शय्या परिषह
From जैनकोष
स.सि./9/9/423/11
स्वाध्यायध्यानाध्वश्रमपरिखेदितस्य मौहूर्तिकीं खरविषमप्रचुरशर्कराकपालसङ्कटातिशीतोष्णेषु भूमिप्रदेशेषु निद्रामनुभवतो यथाकृतैकपार्श्वदण्डायितादिशायिनप्राणिबाधापरिहाराय पतितदारुवद् व्यपगतासुवदपरिवर्तमानस्य ज्ञानभावनावहितचेतसोऽनुष्ठितव्यन्तरादिविविधोपसर्गादप्यचलितविग्रहस्यानियमितकालां तत्कृतबाधां श्रममाणस्य शय्यापरिषहक्षमा कथ्यते।
जो स्वाध्याय ध्यान और अध्व श्रम के कारण थककर, कठोर, विषम तथा प्रचुर मात्रा में कंकड़ और खप्परों के टुकड़ों से व्याप्त ऐसे अतिशीत तथा अत्युष्ण भूमि प्रदेशों में एक मुहूर्त प्रमाण निद्रा का अनुभव करता है, जो यथाकृत एक पार्श्व भाग से या दण्डायित आदि रूप से शयन करता है, करवट लेने से प्राणियों को होने वाली बाधा का निवारण करने के लिए जो गिरे हुए लकड़ी के कुन्दे के समान या मुर्दा के समान करवट नहीं बदलता, जिसका चित्त ज्ञान भावना में लगा हुआ है, व्यन्तरादिक के द्वारा किये गये नाना प्रकार के उपसर्गों से भी जिसका शरीर चलायमान नहीं होता और जो अनियतकालिक तत्कृत बाधा को सहन करता है उसे शय्या परिषहजय कही जाती है। (रा.वा./9/9/16/610/18), (चा.सा./116/3)।