संक्रमण सामान्य का लक्षण
From जैनकोष
संक्रमण सामान्य निर्देश
1. संक्रमण सामान्य का लक्षण
क.पा.1/1,18/315/3 अंतरकरणे कए जं णवुंसयवेयक्खणं तस्स 'संकमणं' ति सण्णा। = अन्तकरण कर लेने पर जो नपुंसकवेद का (क्षपक के जो) क्षपण होता है यहाँ उसकी (उस काल की) संक्रमण संज्ञा है।
गो.क./जी.प्र./438/591/14 परप्रकृतिरूपपरिणमनं संक्रमणम् । = जो प्रकृति पूर्व में बँधी थी उसका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना संक्रमण है। (गो.क./जी.प्र./409/573/5)।
2. संक्रमण के भेद
1. सामान्य संक्रमण के भेद
ध.15/282-284
चार्ट
गो.जी./मू./504/903 संकमणं सट्ठाणपरट्ठाणं होदि। = संक्रमण दो प्रकार का है - स्वस्थान संक्रमण और परस्थान संक्रमण [इसके अतिरिक्त आनुपूर्वी संक्रमण (ल.सा./मू./249), फालिसंक्रमण और काण्डक संक्रमण (गो.क./जी.प्र./412/575) का निर्देश भी आगम में पाया जाता है।]
2. भागाहार संक्रमण के भेद
ध.16/गा.1/409 उव्वेलणविज्झादो अधापवत्तो गुणो य सव्वो य। (संकमणं)...।409। = उसके (भागाहार या संक्रमण के) उद्वेलन, विघ्यात, अध:प्रवृत्त, गुणसंक्रमण, और सर्वसंक्रमण के भेद से पाँच प्रकार हैं।409। (गो.क./मू./409)।
3. पाँचों संक्रमणों का क्रम
गो.क./मू. व जी.प्र./416 बंधे अधापवत्तो विज्झादं सत्तमोत्ति हु अबंधे। एत्तो गुणो अवंधे पयडीणं अप्पसंत्थाणं।416। प्रकृतीनां बन्धेसति स्वस्वबन्धव्युच्छित्तिपर्यन्तमध:प्रवृत्तसंक्रमण: स्यात् न मिथ्यात्वस्य।...बन्धव्युच्छित्तौ सत्यामसंयताद्यप्रमत्तपर्यन्तं विघ्यातसंक्रमणं स्यात् । इत: अप्रमत्तगुणस्थानादुपर्युपशान्तकषायपर्यन्तं बन्धरहिताप्रशस्तप्रकृतीनां गुणसंक्रमणं स्यात् । ततोऽन्यत्रापि प्रथमोपशमसम्यक्त्वग्रहणप्रथमसमयादन्तर्मुहूर्तपर्यन्तं पुन: मिश्रसम्यक्त्वप्रकृत्यो: पूरणकाले मिथ्यात्वक्षपणायामपूर्वकरणपरिणामान्मिथ्यात्वचरमकाण्डकद्विकचरमफालिपर्यन्तं च गुणसंक्रमणं स्यात् । चरमफालौ सर्वसंक्रमणं स्यात् ।=प्रकृतियों के बंध होने पर अपनी-अपनी बंध व्युच्छित्ति पर्यन्त अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है परन्तु मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता। और बन्ध की व्युच्छित्ति होने पर असंयत से लेकर अप्रमत्तपर्यन्त विध्यातानामा संक्रमण होता है। तथा अप्रमत्त से आगे उपशान्त कषाय पर्यन्त बन्ध रहित अप्रशस्त प्रकृतियों का गुणसंक्रमण होता है। इसी तरह प्रथमोपशम सम्यक्त्व आदि अन्य जगह भी गुणसंक्रमण होता है ऐसा जानना। तथा मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति के पूरण काल में और मिथ्यात्व के क्षय करने में अपूर्वकरण परिणामों के द्वारा मिथ्यात्व के अन्तिम काण्डक की उपान्त्य फालिपर्यन्त गुणसंक्रमण और अन्तिम फालि में सर्व संक्रमण होता है।
4. सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना में चार संक्रमणों का क्रम
गो.क./मू./412-413 मिच्छेसमिस्साणं अधापवत्तो मुहुत्तअंतोत्ति। उव्वेलणं तु तत्तो दुचरिमकंडोत्ति णियमेण।412। उव्वेलणपयडीणं गुणं तु चरिमम्हि कंडये णियमा। चरिमे फालिम्मि पुणो सव्वं च य होदि संकमणं।413। = मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय का अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तक अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। और उद्वेलन नामा संक्रमण द्विचरम काण्डक पर्यन्त नियम से प्रवर्तता है।412। उद्वेलन प्रकृतियों का अन्त के काण्डक में नियम से गुण संक्रमण होता है। और अन्त की फालि में सर्व संक्रमण होता है।413।