अन्तराय
From जैनकोष
ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों मे आठवां कर्म । यह इष्ट पदार्थों की प्राप्ति में विघ्नकारी होता है । इसके पाँच भेद होते हैं—दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर, जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और मध्यमस्थिति विविध रूपा होती है । हरिवंशपुराण 3.95-98, 58.218 280-287, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.156-160 देखें कर्म ।