वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 27
From जैनकोष
एयरसरूवगंधं दोफासं तं हवे सहावगुणं।
विहावगुणमिदि भणिदं जिणसमये सव्वपयडत्तं।।27।।
पुद्गल के स्वभावगुण और विभावगुण―एक रस, एक रूप, एक गंध और दो स्पर्श होना, यह तो है स्वभावगुण और विभावगुण तो सर्व इंद्रियों द्वारा ग्राह्य हो सके, ऐसा सर्वप्रकटपना है। पुद्गल में चार गुणों का होना अनिवार्य है―रूप, रस, गंध और स्पर्श। कोई भी पुद्गल इन चार गुणों से कम गुण वाला नहीं है। जहां इसमें से एक गुण वाला होता है, वहाँ चारों गुण होते हैं। ये गुण शक्तियां हैं, अनादि अनंत स्वभावरूप हैं।
पुद्गलगुणों के परिणमनों का विवरण―अब पुद्गल के गुणों में प्रत्येक के भेद कहे जा रहे हैं। रस 5 प्रकार के परिणमन को प्राप्त होता है अर्थात् रसगुण के मूल 5 परिणमन होते हैं―तीखा, कडुवा, कषैला, खट्टा और मीठा। इन पांचों में सब रस आ गये। नमक, मिर्च―ये तीखे माने जाते हैं और करैला, गुरबेल, नीम―ये कटुस्वाद में आते हैं। कषैला जैसे आंवला होता है। खट्टापन नींबू, करौंदा जैसे फलों में होता है। शक्कर या अन्य मीठे फलों में मधुर रस होता है। जितने प्रकार के रस होते हैं, वे इन पांचों के तारतम्य और संयोग से होते हैं और शुद्ध भी होते हैं। पुद्गलपरमाणुओं में इन 5 रसों में से एक रस रहता है। कोई-सा भी रस हो। वर्ण 5 होते हैं―सफेद, पीला, नीला, लाल और काला। इन पाँच वर्णों में सभी वर्ण आ गये। जो वर्ण नाना प्रकार के दिखते हैं, वे तो 5 वर्णों में तारतम्य और मिलावट को लिए हुए हैं। जैसे नीला, सुवापंखी तथा गुलाबी आदि रंग हैं―ये सब किन्हीं रंगों के मेल से बने हैं। पुद्गलपरमाणुओं में इन 5 वर्णों में से कोई एक वर्ण होता है। गंधशक्ति के दो भेद हैं―सुगंध और दुर्गंध। पुद्गलपरमाणु में सुगंध या दुर्गंध में से कुछ एक होगा। स्पर्शशक्ति के 8 परिणमन हैं―रूखा, चिकना, ठंडा, गर्म, कड़ा, नरम, हल्का व भारी। इनमें से चार तो आपेक्षित स्पर्श हैं और चार स्वतंत्र परिणमन हैं। हल्का, भारी, कड़ा, नरम―ये स्कंध में ही होते हैं। ठंडा, गरम, रूखा, चिकना―ये स्पर्शगुण के स्वतंत्र परिणमन हैं। पुद्गलपरमाणुवों में इन स्वतंत्र परिणमनों में से कोई से दो स्पर्श होते हैं।
एक गुण के दो परिणमन के विरोध में जिज्ञासा व समाधान―यहाँ जिज्ञासा हो सकती है कि एक गुण के दो पर्याय किसी पदार्थ में नहीं हुआ करते, किंतु यहाँ एक परमाणु में दो स्पर्श बताये जा रहे हैं। तब क्या इस नियम का उल्लंघन है कि एक पदार्थ में एक शक्ति के दो परिणमन एक समय में नहीं होते? समाधान यह है कि नियम का उल्लंघन कहीं नहीं है। वहाँ भी वास्तव में दो शक्तियां हैं, दो गुण हैं। एक गुण के तो स्निग्ध और रूक्षत्व जैसा कुछ परिणमन होता है और एक गुण का ठंडा या गरम में से एक परिणमन होता है। उन गुणों का नाम क्या है? अत: अप्रयोजनीभूत होने से उनका नाम नहीं मिलता है, किंतु वे सब परिणमन स्पर्शन द्वारा ग्राह्य हैं, इस प्रयोजन को लेकर सामान्यरूप से एक स्पर्शगुण के परिणमन बता दिये जाते हैं। जैसे जीव में एक चैतन्यस्वभाव है, उस चैतन्यगुण के दो परिणमन हैं―जानना और देखना। तब क्या यहाँ भी इस नियम का उल्लंघन किया जा रहा है कि एक पदार्थ में एक शक्ति के एक समय में दो परिणमन नहीं होते हैं? समाधान यह है कि नियम का उल्लंघन नहीं है। जीव में वैसे दो शक्तियां है―एक ज्ञानशक्ति और दूसरी दर्शनशक्ति। किंतु उन दोनों शक्तियों का कार्य प्रतिभासस्वरूप है, इस नाते से एक चैतन्यस्वभाव से कह दिया जाता है।
परमाणुओं के प्रकार―परमाणु में एक समय में दो स्पर्श होते हैं। इस प्रकार दो स्पर्श होना, एक रस, एक रूप, एक गंध होना, इसे कहते हैं पुद्गल का स्वभावगुण प्रवर्तना। एक कोई परमाणु किसी रूप को लिए हुए है, कोई परमाणु किसी रूप को लिए हुए है। इन पांचों में से कोई रूप हुआ, किसी का कुछ है, किसी का कुछ है। 5 रसों में से कोई रस हो और चार स्पर्शों में से कोई दो स्पर्श हों, दो गंधों में कोई गंध हो। कुल परमाणु हमें कितनी तरह के मिलेंगे? इस गुणपरिणमन की दृष्टि में वहाँ मेल का कोई सवाल नहीं है। अत: 5 रसों में 5 रूपों का गुणा किया तो 5×5=25 और उसमें दो गंधों का गुणा किया तो 25×2=50 और उसमें चार स्पर्शों का गुणा किया तो 50×4=200। अत: अनंतपरमाणु 200 प्रकार के पाये जाते हैं।
विभावपुद्गलों में विभावगुण―यह तो जैनसिद्धांत में परमाणु का स्वभावगुण बताया है और विभावगुण विभावपुद्गल में होता है अर्थात् स्कंधों में विभावगुण होता है। उस विभावगुण के होने में स्पष्ट रूप से यह जान लीजिए कि वहाँ 8 स्पर्शों में से कोई से चार स्पर्श होते हैं। जब तक परमाणुओं का मेल न बने तब तक उनमें कड़ा और नरम का भेद नहीं आ सकता है। एक परमाणु का क्या कड़ा होना अथवा क्या नरम होना, इस प्रकार हल्का भारी यह भेद भी एक परमाणु में नहीं होता है। तो ये विभाव स्पर्श विभावपुद्गलों में पाये जाते हैं। विभावपुद्गल का अर्थ है कि कई परमाणुओं का पुंजरूप स्कंध। कम से कम स्कंध दो अणुवों का पिंड होता है और फिर बढ़ते-बढ़ते अनंत परमाणुओं का स्कंध होता है। सुई की नोक पर ही जितना टुकड़ा खड़ा हो सकता है कागज का या मिट्टी का उस कण में अनंत परमाणु हैं। अनंत परमाणुओं के पिंड स्वरूप भी कई ऐसे हैं जो आँख से देखने में स्कंध नहीं आ सकते। इन स्कंधों में विभावगुण होते हैं।
विभावगुणों की इंद्रियग्राहता―ये विभावगुण इंद्रियों द्वारा ग्राह्य होते हैं। स्पर्श ने स्पर्श जान लिया, रसना ने रस पहचान लिया, घ्राण ने गंध समझ लिया, नेत्र से रूप परख लिया और कर्णेंद्रिय से शब्द का परिज्ञान कर लिया। समस्त इंद्रियों द्वारा ये पुद्गल स्कंध ग्राह्य होते हैं। शब्द गुण नहीं है, न गुण का परिणमन है किंतु वह एकद्रव्य व्यंजन पर्याय है। पर वह इंद्रियों द्वारा ग्राह्य होती है। कर्ण द्वारा, इसी कारण उसे कह दिया है।
शुद्धात्मा की भांति शुद्धाणु में एकत्व परिणमन― एक परमाणु की गुणात्मकता के इस प्रकरण में यह जान लीजिए कि जैसे शुद्ध जीव अपने परिपूर्ण स्वतंत्रतया समर्थ एक-एक गुण के कार्य में निरंतर रत रहता है, ऐसे ही ये परमाणु मेल से रहित अपने स्वतंत्र एक-एक गुण परिणमन से वे परिणमते रहते हैं। वे परमाणु के एक वर्ण रस आदिक होते हैं और उनसे वे विकासमान हैं―रहो, उनमें मेरी कौनसी सिद्धि है? मेरी सिद्धि तो मेरे ही चित्त में एक शुद्ध आत्मतत्त्व बसे तो है। वह परमाणु में है अर्थात् गुणों के पुंज में है। परपदार्थ हैं, उनके कुछ भी शुद्ध परिणमन से मेरे आत्मा में कोई सिद्धि नहीं है। इस कारण जो परआनंद का अर्थी है ऐसा ज्ञानी संत एक निज आत्मतत्त्व की भावना करता है।
निर्विकल्प समाधि―आत्मा का हित निर्विकल्प समाधिभाव में है। निर्विकल्प समाधि वहाँ प्रकट होती है जहां जाननहार और जाना जाने वाला यह एक रस हो जाता है। विकल्प उत्पन्न होने का अवकाश वहाँ नहीं मिलता है जहां ज्ञान और ज्ञेय एक होता है। ज्ञान और ज्ञेय भिन्न हुए तो वहाँ विकल्प आ ही पड़ेंगे। ज्ञान और ज्ञेय भिन्न कब हो जाते हैं? जब जानने वाला तो यह आत्मा है और जानने में आये हुए हैं परपदार्थ, तो पर और आत्मा ये एक रस कहां हो सकते हैं? ये तो अत्यंत जुदा हैं। वहाँ विकल्प ही आयेंगे और कदाचित् इस आत्मा को भी जानने में लगें इसमें अनंतगुण हैं, ऐसा परिणमन है। सब चमत्कारों का ज्ञान करने में लगें, क्या उस स्थिति में भी हम निर्विकल्प समाधि पा सकते हैं? खुद को जानकर भी यह खुद पर बना हुआ हो तो वहाँ भी समाधि नहीं पा सकते हैं। जब जाननहार ज्ञान में जाननहार ज्ञान के स्वरूप को ही जाना तब वहाँ एक रस बनता है और निर्विकल्प समाधि प्रकट होती है।
निर्विकल्पसमाधि की पात्रता―भैया ! ज्ञान, ज्ञान के अतिरिक्त अन्य भावों को जाने तो वहाँ भी ज्ञान ज्ञेय का भेद पड़ जाता है। तो जहां अपने आपके गुणों के, पर्यायों के नाना प्रकार के परिज्ञान से भी निर्विकल्प समाधि के अर्थ उस काल में सिद्धि नहीं होती तो परपदार्थों का ज्ञान करते रहने से, उनमें उपयोग दिए रहने से हमारी सिद्धि कहां से होगी? हैं ये सब जान लिया, हाँ इन्हें भी केवल जानकर छोड़ा तो पात्रता ऐसी जरूर है कि निर्विकल्प समाधि होगी। जो जानने के साथ राग और द्वेष से भी लिप्त हो जाता है उसके निर्विकल्प समाधि अथवा आनंद प्रकट नहीं होता है। आत्मा की उत्कृष्ट सरलता यही है कि ज्ञान और ज्ञेय में भेद न हो जाने पाय।
स्कंधों के परिज्ञान की अपेक्षा परमाणु के परिज्ञान का अच्छा असर―इंद्रिय द्वारा व्यक्त और अपने रागद्वेष संस्कारों के कारण शीघ्र समझ में आने वाले इन स्कंधों के परिज्ञान की अपेक्षा परमाणु विषयक परिज्ञान करने में कुछ भलाई तो है, पर ज्ञान ज्ञेय की एकरसता वहां नहीं हो पाती है। भलाई यों है कि परमाणु को जानकर जरा परमाणु में रागद्वेष तो करो, आप क्या करोगे रागद्वेष? और स्कंधों को जानकर स्कंधों में रागद्वेष बना सकते हैं। फिर यों समझिये कि जैसे किसी को हिचकी बहुत आती हो और उसे कोई चालाक बालक चतुर बालक कुछ घबड़ाहट के ढंग से उसको यह कहे कि तुमने आज बड़ा गजब कर डाला, उसकी चोरी क्यों की या और बात लगा दे जिससे वह कुछ अचंभे में पड़ जाय, तो इस अचंभे की स्थिति में उसकी हिचकी रुक जाती है। लोग ऐसा करते भी हैं। तो जो कहीं कुछ समझ में आ रही है बात उनकी समझ में हिचकी नहीं रुकती और कोई कठिन ऊदबिलाव जैसी बातें मार दें अर्थात् एक विलक्षणता के बोध की दृष्टि करा दें तो उसकी हिचकी रुक जाती है। तो परमाणु का परिज्ञान भी ऐसा विलक्षण बोध है कि परमाणु के वर्णन में चाहे एक रसपना एक वर्णपना एक गंधपना दो स्पर्शपना के जानने में लगे और एक प्रदेशमात्र है, अविभागी है आदि बातों के जानने में लगे, किंतु दद्दा नानी की खबर तो रहेगी नहीं, और ऐसे ही धन वैभव की खबर न रहेगी। तो इसमें कुछ नफा सा मिला कि नहीं? रागद्वेष के प्रवाह से तो अलग हो गए, किंतु यहाँ तो यह समझता है कि ऐसे ही विलक्षण स्वरूप वाले परमाणु के बोध में भी हम विकल्प करें तो जानने वाला तो और है और जानने में आया कुछ और है इस कारण वहाँ एक रसपना नहीं हो सकता है।
परपरिज्ञान के निरोध की आवश्यकता―भैया ! उक्त प्रकार से जब तक भी बुद्धि परपदार्थों को जानकर इष्ट अनिष्ट भाव लाती है अर्थात् व्यभिचारिणी है तब तक इसको पर-घर जाने से मना करो। और जब हमारी आपकी बुद्धि इतनी समर्थ हो जाय कि ये परपदार्थ भी जानने में आएं तो भी यह बुद्धि व्यभिचारिणी न होगी अर्थात् रागद्वेष को उत्पन्न करने वाली न होगी, जैसे कि ज्ञानीसंत पुरुषों के ऊँचे गुणस्थान वालों में सामर्थ्य होती है ऐसी सामर्थ्य हो जाय तो वहाँ फिर हटने और लगने का कोई उपदेश नहीं है, जो चाहे ज्ञान में आए। जैसे नई बहूओं को पर-घर जाने का सभी निषेध करते हैं और बड़ी बूढ़ी होने पर उन्हें कौन निषेध करता है, इसी प्रकार जब तक बुद्धि परपदार्थों में इष्ट अनिष्ट की कल्पना करने के लिए बनी हुई है तब तक आचार्य महाराज मना करते हैं कि पर को छोड़कर अपने आपको जानो, पर-घर न जावो। अपने ही घर में बुद्धि को लावो और जब इस ज्ञानाभ्यास के द्वारा उदासीनता प्रकट हो जायेगी तब का यह वर्णन है कि चाहे परमाणु ज्ञान में आये चाहे कुछ ज्ञान में आए, पृथक्त्ववितर्क विचार व एकत्ववितर्क अविचार ध्यान में कुछ आता रहे उससे आत्मविकास में कोई बाधा नहीं आती है। पर इस समय हम आप ऐसी स्थिति में है कि पर-घर जाने से अपनी बुद्धि को रोकना चाहिए और अपने ही घर में अपनी बुद्धि को लाना चाहिए। इस प्रकार स्वभावज्ञान और विभाव ज्ञान के प्रकरण में यहाँ गुणदृष्टि से परमाणु और स्कंध के परिणमनों का वर्णन किया गया है।
अब पुद्गल पर्याय का स्वरूप बतला रहे हैं।