वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 45
From जैनकोष
परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखं।
अत एव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः।।४५।।
दु:ख और सुख का हेतु—परपदार्थ पर ही है, इस कारण उससे दुःख होता है और आत्मा-आत्मा ही है अर्थात् अपना-अपना ही है, इस कारण उससे सुख होता है लोक में भी व्यामोही जन कहते हे कि अपना सो अपना ही है, उसका ही भरोसा है, उसका ही विश्वास है और जो पराया है सो पराया ही है, न उसका भरोसा है, न उससे हित की आशा ही है। आत्महित के पंथ में यह कहा जा रहा है कि आत्मा का जो आत्मीय तत्त्व है, जो इसके निजी सत्ता की बात है वह तो स्वयं है, उससे तो सुख हो सकता है, और सहज स्वभाव को त्यागकर अपने स्वरूप का विस्मरण करके जो अन्य पर में आपको बसाया जाता है और जो परभाव उत्पन्न होते है? वे पर है, उनसे हित की आशा नहीं है।
अपनी स्थिति का विचार—भैया ! हम आप सब जीव कब से है, इसका अनुमान तो करो। लोक में जो भी पदार्थ है उनमें ऐसा कुछ नहीं है कि वे पहिले कुछ न थे और बाद मे हो गए हो। ऐसा कुछ भी उदाहरण न मिलेगा जो पहिले कुछ भी न रहा हो और बाद मे हो गया हो। यो ही अपने बारे में विचारो, जिसमें मैं-मैं की अन्तर्ध्वनि होती है, जिसको मैं कहा जा रहा है। ऐसा कोई यह पदार्थ चूँकि समझ रहा है, ज्ञान कर रहा है इसलिए ज्ञानमय ही होगा। यह ज्ञानमात्र मैं तत्त्व स्वयं से बना हूँ। मैं कब से हूँ? अनादि से हूँ स्वतः सिद्ध हूँ, तो उसका अर्थ ही यह निकला कि सदैव से हूँ ऐसे अनादि से हम और आप है, इन दृश्यमान पर्यायों से मैं विविक्त हूँ। खुद भी समझ रहे हैं कि ४०-५० वर्ष से यह पर्याय है, पर इसके पहले मैं था या न था—इस पर विचार कीजिए। ऐसा तो नहीं हो सकता कि इस मनुष्य भव से पहिले मैं शून्य था या अविकारी था, क्योंकि शुद्ध होता तो कोई कारण नहीं है कि यह आज अशुद्ध रहता । था शुद्ध अनादि से तो शुद्ध रूप ही तो होऊँगा, फिर कैसे आज अशुद्ध हो गया?
आंखों देखा निर्णय—जैसे हम मनुष्यो को और मनुष्य को छोड़कर अन्य जीवों को देखते हैं और इस ही प्रकार के अन्य भी अनेक जीव जो आंखों दिखने में नहीं आए किन्तु परोक्ष से आज भी किसी पर को जान लेते हैं,ये सब अनादिकाल से ऐसी ही चतुर्गति योनियों में भ्रमण करते आए है, अनन्त भव धारण किए, छोड़ा, फिर धारण किया। किसी भी भव का समागम आज नहीं है और यह भी निर्णय हे कि इस भव का समागम भी आपके पास न रहेगा। आँखों देखी भी बात है। जो भी मरण करेंगे तो आज जो कुछ उनके पास समागम है क्या वह साथ देगा? अथवा यहाँ कुछ सर्वस्व है क्या अपना? कितना बड़ा अज्ञान अंधकार छाया है कि इन समागमों का यथार्थस्वरूप नहीं जान सकते हैं। गृहस्थ व्यवस्थ हैं, करनी पड़ती है, ठीक है, पर सच्चा ज्ञान तो ज्ञान साध्य बात है। कुछ भी समागम न मेरे साथ आया है और न आगे जायगा, और जब तक भी यह साथ है तब तक भी मेरे से न्यारा है, पर है, इन सबका मुझ में अत्यन्ताभाव है। ये पर है, जो पर है, पराया है उससे हमारा क्या हित हो सकता है? वह तो दुःख का ही निमित्त बनेगा।
उत्तम समागम का उपयोग—आज हम आपने बहुत अच्छी स्थिति पायी है मनुष्य हुए, श्रावक कुल मिला, जहाँ अहिंसामय धर्म का सदाचार का ही उपदेश है, वातावरण है। जितने भी हम आपके इस शासन में जो भी पर्व आते हैं,जो भी विधि-विधान होते हैं वे अहिंसापूर्ण और बड़ी पवित्रता को रखते हुए होते हैं। परम्परा भी कितनी विशुद्ध है? शास्त्र स्वाध्याय की भी शुद्ध परम्परा है। ग्रन्थ भी कितने निर्दोष है, जिनमें रागद्वेष मोह के त्याग को ही उपदेश भरा है, और वह मोह का त्याग एक वस्तुस्वरूप के यथार्थ ज्ञान पर अवलम्बित है, ऐसा स्वरूप का निर्णय भी इस स्याद्वाद शैली में किया हुआ मिलता है। कितनी उत्कृष्ट बातें हम आपको प्राप्त है। इतनी अच्छी स्थिति में आकर भी परपदार्थों के मोह के राग के ही स्वप्न देखा करे तो अपने हृदय से पूछ लो कि मनुष्य बनकर कौनसी ऐसी अलौकिक चीज पायी, जिससे हम यह कह सकें कि हमने मनुष्य जन्म को सफल किया। सफलता तो उसे कहते हैं जिसके बाद ऊँची स्थिति मिले। मनुष्य होने के बाद कीड़ा मकोड़ा हो गए, वृक्ष पतंगे बन गए तो मनुष्य जन्म पाने की सफलता कैसे कही जा सकती है?
निजहित के बिना परहित कैसा—भैया ! अपने स्वार्थ की सिद्धि प्रत्येक जीव चाहता है। स्वरूप ही ऐसा है कि प्रत्येक पदार्थ अपना ही अर्थ कर सकता है। जिसमें अपने आत्मा का हित हो, जो भविष्य में सदा काम आए, ऐसी कोई बात सिद्ध कर ले उससे ही जीवन में सफलता है। यदि हम परमार्थ पद्धति से अपना प्रयोजन साध लें तो अनेकों का उपकार आपके निमित्त से स्वतः बनता रहेगा और जब तक हम अपने आपके सदाचार सम्यग्ज्ञान स्वावलम्बन को तजकर केवल एक बड़प्पन के लिए परके उपकार की हम एक डींग मारें तो समझ लीजिए कि वहाँ पर का उपकार भी असम्भव है और अपना भी उपकार असम्भव है। कोई पुरुष यह माने कि मैं धर्म की प्रभावना करूँ, लोगो की दृष्टि में यह बात बैठ जाय कि इसका धर्म बड़ा पवित्र है। मैं उपदेश करूँ उपदेश कराऊँ, और विधिविधान से प्रभावना करूँ, और स्वयं के लिए कुछ नहीं, वही मोह वही रागद्वेष, वही अंतः अवगुण, वे सब बने रहें, किन्तु दूसरों में धर्म की प्रभावना हो, ऐसे ही दूसरे तीसरे सोच ले। १०० हो तो १०० भी सोच ले, तो प्रत्येक पुरुष ने ९९ को धर्म प्रभावना करने के लिए धर्म बताने के लिए अथक परिश्रम किया, किन्तु वे १०० के १०० ही रंच भी नहीं बढ़ सके धर्म की और, न प्रभावना हुई । यदि उनमें ५ भी सत्पुरुष ऐसे निकले कि अपना उपकार और सम्यग्ज्ञान में भव बनाएँ तो पांच का तो उपकार हुआ, और उन पांच के अंतरंग की बात दूसरों के अंतरंग में पहुँचती है ऐसे व्यवहार नीति कहती है। तो वास्तविक मायने में कुछ औरो का भी उपकार सम्भव है।
समागम की विनश्वरता का ध्यान—भैया ! अपन सबको मुख्य दृष्टि यह रखना चाहिए कि मुझे तो अपना भला करना है। ये सब समागम किसी न किसी दिन बिछुड़ेंगे। यहाँ मेरा कुछ नहीं है। अपनी साधना निर्विघ्न बनी रहे, इसके लिए कमजोर अवस्था में गृहस्थी स्वीकार करनी पड़ी है और कर रहे हैं,गृहस्थ की पदवी में करना चाहिए किन्तु यथार्थ ज्ञान से यदि अपन हट गए तो मनुष्य जन्म की सफलता न समझिए। देहादिक परपदार्थ पर ही है, इनकी प्रीति से, आसक्ति से केवल क्लेश ही है। इस शरीर की सेवा करनी पड़ती है। शरीर स्वस्थ रहे तो हम धार्मिक व्यवहार करने में समर्थ रहेंगे और हम अपनी ज्ञानदृष्टि रख सकेंगे। ज्ञान हमने अपना शुद्ध रख पाया तो अंतः सयंम बनेगा और उससे आत्महित होगा। ज्ञानी पुरुष समस्त क्रियावों को करके भी उसमें किसी न किसी ढंग से आत्महित का ही प्रयोजन रखता है। हम प्रभु की भक्ति तो करे, पूजन वंदन करे और चित्त में उनका आदर्श न समझ पाये, अपने अंतरंग से यह ध्वनि न बन सके कि हे प्रभो! करने लायक बात तो यही है जो आपने की। मुझे भी यही स्थिति मिले तो संकट छूट सकेंगे। यदि ऐसी अन्तर्ध्वनि न निकल सके तो वंदन पूजन मोक्षमार्ग के संदर्भ में क्या लाभ पाया ?
निज स्वरूप की प्रतीति—निर्णय रखिये पक्का कि जो परपदार्थ है वे पर ही है, उनके आकर्षण से, उनकी प्रीति से क्लेश ही होगा। जो भीतर में चित्त रंग गया हे, मोह और लोभ के उस रंग को धोने की बात कही जा रही है। गृहस्थी में रह रहे हैं,ठीक है, पर परपदार्थ में जो मोह का रंग रँगा हुआ है, अंतर मे जो यह श्रद्धा बनी है कि मेरे तो सर्वस्व ये ही सब है, इनसे ही हित है, बड़प्पन है, ये ही मेरी जान है, ऐसा जो मोह का रंग चढ़ा हुआ हे जो कि बिल्कुल व्यर्थ है, उसे मेटिये। कुछ दिन की बात है, छोडकर सब जाना ही पड़ेगा। पर से उपेक्षा करके आत्मरुचि बढ़ा लो। यह तो अपने हित की बात है किसी दूसरे को सुनाना नहीं है, घर कुटुम्ब के लोगों से कुछ कहने की जरूरत नहीं है कि तुम सब पर हो, नरक निगोद की खान हो, तुम्हारी प्रीति से दुर्गति ही होगी, ये तो लड़ाई के उपाय है। किसी से कुछ कहने की बात नहीं कही जा रही है किन्तु अपने चित्त में सही ज्ञान तो जगाओ। बात जो हो उसे मान लो, बड़ा आनन्द होगा, आपका बोझ दूर हो जायगा।
निर्भार के अवलम्बन में भार का हटाव—भैया ! मोह को जो बोझ लदा है, जिससे शान्ति का मार्ग नजर नहीं आता है उस बोझ के हटाने में कुछ कठिनाई मालूम हो रही है क्या? आज एक कुटी में इन अनन्त जीवो में से कोई दो चार जीव आ गए। ये दो चार जीव न आते, कोई और ही आते तो उन्हें भी अपना मानने की आदत थी। जिसे अपना माना है कोई हिसाब से नहीं माना है। जो आया सामने उसे ही अपना माना है। मोह की आदत इसमें पड़ी है ना, सो जो भी जीव सामने संग में प्रसंग में आ गया उसे ही अपना मान लेते हैं,ऐसी अटपट बात है यह । जैसे अनन्त जीव भिन्न है, इस ही प्रकार ये जीव भी भिन्न है ऐसा यहाँ निर्णय अपने अन्तःकरण में लीजिये । कुछ कहने सुनने से आनन्द नहीं आता है। भीतर में ज्ञान का और उस प्रकार के श्रद्धान का आनन्द आया करता है।
स्निह्य के वियोग में क्लेश की अनिवार्यता—भैया ! सभी को सुख प्रिय है, अशान्ति दूर हो, शान्ति उत्पन्न हो, इसके लिए ही सबका प्रयत्न है। वह शान्ति परमार्थ से वास्तव में जिस भी उपाय में मिलती हो उसको मना तो नहीं करना चाहिए। खूब परख लो, किसी भी विषय साधन के संचय में, किसी भी परपदार्थ के उपयोग में, आसक्ति में, कभी क्या शान्ति मिल सकती है? इस उपयोग ने जिन पदार्थों को विषय किया है वे तो नियमतः विनाशीक है, वे मिटेंगे, तो यह उपयोग फिर इसकी कल्पना में निराश्रित होगा ना, तब क्लेश ही तो होगा। इस उपयोग से जिस पर पदार्थ का विषय आता है वह पर स्वयं की अपनी परिणति से परिणमता है, परपदार्थ का परिणमन उसके ही कषाय के अनुरूप होगा। परपदार्थ का उपयोग और प्रेम केवल क्लेश का ही कारण होता है । चलते जाते, फिरते, सफर करते हुए में भी कही एक आध दिन टिक जाय, कुछ वार्तालाप के प्रसंग में कुछ स्नेह भाव बढ़ जाय तो उनके वियोग के समय भी कुछ विषाद की रेखा खिंच जाती है। यद्यपि जिससे वार्तालाप होता है वह अन्य देश, अन्य नगर, अन्य जाति का है, सर्व प्रकार से अन्य-अन्य है, कुछ प्रयोजन नहीं है, केवल कभी जीवन में मिल गया है। दो एक घंटे को रेल मे सफर करते हुए, उससे कुछ वार्तालाप होने को स्नेह जग गया, अब वह अपने निर्दिष्ट स्टेशन पर उतरेगा ही, तो वहाँ पर उस स्नेह करने वाले के एक विषाद की रेखा खिंच जायगी। ऐसा ही यह जगत के जीवो का प्रसंग हे। इस अनन्तकाल में कुछ समय के लिए यहाँ कुछ लोग मिल गए है। जिन पुत्र, मित्र, स्त्री, आदि से स्नेह बढ़ गया है उनका जब विछोह होगा तो इसे क्लेश होगा। बिछुड़ना तो पड़ेगा ही।
भेद विज्ञान के निर्णय की प्रथम आवश्यकता—एक ही निर्णय है कि अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर अन्य किसी भी परपदार्थ में स्नेह किया, ममता की चाहे कुटुम्ब परिजन के लोग हो, चाहे जड़ सम्पदा हो, किसी भी परपदार्थ में ममता जगी तो उसका फल नियम से क्लेश है। हम जिस प्रभु की आराधना करते हैं वह पुरुष तो केवल है ना। उनके भी घर गृहस्थी परिग्रह का प्रसंग है क्या? वे तो केवल ज्ञानपुंज रह गये हैं,हम ऐसे ज्ञानपुंज की तो उपासना करें और चित्त में यह माने कि सुख और बड़प्पन तो घर गृहस्थी सम्पदा के कारण होता है। तो हमने क्या माना, क्या पूजन किया, क्या भक्ति की ? चित्त में एक निर्णय रख लीजिए और इस बात के निर्णय में यदि बुद्धि नहीं आती है तो इसका निर्णय प्रथम कीजिए। भेदविज्ञान जगे बिना धर्मपालन की पात्रता न आ सकेगी। स्वयं के हित का उपाय बना लेना सर्वोत्तम व्यवसाय वे पुरूषार्थ है, उससे आँखे नहीं मींचना है।
परसे आनन्दप्राप्ति असंभव—ये सब समागम तो एक पुण्य पाप के ठाठ है, भिन्न है, सदा रहने के नहीं है, इनके समागम के समय भी हित नहीं है और वियोग के समय क्लेश के निमित्तभूत हो सकते हैं। इन जड़ पदार्थों से क्या हित है? जिन पदार्थों में स्वयं सुख नहीं है वहाँ से सुख निकलकर मुझमें कहाँ आयगा? जो चेतन भी पदार्थ है, परिजन, मित्रजन उनमें सुख गुण तो है, किन्तु वह सुख गुण उनमें ही परिणमन करने के लिए है या उनका कुछ अंश मुझमें भी आ सकता है? उनमें ही परिणमन करने के लिए उनका सुख गुण है। जब इतना अत्यन्त भेद है फिर उनमें आत्मीयता की कल्पना क्यों की जाय? जो उन्हें अपना मानेंगे उनके वियोग में अवश्य दुःखी होगा। गृहस्थ जनों का यह सामान्य कर्तव्य है कि यह निर्णय बनाए रहे, संयोग के काल में भी जो-जो कुछ यहाँ मिला है नियम से अलग होगा, ऐसी श्रद्धा होगी तो संयोग के काल में यह जीव हर्षमग्न न होगा। संयोग के काल में हर्षमग्न न हो वह वियोग के काल में भी दु:ख न मानेगा।
आत्मलाभ का उपाय—भैया ! किसी भी पर से आत्मा को सुख नहीं, केवल जो आत्मा पदार्थ है, ज्ञायकस्वरूप है वह ही अपना सर्वस्व है। उसे अपनाने से, उसमें ही यह मात्र मैं हूं, ऐसी प्रतीति करने से सुख मिलेगा। बड़े-बड़े महापुरुष तीर्थंकरों ने भी यही मार्ग अपनाया था, जिसके फल में आज उनमें अनन्त प्रभुता प्रकट हुई है। हम आप उनके उपासक होकर उस स्वरूप की दृष्टि न करें तो कैसे हित हो? अपना जीवन सफल करना चाहते हैं तो यही बड़ा तप करने योग्य है कि उस अपने ज्ञायकस्वरूप को आत्मा मानकर, अपना मानकर उसमें ही उपयोग लीन बनाए रहे, इसे चैतन्यप्रतपन कहते हैं। यही प्रतपन है और इस प्रतपन का प्रताप अनन्त आनन्द को देने वाला है। अपना यही एक निर्णय रखिए कि ये देहादिक समस्त परपदार्थ है, इनकी प्रीति में हित नहीं है, किन्तु ज्ञायक प्रकाशमात्र अपने आत्मा को ’यह मैं हूं’ ऐसा अनुभव करें तो इसमें ही हित है।