अंतरात्मा
From जैनकोष
बाह्य विषयों से जीव की दृष्टि हटकर जब अन्तर की ओर झुक जाती है तब अन्तरात्मा कहलाता है।
१. अन्तरात्मा सामान्य का लक्षण
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या ५ अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो।
= इन्द्रियनिकूं बाह्य आत्मा कहिए। उसमें आत्मत्व का संकल्प करे सो बहिरात्मा है। बहुरि अन्तरात्मा है सो अन्तरंग विषै आत्मा का प्रगट अनुभवगोचर संकल्प है।
(द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४६/८)
नियमसार / मूल या टीका गाथा संख्या १४९-१५०/३०० आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा।...।।१४९।। = जप्पेसु जो ण वट्टइसो उच्चइ अंतरंगप्पा ।।१५०।।
= आवश्यक सहित श्रमण वह अन्तरात्मा है ।।१४९।। जो जल्पों में नहीं वर्तता, वह अन्तरात्मा कहलाता है ।।१५०।।
रयणसार गाथा संख्या १४१ सिविणे वि ण भुंजइ विसयाइं देहाइभिण्णभावमई। भूंजइ णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो ।।१४१।।
= देहादिक से अपने को भिन्न समझनेवाला जो व्यक्ति स्वप्न में भी विषयों को नहीं भोगता परन्तु निजात्मा को ही भोगता है, तणा शिव सुख में रत रहता है वह अन्तरात्मा है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार संख्या १४/२१/१३ देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ। परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।।१४।।
= जो पुरुष परमात्मा को शरीर से जुदा केवलज्ञान कर पूर्ण जानता है, वही परम समाधि में निष्ठता हुआ अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी है।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,२/१२०/५ अट्ठ-कम्मब्भंतरो त्ति अंतरप्पा।
= आठ कर्मों के भीतर रहता है इसलिए अन्तरात्मा है।
(महापुराण सर्ग संख्या २४/१०३,१०७)
ज्ञानसार श्लोक संख्या ३१ धर्मध्यानं ध्यायति दर्शनज्ञानयोः परिणतः नित्यम्। सः भण्यते अन्तरात्मा लक्ष्यते ज्ञानवद्भिः ।।३१।।
= जो धर्मध्यान को ध्याता है, नित्य दर्शन व विज्ञान से परिणत रहता है, उसको अन्तरात्मा कहते हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या १९४ जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीवदेहाणं। णिज्जिय-दुट्ठट्ठ-मया अंतरअप्पा य ते तिविहा ।।१९४।।
= जो जिनवचनों में कुशल हैं, जीव और देह के भेद को जानते हैं, तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदों को जीत लिया है वे अन्तरात्मा हैं।
२. अन्तरात्मा के भेद
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४९ अविरतगुणस्थाने तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघन्यान्तरात्मा, क्षीणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोर्मध्ये मध्यमः।
= अविरत गुणस्थान में उसके योग्य अशुभ लेश्या से परिणत जघन्य अन्तरात्मा है, और क्षीणकषाय गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। अविरत और क्षीणकषाय गुणस्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं सो उनमें मध्यम अन्तरात्मा है।
(नियमसार / तात्त्पर्यवृत्ति गाथा संख्या १४९ में `मार्ग प्रकाश' से उद्धृत)
स.श.भा.४ अन्तरात्मा के तीन भेद हैं - उत्तम अन्तरात्मा, मध्यम अन्तरात्मा, और जघन्य अन्तरात्मा। अन्तरंग - बहिरंग - परिग्रह का त्याग करनेवाले, विषय कषायों को जीतनेवाले और शुद्धोपयोग में लीन होनेवाले तत्त्वज्ञानी योगीश्वर `उत्तम अन्तरात्मा' कहलाते हैं, देशव्रत का पालन करनेवाले गृहस्थ तथा छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि `मध्यम अन्तरात्मा' कहे जाते हैं और तत्त्व श्रद्धा के साथ व्रतों को न रखनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव `जघन्य अन्तरात्मा' रूप से निर्दिष्ट हैं।
३. अन्तरात्मा के भेदों के लक्षण
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या १९५-१९७ पंच-महव्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्चं। णिज्जिय-सयल-पमाया, उक्किट्ठा अंतरा होंति।। सावयगुणेहिं जुत्तो पमत्त-विरदा य मज्झिमा होंति। जिणहवणे अणुरत्ता उवसमसीला महासत्ता ।।१९६।। अविरय-सम्मादिट्ठी होंति जहण्णा जिणिंदपयभत्ता। अप्पाणं णिंदंता गुणगहणे सुट्ठु अणुरत्ता ।।१९७।।
= जो जीव पाँचों महाव्रतों से युक्त होते हैं, धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान में सदा स्थित रहते हैं, तथा जो समस्त प्रमादों को जीत लेते हैं वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं ।।१९५।। श्रावक के व्रतों को पालनेवाले गृहस्थ और प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि `मध्यम अन्तरात्मा' होते हैं। ये जिनवचन में अनुरक्त रहते हैं, उपशमस्वभावी होते हैं और महापराक्रमी होते हैं ।।१९६।। जो जीव अविरत सम्यग्दृष्टि हैं वे जघन्य अन्तरात्मा हैं। वे जिन भगवान् के चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा करते रहते हैं और गुणों को ग्रहण करने में बड़े अनुरागी होते हैं ।।१९७।।
नि.सा.टी.१४९ में `मार्ग प्रकाश' से उद्धृत - जघन्यमध्यम त्कृष्टभेदादविरतः सुदृक्। प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः।
= अन्तरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन) भेद हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अन्तरात्मा है। क्षीणमोह अन्तिम अर्थात् उत्कृष्ट अन्तरात्मा है और उन दो के मध्य में स्थित मध्यम अन्तरात्मा है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४९/२ - देखे ऊपरवाला शीर्षक सं. २।
• जीवको अन्तरात्मा कहने की विवक्षा - देखे जीव १/३।
अंतराय –
अन्तराय नाम विघ्न का है। जो कर्म जीव के गुणों में बाधा डालता है, उसको अन्तराय कर्म कहते हैं। साधुओं की आहारचर्या में भी कदाचित् बाल या चोंटी आदि पड़ जाने के कारण जो बाधा आती है उसे अन्तराय कहते हैं। दोनों ही प्रकार के अन्तरायों के भेद-प्रभेदोंका कथन इस अधिकार में किया गया है।
१. अन्तराय कर्म
१. अन्तराय कर्म का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ६/२७ विघ्नकरणमन्तरायस्य ।।२७।।
= विघ्न करना अन्तरायका कार्य है।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ६/१०/३२७) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ६/१०/४/५१७/१७) (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,१३७/३९०/४) (गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या.८००/९७९/८)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ८/१३/३९४ दानादिपरिणामव्याघातहेतुत्वात्तद्व्यपदेशः।।
- दानादि परिणाम के व्याघात का कारण होने से यह अर्थात् अन्तराय संज्ञा मिली है।
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,१३७/३८९/१२ अन्तरमेति गच्छतीत्यन्तरायः।
= जो अन्तर अर्थात् मध्य में आता है वह अन्तराय कर्म है।
२. अन्तराय कर्म के भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ८/१३ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्।
= दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इनके पाँच अन्तराय हैं।
(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या १२३४) ( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या २/४) (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ६/१,९-१/सू.४६/७८); (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १२/२,४,१४/२२/४८५) (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,१३७/३८९/९) (पंचसंग्रह / अधिकार संख्या २/३३४); (गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या.३३/२७/२)
३. दानादि अन्तराय कर्मों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ८/१३/३९४/६ यदुदयाद्दातुकामोऽपि न प्रयच्छति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते, उपभोक्तुमभिवाञ्छन्नपि नीपभुङ्क्ते, उत्सहितुंकामोऽपि नीत्सहते।
= जिसके उदय से देने की इच्छा करता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ भी नहीं कर पाता है, भोगने की इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता है, और उत्साहित होने की इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ८/१३/२/५८०/३२) (गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या.३३/३०/१८)
४. अन्तराय कर्म का कार्य
मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार संख्या ५/५९ अन्तराय कर्म के उदय से जीव चाहै सो न होय। बहुरि तिसहो का क्षयोपशमतैं किंचित् मात्र चाहा भी होय।
५. अन्तराय कर्म के बन्ध योग्य परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ६/२७ विघ्नकरणमन्तरायस्य ।।२७।।
= दानादि में विघ्न डालना अन्तराय कर्म का आस्रव है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ६/२७/१/५३१/३० तद्विस्तरस्तु विव्रियते - ज्ञानप्रतिषेधसत्कारोपघात-दानलाभभोगोपभोगवीर्यस्नानानुलेपनगन्धमाल्याच्छादनविभूषणशयनासनभक्ष्यभोज्यपेयलेह्यपरिभोगविघ्नकरण - विभवसमृद्धि - विस्मय - द्रव्यापरित्याग - द्रव्यासंप्रयोगसमर्थनाप्रमावर्णवाद - देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहण - निरवद्योपकरणपरित्याग - परवीर्यापहरण - धर्मव्यवच्छेदनकरण - कुशलाचरणतपस्विगुरुचैत्यपूजाव्याघात - प्रव्रजितकृपणदोनानाथवस्त्रपात्रप्रतिश्रयप्रतिषेधक्रियापरनिरोधबन्धनगुह्याङ्गछेदन - कर्ण - नासिकौष्ठकर्तन - प्राणिवधादिः।
= उसका विस्तार इस प्रकार है - ज्ञानप्रतिषेध, सत्कारोपघात, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, स्नान, अनुलेपन, गन्ध, माल्य, आच्छादन, भूषण, शयन, आसन, भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और परिभोग आदिमें विघ्न करना, विभवसमृद्धि में विस्मय करना, द्रव्य का त्याग न करना, द्रव्य के उपयोग के समर्थन में प्रमाद करना, अवर्णवाद करना, देवता के लिए निवेदित या अनिवेदित द्रव्य का ग्रहण करना, निर्दोष उपकरणों का त्याग, दूसरे को शक्ति की अपहरण, धर्म व्यवच्छेद करना, कुशल चारित्रवाले तपस्वी, गुरु तथा चेत्य की पूजा में व्याघात करना, दीक्षित, कृपण, दीन, अनाथ को दिये जानेवाले वस्त्र, पात्र, आश्रय आदि में विघ्न करना, पर निरोध, बन्धन, गुह्य अंगच्छेद, नाक, ओठ आदि का काट देना, प्राणिवध आदि अन्तराय कर्म के आस्रव के कारण हैं।
(तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या ४/५५-५८) (गो.क./जी.मू.८१०/९८५)
२. आहार सम्बन्धी अन्तराय
१. श्रावक सम्बन्धी पंचेन्द्रियगत अन्तराय
१. सामान्य ६ भेद
लांटी संहिता अधिकार संख्या ५/२४० दर्शनात्स्पर्शनाच्चैव मनसि स्मरणादपि। श्रवणाद्गन्धनाच्चापि रसनादन्तरायकाः ।।२४०।।
= श्रावकों के लिए भोजन के अन्तराय कई प्रकार के हैं। कितने ही अन्तराय देखने से होते हैं, कितने ही छूने से वा स्पर्श करने से होते हैं, कितने ही मनमें स्मरण कर लेने मात्र से होते हैं, कितने ही सुनने से होते हैं, कितने ही संघने से होते हैं और कितने ही अन्तराय चखने वा स्वाद लेने से अथवा खाने मात्र से होते हैं।
२. स्पर्शन सम्बन्धी अन्तराय
सागार धर्मामृत अधिकार संख्या ४/३१ .......स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचर्मास्थिशुनकादिकम् ।।३१।।
= रजस्वला स्त्री, सूखा चमड़ा, सूखी हड्डी, कुत्ता, बिल्ली और चाण्डाल आदि का स्पर्श हो जाने पर आहार छोड़ देना चाहिए।
लांटी संहिता अधिकार संख्या ५/२४२,२४७ शुष्कचर्मास्थिलोमादिस्पर्शनान्नैव भोजयेत्। मूषकादिपशुस्पर्शात्त्यजेदाहारमञ्जसा ।।२४२।।
= सुखा चमड़ा, सूखी हड्डी, बालादि का स्पर्श हो जाने पर भोजन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार चूहा, कुत्ता, बिल्ली आदि घातक पशुओं का स्पर्श हो जाने पर शीघ्र ही भोजन का त्याग कर देना चाहिए ।।२४२।।
नोट - और भी देखो आहार के १४ मल दोष - देखे आहार II/४।
३. रसना सम्बन्धी अन्तराय
सागार धर्मामृत अधिकार संख्या ४/३२,३३ .....भुक्त्वा नियमितं वस्तु भोज्येऽशक्यविवेचनैः ।।३२।।
- जिस वस्तु का त्याग कर दिया है, उसके भोजन कर लेने पर, तथा जिन्हें भोजन से अलग नहीं कर सकते ऐसे जीवित दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीवों के संसर्ग हो जानेपर (मिल जाने पर) अथवा तीन चार आदि मरे हुए जीवों के मिल जाने पर उस समय का भोजन छोड़ देना चाहिए।
लांटी संहिता अधिकार संख्या ५/२४४-२४७ प्राक्परिसंख्यया त्यक्तं वस्तुजातं रसादिकम्। भ्रान्त्या विस्मृतमादाय त्यजेद्भोज्यमसंशयम् ।।२४४।। आमगोरससंपृक्तं द्विदलान्नं परित्यजेत्। लालायाः स्पर्शमात्रेण त्वरितं बहुमूर्च्छनात् ।।२४५।। भोज्यमध्यादशेषांश्च दृष्ट्वा त्रसकलेवरान्। यद्वा समूलतो रोम दृष्ट्वा सद्यो न भोजयेत् ।।२४६।। चर्मतीयादिसम्मिश्रात्सदोषमनशनादिकम्। परिज्ञायेङ्गितैः सूक्ष्मैः कुर्यादाहारवर्जनम् ।।२४७।।
= भोगोपभोग पदार्थों का परिमाण करते समय जिन पदार्थों का त्याग कर दिया है अथवा जिन रसों का त्याग कर दिया है उनको भूल जाने के कारण अथवा किसी समय अन्य पदार्थ का भ्रम हो जाने के कारण ग्रहण कर ले तथा फिर उसी समय स्मरण आ जाय अथवा किसी भी तरह मालूम हो जाय तो बिना किसी सन्देह के उस समय भोजन छोड़ देना चाहिए ।।२४४।। कच्चे दूध, दही आदि गोरस में मिले हुए चना, उड़द, मूँग, रमास (बोड़ा) आदि जिनके बराबर दो भाग हो जाते हैं (जिनकी दाल बन जाती है) ऐसे अन्न का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि कच्चे गोरस में मिले चना, उड़द, मूँगादि अन्नों के खाने से मुँह की लार का स्पर्श होते ही उसमें उसी समय अनेक सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं ।।२४५।। यदि बने हुए भोजन में किसी भी प्रकार के त्रस जीवों का क्लेवर दिखाई पड़े तो उसे देखते ही भोजन छोड़ देना चाहिए, इसी प्रकार यदि भोजन में जड़ सहित बाल दिखाई दे तो भी भोजन छोड़ देना चाहिए ।।२४६।। "यह भोजन चमड़े के पानी से बना है वा इसमें चमड़े के बर्तन में रखे हुए घी, दूध, तेल, पानी आदि पदार्थ मिले हुए हैं और इसलिए यह भोजन अशुद्ध व सदोष हो गया है" ऐसा किसी भी सूक्ष्म इशारे से व किसी भी सूक्ष्म चेष्टा से मालूम हो जाये तो उसी समय आहार छोड़ देना चाहिए।
४. गन्ध सम्बन्धी अन्तराय
लांटी संहिता अधिकार संख्या ५/२४३ गन्धनान्मद्यगन्धेव पूतिगन्धेव तत्समे। आगते घ्राणमार्गं च नान्नं भुञ्जोत दोषवित् ।।२४३।।
= भोजन के अन्तराय और दोषों को जाननेवाले श्रावकों को मद्यकी दुर्गन्ध आनेपर वा मद्यकी दुर्गन्ध के समान गन्ध आनेपर अथवा और भी अनेकों प्रकार की दुर्गन्ध आनेपर भोजन का त्याग कर देना चाहिए।
५. दृष्टि या दर्शन सम्बन्धी अन्तराय
सागार धर्मामृत अधिकार संख्या ४/३१ दृष्ट्वार्द्र चर्मास्थिसुरामांसासृक्पूयपूर्वकम्....।।३१।।
= गीला चमड़ा, गीली हड्डी, मदिरा, मांस, लोहू तथा पीबादि पदार्थों को देखकर उसी समय भोजन छोड़ देना चाहिए। या पहले दीख जानेपर उसी समय भोजन न करके कुछ काल पीछे करना चाहिए
(लांटी संहिता अधिकार संख्या ५/२४१)।
चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या २१/४३/१५ अस्थिसुरामांसरक्तपूयमलमूत्रमृताङ्गिदर्शनतः प्रत्याख्यातान्नसेवनाच्चाव्डालादिदर्शनात्तच्छब्दश्रवणाच्चभोजनं त्यजेत्।
= हड्डी, मद्य, चमड़ा, रक्त, पीब, मल, मूत्र, मृतक मनुष्य इन पदार्थों के दीख पड़नेपर तथा त्याग किये हुए अन्नादि का सेवन हो जानेपर अथवा चाण्डाल आदि के दिखाई दे जानेपर या उसका शब्द कान में पड़ जानेपर भोजन त्याग देना चाहिए। क्योंकि ये सब दर्शनप्रतिमा के अतिचार हैं।
६. श्रोत्र सम्बन्धी अन्तराय
सागार धर्मामृत अधिकार संख्या ४/३२ श्रुत्वा कर्कशाक्रन्दविड्वरप्रायनिस्सवनं....।।३१।।
= `इसका मस्तक काटो' इत्यादि रूप कठोर शब्दों को, `हा हा' इत्यादि रूप आर्तस्वर वाले शब्दों को और परचक्र के आगमानादि विषयक विड्वरप्राय शब्दों को सुन करके भोजन त्याग देना चाहिए।
चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या २१/४३/१६ चाण्डालादिदर्शनात्तच्छब्दश्रवणाच्च भोजनं त्यजेत्।
= चाण्डालादि के दिखाई दे जानेपर, या उसका शब्द कानमें पड़ जानेपर आहार छोड़ देना चाहिए।
लांटी संहिता अधिकार संख्या ५/२४८-२४९ श्रवणाद्धिंसकं शब्दं मारयामीति शब्दवत्। दग्धो मृतः स इत्यादि श्रुत्वा भोज्यं परित्यजेत् ।।२४८।। शोकाश्रितं वचः श्रुत्वा मोहाद्वा परिदेवनम्। दीनं भयानकं श्रुत्वा भोजनं त्वरितं त्यजेत् ।।२४९।। = `मैं इसको मारता हूँ' इस प्रकार के हिंसक शब्दों को सुनकर भोजन का परित्याग कर देना चाहिए। अथवा शोक से उत्पन्न होनेवाले वचनों को सुनकर वा किसी के मोहसे अत्यन्त रोने के शब्द सुनकर अथवा अत्यन्त दीनता के वचन सुनकर वा अत्यन्त भयंकर शब्द सुनकर शीघ्र ही भोजन छोड़ देना चाहिए।
७. मन सम्बन्धी अन्तराय
सागार धर्मामृत अधिकार संख्या ४/३३ ....। इदं मांसमिति दृढसंकल्पे चाठानं त्यजेत् ।।३३।।
= यह पदार्थ (जैसे तरबूज़) मांस के समान है अर्थात् वैसी ही आकृति का है इस प्रकार भक्ष्य पदार्थ में भी मनके द्वारा संकल्प हो जानेपर निस्सन्देह भोजन छोड़ दे।
लांटी संहिता अधिकार संख्या ५/२५० उपमानोपमेयाभ्यां तदिदं पिशितादिवत्। मनःस्मरणमात्रत्वात्कृत्स्नमन्नादिकं त्यजेत् ।।२५०।।
= `यह भोजन मांस के समान है वा रुधिर के समान है' इस प्रकार किसी भी उपमेय वा उपमान के द्वारा मनमें स्मरण हो जावे तो भी उसी समय समस्त जलपानादिका त्याग कर देना चाहिए ।।२५०।।
२. साधु सम्बन्धी अन्तराय
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४९५-५०० कागामेज्झा छद्दी रोहण रुहिरं च अस्सुवादं च। जण्हूहिट्ठामरिसं जण्हुवरि वदिक्कमो चेव ।।४९५।। णाभि अधोणिग्गमणं पच्चक्खियसेवणाय जंतुवहो। कागादिपिंडहरणं पाणीदो पिंडपडणं च ।।४९६।। पाणीए जंतुवहो मांसादीदंसणे य उवसग्गो। पातंतरम्मि जीवो संपादो भोयणाणं च ।।४९७।। उच्चारं पस्सवणं अभीजगिहपवसणं तहा पडणं। उववेसणं सदंसं भूमीसंफासणिट्ठुवणं ।।४९८।। उदरक्किमिणिग्गमणं अदत्तगहणं पहारगामडाहो। पादेण किंचि गहणं करेण वा जं च भूमिए ।।४९९।। एदे अण्णे बहुगा कारणभूदा अभोयणस्सेह। बीहणलोगदुगंछणसंजमणिव्वेदणट्ठ' च ।।५००।।
= साधु के चलते समय वा खड़े रहते समय ऊपर जो कौआ आदि मीट करे तो वह काक नामा भोजन का अन्तराय है। अशुचि वस्तु से चरण लिप्त हो जाना वह अमेध्य अन्तराय है। वमन होना छर्दि है। भोजन का निषेध करना रोध है, अपने या दूसरे के लोहू निकलता देखना रुधिर है। दुःख से आँसू निकलते देखना अश्रुपात है। पैर के नीचे हाथ से स्पर्श करना जान्वधः परामर्श है। तथा घुटने प्रमाण काठ के ऊपर उलंघ जाना वह जानूपरि व्यतिक्रम अन्तराय है। नाभि से नीचा मस्तक कर निकलना वह नाभ्यधोनिर्गमन है। त्याग की गयी वस्तु का भक्षण करना प्रत्याख्यातसेवना है। जीव वध होना जन्तुवध है। कौआ ग्रास ले जाये वह काकादिपिण्डहरण है। प्राणिपात्र से पिण्ड का गिर जाना पाणितः पिण्डपतन है। पाणिपात्र में किसी जन्तु का मर जाना पाणित जन्तुवध है। मांस आदि का दीखना मांसादि दर्शन है। देवादिकृत उपसर्ग का होना उपसर्ग है। दोनों पैरों के बीचमें कोई जीव गिर जाये वह जीवसंपात है। भोजन देनेवाले के हाथ से भोजन गिर जाना वह भोजनसंपात है। अपने उदर से मल निकल जाये वह उच्चार है। सूत्रादि निकलना प्रस्रवण है। चाण्डालादि अभोज्य के दरमें प्रवेश हो जाना अभोज्यगृह प्रवेश है। मूर्च्छादि से आप गिर जाना पतन है। बैठ जाना उपयेशन है। कुत्तादि का काटना संदंश है। हाथ से भूमि को छूना भूमिस्पर्श है। कफ आदि मलका फेंकना निष्ठीवन है। पेटसे कृमि अर्थात् कीड़ों का निकलना उदरकृमिनिर्गमन है। बिना दिया किंचित् ग्रहण करना अदत्तग्रहण है। अपने व अन्य के तलवार आदिसे प्रहार हो तो प्रहार है। ग्राम जले तो ग्रामदाह है। पाँव-द्वारा भूमिसे कुछ उठा लेना वह पादेन किंचित् ग्रहण है। हाथ-द्वारा भूमि से कुछ उठाना वह करेण किंचित् ग्रहण है। ये काकादि ३२ अन्तराय तथा दूसरे भी चाण्डाल स्पर्शादि, कलह, इष्टमरणादि बहुत से भोजन त्याग के कारण जानना। तथा राजादि का भय होने से, लोकनिन्दा होने से, संयम के लिए, वैराग्य के लिए, आहार का त्याग करना चाहिए ।।४९५-५००।।
(अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/४२-६०/५५०)
३. भोजन त्याग योग्य अवसर
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ४८० आदंके उवसग्गे तिरक्खणे बंभचेरगुत्तीओ। पाणिदयातवहेऊ सरीरपरिहारवेच्छेदो।
= व्याधि के अकस्मात् हो जानेपर, देव-मनुष्यादि कृत उपसर्ग हो जानेपर, उत्तम क्षमा धारण करने के समय, ब्रह्मचर्य रक्षण करने के निमित्त, प्राणियों की दया पालने के निमित्त, अनशन तप के निमित्त, शरीर से ममता छोड़ने के निमित्त इन छः कारणों के होनेपर भोजन का त्याग कर देना चाहिए।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/६४/५५८ आतङ्के उपसर्गे ब्रह्मचर्यस्य गुप्तये। कायकार्श्यतपःप्राणिदयाद्यर्थं चानाहरेत् ।।६४।।
= किसी भी आकस्मिक व्याधि - मारणान्तिक पीड़ा के उठ खड़े होनेपर, देवादिक के द्वारा किये उत्पातादिक के उपस्थित होनेपर, अथवा ब्रह्मचर्य को निर्मल बनाये रखने के लिए यद्वा शरीर की कृशता, तपश्चरण और प्राणिरक्षा आदि धर्मों की सिद्धि के लिए भी साधुओं को भोजन का त्याग कर देना चाहिए।
४. एक स्थान से उठकर अन्यत्र चले जाने योग्य अवसर
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ९/९४/९२५ प्रक्षाल्य करौ मौनेनान्यत्रार्थाद् व्रजेद्यदेवाद्यात्। चतुरङ्गुलान्तरसमक्रमः सहाञ्जलिपुटस्तदैव भवेत् ।।९४।।
= भोजन के स्थानपर यदि कीड़ी आदि तुच्छ जीव-जन्तु चलते-फिरते अधिक नजर पड़ें, या ऐसा ही कोई दूसरा निमित्त उपस्थित हो जाये तो संयमियों को हाथ धोकर वहाँ से दूसरी जगह के लिए आहारार्थ मौन पूर्वक चले जाना चाहिए। इसके सिवाय जिस समय वे अनगार ऋषि भोजन करें उसी समय उनको अपने दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर रखकर, समरूप में स्थापित करने चाहिए तथा उसी समय दोनों हाथों की अंजलि भी बनानी चाहिए।
• अयोग्य वस्तु खाये जाने का प्रायश्चित्त - देखे भक्ष्याभक्ष्य १।