वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 14
From जैनकोष
विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते।
दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तरतरुस्थवत्।।१४।।
आत्मविपत्ति के अदर्शन का कारण—पूर्व श्लोक में यह बताया गया था कि सम्पदा का समागम भी मनुष्य को महाकष्ट उत्पन्न करता है, ऐसी बात सुनकर यह जिज्ञासा होनी प्राकृतिक है कि सम्पदा का समागम आपत्ति का ही करने वाला है तो फिर लोग इसे छोड़ क्यों नही देते हैं ? क्यों रात दिन सम्पदा के समागम के चक्कर में ही यत्र तत्र घूमा करते हैं ? इसकी जिज्ञासा का समाधान इस श्लोक में है। यह मूर्ख पुरुष दूसरों की विपत्ति को तो देख लेता है, जान लेता है कि यह विपदा है, यह मनुष्य व्यर्थ ही झंझट में पड़ा है, किन्तु अपने आप पर भी वही विपदा है वह विपदा नही मालूम होती है क्योंकि इस प्रकार का राग है मोह है कि अपने आपको विषयों के साधन रूचिकर और इष्ट मालूम होते हैं,दूसरे के प्रति यह भाव जल्दी पहुंच जाता है कि लोग क्यों व्यर्थ में कष्ट भोग रहे हैं ? क्यों विपदा में है ?
आत्मविपत्ति के एक अदर्शक का दृष्टांत—अपनी भूल समझ में न आये, इसके लिए यह दृष्टान्त दिया गया है कि कोई वन जल रहा है जिसमें बहुत मृग रहते हैं,उस जलते हुए वन के बीच में कोई पुरुष फंस गया तो वह झट किसी पेड़ के ऊपर चढ़ जाता है पर चढ़ा हुआ वह पुरुष एक और दृष्टि पसारकर देख रहा है कि वह देखो हिरण मर गया, वह देखो खरगोश तड़फकर जल रहा है, चारों ओर जानवरों की विपदा को देख रहा है पर उस मूढ़ पुरुष के ख्याल में यह नही है कि जो दशा इन जानवरों की हो रही है, कुछ ही समय बाद यही दशा हमारी होने वाली है, यह चारों तरफ की लगी हुई आग हमें भी भस्म कर देगी और मेरा भी कुछ पता न रहेगा। वह पुरुष वृक्ष के ऊपर बैठा हुआ दूसरों की विपदा को तो देख रहा है पर अपनी विपदा को नही नजर में ला पाता है। उसे तो यह ध्यान में है कि मैं ऐसे ऊँचे वृक्ष पर बैठा हूँ, यह आग नीचे लगी है, बाहर लगी है, यह अग्नि मेरा क्या बिगाड़ कर सकती है? उसे यह पता नही होता कि जिस प्रकार ये जंगल के जीव मेरे देखते हुए जल रहे हैं इसी प्रकार थोड़ी ही देर में मैं भी भस्म हो जाऊँगा।
आत्मविपत्ति के अदर्शक की परिस्थिति—दह्यमान वन में वृक्ष पर चढ़े हुए जन की भांति यह अज्ञानी पुरुष धन वैभव से अन्य मनुष्यों पर आयी हुई विपदा को तो स्मरण कर लेता है कि देखो उसका माल पकड़ा गया, उसका माल जप्त हो गया, यह मरने वाला है, यह मर गया, किसी पर कुछ विपदा आयी, इस तरह पकड़ा गया, उसका माल जप्त हो गया, यह मरने वाला है, यह मर गया, किसी पर कुछ विपदा आयी, इस तरह औरो की विपदा को तो निरखता रहता है, परंतु अपने धन वैभव के उपार्जन में जो विपदा सह रहा है उसे विपदा नही मालूम करता है। धन संचय में रंच भी विश्राम नही ले पाता है। हो रही है बहुत सी विपदाएँ और विडम्बनाएँ, पर अपने आपके लिए कुछ विडम्बना नही दिखती है। मोही जीव को कैसे हटे यह परिग्रह लालच तृष्णा से? इसे तो यह दोष भी नही मालूम होता है कि मैं कुछ अपराध कर रहा हूं।
अज्ञानी को स्वकीय अपराध का अपरिचय—ज्ञानी संत जानता है कि मेरा स्वरूप शुद्ध ज्ञानानन्द है, ज्ञान और आनन्द की विशुद्ध वर्तना के अतिरिक्त अन्य जो कुछ प्रवृत्ति होती है, मन से प्रवृत्ति हुई, वचनों से हुई अथवा काय से हुई तो ये सब प्रवृत्तियां अपराध है। अज्ञानी को वे प्रवृत्तियाँ अपराध नही मालूम देती, वह तो इन प्रवृत्तियों को करता हुआ अपना गुण समझता है। मुझे मे ऐसी चतुराई है, ऐसी कला है कि मैं अल्प समय मे ही धन संचित कर लेता हूं। ज्ञानी पुरुष जब कि यह समझता है कि एक ज्ञानस्वभावके आश्रय को छोड़कर अन्य किन्ही भी पदार्थों का जो आश्रय लिया जाता हे वे सब अपराध है उससे मुझे लाभ नही है, हानि ही है। कर्मबंध हो, आकुलता हो और कुछ सार बात भी नही है। ऐसा यह ज्ञानी पुरुष जानता है। न तो अज्ञानी को धनसंचय में होने वाली विपदा का विपत्तिरूप अनुभव होता है और न जो धनोपार्जन होता है उसमें भी जो अन्य विपदाएँ आती है उनका ही स्मरण हो पाता है।
मोहीके विवेक का अभाव—विवेक यह बताता है कि धन आदि के कारण यदि कोई विपदा आती देख तो उसे धन को भी छोड़ देना चाहिए। फंसनेपर लोग ऐसा करते भी है। कोई कानून विरुद्ध चीज पकड़ ली जाय, जैसे कि मानो आजकल शुद्ध स्वर्ण कुछ तोलो से ज्यादा नही रख सकते हैं और रखा हुआ हो तो उस सोने का भी परित्याग कर देते हैं,जाँच करने वालेकी जेब में ही डाल देते हैं कि ले जावो यह तुम्हारा है। कितनी जल्दी धन विपदा के समय छोड़ देते हैं,किन्तु वह उनको छोड़ता नही है। उस समय की सिर पर आयी हुई विपदा से बचने का कदम है। चित्त में तो यह भरा है कि इससे कई गुणा और खरीदकर यह घाटा पूरा करना पडे़गा। धन वैभव के कारण भी अनेक विपदा आती है। कुछ बड़े लोग अथवा उनके संतान तो कभी-कभी इस धन के कारण ही प्राण गंवा देते हैं। ऐसे होते भी है। कितने ही अनर्थ जिन्हें बहुत से लोग जानते हैं। ये डाकू धन भी हर ले जाये और जान से भी मार जाएँ क्योंकि उनके मनमें यह शंका है कि धन तो लिए जा रहे हैं,कदाचित् इसने पकड़वा दिया तो हम लोग मारे जायेंगे, इससे जान भी ले लेते हैं। आजकल किसी की जान ले लेना एक खेलसा बन गया है। छुद्र लोग तो कुछ पैसों के हिसाब पर ही दूसरों की जान ले डालते हैं। इस धन के कारण कितनी विपदा आती है, कितना ही टैक्स देना कितना ही अधिकारियों को मनाने में खर्चा करना कितना श्रम, कितनी विपदाएँ ये सब धन आदि के वैभव के पीछे ही तो होती है।
ज्ञानीका परिवर्तन—कल्याणार्थी गृहस्थ की चर्या इस प्रकार रहती है कि आवश्यकतानुसार धन का उपार्जन करना और अपने जीवन को धर्मपालनके लिए ही लगाना। ऐसा भाव बनाना चाहिए कि हम धनी बनने के लिए मनुष्य नही हुए है, किन्तु ज्ञानानन्दनिजपरमात्म प्रभुके दर्शन के लिए हम मनुष्य हुए है। ये बाहरी पोजीशन गुजारे की बातें ये तो जिस किसी भी प्रकार हो सकती है, किन्तु संसार के संकटों से मुक्ति का उपाय एक ही ढंग से है, और वह ढंग इस मनुष्यजीवन में बन पाता है, इस कारण ज्ञानी पुरुष का लक्ष्य तो धर्मपालनका रहता है, किन्तु अज्ञानी पुरुष का लक्ष्य विषयसाधनों के संचय और विषयों के भोगनेमें ही रहता है। यद्यपि धन आदि के कारण आयी हुई विपदा देखें तो धनकी आशा सर्वथा छोड़ देना चाहिए क्योंकि आशा न करने से ही आने वाली विपदा से अपनी रक्षा हो सकती है। लेकिन यह धन वैभव की आशा छोड़ नही पाता है। यही अज्ञान है और यही दुःख का जनक है।
अनर्थ आवश्यकतावों की वृद्धि में बरबादी—यद्यपि वर्तमान में श्रावक की गृहस्थावस्था है, दूकान करना होता है, आजीविका व्यापार करना पड़ता है, परन्तु ज्ञानी का तो इस सम्बंध में यह ध्यान रहता है कि यह वैभव साधारण श्रम करने पर जितना आना हो आये, हममें तो वह कला है कि उसके अन्दर ही अपना गुजारा और निबटारा कर सकते हैं। अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाकर धनकी आय के लिए श्रम करना यह उचित नही है, किन्तु सहज ही जो धन आये उसे ही ढंग से विभाग करते गुजारा कर लेना चाहिए। अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाकर फिर उनकी पूर्ति के लिए धन संचय करना, श्रम करना, नटखट करना यह सज्जन पुरुष नही किया करते हैं। कितनी ही अनेक वाहियात बातें है, बीड़ी पीना, सिनेमा देखना, पान खाते रहना और बाजारू चाट चटपटी आदि छोटी-छोटी चीजें खाना—ये सब व्यर्थ की बातें है, इन्हें न करें तो इस मनुष्य का क्या बिगड़ता है, बल्कि इनके करने से मनुष्य बिगड़ता है। बीड़ी पीने से कलेजा जल जाता है और उससे कितने ही असाध्य रोगो का आवास हो जाता है, सिनेमा देखने से दिल में कुछ चालाकी, ठगी, दगाबाजी अथवा काम वासना की बातें इन सबकी शिक्षा मिल जाती है। लाभ कुछ नही देखा जाता है। इन व्यर्थ की बातो को न करें उसे कितना आराम मिले।
व्यामोहमें अविवेक और विनाश—भैया! धनसंचयकी तीव्र इच्छा न रहे, एक या दो टाइम खा पी लिया, तुष्ट हो गए, फिर फिक्र की कुछ बात भी है क्या? लेकिन तृष्णावश यह पुरुष अप्राप्त वस्तु की आशा करके प्राप्त वस्तु का भी सुख नही लूट सकते हैं। वे तो मद्य के नशेमें उन्मत हुए प्राणियों के समान अपने स्वरूप को भूल जाते हैं। अपने हितका मोहमें कुछ ध्यान नही रहता है। मत्त होने में बेचैनी पागलपन चढ़ता है, शरीरबल जैसे क्षीण हो जाता है ऐसे ही परव्यामोहमें ज्ञानबल क्षीण हो जाता है। पागल पुरुष नशे में उन्मत होकर अपने स्वरूप को भूल जाते हैं,अपने हितका ध्यान नही रख सकते हैं।ऐसे ही धनी पुरुष भी दूसरों की सम्पदा, घर आदि को विनष्ट होते हुए देखकर कभी विचार नही करते कि यह काल अग्नि इस तरह मुझे भी न छोड़ेगी, अतः शीघ्र ही आत्महित कर लेना श्रेष्ठ है।
गलती को भी मानने का व्यामोह—इस जीव में ज्ञान भी प्रकाशमान हे और रागादिकके रंग भी चढ़े हुए है जिससे ज्ञान का तो उपयोग दूसरों के लिए करते हैं और कषायका उपयोग अपने लिए करते हैं। दूसरों की रंच भी गल्ती ज्ञान में आ जाती है और उसे वे पहाड़ बराबर मान लेते हैं। अपनी-अपनी बड़ी गलती भी इन्हें मालूम ही नही होती है, ये तो निरन्तर अपने को चतुर समझते हैं। कुछ भी कार्य करे कोई, ललाका कार्य करे अथवा किसी प्रकार का हठ करे तो उसमें ये अपनी चतुराई मानते हैं। मैं बहुत चतुर हूं। खुद अपने मुँह मियामिट्ठू बनते हैं। अपने को कलावान, विद्यावान, चतुर मान लेने से तो कार्य की सिद्धि न हो जायगी। अपनी तुच्छ बातों पर चतुराई मनाने में यह जीव अपने आपको बड़ा विद्वान समझ रहा हे। उपदेश देने भी बड़ा कुशल हो जाता है। शास्त्र लेकर बाँचने बैठा या शास्त्र सभा करने बैठा तो राग द्वेष नही करने योग्य है और आत्मध्यान करने योग्य है—इस विषयका बड़ी कला और खूबी से वर्णन कर लेता है पर खुद भी उस सब हितमयी वार्ता को कितना अपने में उतारता है सो उस और भावना ही नही है।
अज्ञानीकी समझमें अपनी भूल भी फूल—भैया ! दूसरों की विपत्ति तो बहुत शीघ्र पकड़ में आ जाती है, किन्तु अपने आपकी बड़ी भूल भी समझ मे नही आती। कभी किसी जीव पर क्रोध किया जा रहा है और उससे लड़ाई की जा रही है तो बीच-बिचौनिया करने वाला पुरुष मूढ़ जंचता है इस क्रोध को। इसे कुछ पता नही है कि मैं कितना सहनशील हूं। और यह दूसरा कितना दुष्ट व्यवहार करने वाला है? उसे क्रोध करते हुए भी अपनी चतुराई मालूम हो रही है, परन्तु दूसरे पुरुष जानते हैं,मजाक करते हैं कि न कुछ बात पर बिना प्रयोजन के यह मनुष्य कितना उल्टा चल रहा है, क्रोध कर रहा है। विषयकषायों की रूचि होने से इस जीव पर बड़ी विपदा है। बाहरी पौद्गलिक विपदा मिलने पर भी यह जीव कितना अपने मन मे विषयकषायों को पकड़े हुए है इन विषयों से जुदा हो पा रहे हैं या नही, अपने पर कुछ हमने काबू किया या नही, इस और दृष्टि नही देते हैं ये अज्ञानी पुरुष । वे तो प्रत्येक परिस्थिति में अपने को चतुर मानते हैं।
विभाव विपदा—मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ—इन ६ जातियों के जो विभाव परिणाम है यह ही जीव पर वास्तविक विपदा है। जीवों पर विपदा कोई अन्य पदार्थ नही ढा सकते हैं। ये अपनी कल्पना में आप से ही विपदा उत्पन्न कर रहे हैं। क्या है विपत्ति इस जीव पर? मोह अज्ञान कामवासना का भाव। क्रोध मान, माया, लोभ आदि के कषायों के परिणमन ये सब है विपदा। इन सब विपदावों को विपदारूप से अपनी नजर में रखना है। इन सब विपदावो से छूटने का उपाय केवल भेदविज्ञान है। जितने भी अब तक साधु हुए है वे भेदविज्ञानके प्रताप से हुए है, और जो अबतक जीव बंधे पड़े है व इस संसार में रूलते चले जा रहे हैं वे इस भेदविज्ञानसे अभाव से ऐसी दुर्गति पा रहे हैं। यथार्थ विपदा तो जीव पर मोह की, भ्रम की है। भ्रमी पुरुष अपने को भ्रमी नही समझ सकता। यदि अपनी करतूत को भ्रमपूर्ण मान ले तो फिर भ्रम ही क्या रहा? भ्रम वह कहलाता है जिसमें भ्रम-भ्रम न मालूम होकर यर्थाथ बात विदित होती है भ्रमका ही नाम मोह है। लोग विशेष अनुराग को मोह कह देते हैं किन्तु विशेष अनुराग का नाम मोह नही है, भ्रम का नाम मोह है। राग के साथ-साथ जो एक भ्रम लगा हुआ है, यह मेरा है, यह मेरा हितकारी है, ऐसा जो भ्रम है उसका तो नाम मोह है और सुहावना जो लग रहा है उसका नाम राग है।
भ्रमकी चोट—राग से भी बड़ी विपदा, बड़ी चोट मोह की होती है। इस मोह में यह जीव दूसरे की विपदा को तो संकट मान लेता है। अमुक बीमार है, यह मर सकता है इसका मरण निकट आ गया है, ये लोग विपदा पा सकते हैं। सबकी विपदावों को निरखता जायगा, सोचता जायगा किन्तु खुद भी इस विपदा में ग्रस्त है ऐसा ध्यान न कर सकेगा। इस भ्रमके कारण, बाह्यदृष्टिके कारण यह जीव सम्पदासे क्लेश पा रहा है और उस ही सम्पदामें यह अपनी मौज ढूंढ रहा है। ज्ञानी पुरुष न सम्पदामें हर्ष करता है और न विपदा में विषाद मानता है।