ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 23
From जैनकोष
त्रयोविंशं पर्व
अथानंतर―जो दैदीप्यमान मणियों की कांति के समूह से अनेक इंद्रधनुषों की रचना कर रहा है, जो स्वयं इंद्र के हाथों से फैलाये हुए पुष्पों के समूह से सुशोभित हो रहा था और उससे जो ऐसा जान पड़ता है मानो मेघों के नष्ट हो जाने से जिसमें तारागण चमक रहे हैं ऐसे शरद्ऋतु के आकाश की ओर हँस ही रहा हो; जिस पर ढूरते हुए चमरों के समूह से प्रतिबिंब पड़ रहे थे और उनसे जो ऐसा जान पड़ता था मानो उसे सरोवर समझकर हंस ही उसके बड़े भारी तलभाग की सेवा कर रहे हों; जो अपनी कांति से सूर्यमंडल के साथ स्पर्द्धा कर रहा था; बड़ी-बड़ी ऋद्धियों से युक्त था, और कहीं-कहीं पर आकाश-गंगा के फेन के समान स्फटिकमणियों से जड़ा हुआ था; जो कहीं-कहीं पर पद्मराग की फैलती हुई किरणों से व्याप्त हो रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेंद्र भगवान् के चरणतल की लाल-लाल कांति से ही अनुरक्त हो रहा हो, जो अतिशय पवित्र था, चिकना था, कोमल स्पर्श से सहित था, जिनेंद्र भगवान् के चरणों के स्पर्श से पवित्र था और जिसके समीप में अनेक मंगलद्रव्यरूपी संपदा रखी हुई थीं ऐसे उस तीन कटनीदार तीसरे पीठ के विस्तृत मस्तक अर्थात् अग्रभाग पर कुबेर ने गंधकुटी बनायी । वह गंधकुटी बहुत ही विस्तृत थी, ऊँचे कोट से शोभायमान थी और अपनी शोभा से स्वर्ग के विमानों का भी उल्लंघन कर रही थी ।।1-7।। तीन कटनियों से चिह्नित पीठ पर वह गंधकुटी ऐसी सुशोभित हो रही था मानो नंदन वन, सौमनस वन और पांडुक वन इन तीन वनों के ऊपर सुमेरु पर्वत की चूलिका ही सुशोभित हो रही हो ।।8।। अथवा जिस प्रकार स्वर्गलोक के ऊपर स्थित हुई सर्वार्थसिद्धि सुशोभित होती है उसी प्रकार उस पीठ के ऊपर स्थित हुई वह अतिशय दैदीप्यमान गंधकुटी सुशोभित हो रही थी ।।9।। अनेक प्रकार के रत्नों की कांति को फैलाने वाले उस गंधकुटी के शिखरों से व्याप्त हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो अनेक चित्रों से सहित ही हो रहा हो अथवा इंद्रधनुषों से युक्त ही हो रहा हो ।।10।। जिन पर करोड़ों विजयपताकाएँ बँधी हुई हैं ऐसे ऊँचे शिखरों से वह गंधकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने हाथों को फैलाकर देव और विद्याधरों को ही बुला रही हो ।।11।।। तीनों पीठोंसहित वह गंधकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो आकाशरूपी सरोवर के मध्यभाग में जल में प्रतिबिंबित हुई तीनों लोकों की लक्ष्मी की प्रतिमा ही हो ।।12।। चारों ओर लटकते हुए बड़े-बड़े मोतियों की झालर से बह गंधकुटी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो बड़े-बड़े समुद्रों ने उसे मोतियों के सैकड़ों उपहार ही समर्पित किये हों ।।13।। कहीं-कहीं पर वह गंधकुटी सुवर्ण की बनी हुई मोटी और लंबी जाली से ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो कल्पवृक्षों से उत्पन्न होने वाले लटकते हुए दैदीप्यमान अंकुरों से ही सुशोभित हो रही हो ।।14।। जो स्वर्ग की लक्ष्मी के द्वारा भेजे हुए उपहारों के समान जान पड़ती थी ऐसी चारों ओर लटकती हुई रत्नमय आभरणों की माला से वह गंधकुटी बहुत ही अधिक शोभायमान हो रही थी ।।15।। वह गंधकुटी पुष्पमालाओं से खिंचकर आये हुए गंध से अंधे करोड़ों मदोन्मत्त भ्रमरों से शब्दायमान हो रही थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो जिनेंद्र भगवान् की स्तुति ही करना चाहती हो ।।16।। स्तुति करते हुए इंद्र के द्वारा रचे हुए गद्य-पद्यरूप स्तोत्रों के शब्दों से शब्दायमान हुई वह गंधकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो भगवान् का स्तवन करने के लिए उद्यत हुई सरस्वती हो ।।17।। चारों ओर फैलते हुए रत्नों के प्रकाश से जिसके समस्त अंग ढके हुए हैं ऐसी वह दैदीप्यमान गंधकुटी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेंद्र भगवान के शरीर की लक्ष्मी से ही बनी हो ।।18।। जो अपनी सुगंधि से बुलाये हुए मदोन्मत्त भ्रमरों के समूह से व्याप्त हो रहा है और जिसका धुआँ चारों ओर फैल रहा ऐसी सुगंधित धूप से वह गंधकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो दिशाओं की लंबाई ही नापना चाहती हो ।।19।। सब दिशाओं में फैलती हुई सुगंधि से वह गंधकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो सुगंधि से ही बनी हो, सब दिशाओं में फैले हुए फूलों से ऐसी मालूम होती थी मानो फूलों से ही बनी हो और सब दिशाओं में फैलते हुए धूप से ऐसी प्रतिभासित हो रही थी मानो धूप से ही बनी हो ।।20।। अथवा वह गंधकुटी स्त्री के समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार स्त्री का निश्वास सुगंधित होता है उसी प्रकार उस गंधकुटी में जो धूप से सुगंधित वायु बह रहा था वही उसके सुगंधित निःश्वास के समान था । स्त्री जिस प्रकार फूलों की माला धारण करती है उसी प्रकार वह गंधकुटी भी जगह-जगह मालाएँ धारण कर रही थी, और स्त्री के अंग जिस प्रकार नाना आभरणों से दैदीप्यमान होते हैं उसी प्रकार उस गंधकुटी के अंग (प्रदेश) भी नाना आभरणों से दैदीप्यमान हो रहे थे ।।21।। भगवान् के शरीर की सुगंधि से बड़ी हुई धूप की सुगंधि से उसने समस्त दिशाएँ सुगंधित कर दी थीं इसलिए ही वह गंधकुटी इस सार्थक नाम को धारण कर रही थी ।।22।। अथवा वह गंधकुटी ऐसी शोभा धारण कर रही थी मानो सुगंधि को उत्पन्न करने वाली ही हो, कांति की अधिदेवता अर्थात् स्वामिनी ही हो और शोभाओं को उत्पन्न करने वाली भूमि ही हो ।।23।। वह गंधकुटी छह सौ धनुष चौड़ी थी, उतनी ही लंबी थी और चौड़ाई में कुछ अधिक ऊँची थी इस प्रकार वह मान और उन्मान के प्रमाण से सहित थी ।।24।। उस गंधकुटी के मध्य में धनपति ने एक सिंहासन बनाया था जो कि अनेक प्रकार के रत्नों के समूह से जड़ा हुआ था और मेरु पर्वत के शिखर को तिरस्कृत कर रहा था ।।25।। वह सिंहासन सुवर्ण का बना हुआ था, ऊँचा था, अतिशय शोभायुक्त था और अपनी कांति से सूर्य को भी लज्जित कर रहा था तथा ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेंद्र भगवान् की सेवा करने के लिए सिंहासन के बहाने से सुमेरु पर्वत ही अपने कांति से दैदीप्यमान शिखर को ले आया हो ।।26।। जिससे निकलती हुई किरणों से समस्त दिशाएँ व्याप्त हो रही थीं, जो बड़े भारी ऐश्वर्य से प्रकाशमान हो रहा था, जिसका आकार लगे हुए सुंदर रत्नों से अतिशय श्रेष्ठ था और जो नेत्रों को हरण करने वाला था ऐसा वह सिंहासन बहुत ही शोभायमान हो रहा था ।।27।। जिसका आकार बहुत बड़ा और दैदीप्यमान था, जिससे कांति का समूह निकल रहा था, जो श्रेष्ठ रत्नों से प्रकाशमान था और जो अपनी शोभा से मेरु पर्वत की भी हंसी करता था ऐसा वह सिंहासन बहुत अधिक सुशोभित हो रहा था ।।28।। प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव उस सिंहासन को अलंकृत कर रहे थे । वे भगवान् अपने माहात्म्य से उस सिंहासन के तल से चार अंगुल ऊँचे अधर विराजमान थे उन्होंने उस सिंहासन के तलभाग को छुआ ही नहीं था ।।29।। उसी सिंहासन पर विराजमान हुए भगवान की इंद्र आदि देव बड़ी-बड़ी पूजाओं द्वारा परिचर्या कर रहे थे और मेघों की तरह आकाश से पुष्पों की वर्षा कर रहे थे ।।30।। मदोन्मत्त भ्रमरों के समूह से शब्दायमान तथा आकाशरूपी आंगन को व्याप्त करती हुई पुष्पों की वर्षा ऐसी पड़ रही थी मानो मनुष्य के नेत्रों की माला ही हो ।।31।। देवरूपी बादलों-द्वारा छोड़ी जाकर पड़ती हुई पुष्पों की वर्षा ने बारह योजन तक के भूभाग को पराग (धूलि) से व्याप्त कर दिया था, यह एक भारी आश्चर्य की बात थी । भावार्थ―यहाँ पहले विरोध मालूम होता है क्योंकि वर्षा से तो धूलि शांत होती है न कि बढ़ती है परंतु जब इस बातपर ध्यान दिया जाता है कि वह पुष्पों की वर्षा थी और उसने भूभाग को पराग अर्थात् पुष्पों के भीतर रहने वाले केशर के छोटे-छोटे कणों से व्याप्त कर दिया था तब वह विरोध दूर हो जाता है यह विरोधाभास अलंकार कहलाता है ।।32।। स्त्रियों को संतुष्ट करने वाली वह फूलों की वर्षा भगवान् के समीप में पड़ रही थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो स्त्रियों के नेत्रों की संतति ही भगवान् के समीप पड़ रही हो ।।33।। भ्रमरों के समूहों के द्वारा फैलाये हुए फूलों के पराग से सहित तथा देवों के द्वारा बरसायी वह पुष्पों की वर्षा बहुत ही अधिक शोभायमान हो रही थी ।।34।। जो गंगा नदी के शीतल जल से भीगी हुई है, जो अनेक भ्रमरों से व्याप्त है और जिसकी सुगंधि चारों ओर फैली हुई है ऐसी वह पुष्पों की वर्षा भगवान् के आगे पड़ रही थी ।।35।।
भगवान् के समीप ही एक अशोक वृक्ष था जो कि मरकतमणि के बने हुए हरे-हरे पत्ते और रत्नमय चित्र-विचित्र फूलों से सहित था तथा मंद-मंद वायु से हिलती हुई शाखाओं को धारण कर रहा था ।।36।। वह अशोकवृक्ष मद से मधुर शब्द करते हुए भ्रमरों और कोयलों से समस्त दिशा को शब्दायमान कर रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् की स्तुति ही कर रहा हो ।।37।। वह अशोकवृक्ष अपनी लंबी-लंबी शाखारूपी भुजाओं के चलाने से ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के आगे नृत्य ही कर रहा हो और पुष्पों के समूहों से ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के आगे दैदीप्यमान पुष्पांजलि ही प्रकट कर रहा हो ।।38।। आकाश में चलने वाले देव और विद्याधरों के स्वामियों का मार्ग रोकता हुआ अपनी एक योजन विस्तार वाली शाखाओं को फैलाता हुआ और शोकरूपी अंधकार को नष्ट करता हुआ वह अशोकवृक्ष बहुत ही अधिक शोभायमान हो रहा था ।।39।। फूले हुए पुष्पों के समूह से भगवान के लिए पुष्पों का उपहार समर्पण करता हुआ वह वृक्ष अपनी फैली हुई शाखाओं से समस्त दिशा को व्याप्त कर रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो उन फैली हुई शाखाओं से दिशा को साफ करने के लिए ही तैयार हुआ हो ।।40।। जिसकी जड़ वज्र की बनी हुई थी, जिसका मूल भाग रत्नों से दैदीप्यमान था, जिसके अनेक प्रकार के पुष्प जपापुष्प की कांति के समान पद्मरागमणियों के बने हुए थे और जो मदोन्मत्त कोयल तथा भ्रमरों से सेवित था ऐसे उस वृक्ष को इंद्र ने सब वृक्षों में मुख्य बनाया था ।।41।। भगवान् के ऊपर जो दैदीप्यमान सफेद छत्र लगा हुआ था उसने चंद्रमा की लक्ष्मी को जीत लिया था और वह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो तीनों लोकों के स्वामी भगवान वृषभदेव की सेवा करने के लिए तीन रूप धारण कर चंद्रमा ही आया हो ।।42।। वे तीनों सफेद छत्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो छत्र का आकार धारण करने वाले चंद्रमा के बिंब ही हों, उनमें जो मोतियों के समूह लगे हुए थे वे किरणों के समान जान पड़ते थे इस प्रकार उस छत्र-त्रितय को कुबेर ने इंद्र की आज्ञा से बनाया था ।।43।। वह छत्रत्रय उदय होते हुए सूर्य की शोभा की हँसी उड़ाने वाले अनेक उत्तम-उत्तम रत्नों से जडा हुआ था तथा अतिशय निर्मल था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो चंद्रमा और सूर्य के संपर्क (मेल) से ही बना हो ।।44।। जिसमें अनेक उत्तम मोती लगे हुए थे, जो समुद्र के जल के समान जान पड़ता था, बहुत ही सुशोभित था, चंद्रमा की कांति को हरण करने वाला था, मनोहर था और जिसमें इंद्रनील मणि भी दैदीप्यमान हो रहे थे ऐसा वह छत्रत्रय भगवान के समीप आकर उत्कृष्ट कांति को धारण कर रहा था ।।45।। क्या यह जगत्रूपी लक्ष्मी का हास फैल रहा है ? अथवा भगवान् का शोभायमान यशरूपी गुण है अथवा धर्मरूपी राजा का मंद हास्य है ? अथवा तीनों लोकों में आनंद करने वाला कलंकरहित चंद्रमा है, इस प्रकार लोगों के मन में तर्क-वितर्क उत्पन्न करता हुआ वह दैदीप्यमान छत्रत्रय ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो मोहरूपी शत्रु को जीत लेने से इकट्ठा हुआ तथा तीन रूप धारण कर ठहरा हुआ भगवान् के यश का मंडल ही हो ।।46-47।। जिनेंद्र भगवान् के समीप में सेवा करने वाले यक्षों के हाथों के समूहों से जो चारों ओर चमरों के समूह ढुराये जा रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो क्षीरसागर के जल के समूह ही हो ।।48।। अत्यंत निर्मल लक्ष्मी को धारण करने वाला वह चमरों का समूह ऐसा जान पड़ता था मानो अमृत के टुकड़ों से ही बना हो अथवा चंद्रमा के अंशों से ही रचा गया हो । वही चमरों के समूह भगवान् के चरणकमलों के समीप पहुँचकर ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो किसी पर्वत से झरते हुए निर्भर ही हों ।।49।। यक्षों के द्वारा लीलापूर्वक चारों ओर ढुराये जाने वाले निर्मल चमरों की वह पंक्ति बड़ी ही सुशोभित हो रही थी और लोग उसे देखकर ऐसा तर्क किया करते थे मानो यह आकाशगंगा ही भगवान् की सेवा के लिए आयी हो ।।50।। शरद्ऋतु के चंद्रमा के समान सफेद पड़ती हुई वह चमरों की पंक्ति ऐसी आशंका उत्पन्न कर रही थी कि क्या यह भगवान् के शरीर की कांति ही ऊपर को जा रही है अथवा चंद्रमा की किरणों का समूह ही नीचे की ओर पड़ रहा है ।।51।। अमृत के समान निर्मल शरीर को धारण करने वाली और अतिशय दैदीप्यमान वह ढुरती हुई चमरों की पंक्ति ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो वायु से कंपित तथा दैदीप्यमान कांति को धारण करने वाली हिलती हुई समुद्र के फेन की पंक्ति ही हो ।।52।। चंद्रमा और अमृत के समान कांति वाली ऊपर से पड़ती हुई वह उत्तम चमरों की पंक्ति बड़ी उत्कृष्ट शोभा को प्राप्त हो रही थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो जिनेंद्र भगवान् की सेवा करने की इच्छा से आती हुई क्षीरसमुद्र की बेला ही हो ।।53।। क्या ये आकाश से हंस उतर रहे हैं अथवा भगवान् का यश ही ऊपर को जा रहा है इस प्रकार देवों के द्वारा शंका किये जाने वाले वे सफेद चमर भगवान् के चारों ओर ढुराये जा रहे थे ।।54।।
जिस प्रकार वायु समुद्र के आगे अनेक लहरों के समूह उठाता रहता है उसी प्रकार कमल के समान दीर्घ नेत्रों को धारण करने वाले चतुर यक्ष भगवान् के आगे लीलापूर्वक विस्तृत और सफेद चमरों के समूह उठा रहे थे अर्थात् ऊपर की ओर ढोर रहे थे ।।55।। अथवा वह ऊँची चमरों की पंक्ति ऐसी अच्छी सुशोभित हो रही थी मानो उन चमरों का बहाना प्राप्त कर जिनेंद्र भगवान् की भक्तिवश आकाशगंगा ही आकाश से उतर रही हो अथवा भव्य जीवरूपी कुमुदिनियों को विकसित करने के लिए चाँदनी ही नीचे की ओर आ रही हो ।।56।। इस प्रकार जिन्हें अतिशय संतोष प्राप्त हो रहा है और जिनके नेत्र प्रकाशमान हो रहे हैं ऐसे यक्षों के द्वारा ढुराये जाने वाले वे चंद्रमा के समान उज्ज्वल कांति के धारक चमर ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो भगवान् के गुणसमूहों के साथ स्पर्धा ही कर रहे हों ।।57।। शोभायमान अमृत की राशि के समान निर्मल और अपरिमित तेज तथा कांति को धारण करने वाले वे चमर भगवान् वृषभदेव के अद्वितीय जगत् के प्रभुत्व को सूचित कर रहे थे ।।58।। जिनका वक्षःस्थल लक्ष्मी से आलिंगित है और जो श्रीवृक्ष का चिह्न धारण करते हैं ऐसे श्रीजिनेंद्रदेव के अपरिमित तेज को धारण करने वाले उन चमरों की संख्या विद्वान् लोग चौंसठ बतलाते हैं ।।59।। इस प्रकार सनातन भगवान् जिनेंद्रदेव के चौंसठ चमर कहे गये हैं और वे ही चमर चक्रवर्ती से लेकर राजा पर्यंत आधे-आधे होते हैं अर्थात् चक्रवर्ती के बत्तीस, अर्धचक्री के सोलह, मंडलेश्वर के आठ, अर्धमंडलेश्वर के चार, महाराज के दो और राजा के एक चमर होता है ।।60।। इसी प्रकार उस समय वर्षाऋतु की शंका करते हुए मदोन्मत्त मयूर जिनका मार्ग बड़े प्रेम से देख रहे थे ऐसे देवों के दुंदुभी मधुर शब्द करते हुए आकाश में बज रहे थे ।।61।। जिनका शब्द अत्यंत मधुर और गंभीर था ऐसे पणव, तुणव, काहल, शंख और नगाड़े आदि बाजे समस्त दिशाओं के मध्यभाग को शब्दायमान करते हुए तथा आकाश को आच्छादित करते हुए शब्द कर रहे थे ।।62।। देवरूप शिल्पियों के द्वारा मजबूत दंडों से ताड़ित हुए वे देवों के नगाड़े जो शब्द कर रहे थे उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कुपित होकर स्पष्ट शब्दों में यही कह रहे हों कि अरे दुष्टों, तुम लोग जोर-जोर से क्यों मार रहे हो ।।63।। क्या यह मेघों की गर्जना है? अथवा जिसमें उठती हुई लहरें शब्द कर रही हैं ऐसा समुद्र ही क्षोभ को प्राप्त हुआ है? इस प्रकार तर्क-वितर्क कर चारों ओर फैलता हुआ भगवान् के देव दुंदुभियों का शब्द सदा जयवंत रहे ।।64।। सुर, असुर और मनुष्यों से भरी हुई वह समवसरण की समस्त भूमि जिनेंद्रभगवां के शरीर से उत्पन्न हुई तथा चारों ओर फैली हुई प्रभा अर्थात् भामंडल से बहुत ही सुशोभित हो रही थी सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् के ऐसे तेज में आश्चर्य ही क्या है ।।65।। उस समय वह जिनेंद्रभगवान के शरीर की प्रभा मध्याह्न के सूर्य की प्रभा को तिरोहित करती हुई―अपने प्रकाश में उसका प्रकाश छिपाती हुई, करोड़ों देवों के तेज को दूर हटाती हुई, और लोक में भगवान् का बड़ा भारी ऐश्वर्य प्रकट करती हुई चारों ओर फैल रही थी ।।66।। अमृत के समुद्र के समान निर्मल और जगत् को अनेक मंगल करने वाले दर्पण के समान, भगवान् के शरीर की उस प्रभा (प्रभामंडल) में सुर, असुर और मनुष्य लोग प्रसन्न होकर अपने सात-सात भव देखते थे ।।67।। चंद्रमा शीघ्र ही भगवान् के छत्रत्रय की अवस्था को प्राप्त हो गया है यह देखकर ही मानो अतिशय दैदीप्यमान सूर्य भगवान् के शरीर की प्रभा के छल से पुराण कवि भगवान् वृषभदेव की सेवा करने लगा था । भावार्थ―भगवान का छत्रत्रय चंद्रमा के समान था और प्रभामंडल सूर्य के समान था ।।68।। भगवान् के मुखरूपी कमल से बादलों की गर्जना का अनुकरण करने वाली अतिशययुक्त महादिव्यध्वनि निकल रही थी और वह भव्य जीवों के मन में स्थित मोहरूपी अंधकार को नष्ट करती हुई सूर्य के समान सुशोभित हो रही थी ।।69।। यद्यपि वह दिव्यध्वनि एक प्रकार की थी तथापि भगवान् के माहात्म्य से समस्त मनुष्यों की भाषाओं और अनेक कुभाषाओं को अपने अंतर्भूत कर रही थी अर्थात् सर्वभाषारूप परिणमन कर रही थी और लोगों का अज्ञान दूर कर उन्हें तत्त्वों का बोध करा रही थी ।।70।। जिस प्रकार एक ही प्रकार का जल का प्रवाह वृक्षों के भेद से अनेक रस वाला हो जाता है उसी प्रकार सर्वज्ञदेव की वह दिव्यध्वनि भी पात्रों के भेद से अनेक प्रकार की हो जाती थी ।।71।। अथवा जिस प्रकार स्फटिक मणि एक ही प्रकार का होता है तथापि उसके पास जो-जो रंगदार पदार्थ रख दिये जाते हैं वह अपनी स्वच्छता से अपने आप उन-उन पदार्थों के रंगों को धारण कर लेता है उसी प्रकार सर्वज्ञ भगवान् की उत्कृष्ट दिव्यध्वनि भी यद्यपि एक प्रकार की होती है तथापि श्रोताओं के भेद से वह अनेक रूप धारण कर लेती है ।।72।। कोई-कोई लोग ऐसा कहते हैं कि वह दिव्यध्वनि देवों के द्वारा की जाती है परंतु उनका वह कहना मिथ्या है क्योंकि वैसा मानने पर भगवान् के गुण का घात हो जायेगा अर्थात् वह भगवान् का गुण नहीं कहलायेगा, देवकृत होने से देवों का कहलायेगा । इसके सिवाय वह दिव्यध्वनि अक्षर रूप ही है क्योंकि अक्षरों के समूह के बिना लोक में अर्थ का परिज्ञान नहीं होता ।।73।।
इस प्रकार तीनों लोकों के स्वामी भगवान वृषभदेव की ऐसी विभूति इंद्र ने भक्तिपूर्वक देवों से करायी थी, और अनंतचतुष्टयरूप लक्ष्मी के अधिपति सर्वज्ञदेव इंद्रों के द्वारा सेवनीय उस समवसरण भूमि में विराजमान हुए थे ।।74।। जो समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं और अनेक विद्वान् लोग जिनके चरणों की वंदना करते हैं ऐसे वे भगवान् वृषभदेव जगत् के जीवों को उपदेश देने के लिए मुँह फाड़े सिंहों के द्वारा धारण किये हुए सुवर्णमय सिंहासन पर अधिरूढ़ हुए थे ।।75।। इस प्रकार समवसरण भूमि को देखकर देव लोग बहुत ही प्रसन्नचित्त हुए, उन्होंने भक्तिपूर्वक तीन बार चारों ओर फिरकर उचित रीति से प्रदक्षिणाएँ दीं और फिर भगवान् के दर्शन करने के लिए उस सभा के भीतर प्रवेश किया ।।76।। जो कि आकाशमार्ग को उल्लंघन करने वाली पताकाओं से ऐसी जान पड़ती थी मानो समस्त आकाश को झाड़कर साफ ही करना चाहती हो और धूलीसाल के घेरे से घिरी होने के कारण ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो निरंतर इंद्रधनुष से ही घिरी रहती हो ।।77।। वह सभा आकाश के अग्रभाग को भी उल्लंघन करने वाले चार मानस्तंभों को धारण कर रही थी तथा उन मानस्तंभों पर लगी हुई निर्मल पताकाओं से ऐसी जान पड़ती थी मानो भगवान् की सेवा करने के लिए स्वर्गलोक को ही बुलाना चाहती हो ।।78।। वह सभा स्वच्छ तथा शीतल जल से भरी हुई तथा नेत्रों के समान प्रफुल्लित कमलों से युक्त अनेक सरोवरियों को धारण किये हुए थी और उनसे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो जन्म जरा मरणरूपी असुरों का अंत करने वाले भगवान् वृषभदेव का दर्शन करने के लिए नेत्रों की पंक्तियाँ ही धारण कर रही हो ।।79।। वह समवसरण भूमि निर्मल जल से भरी हुई, जलपक्षियों के शब्दों के शब्दायमान तथा ऊंची उठती हुई बड़ी-बड़ी लहरों के समूह से युक्त परिखा को धारण कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो लहरों के समूहरूपी हाथ ऊँचे उठाकर जलपक्षियों के शब्दों के बहाने भगवान् की सेवा करने के लिए इंद्रों को ही बुलाना चाहती हो ।।80।। वह भूमि अनेक प्रकार की नवीन लताओं से सुशोभित, मदोन्मत्त भ्रमरों के मधुर शब्दरूपी बाजा से सहित तथा फूलों से व्याप्त लताओं के वन धारण कर रही थी और उनसे ऐसी जान पड़ती थी मानो मंद-मंद हँस ही रही हो ।।81।। वह भूमि ऊँचे-ऊँचे गोपुरद्वारों से सहित दैदीप्यमान सुवर्णमय पहले कोट को धारण कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो भगवान् वृषभदेव की हेमंतऋतु के सूर्य के समान अतिशय सौम्य दीप्ति और उन्नति को अक्षरों के बिना ही दिखला रही हो ।।82।। वह समवसरणभूमि प्रत्येक महावीथी के दोनों ओर शरद᳭ऋतु के बादलों के समान स्वच्छ और नृत्य करने वाली देवांगनाओंरूपी बिजलियों से सुशोभित दो-दो मनोहर नृत्यशालाएँ धारण कर रही थी और उनसे ऐसी जान पड़ती थी मानो भक्तिपूर्वक जिनेंद्र भगवान् की उपासना करने के लिए ही उन्हें धारण कर रही हो ।।83।। वह भूमि नाट्यशाला के आगे दो-दो धूपघट धारण कर रही थी और उनसे ऐसी जान पड़ती थी मानो जिनेंद्र भगवान की सेवा के लिए तीनों लोकों की लक्ष्मी के साथ-साथ सरस्वती देवी ही वहाँ बैठी हों और वे घट उन्ही के स्तनयुगल हो ।।84।। वह भूमि भ्रमरों के समूह से सेवित और उत्तम कांति को धारण करने वाले चार सुंदर वन भी धारण कर रही थी और उनसे ऐसी जान पड़ती थी मानो उन वनों के बहाने से नील वस्त्र पहनकर भगवान् की आराधना करने के लिए ही खड़ी हो ।।85।। जिस प्रकार कोई तरुण स्त्री अपने कटि भाग पर करधनी धारण करती है उसी प्रकार उपवन की सरोवरियों में फूले हुए छोटे-छोटे कमलों से स्वर्गरूपी स्त्री के मुख की शोभा की ओर हँसती हुई वह समवसरण भूमि रत्नों से दैदीप्यमान वनवेदिका को धारण कर रही थी ।।86।। ध्वजाओं के वस्त्रों से आकाश को व्याप्त करने वाली दस प्रकार की ध्वजाओं से सहित वह भूमि ऐसी अच्छी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेंद्र भगवान् की महिमा रचने के लिए आकाशरूपी आंगन को साफ ही कर रही हो ।।87।। ध्वजाओं की भूमि के बाद द्वितीयकोट के चारों ओर वनवेदिका सहित कल्पवृक्ष का अत्यंत मनोहर वन था, वह फलों से सहित था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओं से सहित आकाश ही हो । इस प्रकार पुण्य के बगीचे के समान उस वन को धारण कर वह समवसरणभूमि बहुत ही सुशोभित हो रही थी ।।88।। उस वन के आगे वह भूमि, जिसमें अनेक प्रकार के चमकते हुए बड़े-बड़े रत्न लगे हुए हैं ऐसे दैदीप्यमान मकानों को तथा मणियों से बने हुए नौ-नौ स्तूपों को धारण कर रही थी और उससे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो जगत् को जीतने के लिए ही उसने इच्छा की हो ।।89।। उसके आगे वह भूमि स्फटिक मणि के बने हुए सुंदर कोट को, अतिशय विस्तार वाली आकाश स्फटिकमणि की बनी हुई दीवालों को और उन दीवालों के ऊपर बने हुए, तथा तीनों लोकों के लिए अवकाश देने वाले अतिशय श्रेष्ठ श्रीमंडप को धारण कर रही थी । ऐसी समवसरण सभा के भीतर इंद्र ने प्रवेश किया था ।।90।। इस प्रकार अतिशय उत्कृष्ट शोभा को धारण करने वाली उस समवसरण भूमि को देखकर जिसके नेत्र विस्मय को प्राप्त हुए हैं ऐसा वह सौधर्म स्वर्ग का इंद्र मोहनीय कर्म को नष्ट करने वाले जिनेंद्रभगवां के दर्शनों की इच्छा से बड़ी भारी विभूतिपूर्वक उत्तम-उत्तम देवों के साथ-साथ भीतर प्रविष्ट हुआ ।।91।।
अथानंतर―जो ऊँची और दैदीप्यमान पीठिका के ऊपर विराजमान थे, देवों के भी देव थे, चारों ओर दिखने वाले चार मुखों की शोभा से सहित थे, सुरेंद्र नरेंद्र और मुनींद्रों के द्वारा वंदनीय थे, जगत् की सृष्टि और संहार के मुख्य कारण थे । जिनका मुख शरद्ऋतु के चंद्रमा के साथ स्पर्धा कर रहा था, जो शरद्ऋतु की चाँदनी के समान अपनी कांति से अतिशय शोभायमान थे, जिनके नेत्र नवीन फूले हुए नीलकमलों के समान सुशोभित थे और उनके कारण जो सफेद तथा नीलकमलों से सहित सरोवर की हंसी करते हुए से जान पड़ते थे । जिनका शरीर अतिशय प्रकाशमान और दैदीप्यमान था, जो चमकते हुए सूर्यमंडल के साथ स्पर्धा करने वाली अपने शरीर की प्रभारूपी समुद्र में निमग्न हो रहे थे, जिनका शरीर अतिशय ऊँचा था, जो देवों के द्वारा आराधना करने योग्य थे, सुवर्ण-जैसी उज्ज्वल कांति के धारण करने वाले थे और इसीलिए जो महामेरु के समान जान पड़ते थे । जो अपने विशाल वक्षःस्थल पर स्थित रहने वाली अनंतचतुष्टयरूपी आत्मलक्ष्मी से शब्दों के बिना ही तीनों लोकों के स्वामित्व को प्रकट कर रहे थे, जो कवलाहार से रहित थे, जिन्होंने सब आभूषण दूर कर दिये थे, जो इंद्रिय ज्ञान से रहित थे, जिन्होंने ज्ञानावरण आदि कर्मों को नष्ट कर दिया था । जो सूर्य के समान दैदीप्यमान रहने वाली प्रभा के मध्य में विराजमान थे, देव लोग जिन पर अनेक चमरों के समूह ढुरा रहे थे, बजते हुए दुंदुभिबाजों के शब्दों से जो अतिशय मनोहर थे और इसीलिए जो शब्द करती हुई अनेक लहरों से युक्त समुद्र की वेला (तट) के समान जान पड़ते थे । जिनके समीप का प्रदेश देवों के द्वारा वर्षाये हुए फूलों से व्याप्त हो रहा था, जिनका ऊँचा शरीर बड़े भारी अशोकवृक्ष के आश्रित था―उसके नीचे स्थित था और इसीलिए जिसका समीप प्रदेश अपने कल्पवृक्षों के उपवनों-द्वारा छोड़े हुए फूलों से व्याप्त हो रहा है ऐसे सुमेरु पर्वत को अपनी कांति के द्वारा लज्जित कर रहे थे । और जो चमकते हुए मोतियों से सुशोभित आकाश में स्थित अपने विस्तृत तथा धवल छत्रत्रय से ऐसे जान पड़ते थे मानो अपना महान ऐश्वर्य और फैलते हुए उत्कृष्ट यश को ही प्रकट कर रहे हों ऐसे प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव के उस सौधर्मेंद्र ने दर्शन किये ।।92-98।। दर्शन कर दूर से ही जिन्होंने अपने मस्तक नम्रीभूत कर लिये हैं ऐसे इंद्रों ने जमीन पर घुटने टेककर उन्हें प्रणाम किया, प्रणाम करते समय वे इंद्र ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने मुकुटों के अग्रभाग में लगी हुई मालाओं के समूह से जिनेंद्र भगवान् के दोनों चरणों की पूजा ही कर रहे हों ।।99।। उन अरहंत भगवान् को प्रणाम करते समय जिनके नेत्र हर्ष से प्रफुल्लित हो गये और मुख सफेद मंद हास्य से युक्त हो रहे थे इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो जिनमें सफेद और नीलकमल खिले हुए हैं ऐसे अपने सरोवरों के साथ-साथ कुलाचल पर्वत सुमेरु पर्वत की ही सेवा कर रहे हों ।।100।। उसी समय अप्सराओं तथा समस्त देवियों से सहित इंद्राणी ने भी भगवान् के चरणों को प्रणाम किया था, प्रणाम करते समय वह इंद्राणी ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने प्रफुल्लित हुए मुखरूपी कमलों से, नेत्ररूपी नीलकमलों से और विशुद्ध भावरूपी बहुत भारी पुष्पों से भगवान् की पूजा ही कर रही हो ।।101।। जिनेंद्र भगवान् के दोनों ही चरणकमल अपने नखों की किरणों के समूह से देवों के मस्तक पर आकर उन्हें स्पर्श कर रहे थे और उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कभी म्लान न होने वाली माला के बहाने से अनुग्रह करने के लिए उन देवों के मस्तकों पर शेषाक्षत ही अर्पण कर रहे हों ।।102।। वे इंद्र लोग, अतिशय भक्तिपूर्वक प्रणाम करते समय जो जिनेंद्रभगवां के चरणों की प्रभा से पवित्र किये गये हैं तथा उन्हीं के नखों की किरणसमूहरूपी जल से जिन्हें अभिषेक प्राप्त हुआ है ऐसे अपने उन्नत और अत्यंत उत्तम मस्तकों को धारण कर रहे थे । भावार्थ―प्रणाम करते समय इंद्रों के मस्तक पर जो भगवान् के चरणों की प्रभा पड़ रही थी उससे वे उन्हें अतिशय पवित्र मानते थे, और जो नखों की कांति पड़ रही थी उससे उन्हें ऐसा समझते थे मानो उनका जल से अभिषेक ही किया गया हो इस प्रकार वे अपने उत्तमांग अर्थात् मस्तक को वास्तव में उत्तमांग अर्थात् उत्तम अंग मानकर ही धारण कर रहे थे ।।103।। इंद्राणी भी जिस समय अप्सराओं के साथ भक्तिपूर्वक नमस्कार कर रही थी उस समय दैदीप्यमान मुक्तिरूपी लक्ष्मी के उत्तम हास्य के समान आचरण करने वाला और स्वभाव से ही सुंदर भगवान् के नखों की किरणों का समूह उसके स्तनों के समीप भाग में पड़ रहा था और उससे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो सुंदर वस्त्र ही धारण कर रही हो ।।104।। अपनी-अपनी देवियों से सहित तथा दैदीप्यमान आभूषणों से सुशोभित थे वे इंद्र प्रणाम करते ऐसे जान पड़ते थे मानो कल्पलताओं के साथ बड़े-बड़े कल्पवृक्ष ही भगवान् की सेवा कर रहे हों ।।105।।
अथानंतर इंद्रों ने बड़े संतोष के साथ खड़े होकर श्रद्धायुक्त हो अपने ही हाथों से गंध, पुष्पमाला, धूप, दीप, सुंदर अक्षत और उत्कृष्ट अमृत के पिंडों-द्वारा भगवान् के चरणकमलों की पूजा की ।।106।। रंगावली से व्याप्त हुई भगवान् के आगे की भूमि पर इंद्रों के द्वारा लायी वह पूजा की सामग्री ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो उसके छल से संसार की समस्त द्रव्यरूपी संपदाएं भगवान् के चरणों की उपासना की इच्छा से ही वहाँ आयी हों ।।107।। इंद्राणी ने भगवान् के आगे कोमल चिकने और सूक्ष्म अनेक प्रकार के रत्नों के चूर्ण से मंडल बनाया था, वह मंडल ऊपर की ओर उठती हुई किरणों के अंकुरों से चित्र-विचित्र हो रहा था और ऐसा जान पड़ता था मानो इंद्रधनुष के कोमल चूर्ण से ही बना हो ।।108।। तदनंतर इंद्राणी ने भक्तिपूर्वक भगवान् के चरणों के समीप में दैदीप्यमान रत्नों के भृंगार की नाल से निकलती हुई पवित्र जलधारा छोड़ी । वह जलधारा इंद्राणी के समान ही पवित्र थी और उसी की मनोवृत्ति के समान प्रसन्न तथा स्वच्छ थी ।।109।। उसी-समय इंद्राणी ने जिनेंद्रभगवां के चरणों का स्मरण करते हुए भक्तिपूर्वक जिसने समस्त दिशाएँ सुगंधित कर दी थीं, तथा जो फिरते हुए भ्रमरों की पंक्तियों-द्वारा किये हुए शब्दों से बहुत ही मनोहर जान पड़ती थी ऐसी स्वर्गलोक में उत्पन्न हुई सुगंध से भगवान् के पादपीठ (सिंहासन) की पूजा की थी ।।110।। इसी प्रकार अपने चित्त की प्रसन्नता के समान स्वच्छ कांति को धारण करने वाले मोतियों के समूहों से भगवान् की अक्षतों से होने वाली पूजा की तथा कभी नहीं मुरझाने वाली कल्पवृक्ष के फूलों की सैकड़ों मालाओं से बड़े हर्ष के साथ भगवान् के चरणों की पूजा की ।।111।। तदनंतर भक्ति के वशीभूत हुई इंद्राणी ने जिनेंद्र भगवान् के शरीर की कांति के प्रसार से जिनका निजी प्रकाश मंद पड़ गया है ऐसे रत्नमय दीपकों से जिनेंद्ररूपी सूर्य की पूजा की थी सो ठीक ही है क्योंकि भक्त पुरुष योग्य अथवा अयोग्य कुछ भी नहीं समझते । भावार्थ―यह कार्य करना योग्य है अथवा अयोग्य, इस बात का विचार भक्ति के सामने नहीं रहता । यही कारण था कि इंद्राणी ने जिनेंद्ररूपी सूर्य की पूजा दीपकों-द्वारा की थी ।।112।। तदनंतर इंद्राणी ने धूप तथा जलते हुए दीपकों से दैदीप्यमान और बड़े भारी थाल में रखा हुआ, सुशोभित अमृत का पिंड भगवान् के लिए समर्पित किया, वह थाल में रखा हुआ धूप तथा दीपकों से सुशोभित अमृत का पिंड ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओं से सहित और राहु से आलिंगित चंद्रमा ही जिनेंद्रभगवां के चरणकमलों के समीप आया हो ।।113।। तदनंतर जो चारों ओर फैली हुई सुगंधि से बहुत ही मनोहर थे और जो शब्द करते हुए भ्रमरों के समूहों से सेवनीय होने के कारण ऐसे जान पड़ते थे मानो भगवान का यश ही गा रहे हों ऐसे अनेक फलों के द्वारा इंद्राणी ने बड़े भारी हर्ष से भगवान् की पूजा की थी ।।114।। इसी प्रकार देवों ने भी भक्तिपूर्वक अर्हंत भगवान् की पूजा की थी परंतु कृतकृत्य भगवान् को इन सबसे क्या प्रयोजन था ? वे यद्यपि वीतराग थे न किसी से संतुष्ट होते थे और न किसी से द्वेष ही करते थे तथापि अपने भक्तों को इष्टफलों से युक्त कर ही देते थे यह एक आश्चर्य की बात थी ।।115।।
अथानंतर―जिन्हें समस्त विद्याओं के स्वामी जिनेंद्रभगवां की स्तुति करने को इच्छा हुई ऐसे वे बड़े-बड़े इंद्र प्रसन्नचित्त होकर अपने भक्तिरूपी हाथों से चित्र-विचित्र वर्णोंवाली इस वचनरूपी पुष्पों की माला को अर्पित करने लगे-नीचे लिखे अनुसार भगवान् की स्तुति करने लगे ।।116।। कि हे जिननाथ, यह निश्चय है कि आपके विषय में की हुई भक्ति ही इष्ट फल देती है इसीलिए हम लोग बुद्धिहीन तथा मंदवचन होकर भी गुणरूपी रत्नों के खजाने स्वरूप आपकी स्तुति करने के लिए उद्यत हो रहे हैं ।।117।। हे भगवन्, जिन्हें बुद्धि की सामर्थ्य से कुछ वचनों का वैभव प्राप्त हुआ है ऐसे हम लोग केवल आपकी भक्ति ही कर रहे हैं सो ठीक ही है क्योंकि जो पुरुष अमृत के समुद्र का संपूर्ण जल पीने के लिए समर्थ नहीं है वह क्या अपनी सामर्थ्य के अनुसार थोड़ा भी नहीं पीये ? अर्थात् अवश्य पीये ।।118।। हे देव, कहाँ तो जड़ बुद्धि हम लोग, और कहाँ आपका पापरहित बड़ा भारी गुणरूपी समुद्र । हे जिनेंद्र ! यद्यपि इस बात को हम लोग भी जानते हैं तथापि इस समय आपकी भक्ति ही हम लोगों को वाचालित कर रही है ।।119।। हे देव, यह आश्चर्य की बात है कि आपके जो बड़े-बड़े उत्तम गुण गणधरों के द्वारा भी नहीं गिने जा सके हैं उनकी हम स्तुति कर रहे हैं अथवा इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है क्योंकि जो मनुष्य आपकी प्रभुता को प्राप्त हुआ है वह क्या करने के लिए समर्थ नहीं है ? अर्थात् सब कुछ करने में समर्थ है ।।120।। इसलिए हे जिनेंद्र, आपके विषय में उत्पन्न हुई अतिशय निगूढ़, निश्चल और अपरिमित गुणों का उदय करने वाली विशाल भक्ति ही हम लोगों को स्तुति करने के लिए इच्छुक कर रही है और इसीलिए हम लोग आज आपकी स्तुति करने के लिए उद्यत हुए हैं ।।121।। हे ईश्वर, आप समस्त संसार के जानने वाले हैं, कर्मभूमिरूप संसार की रचना करने वाले हैं, समस्त गुणों के समुद्र हैं, अविनाशी हैं, और हे देव, आपका उपदेश जगत् के समस्त जीवों का हित करने वाला है, इसीलिए हे जिनेंद्र, आप हम सबकी स्तुति को स्वीकृत कीजिए ।।122।। हे जिनेंद्ररूपी सूर्य, जिस प्रकार बादलों के हट जाने से अतिशय निर्मल सूर्य की दैदीप्यमान किरणें सुशोभित होती हैं उसी प्रकार समस्त कर्मरूपी कलंक के हट जाने से प्रकट हुई आपकी गुणरूपी किरणें अतिशय सुशोभित हो रही हैं ।।123।। हे जिनेंद्र, जिस प्रकार समुद्र अपने गहरे जल में रहने वाले निर्मल और विशाल कांति के धारक मणियों को धारण करता है उसी प्रकार आप अतिशय निर्मल अनंतगुणरूपी मणियों को धारण कर रहे हैं ।।124।। हे स्वामिन्, जो अत्यंत विस्तृत है बड़े-बड़े दु:खरूपी फलों को देने वाली है, और जन्म-मृत्यु तथा बुढ़ापारूपी फूलों से व्याप्त है ऐसी इस संसाररूपी लता को हे भगवन्, आपने अपने शांत परिणामरूपी हाथों से उखाड़कर फेंक दिया है ।।125।। हे जिनवर, आपने मोह की बड़ी भारी सेना के सेनापति तथा अतिशय शूर-वीर चार कषायों को तीव्र तपश्चरणरूपी पैनी और बड़ी तलवार के प्रहारों से बहुत शीघ्र जीत लिया है ।।126।। हे भगवन्, जो किसी के द्वारा जीता न जा सके और जो दिखाई भी न पड़े ऐसे कामदेवरूपी शत्रु को आपके चारित्ररूपी तीक्ष्ण हथियारों के समूह ने मार गिराया है इसलिए तीनों लोकों में आप ही सबसे श्रेष्ठ गुरु हैं ।।127।। हे ईश्वर, जो न कभी विकारभाव को प्राप्त होता है, न किसी को कटाक्षों से देखता है, जो विकाररहित है और आभरणों के बिना ही सुशोभित रहता है ऐसा यह आपका सुंदर शरीर ही कामदेव को जीतने वाले आपके माहात्म्य को प्रकट कर रहा है ।।128।। हे संसाररहित जिनेंद्र, कामदेव जिसके हृदय में प्रवेश करता है वह प्रकट हुए रागरूपी पराग से युक्त होकर अनेक प्रकार की विकारयुक्त चेष्टाएँ करने लगता है परंतु कामदेव को जीतने वाले आपके कुछ भी विकार नहीं पाया जाता है इसलिए आप तीनों लोकों के मुख्य गुरु हैं ।।129।। हे कामदेव को जीतने वाले जिनेंद्र, जो मूर्ख पुरुष कामदेव के वश हुआ करता है वह नाचता है, गाता है, इधर-उधर घूमता है, सत्य बात को छिपाता है और जोर-जोर से हँसता है परंतु आपका शरीर इन सब विकारों से रहित है इसलिए यह शरीर ही आपके शांतिसुख को प्रकट कर रहा है ।।130।। हे मान और मात्सर्यभाव से रहित भगवन् कर्मरूपी धूलि से रहित, कलहरूपी पंक को नष्ट करने वाला, रागरहित और छलरहित आपका वह शरीर आप तीनों लोकों के स्वामी हैं इस बात को स्पष्टरूप से प्रकट कर रहा है ।।131।। हे नाथ, जिसमें समस्त शोभाओं का समुदाय मिल रहा है ऐसा यह आपका शरीर वस्त्ररहित होने पर भी अत्यंत सुंदर है सो ठीक ही है क्योंकि विशाल कांति को धारण करने वाले अतिशय दैदीप्यमान रत्न मणियों की राशि को वस्त्र आदि से ढक देना क्या किसी को अच्छा लगता है ? अर्थात् नहीं लगता ।।132।। हे भगवन् आपका यह शरीर पसीना से रहित है, मलरूपी दोषों से रहित है, अत्यंत सुगंधित है, उत्तम लक्षणों से सहित है, रक्तरहित है, अंधकार के समूह को नष्ट करने वाला है, धातुरहित है, वज्रमयी मजबूत संधियों से युक्त है, समचतुरस्र संस्थान वाला है, अपरिमित शक्ति का धारक है, प्रिय और हितकारी वचनों से सहित है, निमेषरहित है, और स्वच्छ दिव्य मणियों के समान दैदीप्यमान है इसलिए आप देवाधिदेव पद को प्राप्त हुए हैं ।।133-134।। हे स्वामिन् समस्त विकार, मोह और मद से रहित तथा सुवर्ण के समान कांतिवाला आपका यह लोकोत्तर शरीर संसार को उल्लंघन करने वाली आपकी अद्वितीय प्रभुता के वैभव को प्रकट कर रहा है ।।135।। हे अंधकार से रहित जिनेंद्र, पापों का समूह कभी आपको छूता भी नहीं है सो ठीक ही है क्योंकि क्या अंधकार का समूह भी कभी सूर्य के सम्मुख जा सकता है ? अर्थात् नहीं जा सकता । हे नाथ आप इस जगत्रूपी घर में अपने दैदीप्यमान विशाल तेज से प्रदीप के समान आचरण करते हैं ।।136।। हे भगवन् आपके स्वर्ग से अवतार लेने के समय (गर्भकल्याणक के समय) रत्नों की धारा समस्त आकाश को रोकती हुई स्वर्गलोक से शीघ्र ही इस जगत्रूपी कुटी के भीतर पड़ रही थी और वह ऐसी जान पड़ती थी मानो समस्त सृष्टि को सुवर्णमय ही कर रही हो ।।137।। हे जिनेंद्र, ऐरावत हाथी की सूंड़ के समान लंबायमान वह रत्नों की धारा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो आपकी लक्ष्मी ही मूर्ति धारण कर लोक में शीघ्र ही ऐसा संबोध फैला रही हो कि अरे मनुष्यो, कर्मरूप शत्रुओं को जीतने वाले इन जिनेंद्र भगवान् की सेवा करो ।।138।। हे भगवन् आपके जन्म के समय आकाश से देवों के हाथों से छोड़ी गयी अत्यंत सुगंधित और मदोन्मत्त भ्रमरों की मधुर गुंजार को चारों ओर फैलाती हुई जो फूलों की वृष्टि हुई थी वह ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो देवांगनाओं के नेत्रों की पंक्ति ही आ रही हो ।।139।। हे स्वामिन् इंद्रों ने मेरुपर्वत के शिखर पर क्षीरसागर के स्वच्छ जल से भरे हुए सुवर्णमय गंभीर (गहरे) घड़ों से जगत् में आपका माहात्म्य फैलाने वाला आपका बड़ा भारी पवित्र अभिषेक किया था ।।140।। हे जिन तपकल्याणक के समय मणिमयी पालकी पर आरूढ़ हुए आपको ले जाने के लिए हम लोग तत्पर हुए थे इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है क्योंकि निर्वाण पर्यंत आपके सभी कल्याणकों में ये देव लोग किंकरों के समान उपस्थित रहते हैं ।।141।। हे भगवन् इस दैदीप्यमान केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय होने पर यह स्पष्ट प्रकट हो गया है कि आप ही धाता अर्थात् मोक्षमार्ग की सृष्टि करने वाले हैं और आप ही तीनों लोक के स्वामी हैं । इसके सिवाय आप जन्मजरारूपी रोगों का अंत करने वाले हैं, गुणों के खजाने हैं और लोक में सबसे श्रेष्ठ हैं इसलिए हे देव, आपको हम लोग बार-बार नमस्कार करते हैं ।।142।। हे नाथ, इस संसार में आप ही मित्र हैं, आप ही गुरु हैं, आप ही स्वामी हैं, आप ही सृष्टा हैं और आप ही जगत् के पितामह हैं । आपका ध्यान करने वाला जीव अवश्य ही मृत्युरहित सुख अर्थात् मोक्षसुख को प्राप्त होता है इसलिए हे भगवन्, आज आप इन तीनों लोकों को नष्ट होने से बचाइए―इन्हें ऐसा मार्ग बतलाइए जिससे ये जन्म-मरण के दुःखों से बच कर मोक्ष का अनंत सुख प्राप्त कर सकें ।।143।। हे जिनेंद्र, परम सुख की प्राप्ति के स्थान तथा अविनाशी उत्कृष्ट पद (मोक्ष) को जानने की इच्छा करने वाले उत्तम बुद्धिमान् योगी संसार का नाश करने के लिए आपके द्वारा कहे हुए परमागम के अक्षरों का चिंतन करते हैं ।।144।। हे जिनराज, जो मनुष्य आपके द्वारा बतलाये हुए मार्ग में परम संतोष धारण करते हैं अथवा आनंद की परंपरा से युक्त होते हैं वे ही इस अतिशय विस्तृत संसाररूपी लता को आपके ध्यानरूपी अग्नि की ज्वाला से बिल्कुल जला पाते हैं ।।145।। हे भगवन्, वायु से उठी हुई क्षीरसमुद्र की लहरों के समान अथवा चंद्रमा की किरणों के समूह के समान सुशोभित होने वाली आपकी इन सफेद चमरों की पंक्तियों को देखकर संसारी जीव अवश्य ही संसाररूपी बंधन से मुक्त हो जाते हैं ।।146।। हे विभो सूर्य को भी तिरस्कृत करने वाली और अतिशय दैदीप्यमान अपनी कांति को चारों ओर फैलाता हुआ, अत्यंत ऊँचा, मणियों से जड़ा हुआ, देवों के द्वारा सेवनीय और अपनी महिमा से समस्त लोकों को नीचा करता हुआ यह आपका सिंहासन मेरु पर्वत के शिखर के समान शोभायमान हो रहा है ।।147।। जिनका ऐश्वर्य अतिशय उत्कृष्ट है और जो मोक्षमार्ग का उपदेश देने वाले हैं ऐसे आप अरहंत देव का यह देवरूप कारीगरों के द्वारा बनाया गया छत्रत्रय अपनी कांति से शरद्ऋतु के चंद्रमंडल के समान सुशोभित हो रहा है ।।148।। हे भगवन्, जिसका स्कंध मरकतमणियों से अतिशय दैदीप्यमान हो रहा है और जिस पर मधुर शब्द करते हुए भ्रमरों के समूह बैठे हैं ऐसा यह शोभायमान तथा वायु से हिलता हुआ आपका अशोकवृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो अपनी अत्यंत दैदीप्यमान शाखाओं को भुजा बनाकर उनके द्वारा स्पष्ट नृत्य ही कर रहा हो ।।149।। अथवा अत्यंत सुकोमल वायु से धीरे-धीरे हिलता हुआ यह अशोकवृक्ष आपके ही समान सुशोभित हो रहा है क्योंकि जिस प्रकार आप देवों के द्वारा बरसाये हुए पुष्पों से आकीर्ण अर्थात् व्याप्त हैं उसी प्रकार यह अशोकवृक्ष भी पुष्पों से आकीर्ण है, जिस प्रकार मनुष्य देव और बड़े-बड़े मुनिराज आपको चाहते हैं―आपकी प्रशंसा करते हैं उसी प्रकार मनुष्य देव और बड़े-बड़े मुनिराज इस अशोकवृक्ष को भी चाहते हैं, जिस प्रकार पवनकुमार देव मंद-मंद वायु चलाकर आपकी सेवा करते हैं उसी प्रकार इस वृक्ष की भी सेवा करते हैं―यह मंद-मंद वायु से हिल रहा है, जिस प्रकार आप सच्छाय अर्थात् उत्तम कांति के धारक हैं उसी प्रकार यह वृक्ष भी सच्छाय अर्थात् छांहरी के धारक है―इसकी छाया बहुत ही उत्तम है, जिस प्रकार आप मनुष्य तथा देवों का शोक नष्ट करते हैं उसी प्रकार यह वृक्ष भी मनुष्य तथा देवों का शोक नष्ट करता है और जिस प्रकार आप तीनों लोकों के श्रेय अर्थात् कल्याणरूप हैं उसी प्रकार यह वृक्ष भी तीनों लोकों में श्रेय अर्थात् मंगल रूप है ।।150।। हे भगवन्, ये देव लोग, वर्षाकाल के मेघों की गरजना के शब्दों को जीतने वाले दुंदुभि बाजों के मधुर शब्दों के साथ-साथ जिसने समस्त आकाश को व्याप्त कर लिया है और जो भ्रमरों की मधुर गुंजार से गाती हुई-सी जान पड़ती है ऐसी फूलों की वर्षा आपके सामने लोकरूपी घर के अग्रभाग से छोड़ रहे हैं ।।151।। हे भगवन्, आपके देव-दुंदुभियों के कारण बड़े-बड़े मेघों की घटाओं से आकाशरूपी आंगन को रोकने वाली वर्षाऋतु की शंका कर ये मयूर इस समय अपनी सुंदर पूँछ फैलाकर मंद-मंद गमन करते हुए मद से मनोहर शब्द कर रहे हैं ।।152।। हे जिनेंद्र, मणिमय मुकुटों की दैदीप्यमान कांति को धारण करने वाले देवों के द्वारा ढोरी हुई तथा अतिशय सुंदर आकार वाली यह आपके चमरों की पंक्ति आपके शरीर की कांतिरूपी सरोवर में सफेद पक्षियों (हंसों) की शोभा बढ़ा रही है ।।153।। हे भगवन्, जिसमें संसार के समस्त पदार्थ भरे हुए हैं, जो समस्त भाषाओं का निदर्शन करती है अर्थात् जो अतिशय विशेष के कारण समस्त भाषाओंरूप परिणमन करती है और जिसने स्याद्वादरूपी नीति से अन्यमतरूपी अंधकार को नष्ट कर दिया है ऐसी आपकी यह दिव्यध्वनि विद्वान् लोगों को शीघ्र ही तत्त्वों का ज्ञान करा देती है ।।154।। हे भगवन आपकी वाणीरूपी यह पवित्र पुण्य जल हम लोगों के मन के समस्त मल को धो रहा है, वास्तव में यही तीर्थ है और यही आपके द्वारा कहा हुआ धर्मरूपी तीर्थ भव्यजनों को संसाररूपी समुद्र से पार होने का मार्ग है ।।155।। हे भगवन्, आपका ज्ञान संसार की समस्त वस्तुओं तक पहुँचा है―समस्त वस्तुओं को जानता है इसलिए आप सर्वग अर्थात् व्यापक है, आपने संसार के समस्त पदार्थों के समूह जान लिये हैं इसलिए आप सर्वज्ञ हैं, आपने काम और मोहरूपी शत्रु को जीत लिया है इसलिए आप सर्वजित् अर्थात् सबको जीतने वाले हैं और आप संसार के समस्त पदार्थों को विशेषरूप से देखते हैं इसलिए आप सर्वदृक् अर्थात् सबको देखने वाले हैं ।।156।। हे भगवन् आप समस्त पापरूपी मल को नष्ट करने वाले समीचीन धर्मरूपी तीर्थ के द्वारा जीवों को निर्मल करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं इसलिए आप तीर्थंकर हैं और आप समस्त पापरूपी विष को अपहरण करने वाले पवित्र शास्त्ररूपी उत्तम मंत्र के बनाने में चतुर हैं इसलिए आप मंत्रकृत् हैं ।।157।। हे भगवन, मुनि लोग आपको ही पुराणपुरुष अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष (पक्ष में ब्रह्मा) मानते हैं, आपको ही ऋषियों के ईश्वर और अक्षय ऋद्धि को धारण करने वाले अच्युत अर्थात् अविनाशी (पक्ष में विष्णु) कहते हैं तथा आपको ही अचिंत्य योग को धारण करने वाले, और समस्त जगत् के उपासना करने योग्य योगीश्वर अर्थात् मुनियों के अधिपति (पक्ष में महेश) कहते हैं इसलिए हे संसार का अंत करने वाले जिनेंद्र ! ब्रह्मा, विष्णु और महेशरूप आपकी हम लोग भी उपासना करते हैं ।।158।। हे नाथ, समस्त घातियाकर्मरूपी मल के नष्ट हो जाने से जिनके केवलज्ञानरूपी निर्मल नेत्र उत्पन्न हुआ है ऐसे आपके लिए नमस्कार हो । जो पापबंधरूपी सांकल को छेदने वाले हैं, संसाररूपी अर्थ को भेदने वाले हैं और कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले जिनों में हाथी के समान श्रेष्ठ हैं ऐसे आपके लिए नमस्कार हो ।।156।। हे भगवन्, आप तीनों लोकों के एक पितामह हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप परम निवृत्ति अर्थात् मोक्ष अथवा सुख के कारण हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप गुरुओं के भी गुरु हैं तथा गुणों के समूह से भी गुरु अर्थात् श्रेष्ठ हैं इसलिए भी आपको नमस्कार हो, इसके सिवाय आपने समस्त तीनों लोकों को जान लिया है इसलिए भी आपको नमस्कार हो ।।160।। हे ईश, आपके उदार गुणों में अनुराग होने से हम लोगों ने आपकी यह अनेक वर्षा (अक्षरों अथवा रंगों) वाली उत्तम स्तुति की है इसलिए हे देव, हे परमेश्वर, हम सब पर प्रसन्न होइए और भक्ति से पवित्र तथा चरणों में अर्पित की हुई सुंदर माला के समान इसे स्वीकार कीजिए ।।161।। हे जिनेंद्र, आपकी स्तुति कर हम लोग आपका बार-बार स्मरण करते हैं, और हाथ जोड़कर आपको नमस्कार करते हैं । हे भगवन, आपकी स्तुति करने से आज यहाँ हम लोगों को जो कुछ पुण्य का संचय हुआ है उससे हम लोगों की आपमें निर्मल और प्रसन्नरूप भक्ति हो ।।162।। इस प्रकार जिनका ज्ञान अतिशय प्रकाशमान हो रहा है ऐसे मुख्य-मुख्य बत्तीस इंद्रों ने, (भवनवासी 10, व्यंतर 8, ज्योतिषी 2 और कल्पवासी 12) सुर, असुर, मनुष्य, नागेंद्र, यक्ष, सिद्ध, गंधर्व और चारणों के समूह के साथ-साथ सैकड़ों स्तुतियों-द्वारा मस्तक झुकाते हुए उन भगवान् वृषभदेव के लिए नमस्कार किया ।।163।। इस प्रकार धर्म से प्रेम रखने वाले इंद्र लोग, अपने बड़े-बड़े मुकुटों को नम्रीभूत करने वाले देवों के साथ-साथ फिर कभी उत्पन्न नहीं होने वाले और जगत् के एकमात्र बंधु जिनेंद्रदेव की स्तुति कर समवसरण भूमि में जिनेंद्र भगवान की ओर मुखकर उन्हीं के चारों ओर यथायोग्यरूप से बैठ गये ।।164।।
उस समय घातियाकर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले जिनेंद्रभगवान के सुवर्ण के समान उज्ज्वल शरीर पर जो देवों के नेत्रों के प्रतिबिंब पड़ रहे थे वे ऐसे अच्छे सुशोभित हो रहे थे मानो कल्पवृक्ष के अवयवों पर पुष्पों का रस पीने की इच्छा करने वाले मदोन्मत्त भ्रमरों के समूह ही हों ।।165।। जिनकी भुजाएँ हाथी की सूँड़ के समान है, जिनका मुख चंद्रमा के समान है, जिनके केशों का समूह टेढ़ा, परिमित (वृद्धि से रहित) और स्थित (नहीं फड़ने वाला) है और जिनका वक्षःस्थल मेरुपर्वत के तट के समान है ऐसे देवाधिदेव जिनेंद्रभगवां को देखकर वे देव बहुत ही हर्षित हुए थे ।।166।। जिसके नेत्र फूले हुए कमल के दल के समान हैं, जिनकी दोनों भुजाएं हाथी की सूंड के समान है, जो निर्मल है, और जो अत्यंत कांति से युक्त है ऐसे जिनेंद्रभगवां के शरीर को वे देव लोग बड़े भारी संतोष से नेत्रों को उघाड़-उघाड़कर देख रहे थे ।।167।। जो चंद्रमा की कांति को हरण करने वाले चमरों से घिरा हुआ है, जो कामदेव के सैकड़ों बाणों के निपात को जीतने वाला है, जिसने समस्त मल नष्ट कर दिये हैं और जो अतिशय पवित्र हैं ऐसे जिनेंद्रदेव के शरीर को देवरूपी भ्रमर अमृत के समान पान करते थे ।।168।। जिसके टिमकाररहित नेत्र कमलदल के समान सुशोभित हो रहे थे जिसका मुख हँसते हुए के समान जान पड़ता था, जो अतिशय सुगंधि से युक्त था, देव और मनुष्यों के स्वामियों के नेत्रों को सुख करने वाला था, और अधिक कांति से सहित था ऐसा भगवान् वृषभदेव का वह शरीर बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था ।।169।। जिस पर टिमकाररहित नेत्र ही भ्रमर बैठे हुए हैं, जो अत्यंत सुगंधित है जिसने चंद्रमा की कांति को तिरस्कृत कर दिया है, जो कामदेवरूपी हिम के आघात से रहित हैं और जो अतिशय कांतिमान हैं ऐसे भगवान् के मुखरूपी कमल को देवांगनाओं के नेत्र असंतुष्टरूप से पान कर रहे थे । भावार्थ―भगवान् का मुखकमल इतना अधिक सुंदर था कि देवांगनाएँ उसे देखते हुए संतुष्ट ही न हो पाती थीं ।।170।। जिनके अनुपम नेत्र कमलदल को जीतते हुए सुशोभित हो रहे हैं, जिनका शरीर देवांगनाओं के नेत्ररूपी भ्रमर से व्याप्त हो रहा है, जो जरारहित हैं, जन्मरहित हैं, इंद्रों के द्वारा पूजित हैं, अतिशय इष्ट हैं अथवा जिनका मत अतिशय उत्कृष्ट है, जिनकी कांति अपार है और जो ऋषियों के स्वामी हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव को हे भव्य जीवो, तुम सब नमस्कार करो ।।171।। मैं श्रीजिनेंद्रभगवां के उस शरीर की स्तुति करता हूँ जिसका कि मुख कमल के समान है, जो कमल की केशर के समान पीतवर्ण हैं, जिसके टिमकाररहित नेत्र कमलदल के समान विशाल और लंबे हैं, जिसकी सुगंधि कमल के समान थी, जिसकी छाया नहीं पड़ती और जो स्वच्छ स्फटिकमणि के समान सुशोभित हो रहा था ।।172।। जिनके ललाईरहित दोनों नेत्र जिनके क्रोध का अभाव बतला रहे हैं, भौंहों की टेढ़ाई से रहित जिनका मुख जिनकी शांतता को सूचित कर रहा है और कटाक्षावलोकन का अभाव होने से सौम्य अवस्था को प्राप्त हुआ जिनका शरीर जिनके कामदेव की विजय को प्रकट कर रहा है ऐसे उन जिनेंद्रभगवां को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ।।173।। हे बुद्धिमान् पुरुषों, जिनका शरीर कामदेव को नष्ट करने वाला अतिशय सुगंधित और सुंदर है, जिनके नेत्र ललाईरहित तथा अत्यंत निर्मल कांति के समूह से सहित हैं, और जिनका मुख ओंठों को डसता हुआ नहीं है तथा हंसता हुआ-सा सुशोभित हो रहा है ऐसे उन वृषभजिनेंद्र को नमस्कार करो ।।174।। जिनका मुख सौम्य है, नेत्र निर्मल कमलदल के समान हैं, शरीर सुवर्ण के पुंज के समान है, जो ऋषियों के स्वामी हैं, जिनके निर्मल और कोमल चरणों के युगल लाल कमल की कांति धारण करते हैं, जो परम पुरुष हैं और जिनकी वाणी अत्यंत कोमल है ऐसे श्री वृषभ जिनेंद्र को मैं अच्छी तरह नमस्कार करता हूँ ।।175।। जिनके चरण-युगल कमलों को जीतने वाले हैं, उत्तम-उत्तम लक्षणों से सहित हैं, कामसंबंधी राग को काट करने में समर्थ हैं, जगत् को संतोष देनेवाले हैं, इंद्र के मुकुट के अग्रभाग से गिरती हुई माला के पराग से पीले-पीले हो रहे हैं और कमल के मध्य में विराजमान कर सुशोभित हो रहे हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव सदा जयवंत हों ।।176।। जो बहुत ऊँचा है, सिंहों के द्वारा धारण किया हुआ है, रत्नों से जड़ा हुआ है, चारों ओर चमकती हुई किरणों से सहित है, संसार को नीचा दिखला रहा है, मेरुपर्वत की शोभा की खूब विडंबना कर रहा है और जो नमस्कार करते हुए देवों के मुकुट के अग्रभाग में लगे हुए रत्नों की कांति की तर्जना करता-सा जान पड़ता है ऐसा जिनका बड़ा भारी सिंहासन सुशोभित हो रहा है वे भगवान् वृषभदेव सदा जयवंत रहे ।।177।। तीनों लोकों के गुरु ऐसे जिन भगवान् का सफेद छत्र पूर्ण चंद्रमंडलसंबंधी समस्त शोभा को हँसता हुआ सुशोभित हो रहा है जिन्होंने घातियाकर्मरूपी शत्रुओं को जीत लिया है जिनके चरणकमल नमस्कार करते हुए इंद्रों के दैदीप्यमान मुकुटों में लगे हुए मणियों से घर्षित हो रहे हैं और जो अंतरंग तथा बहिरंग लक्ष्मी से सहित हैं ऐसे श्री ऋषभ जिनेंद्र सदा जयवंत रहें ।।178।। इंद्रों ने जिनके चरणयुगल की पूजा अनेक बार की थी, जिन पर देवों के समूह ने अपने हाथ से हिलाये हुए अनेक चमरों के समूह ढुराये थे और देवों ने मेरु पर्वत पर दूसरे मेरु पर्वत के समान स्थित हुए जिनका, चंद्रमा की किरणों के अंकुरों के साथ स्पर्धा करने वाले क्षीरसागर के पवित्र जल से अभिषेक किया था वे श्री ऋषभ जिनेंद्र सदा जयवंत रहें ।।179।। गुणों के समुद्रस्वरूप जिन भगवान के उज्ज्वल और अतिशय दैदीप्यमान किरणों के समूह गुणों के समूह के समान चारों ओर सुशोभित हो रहे हैं, जिनका सुंदर चरित्र समस्त जीवों का हित करने वाला है, जो सकल जगत् के स्वामी हैं और जो भव्य जीवरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं ऐसे श्री वृषभ जिनेंद्र देव हम सब की रक्षा करें ।।180।। जिसके पल्लव हिल रहे हैं, जिसके पत्ते और फूल अनेक वर्ण के हैं, जो उत्तम शोभा से सहित है, जिसका स्कंध मरकतमणियों से बना हुआ है, जिसका शरीर अत्यंत उज्ज्वल है, जिसकी छाया बहुत ही सघन है, और समस्त लोगों का शोक नष्ट करने की जिसकी इच्छा है ऐसा जिनका अशोकवृक्ष सुशोभित हो रहा है और जो भव्य जीवरूपी कमलों के समूह को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं ऐसे वे बहिरंग और अंतरंग लक्ष्मी के अधिपति श्री वृषभ जिनेंद्र सदा जयवंत रहें ।।181।। जिसका शरीर अतिशय सुंदर है, जो वायु से हिलती हुई अपनी चंचल शाखाओं से सदा फूलों के उपहार फैलाता रहता है, जिसने समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली हैं, जो कोयलों के मधुर शब्दरूपी गाने-बजाने से मनोहर है और जो नृत्य करती हुई शाखाओं के अग्रभाग से भक्तिपूर्वक जिनेंद्र भगवान् की सेवा करते हुए भव्य के समान सुशोभित हो रहा है ऐसा वह श्री जिनेंद्रदेव का शोभायुक्त अशोकवृक्ष सदा जयवंत रहे ।।182।। जिस समवसरण की भूमि में देव लोग प्रसन्न होकर अपने नेत्रों की पंक्ति के समान चंचल और उन्मत्त भ्रमरों से सेवित फूलों की पंक्ति आकाश के अग्रभाग से छोड़ते हैं अर्थात् पुष्पवर्षा करते हैं और जो वायु से हिलती हुई अपनी ध्वजाओं की पंक्ति से आकाश को साफ करती हुई सी सुशोभित होती है ऐसी वह समवसरण-भूमि चिरकाल तक हम सबके कल्याण को विस्तृत करे ।।183।। रत्नों की प्रभा से दैदीप्यमान रहने वाले जिस धूलीसाल में सूर्य निमग्नकिरण होकर अत्यंत शोभायमान होता है ऐसा वह भगवान् का निर्मल धूलीसाल सदा जयवंत रहे तथा जो कल्पवृक्ष से भी अधिक कांति वाले हैं जिन पर ऊँची ध्वजाएँ फहरा रही हैं, जो आकाश का उल्लंघन कर रही हैं, और जो अतिशय दैदीप्यमान हैं ऐसे जिनेंद्रदेव के ये मानस्तंभ भी सदा जयवंत रहे ।।184।। जिनके किनारे रत्नों के बने हुए हैं जिनमें स्वच्छ जल भरा हुआ है, जो नीलकमलों से व्याप्त है और जो सुगंधि से अंधे भ्रमरों के शब्दों से शब्दायमान होती हुई सुशोभित हो रही है मैं उन बावड़ियों की स्तुति करता हूँ, तथा जो फूले हुए पुष्परूपी हास से सुंदर है और जिसमें पल्लवों के अंकुर उठ रहे हैं ऐसे लतावन की भी स्तुति करता हूँ । और इसी प्रकार भगवान् के उस प्रसिद्ध प्रथम कोट की भी स्तुति करता हूँ ।।185।। जो दैदीप्यमान मूंगा के समान अपने पल्लवों से समस्त दिशाओं को लाल-लाल कर रहे हैं, जो वायु से हिलती हुई अपनी ऊँची शाखाओं से नृत्य करने के लिए तत्पर हुए के समान जान पड़ते हैं, जो चैत्यवृक्षों से सहित हैं, जो जिनेंद्र भगवान् की समवसरण भूमि में प्राप्त हुए हैं और जिनकी संख्या चार है ऐसे उन रक्त अशोक आदि के वनों की भी मैं वंदना करता हूं ।।186।। जो चैत्यवृक्षों से मंडित है, जिनमें श्री जिनेंद्र भगवान की प्रतिमाएँ विराजमान हैं, और इंद्र भी विनय के कारण झुके हुए अपने मस्तक से जिनकी वंदना करते हैं ऐसे, भगवान के लाल अशोकवृक्षों का वन, वह दैदीप्यमान सप्तपर्णवृक्षों का वन, वह आम्रवृक्षों का वन और वह अतिशय श्रेष्ठ चंपकवृक्षों का वन, इन चारों वनों की हम वंदना करते हैं ।।187।। जो अतिशय सुंदर है, जो सिंह, बैल गरुड़, शोभायमान माला, हाथी, वस्त्र, मयूर और हंसों के चिह्नों से सहित हैं जिनका माहात्म्य प्रकट हो रहा है, जो देवताओं के द्वारा भी पूजित हैं और जो वायु से हिल रही है ऐसी जो कोट के आगे दैदीप्यमान ध्वजाओं के वस्त्रों की पंक्तियाँ सुशोभित होती हैं उन्हें भी मैं नमस्कार करता हूँ ।।188।। जो फैलते हुए धूप के धुएँ से आकाशमार्ग को मलिन कर रहे हैं जो दिशाओं के समीप भाग को आच्छादित कर रहे हैं और जो समस्त जगत् को बहुत शीघ्र ही सुगंधित कर रहे हैं ऐसे प्रत्येक दिशा के दो-दो विशाल तथा उत्तम धूप-घट हमारे मन में प्रीति उत्पन्न करे, इसी प्रकार तीनों कोटोंसंबंधी, शोभा-संपन्न दो-दो मनोहर नाट्यशालाएँ भी हमारे मन में प्रीति उत्पन्न करें ।।189।। फूल और पल्लवों से दैदीप्यमान और अतिशय मनोहर कल्पवृक्षों के बड़े-बड़े वनों में लक्ष्मीधारी इंद्रों के द्वारा वंदनीय तथा जिनके मूलभाग में सिद्ध भगवान् की दैदीप्यमान प्रतिमाएँ विराजमान हैं ऐसे जो सिद्धार्थ वृक्ष हैं मैं प्रसन्नचित्त होकर उन सभी की स्तुति करता हूँ, उन सभी को नमस्कार करता हूँ और उन सभी का स्मरण करता हूँ, इसके सिवाय जिनका समस्त शरीर रत्नों का बना हुआ है और जो जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमाओं से सहित हैं ऐसे स्तूपों की पंक्ति का भी मैं प्रसन्नचित्त होकर स्तवन, नमन तथा स्मरण करता हूँ ।।190।। वन की वेदी से घिरी हुई कल्पवृक्षों के वनों की पंक्ति के आगे जो सफेद मकानों की पंक्ति है उसके आगे स्फटिकमणि का बना हुआ जो तीसरा उत्तम कोट है, उसके आगे तीनों लोकों के समस्त जीवों को आश्रय देने का प्रभाव रखने वाला जो भगवान् का श्रीमंडप है और उसके आगे जो गंधकुटी से आश्रित तीन कटनीदार ऊँचा पीठ है वह सब हम लोगों की लक्ष्मी को विस्तृत करे ।।191।। संक्षेप में समवसरण की रचना इस प्रकार है―सबसे पहले (धूलीसाल के बाद) चारों दिशाओं में चार मानस्तंभ हैं, मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर है, फिर निर्मल जल से भरी हुई परिखा है, फिर पुष्पवाटिका (लतावन) हैं, उसके आगे पहला कोट है, उसके आगे दोनों ओर दो-दो नाट्यशालाएँ हैं, उसके आगे दूसरा अशोक आदि का वन है, उसके आगे वेदिका है, तदनंतर ध्वजाओं की पंक्तियाँ हैं, फिर दूसरा कोट है, उसके आगे वेदिकासहित कल्पवृक्षों का वन है, उसके बाद स्तूप और स्तूपों के बाद मकानों की पंक्तियों है, फिर स्फटिकमणिमय तीसरा कोट है, उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियों की बारह सभाएं हैं तदनंतर पीठिका है और पीठिका के अग्रभाग पर स्वयंभू भगवान् अरहंतदेव विराजमान हैं ।।192।। अरहंतदेव स्वभाव से ही पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख कर जिस समवसरणभूमि में विराजमान होते हैं उसके चारों ओर प्रदक्षिणारूप से क्रमपूर्वक 1 बुद्धि के ईश्वर गणधर आदि मुनिजन, 2 कल्पवासिनी देवियाँ, 3 आर्यिकाएँ―मनुष्यों की स्त्रियाँ, 4 भवनवासिनी देवियाँ 5 व्यंतरणी देवियाँ, 6 ज्योतिष्किणी देवियाँ 7 भवनवासी देव, 8 व्यंतर देव, 9 ज्योतिष्क देव, 10 कल्पवासी देव, 11 मनुष्य और 12 पशु इन बारह गणों के बैठने योग्य बारह सभाएं होती हैं ।।193।। उनमें से पहले कोठे में अतिशय ज्ञान के धारक गणधर आदि मुनिराज, दूसरे में कल्पवासी देवों की देवांगनाएँ, तीसरे में आर्यिकासहित राजाओं की स्त्रियाँ तथा साधारण मनुष्यों की स्त्रियां, चौथे में ज्योतिष देवों की देवांगनाएँ, पाँचवें में व्यंतर देवों की देवांगनाएँ, छठे में भवनवासी देवों की देवांगनाएँ, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यंतरदेव, नवें में ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ मनुष्य और बारहवें में पशु बैठते हैं । ये सब ऊपर कहे हुए कोठों में भक्तिभार से नम्रीभूत होकर जिनेंद्र भगवान् के चारों ओर बैठा करते हैं ।।194।।
तदनंतर जिन्होंने प्रकट होते हुए वचनरूपी किरणों से अंधकार को नष्ट कर दिया है, संसाररूपी रात्रि को दूर हटा दिया है और उस रात्रि की संध्या संधि के समान क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान की अवस्था को भी दूर कर दिया है जो सम्यग्ज्ञानरूपी उत्तम सारथि के द्वारा वश में किये हुए सात नयरूपी वेगशाली घोड़ों से जुते हुए स्याद्वादरूपी रथ पर सवार हैं और जो भव्य जीवों के बंधु है ऐसे श्री जिनेंद्रदेवरूपी सूर्य अतिशय दैदीप्यमान हो रहे थे ।।195।। इस प्रकार ऊपर जिसका संग्रह किया गया है ऐसी, धर्मचक्र के अधिपति जिनेंद्र भगवान् की इस समवसरण-भूमि का जो भव्य जीव भक्ति से मस्तक झुकाकर स्तुति से मुख को शब्दायमान करता हुआ स्मरण करता है वह अवश्य ही मणिमय मुकुटों से सहित देवों के माला को धारण करने वाले मस्तकों के द्वारा पूज्य, समस्त गुणों से भरपूर और बड़ी-बड़ी ऋद्धियों से युक्त जिनेंद्र भगवान् की लक्ष्मी अर्थात् अर्हंत अवस्था की विभूति को प्राप्त करता है ।।196।।
इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण के संग्रह में
समवसरणविभूति का वर्णन करने वाला तेईसवां पर्व समाप्त हुआ ।।23।।