतूरा, खसखस (चरस, गाँजा) आदि जो-जो पदार्थ नशा उत्पन्न करने वाले हैं, वे सब मद्य के समान ही कहे जाते हैं।68। ये सब तथा इनके समान अन्य भी ऐसे ही नशीले पदार्थ कल्याणार्थी बुद्धिमान व्यक्ति को छोड़ देने चाहिए।69।
पुराणकोष से
मादक पेय । अपर नाम मदिरा । यह नरक का कारण होता है । इसके त्याग से उत्तम कुल तथा रूप की प्राप्ति होती है । महापुराण 9. 39, 10.22, 56.261