जाति
From जैनकोष
(1) शारीर स्वर का एक भेद । हरिवंशपुराण 19.148
(2) गान्धर्व के तीन भेद है― स्वर, ताल और पद (बोल) । इनमें पदगत गान्धर्व को जाति कहते हैं । हरिवंशपुराण 19.149,
(3) माना के वंश की शुद्धि । महापुराण 39.85
(4) पारिव्राज्य क्रिया के परमेष्ठियों के गुणरूप सत्ताईस सूत्रपदों मे प्रथम सूत्रपद । उत्तम जाति को प्राप्त अर्हन्त के चरण सेवक दूसरे जन्म में दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार जातियों को प्राप्त होता है । इन जातियों मे दिव्या इन्द्र के, विजयाश्रिता चक्रवर्तियों के, परमा अर्हन्तों के और स्वा मोक्ष प्राप्त जीवों के होती है । महापुराण 39.162-168
(5) जीवों का वर्ग-भेद । जीव अनेक प्रकार के होते हैं । शारीरिक विशेषताओं के कारण जाति भेद होता है । पद्मपुराण 11. 194-195
(6) मुलत: मनुष्य जाति एक ही थी । आजीविका के कारण इसके चार भेद किये गये । महापुराण 38.45-46 सामान्य रूप से जन्म के कारण व्यक्ति को किसी वर्ण विशेष से सम्बन्धित माना जाता है किन्तु यथार्थ मे वर्ण व्यवस्था गुणों के आधीन मानी गयी है, जाति के आधीन नहीं । कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है क्योंकि गुणों से ही कल्याण होता है जाति से नहीं । व्रतों को पालने वाले चाण्डाल को भी ब्राह्मण कहा गया है । पद्मपुराण 11. 198-203