प्रमादजनक दोष परिचय
From जैनकोष
प्रमादजनक दोष परिचय
1. आर्तध्यान व स्खलना होते हैं पर निरर्गल नहीं
नोट - [साधु को प्रमाद वश आर्तध्यान होना सम्भव है - (देखें आर्तध्यान - 3)। परन्तु उसे रौद्रध्यान कदापि नहीं होता (देखें रौद्रध्यान - 8)। बकुश व प्रतिसेवना कुशील साधु को भी उपकरणों में आसक्ति होने के कारण कदाचित् आर्तध्यान सम्भव है (देखें साधु - 5.5)। वह प्रमाद वश कदाचित् चारित्र के परिणामों से स्खलित भी हो जाता है - (देखें संयत - 1.2)। उसका आचरण चित्रल होता है - (देखें संयत - 1.2)। परन्तु यह आर्तध्यान सर्वसाधारण नहीं होता। - (देखें अगले संदर्भ )]।
र.सा./110-111 बसहोपडिमोवयरणे गणगच्छे समयसंगजाइकुले। सिस्सपडिसिस्सछत्ते सुयजाते कप्पड़े पुच्छे।110। पिच्छे संथरणे इच्छासु लोहेण कुणइ ममयाइं। यावच्च अट्टरुद्दं ताव ण मुंचेदि ण हु सोक्खं।111। =वसतिका, प्रतिमोपकरण, गण, गच्छ, समय, जाति, कुल, शिष्य, प्रतिशिष्य, विद्यार्थी, पुत्र, पौत्र, कपड़े, पुस्तक, पीछी, संस्तर, आदि में लोभ से जो साधु ममत्व करता है, तथा ममत्व करने के कारण जब तक आर्त और रौद्रध्यान करता है, तब तक क्या वह मोक्षसुख से वंचित नहीं रहता।110-111।
ज्ञा./26/41-42 इत्यार्तरौद्रे गृहिणामजस्रं ध्याने सुनिन्द्ये भवत: स्वतोऽपि। परिग्रहारम्भकषायदोषै: कलङ्कितैऽन्त:करणे विशङ्कम् ।41। क्वचित्क्कचिदमी भावा: प्रवर्तन्ते मुनेरपि। प्राक्कर्मगौरवाच्चित्रं प्राय: संसारकारणम् ।42। =इस प्रकार ये आर्त और रौद्रध्यान गृहस्थियों के परिग्रह आरम्भ और कषायादि के दोष से मलिन अन्त:करण में स्वयमेव निरन्तर होते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।41। और कभी-कभी ये भाव पूर्वकर्म की विचित्रता से मुनि के भी होता है। बाहुल्य से ये संसार के कारण हैं।42।
देखें गुरु - 2.2 [कदाचित् शिष्य को लात तक मार देते हैं।]।
देखें अपवाद - 3 [परोपकारार्थ कदाचित मन्त्र तन्त्र व शास्त्रादि भी प्रदान करते हैं।]।
देखें अपवाद - 4.3 [परन्तु योग्य ही उपधि का ग्रहण करता है अयोग्य का नहीं]।
देखें साधु - 2.8 [बिना सोधे आहारादि का ग्रहण नहीं करता, मैत्रीभाव से रहित हो पैशुन्य आदि भाव नहीं करता। दूसरों को पीड़ा नहीं देता, आरम्भ व सावद्य कार्य नहीं करता। मन्त्र तन्त्र आदि का प्रयोग नहीं करता इत्यादि।]।
देखें तीसरा शीर्षक [यद्यपि संज्वलन के तीव्र उदय से अनेकों प्रकार के शुभ कार्यों में रत रहता है, शुद्धात्म भावना से च्युत हो जाता है, परन्तु फिर भी वह संयतपने को उल्लंघन नहीं करता।]।
2. साधु योग्य शुभ कार्यों की सीमा
प्र.सा./मू./गा. बालो वा बुड्ढो समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा। चरियं चरदु संजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि।230। अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु। विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया।246। वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती। समणेसु समावणओण णिंदिदारायचरियम्हि।247। दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं। चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य।248। उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स। कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से।249। जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं। अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो।251। रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं। दिट्ठा समणं साहू पडिवज्जदु आदसत्तीए।252।=बाल, वृद्ध, श्रान्त, या ग्लान श्रमण मूल का छेद जैसे न हो उस प्रकार से अपने योग्य आचरण करो।230। [अर्थात् युवा की अपेक्षा वृद्ध में और स्वस्थ की अपेक्षा रोगी में यद्यपि अवश्य ही कुछ शिथिलता होती है, और इसलिए उनकी क्रियाओं में भी तरतमता होती पर वह मूलगुणों को उल्लंघन नहीं कर पाती]। श्रामण्य में यदि अरहंतादिकों के प्रति भक्ति तथा प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य पाया जाता है, वह शुभयुक्त चर्या है।246। श्रमणों के प्रति वन्दन, नमस्कार सहित अभ्युत्थान और अनुगमनरूप विनीत प्रवृत्ति करना तथा उनका श्रम दूर करना रागचर्या में निन्दित नहीं है।247। दर्शनज्ञान का उपदेश, शिष्यों का ग्रहण तथा उनका पोषण और जिनेन्द्र की पूजा का उपदेश वास्तव में सरागियों की चर्या है।248। जो कोई सदा छह काय की विराधना से रहित चार प्रकार के श्रमणसंघ का उपकार करता है, वह भी राग की प्रधानता वाला है।249। यद्यपि अल्प लेप होता है तथापि साकार अनाकार चर्या युक्त (अर्थात् शुद्धात्मा के ज्ञानदर्शन में प्रवर्तमान वृत्ति वाले) जैनों का अनुकम्पा से निरपेक्षतया (शुभोपयोग से) उपकार करो।251। रोग से, क्षुधा से, तृषा से अथवा श्रम से आक्रान्त श्रमण को देखकर साधु अपनी शक्ति के अनुसार वैयावृत्ति आदि करो।252।
मू.आ./915 पोसह उवओ पक्खे तह साहू जो करेदि णियदं तु। णावाए कल्लाणं चादुम्मासेण णियमेण।915। =जो साधु चातुर्मासिक प्रतिक्रमण के नियम से दोनों चतुर्दशी तिथियों में प्रोषधोपवास अवश्य करता है वह सुख की प्राप्ति अवश्य करता है।915।
र.सा./99 तच्चवियारणसीलो मोक्खपहाराहणसहावजुदो। अणवरयं धम्मकहापसंगदो होइ मुणिराओ।99। =जो मुनिराज सदा आत्मतत्त्व के विचार करने में लीन रहते हैं, मोक्षमार्ग को आराधन करने का जिनका स्वभाव हो जाता है, और जिनका समय निरन्तर धर्मकथा में ही लीन रहता है, वे ही यथार्थ मुनिराज कहाते हैं।
देखें संयम - 1.6 [व्रत, समिति, गुप्ति, आदि पालन साधु का धर्म है और दानपूजा आदि गृहस्थों का]।
देखें साधु - 2.2 [पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का रोध, केशलोंच, षड्आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधोवन, स्थितिभोजन, एकभुक्ति ये तो साधु के 28 मूलगुण हैं और 18000 शील व 84000,00 उत्तर गुण इन सबका यथायोग्य पालन करता है।]
देखें कृतिकर्म - 4.1 [देव वन्दना, आचार्य वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि साधु के नित्यकर्म हैं।]
देखें वैयावृत्त्य - 8 [वैयावृत्त्य के अर्थ लौकिक जनों के साथ बातचीत करना निन्द्य नहीं है।]
देखें अपवाद - 3 [सल्लेखना गत क्षपक के लिए आहार वर्तन आदि माँगकर लाते हैं, उनको तेलमर्दन करते हैं, गर्मियों में शीतोपचार और सर्दियों में उष्णोपचार करते हैं, कदाचित् उसको अनीमा लगाते हैं, क्षपक के मृत शरीर के अंग आदि का छेदन करते हैं, इत्यादि अनेकों अपवाद ग्रस्त क्रियाएँ भी कारण व परिस्थिति वश करता है।]
3. परन्तु फिर भी संयतपना घाता नहीं जाता
प्र.सा./मू./221-222 किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदवम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि।221। छेदो जेण ण विज्जदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स। समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियणित्ता।222। =प्रश्न - उपधि के सद्भाव में उस भिक्षु के मूर्च्छा आरम्भ या असंयम न हो यह कैसे हो सकता है, तथा जो परद्रव्य में रत हो वह आत्मा को कैसे साध सकता है।221। उत्तर - जिस उपधि के ग्रहण विसर्जन में, सेवन करने में, जिससे सेवन करने वाले के छेद नहीं होता, उस उपधियुक्त [अर्थात् कमण्डलु पीछी व शास्त्ररूप लौकिक जनों के द्वारा अप्रार्थनीय उपधियुक्त - देखें अपवाद - 4.3] काल, क्षेत्र को जानकर इस लोक में श्रमण भले वर्ते।222।
पं.ध./उ./657,680-686 यद्वा मोहात्प्रमादाद्वा कुर्याद्यो लौकिकीं क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चान्तर्व्रताच्च्युत:।657। सति संज्वलनस्योच्चै: स्पर्धका: देशघातिन:। तद्विपाकोऽस्त्यमन्दो वा मन्दो हेतु: क्रमाद्द्वयो:।680। संक्लेशस्तत्क्षतिर्नूनं विशुद्धिस्तु तदक्षति:। सोऽपि तरतमस्वांशै: सोऽप्यनेकैरनेकधा।681। अस्तु यद्वा न शैथिल्यं तत्र हेतुवशादिह। तथाप्येतावताचार्य: सिद्धो नात्मन्यतत्पर:।682। तत्रावश्यं विशुद्धयंशस्तेषां मन्दोदयादिति। संक्लेशांशोऽथवा तीव्रोदयान्नायं विधि: स्मृत:।683। किन्तु दैवाद्विशुद्धयंश: संक्लेशांशोऽथवा क्वचित् । तद्विशुद्धेर्विशुद्धयंश: संक्लेशांशोदय: पुन:।684। तेषां तीव्रोदयस्तावदेतावानत्र बाधक:। सर्वतश्चेत्प्रकोपाय नापराधोऽपरोऽस्तय:।685। तेनात्रैतावता नूनं शुद्धस्यानुभवच्युति:। कर्त्तुं न शक्यते यस्मादत्रास्त्यन्य: प्रयोजक:।686।=जो मोह से अथवा प्रमाद से जितने काल तक वह लौकिकी क्रिया को करता है उतने काल तक अन्तरंग व्रतों से च्युत होने के कारण वह आचार्य नहीं है।657। वास्तव में संज्वलन कषाय का तीव्र या मन्द उदय ही चारित्र की क्षति व अक्षति में हेतु है।680। संक्लेश से क्षति होती है और असंक्लेश से अक्षति। वह संक्लेश भी तरतमता की अपेक्षा अनेक प्रकार का है और वह तरतमता भी अपने कारणों की अपेक्षा अनेक प्रकार की है।681। उस संक्लेश या विशुद्धि के योग से आचार्य के शिथिलता होवे या न होवे परन्तु इतने मात्र से उनकी आत्मा में अतत्परता सिद्ध नहीं होती।682। तथा उस संज्वलन के मन्दोदय से होने वाला विशुद्धि अंश और उसके तीव्रोदय से होने वाला संक्लेश अंश ये दोनों ही उस आचार्यपद के साधक या बाधक नहीं हैं, कर्मोदयवश कभी विशुद्धि अंश और कभी संक्लेश अंश उनके पाये ही जाते हैं।683-684। उसका तीव्र उदय वास्तव में उस विशुद्धि का ही बाधक है, पर आचार्य पद का नहीं। यदि वह संक्लेश आचार्य पद का ही बाधक हो जाय तो फिर उससे बड़ा कोई अपराध ही नहीं है। अर्थात् फिर उसे मल दोष न कहकर अपराध कहना चाहिए।685। उस तीव्रोदय के द्वारा उनकी आत्मा शुद्धात्मानुभव से च्युत नहीं की जा सकती, क्योंकि ऐसा करने में संज्वलन का तीव्र उदय नहीं बल्कि मिथ्यात्व का उदय कारण है।686।
देखें संयत - 2.1 [व्रत समिति गुप्ति रूप चारित्र प्रमाद से नष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका प्रतिबन्धक प्रत्याख्यानावरण है, न कि संयतों में पाया जाने वाला संज्वलन का स्वल्पकालिक मन्दतम उदय।]
देखें संयत - 2.4 [संज्वलन के उदय से संयम में केवल मल उत्पन्न होता है, उसका विनाश नहीं।]
देखें धर्म - 6.6 [व्यवहाररूप शुभधर्म प्राय: गृहस्थों को होता है, साधुओं के केवल गौणरूप से पाया जाता है।]