ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 24
From जैनकोष
चतुर्विंशतितमं पर्व
जिनके ज्ञान ने पटविद्या अर्थात् विष दूर करने वाली विद्या के समान मोहरूपी विष से सोते हुए इस समस्त जगत् को शीघ्र ही उठा दिया था―जगा दिया था वे श्रीवृषभदेव भगवान् सदा जयवंत रहें ।।1।। अथानंतर राज्यलक्ष्मी से युक्त राजर्षि भरत को एक ही साथ नीचे लिखे हुए तीन समाचार मालूम हुए कि पूज्य पिता को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, अंतःपुर में पुत्र का जन्म हुआ है और आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है ।।2।। उस समय भरत महाराज ने धर्माधिकारी पुरुष से पिता के केवलज्ञान होने का समाचार, आयुधशाला की रक्षा करने वाले पुरुष से चक्ररत्न प्रकट होने का वृत्तांत, और कंचुकी से पुत्र उत्पन्न होने का समाचार मालूम किया था ।।3।। ये तीनों ही कार्य एक साथ हुए हैं । इनमें से पहले किसका उत्सव करना चाहिए यह सोचते हुए राजा भरत क्षण-भर के लिए व्याकुल से हो गये ।।4।। पुण्यतीर्थ अर्थात् भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न होना, पुत्र की उत्पत्ति होना और चक्ररत्न का प्रकट होना ये तीनों ही धर्म, अर्थ, काम तीन वर्ग के फल मुझे एक साथ प्राप्त हुए हैं ।।5।। इनमें से भगवान् के केवलज्ञान उत्पन्न होना धर्म का फल है, पुत्र का होना काम का फल है और दैदीप्यमान चक्र का प्रकट होना अर्थ प्राप्त कराने वाले अर्थ पुरुषार्थ का फल है ।।6।। अथवा यह सभी धर्मपुरुषार्थ का पूर्ण फल है क्योंकि अर्थ धर्मरूपी वृक्ष का फल है और काम उसका रस है ।।7।। सब कार्यों में सबसे पहले धर्मकार्य ही करना चाहिए क्योंकि वह कल्याणों को प्राप्त कराने वाला है और बड़े-बडे फल देने वाला है इसलिए सर्वप्रथम जिनेंद्र भगवान् की पूजा ही करनी चाहिए ।।8।। इस प्रकार राजाओं के इंद्र भरत महाराज ने सबसे पहले भगवान् की पूजा करने का निश्चय किया सो ठीक ही है क्योंकि धर्मात्मा पुरुषों की चेष्टाएँ प्राय: पुण्य उत्पन्न करने वाली ही होती हैं ।।9।। तदनंतर महाराज भरत अपने छोटे भाई, अंतःपुर की स्त्रियाँ और नगर के मुख्य-मुख्य लोगों के साथ पूजा की बड़ी भारी सामग्री लेकर जाने के लिए तैयार हुए ।।10।। गुरुदेव भगवान् वृषभदेव में उत्कृष्ट भक्ति को बढ़ाते हुए और धर्म की प्रभावना करते हुए महाराज भरत भगवान् की वंदना के लिए उठे ।।11।।
तदनंतर जिनका शब्द समुद्र की गर्जना के समान है ऐसे आनंदकाल में बजने वाले नगाड़े सेनारूपी समुद्र में क्षोभ फैलाते हुए और दिशाओं को शब्दायमान करते हुए गंभीर शब्द करने लगे ।।12।। अथानंतर―जो महाभाग्यशाली है, जिनेंद्र भगवान् की वंदना करने का अभिलाषी है, भरतक्षेत्र का स्वामी है और चारों ओर से हाथी-घोड़े पदाति तथा रथों के समूह से घिरा हुआ है ऐसे महाराज भरत ने प्रस्थान किया ।।13।। उस समय वह चलती हुई सेना समुद्र की वेला के समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि सेना में जो नगाड़ों का शब्द फैल रहा था वही उसकी गर्जना का शब्द था और फहराती हुई असंख्यात ध्वजाएँ ही लहरों के समान जान पड़ती थीं ।।14।। इस प्रकार सेना से घिरे हुए महाराज भरत, दिशाओं में फैलती हुई प्रभा से जिसने सूर्यमंडल को जीत लिया है ऐसे भगवान् के समवसरण में जा पहुँचे ।।15।। वे सबसे पहले समवसरण भूमि की प्रदक्षिणा देकर मानस्तंभों की पूजा करते हुए आगे बढ़े, वहाँ क्रम-क्रम से परिखा, लताओं के वन, कोट, चार वन और दूसरे कोट को उल्लंघन कर ध्वजाओं को, कल्पवृक्षों की पंक्तियों को, स्तूपों को और मकानों के समूह को देखते हुए आश्चर्य को प्राप्त हुए ।।16-17।। तदनंतर संभ्रम को प्राप्त हुए द्वारपाल देवों के द्वारा भीतर प्रवेश कराये हुए भरत महाराज ने स्वर्ग को जीतने वाली श्रीमंडप की शोभा देखी ।।18।। तदनंतर अतिशय शोभायुक्त भरत ने प्रथम पीठिका पर पहुँचकर प्रदक्षिणा देते हुए चारों ओर धर्मचक्रों की पूजा की ।।19।। तदनंतर उन्होंने अत्यंत प्रसन्न होकर दूसरे पीठ पर स्थित भगवान् की ध्वजाओं की पवित्र सुगंध आदि द्रव्यों से पूजा की ।।20।। तदनंतर उदयाचल पर्वत के शिखर पर स्थित सूर्य के समान गंधकुटी के बीच में महामूल्य―श्रेष्ठ सिंहासन पर स्थित और अनेक दैदीप्यमान ऋद्धियों को धारण करने वाले जिनेंद्र वृषभदेव को देखा ।।21।। ढुरते हुए चमरों के समूह से जिनका विशाल शरीर संवीज्यमान हो रहा है और जो सुवर्ण के समान कांति को धारण करने वाले हैं ऐसे वे भगवान् उस समय ऐसे जान पड़ते थे मानो जिसके चारों ओर निर्झरने पड़ रहे हैं ऐसा सुमेरु पर्वत ही हो ।।22।। वे भगवान् बड़े भारी अशोकवृक्ष के नीचे तीन छत्रों से सुशोभित थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो जिस पर तीन रूप धारण किये हुए चंद्रमा से सुशोभित मेघ छाया हुआ है ऐसा पर्वतों का राजा सुमेरु पर्वत ही हो ।।23।। वे भगवान् चारों ओर से पुष्पवृष्टि के समूह से सुशोभित थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो जिसके चारों ओर कल्पवृक्षों से फल गिरे हुए हैं ऐसा सुमेरु पर्वत ही हो ।।24।। आकाश में व्याप्त होने वाले देव दुंदुभियों के शब्दों से भगवान् के समीप ही बड़ा भारी शब्द हो रहा था जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो वायु के द्वारा चलायमान हुआ और जिसकी लहरें किनारे तक फैल रही है ऐसा समुद्र ही हो ।।25।। जिसका शब्द अतिशय गंभीर है और जो जगत् के समस्त प्राणियों को आनंदित करने वाला है ऐसे संदेहरहित धर्मरूपी अमृत की वर्षा करते हुए भगवान् वृषभदेव ऐसे जान पड़ते थे मानो गरजता हुआ और जलवर्षा करता हुआ वर्षाऋतु का बादल ही हो ।।26।। अपने शरीर की फैलती हुई प्रभारूपी जल से जिन्होंने समस्त प्रभा को प्रक्षालित कर दिया है, वे भगवान् ऐसे जान पड़ते थे मानो क्षीरसमुद्र के बीच में बढ़ा हुआ सुवर्णमय पर्वत ही हो ।।27।। इस प्रकार आठ प्रातिहार्यरूप ऐश्वर्य से युक्त और जगत् के गुरु स्वामी वृषभदेव को देखकर पूजा करने वालों में श्रेष्ठ भरत ने उनकी प्रदक्षिणा दी और फिर उत्कृष्ट सामग्री से उनकी पूजा की ।।28।। पूजा के बाद महाराज भरत ने अपने दोनों घुटने जमीन पर रखकर सब भाषाओं के स्वामी भगवान् वृषभदेव को नमस्कार किया और फिर वचनरूपी पुष्पों की मालाओं से उनकी इस प्रकार पूजा की अर्थात् नीचे लिखे अनुसार स्तुति की ।।29।।
हे भगवन् आप ब्रह्मा हैं, परम ज्योतिस्वरूप हैं, समर्थ हैं, जन्मरहित हैं, पापरहित हैं, मुख्यदेव अथवा प्रथम तीर्थंकर हैं, देवों के भी अधिदेव और महेश्वर हैं ।।30।। आप ही सृष्टा हैं, विधाता हैं, ईश्वर हैं, सबसे उत्कृष्ट हैं, पवित्र करने वाले हैं, आदि पुरुष हैं, जगत् के ईश हैं, जगत् में शोभायमान हैं और विश्वतोमुख अर्थात् सर्वदर्शी हैं ।।31।। आप समस्त संसार में व्याप्त हैं, जगत् के भर्ता हैं, समस्त पदार्थों को देखने वाले हैं, सबकी रक्षा करने वाले हैं, विभु हैं, सब ओर फैली हुई आत्मज्योति को धारण करने वाले हैं, सबकी योनिस्वरूप हैं―सबके ज्ञान आदि गुणों को उत्पन्न करने वाले हैं और स्वयं अयोनिरूप हैं―पुनर्जन्म से रहित हैं ।।32।। आप ही हिरण्यगर्भ अर्थात् ब्रह्मा हैं, भगवान् हैं, वृषभ हैं, वृषभ चिह्न से युक्त हैं, परमेष्ठी हैं, परमतत्त्व हैं, परमात्मा हैं, और आत्मभू―अपने आप उत्पन्न होने वाले हैं ।।33।। आप ही स्वामी हैं, उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप हैं, ईश्वर हैं, अयोनिज―योनि के बिना उत्पन्न होने वाले हैं, जरारहित हैं, आदिरहित है, अंतरहित हैं और अच्युत हैं ।।34।। आप ही अक्षर अर्थात् अविनाशी हैं, अक्षम्य अर्थात् क्षय होने के अयोग्य हैं, अनक्ष अर्थात् इंद्रियों से रहित हैं, अनक्षर अर्थात् शब्दागोचर हैं, विष्णु अर्थात् व्यापक हैं, विष्णु अर्थात् कर्मरूप शत्रुओं को जीतने वाले हैं, विजिष्णु अर्थात् सर्वोत्कृष्ट स्वभाव वाले हैं, स्वयंभू अर्थात् स्वयं बुद्ध हैं, और स्वयंप्रभ अर्थात् अपने-आप ही प्रकाशमान हैं―असहाय, केवलज्ञान के धारक हैं ।।35।। आप ही शंभु हैं, शंभव हैं, शंयु-सुखी हैं, शंवद हैं―सुख या शांति का उपदेश देने वाले हैं, शंकर हैं―शांति के करने वाले हैं, हर हैं, मोहरूपी असुर के शत्रु हैं, अज्ञानरूप अंधकार के अरि हैं और भव्य जीवों के लिए उत्तम सूर्य हैं ।।36।। आप पुराण हैं―सबसे पहले के हैं, आद्य कवि हैं, योगी हैं, योग के जानने वालों में श्रेष्ठ हैं, सबको शरण देने वाले हैं, श्रेष्ठ हैं, अग्रसर हैं, पवित्र हैं, और पुण्य के नायक हैं ।।37।। आप योगस्वरूप हैं―ध्यानमय हैं, योगसहित हैं―आत्मपरिस्पंद से सहित हैं, सिद्ध हैं―कृतकृत्य हैं, बुद्ध हैं―केवलज्ञान से सहित हैं, सांसारिक उत्सवों से रहित हैं, सूक्ष्म हैं―छद्मस्थज्ञान के अगम्य हैं, निरंजन हैं―कर्मकलंक से रहित हैं, गर्भ में कमलकर्णिका पर उत्पन्न हुए हैं अत: ब्रह्मरूप हैं और जिनवरों में श्रेष्ठ हैं ।।38।। आप द्वादशांगरूप वेदों के जानने वाले हैं, द्वादशांगरूप वेदों के कर्ता हैं, आगम के जानने वाले हैं, वक्ताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं, वचनों के स्वामी हैं, अधर्म के शत्रु हैं, धर्मों में प्रथम धर्म हैं और धर्म के नायक हैं ।।39।। आप जिन हैं, काम को जीतने वाले हैं, अर्हंत हैं―पूज्य हैं, मोहरूपशत्रु को नष्ट करने वाले हैं, अंतरायरहित हैं, धर्म की ध्वजा हैं, धर्म के अधिपति हैं, और कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं ।।40।। आप भव्यजीवरूपी कमलिनियों के लिए सूर्य के समान हैं, आप ही अग्नि हैं, यज्ञकुंड हैं, यज्ञ के अंग हैं, श्रेष्ठ यज्ञ हैं, होम करने वाले हैं और होम करने योग्य द्रव्य हैं ।।41।। आप ही यज्वा हैं―यज्ञ करने वाले हैं, आज्य हैं―घृतरूप हैं, पूजारूप हैं, अपरिमित पुण्यस्वरूप हैं, गुणों की खान हैं, शत्रुरहित हैं, पापरहित हैं, और मध्यरहित होकर भी मध्यम हैं । भावार्थ―भगवान् निश्चयनय की अपेक्षा अनादि और अनंत हैं जिसका आदि और अंत नहीं होता उसका मध्य भी नहीं होता । इसलिए भगवान के लिए यहाँ कवि ने अमध्य अर्थात् मध्यरहित कहा है परंतु साथ ही मध्यम भी कहा है । कवि की इस उक्ति में यहाँ विरोध आता है परंतु अब मध्यम शब्द का ‘मध्ये मा अनंतचतुष्टयलक्ष्मीर्यस्य स:’―जिसके बीच में अनंतचतुष्टयरूप लक्ष्मी है ऐसा अर्थ किया जाता है तब वह विरोध दूर हो जाता है । यह विरोधाभास अलंकार है ।।42।। हे भगवन् आप उत्तम होकर भी अनुत्तम हैं (परिहार पक्ष में ‘नास्ति उत्तमो यस्मात्स:’ ―जिससे बढ़कर और दूसरा नहीं है) ज्येष्ठ हैं, सबसे बड़े गुरु हैं, अत्यंत स्थिर हैं, अत्यंत सूक्ष्म हैं, अत्यंत बड़े हैं, अत्यंत स्थूल हैं और गौरव के स्थान हैं ।।43।। आप बड़े हैं, क्षमा गुण से पृथ्वी के समान आचरण करने वाले हैं, पूज्य हैं, भवनशील (समर्थ) हैं, स्थिर स्वभाव वाले हैं, अविनाशी हैं, विजयशील हैं, अचल हैं, नित्य हैं, शिव हैं, शांत हैं, और संसार का अंत करने वाले हैं ।।44।। हे देव, आप ब्रह्मविद् अर्थात् आत्मस्वरूप के जानने वालों के ध्येय हैं―ध्यान करने योग्य हैं और ब्रह्मपद―आत्मा की शुद्धि पर्याय के ईश्वर हैं । इस प्रकार हम लोग अनेक नामों से आपकी स्तुति करते हैं ।।45।। हे भगवन इस प्रकार आपके एक सौ आठ नामों का हृदय से स्मरण कर मैं आठ प्रातिहार्यों के स्वामी तथा स्तुतियों के स्थानभूत आपकी स्तुति करता हूँ ।।46।। हे भगवन् जिसकी शाखाएँ अत्यंत चलायमान हो रही है ऐसा यह ऊँचा अशोक महावृक्ष अपनी छाया में आये हुए जीवों की इस प्रकार रक्षा करता है मानो इसने आपसे ही शिक्षा पायी हो ।।47।। यक्षों के द्वारा ऊपर उठाकर ढोले गये ये आपके चमरों के समूह ऐसे जान पड़ते हैं मानो बिना किसी छल के मनुष्यों के पापरूपी मक्खियों को ही उड़ा रहे हों ।।48।। हे नाथ, आपके चारों ओर स्वर्ग से जो पुष्पांजलियों की वर्षा हो रही है वह ऐसी जान पड़ती है मानो संतुष्ट हुई स्वर्गलक्ष्मी के द्वारा छोड़ी हुई हर्षजनित आँसुओं की बूँदें ही हों ।।49।। हे जिनेंद्र, मोतियों के जाल से सुशोभित और अतिशय ऊँचा आपका यह छत्रत्रितय ऐसा जान पड़ता है मानो लक्ष्मी का क्रीड़ास्थल ही हो ।।50।। हे भगवन् सिंहों के द्वारा धारण किया हुआ यह आपका सिंहासन ऐसा सुशोभित हो रहा है मानों आप समस्त लोक का भार धारण करने वाले हैं―तीनों लोकों के स्वामी हैं इसलिए आपका बोझ उठाने के लिए सिंहों ने प्रयत्न किया हो, परंतु भार की अधिकता से कुछ झुककर ही उसे धारण कर सके हों ।।51।। हे भगवन् आपके शरीर की प्रभा का विस्तार इस समस्त सभा को व्याप्त कर रहा है और उससे ऐसा जान पड़ता है मानो वह समस्त जीवों को चारों ओर से पुण्यरूप जल के अभिषेक को ही प्राप्त करा रहा हो ।।52।। हे प्रभो, आपके दिव्य वचनों का प्रसार (दिव्यध्वनि का विस्तार) मोहरूपी गाढ़ अंधकार को नष्ट करता हुआ जगत् के जीवों का मन पवित्र कर रहा है इसलिए आप सम्यग्ज्ञानरूपी किरणों को फैलाने वाले सूर्य के समान हैं ।।53।। हे भगवन् इस प्रकार पवित्र और किसी के द्वारा हरण नहीं किये जा सकने योग्य आपके ये आठ प्रातिहार्य ऐसे दैदीप्यमान हो रहे हैं मानो लक्ष्मीरूपी हंसी के क्रीड़ा करने योग्य पवित्र पुलिन (नदीतट) ही हो ।।54।। हे प्रभो, ज्ञान की अपेक्षा आप समस्त संसार में व्याप्त हैं अथवा आपकी आत्मा में संसार के समस्त पदार्थ प्रतिबिंबित हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप जगत् की सृष्टि करने वाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, कर्मों के क्षय से प्रकट होने वाली नौ लब्धियों से आप स्वयंभू हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।55।। हे नाथ, क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र और क्षायिकदान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य ये आपकी नौ क्षायिकशुद्धियाँ कही जाती हैं ।।56।। हे भगवन् आपका बाधारहित ज्ञान समस्त संसार को एक साथ जानता है सो ठीक ही है क्योंकि व्यवधान होना, इंद्रियों की आवश्यकता होना और क्रम से जानना ये तीनों ही ज्ञानावरण कर्म से होते हैं परंतु आपका ज्ञानावरण कर्म बिलकुल ही नष्ट हो गया है इसलिए निर्बाधरूप से समस्त संसार को एक साथ जानते हैं ।।57।। हे प्रभो, यह एक बड़े आश्चर्य की बात है कि आपने इस अनेक प्रकार के जगत् को एक साथ जान लिया अथवा कहीं-कहीं बड़े पुरुषों का आश्रय पाकर क्रम का छूट जाना भी प्रशंसनीय समझा जाता है ।।58।। हे विभो, समस्त इंद्रियों के विद्यमान रहते हुए भी आपका ज्ञान अतींद्रिय ही होता है सो ठीक ही है क्योंकि आपकी शक्तियों का योगी लोग भी चिंतवन नहीं कर सकते हैं ।।59।। हे भगवन जिस प्रकार आपका ज्ञान क्षायिक है उसी प्रकार आपका दर्शन भी क्षायिक है और उन दोनों से एक साथ ही आपके उपयोग रहता है यह एक आश्चर्य की बात है । भावार्थ―संसार के अन्य जीवों के पहले दर्शनोपयोग होता है बाद में ज्ञानोपयोग होता है परंतु आपके दोनों उपयोग एक साथ ही होते हैं ।।60।। हे देव, आपका ज्ञानगुण संसार के समस्त पदार्थों में व्याप्त हो रहा है, आप आश्चर्य उत्पन्न करने वाले हैं और योगी लोग आपको सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी कहते हैं ।।61।। हे ईश, आप संसार के समस्त पदार्थों को जानते हैं फिर भी आपको कुछ भी परिश्रम और खेद नहीं होता है । यह आपके अनंत बल की शक्ति का प्रकट दिखाई देने वाला माहात्म्य है ।।62।। हे विभो, चित्त को कलुषित करने वाले राग आदि विभाव भावों के नष्ट हो जाने से जो आपके सम्यक्चारित्र प्रकट हुआ है वह आपके विनाशरहित और केवल आत्मा से उत्पन्न होने वाले सुख को प्रकट करता है ।।63।। यदि विषय और कषाय से विरक्त होना ही सुख माना जाये तो वह सुख केवल आपमें ही माना जायेगा और यदि विषय कषाय से विरक्त न होने को सुख माना जाये तो फिर यही मानना पड़ेगा कि तीनों लोकों में दुःख है ही नहीं । भावार्थ―निवृति अर्थात् आकुलता के अभाव को सुख कहते हैं, विषयकषायों में प्रवृत्ति करते हुए आकुलता का अभाव नहीं होता इसलिए उनमें वास्तविक सुख नहीं है परंतु आप विषयकषायों से निवृत्त हो चुके हैं―आपकी तद्विषयक आकुलता दूर हो गयी है इसलिए वास्तविक सुख आप में ही है । यदि विषयवासनाओं में प्रवृत्ति करते रहने को सुख कहा जाये तो फिर सारा संसार सुखी ही सुखी कहलाने लगे क्योंकि संसार के सभी जीव विषयवासनाओं में प्रवृत्त हो रहे हैं परंतु उन्हें वास्तविक सुख प्राप्त हुआ नहीं मालूम होता इसलिए सुख का पहला लक्षण ही ठीक है और वह सुख आपको ही प्राप्त है ।।64।। हे भगवन् जिस प्रकार कलुष―मल अर्थात् कीचड़ के शांत हो जाने से जल स्वच्छता को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यात्वरूपी कीचड़ के नष्ट हो जाने से आपका सम्यग्दर्शन भी स्वच्छता को प्राप्त हुआ है ।।65।। हे देव, यद्यपि दान, लाभ आदि शेष लब्धियाँ आप में विद्यमान है तथापि वे कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं क्योंकि कृतकृत्य पुरुष के बाह्य पदार्थों का संसर्ग होना बिल्कुल व्यर्थ होता है ।।66।। हे नाथ, ऐसे-ऐसे आपके अनंतगुण माने गये हैं, परंतु हे ईश, अल्पबुद्धि को धारण करने वाला मैं उन सबकी लेशमात्र भी स्तुति करने के लिए समर्थ नहीं हूँ ।।67।। इसलिए हे देव, आपके गुणो का स्तोत्र करना तो दूर रहा, आपका लिया हुआ नाम ही हम लोगों को पवित्र कर देता है अतएव हम लोग केवल नाम लेकर ही आपके आश्रय में आये हैं ।।68।। हे नाथ, आपके गर्भावतरण के समय आश्चर्य करने वाली हिरण्यमयी अर्थात् सुवर्णमयी वृष्टि हुई थी इसलिए लोग आपको हिरण्यगर्भ कहते हैं ।।69।। आपके जन्म के समय देवों ने रत्नों की वर्षा की थी इसलिए आप वृषभ कहलाते हैं और जन्माभिषेक के लिये आप सुमेरुपर्वत को प्राप्त हुए थे इसलिये आप ऋषभ भी कहलाते हैं ।।70।। हे देव, आप संसार के समस्त जानने योग्य पदार्थों को ग्रहण करने वाले ज्ञान की मूर्तिरूप हैं इसलिए बड़े-बड़े ऋषि लोग आपको सर्वगत अर्थात् सर्वव्यापक कहते हैं ।।71।। हे भगवन् ऊपर कहे हुए नामों को आदि लेकर अनेक नाम आप में सार्थकता को धारण कर रहे हैं इसलिए आप जगज्येष्ठ (जगत में सबसे बड़े), परमेष्ठी और सनातन कहलाते हैं ।।72।। हे अविनाशी, आपकी भक्ति से प्रेरित हुई अपनी इस बुद्धि को मैं स्वयं धारण करने के लिए समर्थ नहीं हो सका इसलिए ही आज आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त हुआ हूँ । भावार्थ―योग्यता न रहते हुए भी मात्र भक्ति से प्रेरित होकर आपकी स्तुति कर रहा हूँ ।।73।। हे प्रभो, आपके द्वारा दिखलाये हुए मार्ग की उपासना का मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा करने वाले और देव मानकर आपकी ही उपासना करने वाले हम लोगों पर प्रसन्न होइए और अनुग्रह कीजिए ।।74।। हे भगवन् इस प्रकार लोकोत्तर वैभव को धारण करने वाले आपकी स्तुति कर हम लोग यही चाहते हैं हम लोगो की बड़ी भारी भक्ति आप में ही रहे, इसके सिवाय हम और कुछ नहीं चाहते ।।75।।
इस प्रकार स्तुति कर चुकने पर जिसे देवों के समूह आश्चर्यसहित नेत्रों से देख रहे थे ऐसे महाराज भरत श्रीमंडप में प्रवेश कर वहाँ अपनी योग्य सभा में जा बैठे ।।76।। तदनंतर भगवान् से प्रबोध प्राप्त करने की इच्छा करनेवाला वह सभारूपी सरोवर जब हाथरूपी कुड्मल जोड़कर शांत हो गया―जब सब लोग तत्त्वों का स्वरूप जानने की इच्छा से हाथ जोड़कर चुपचाप बैठ गये तब भगवान् वृषभदेव से तत्त्वों का स्वरूप जानने की इच्छा करने वाले महाराज भरत ने विनय से मस्तक झुकाकर प्रीतिपूर्वक ऐसी प्रार्थना की ।।77-78।। हे भगवन्, तत्त्वों का विस्तार कैसा है, मार्ग कैसा है ? और उसका फल भी कैसा है ? हे तत्त्वों के जानने वालों में श्रेष्ठ, मैं आपसे यह सब सुनना चाहता हूँ ।।79।। इस प्रकार भरत का प्रश्न समाप्त होने पर प्रथम तीर्थंकर भगवान वृषभदेव ने अतिशय गंभीर वाणी के द्वारा तत्त्वों का विस्तार के साथ विवेचन किया ।।80।। कहते समय भगवान के मुखकमल पर कुछ भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ था सो ठीक है, क्योंकि पदार्थों को प्रकाशित करते समय क्या दर्पण में कुछ विकार उत्पन्न होता है ? अर्थात् नहीं होता ।।81।। उस समय भगवान के न तो तालू, ओठ आदि स्थान ही हिलते थे और न उनके मुख की कांति ही बदलती थी । तथा जो अक्षर उनके मुख से निकल रहे थे उन्होंने प्रयत्न को छुआ भी नहीं था―इंद्रियों पर आघात किये बिना ही निकल रहे थे ।।82।। जिसमें सब अक्षर स्पष्ट है ऐसी वह दिव्यध्वनि भगवान के मुख से इस प्रकार निकल रही थी जिस प्रकार कि किसी पर्वत की गुफा के अग्रभाग से प्रतिध्वनि निकलती है ।।83।। भगवान की वह वाणी बोलने की इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी सो ठीक ही है क्योंकि योगबल से उत्पन्न हुई महापुरुषों का शक्तिरूपी संपदाएं अचिंतनीय होती हैं―उनके प्रभुत्व का कोई चिंतवन नहीं कर सकता ।।84।। भगवान् कहने लगे कि हे आयुष्मन्, जिनका स्वरूप आगे अनुक्रम से कहा जायेगा, ऐसे भेद-प्रभेदों तथा पर्यायों से सहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों को तू सुन ।।85।। जीव आदि पदार्थों का यथा स्वरूप ही तत्त्व कहलाता है, यह तत्त्व ही सम्यग्ज्ञान का अंग अर्थात् कारण है और यही जीवों की मुक्ति का अंग है ।।86।। वह तत्त्व सामान्य रीति से एक प्रकार का है, जीव और अजीव के भेद से दो प्रकार का है तथा जीवों के संसारी और मुक्त इस प्रकार दो भेद करने से संसारी जीव, मुक्त जीव और अजीव इस प्रकार तीन भेद वाला भी कहा जाता है ।।87।। संसारी जीव दो प्रकार के माने गये हैं―एक भव्य और दूसरा अभव्य, इसलिए मुक्त जीव, भव्य जीव, अभव्यजीव और अजीव इस तरह वह तत्त्व चार प्रकार का भी माना गया है ।।88।। अथवा जीव के दो भेद हैं एक मुक्त और दूसरा संसारी, इसी प्रकार अजीव के भी दो भेद हैं एक मूर्तिक और दूसरा अमूर्तिक, दोनों को मिला देने से भी तत्त्व के चार भेद निश्चित किये गये हैं ।।89।। पाँच अस्तिकायों के भेद से वह तत्त्व पाँच प्रकार का भी स्मरण किया है । अपनी-अपनी पर्यायोंसहित जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय कहे जाते हैं ।।90।। उन्हीं पाँच अस्तिकायों में काल के मिला देने से तत्त्व के छह भेद भी हो जाते हैं, इस प्रकार विस्तारपूर्वक जानने की इच्छा करने वालों के लिए तत्त्वों का विस्तार अनंत भेद वाला हो सकता है ।।91।। जिसमें चेतना अर्थात् जानने-देखने की शक्ति पायी जाये उसे जीव कहते हैं, वह अनादि निधन है अर्थात् द्रव्य-दृष्टि की अपेक्षा न तो वह कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी नष्ट ही होगा । इसके सिवाय वह ज्ञाता है―ज्ञानोपयोग से सहित है, द्रष्टा है―दर्शनोपयोग से युक्त है, कर्ता है―द्रव्यकर्म और कर्मों को करने वाला है, भोक्ता है―ज्ञानादि गुण तथा शुभ-अशुभ कर्मों के फल को भोगने वाला है और शरीर के प्रमाण के बराबर है―सर्वव्यापक और अणुरूप नहीं है ।।92।। वह अनेक गुणों से युक्त है, कर्म का सर्वथा नाश हो जाने पर ऊर्ध्वगमन करना उसका स्वभाव है और वह दीपक के प्रकाश की तरह संकोच तथा विस्ताररूप परिणमन करने वाला है । भावार्थ―नामकर्म के उदय से उसे जितना छोटा बड़ा शरीर प्राप्त होता है वह उतना ही संकोच विस्ताररूप हो जाता है ।।93।। उस जीव का अन्वेषण करने के लिए गति आदि चौदह मार्गणाओं का निरूपण किया गया है । इसी प्रकार चौदह गुणस्थान और सत्संख्या आदि अनुयोगों के द्वारा भी वह जीवतत्त्व अन्वेषण करने के योग्य है । भावार्थ―मार्गणाओं, गुणस्थानों और सत्संख्या आदि अनुयोगों के द्वारा जीव का स्वरूप समझा जाता है ।।94।। गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व संज्ञित्व और आहारक ये चौदह मार्गणास्थान हैं । इन मार्गणास्थानों में सत्संख्या आदि अनुयोगों के द्वारा विशेषरूप से जीव का अन्वेषण करना चाहिए―उसका स्वरूप जानना चाहिए ।।95-96।। सिद्धांतशास्त्ररूपी नेत्र को धारण करने वाले भव्य जीवों को सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, भाव, अंतर, अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगों के द्वारा जीवतत्त्व का अन्वेषण करना चाहिए ।।97।। इस प्रकार ये जीवतत्त्व के जानने के उपाय हैं । इनके सिवाय विद्वानों को प्रमाण, नय और निक्षेपों के द्वारा भी जीवतत्त्व का निश्चय करना चाहिए―उसका स्वरूप जानकर दृढ़ प्रतीति करना चाहिए ।।98।। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भाव जीव के निजतत्त्व कहलाते हैं, इन गुणों से जिसका निश्चय किया जाये उसे जीव जानना चाहिए । उस जीव का उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का होता है ।।99-100।। इन दोनों प्रकार के उपयोगों में से ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का और दर्शनोपयोग चार प्रकार का जानना चाहिए । जो उपयोग साकार है अर्थात् विकल्पसहित पदार्थ को जानता है उसे ज्ञानोपयोग कहते हैं और जो अनाकार है―विकल्परहित पदार्थ को जानता है उसे दर्शनोपयोग कहते हैं ।।101।। घट-पट आदि की व्यवस्था लिये हुए किसी वस्तु के भेदग्रहण करने को आकार कहते हैं और सामान्यरूप ग्रहण करने को अनाकार कहते हैं । ज्ञानोपयोग वस्तु को भेदपूर्वक ग्रहण करता है इसलिए वह साकार-सविकल्पक उपयोग कहलाता है और दर्शनोपयोग वस्तु को सामान्यरूप से ग्रहण करता है इसलिए वह अनाकार―अविकल्पिक उपयोग कहलाता है ।।102।। जीव, प्राणी, जंतु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अंतरात्मा, और ज्ञानी ये सब जीव के पर्यायवाचक शब्द हैं ।।103।। चूँकि यह जीव वर्तमान काल में जीवित है, भूतकाल में भी जीवित था और अनागत काल में भी अनेक जन्मों में जीवित रहेगा इसलिए इसे जीव कहते हैं । सिद्ध भगवान् अपनी पूर्वपर्यायों में जीवित थे इसलिए वे भी जीव कहलाते हैं ।।104।। पाँच इंद्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस प्राण इस जीव के विद्यमान रहते हैं इसलिए यह प्राणी कहलाता है, यह बार-बार अनेक जन्म धारण करता है इसलिए जंतु कहलाता है, इसके स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं और यह उसे जानता है इसलिए क्षेत्रज्ञ भी कहलाता है ।।105।। पुरु अर्थात् अच्छे-अच्छे भोगों में शयन अर्थात् प्रवृत्ति करने से यह पुरुष कहा जाता है और अपने आत्मा को पवित्र करता है । इसलिए पुमान् भी कहा जाता है ।।106।। यह जीव नर-नारकादि पर्यायों में अतति अर्थात् निरंतर गमन करता रहता है इसलिए आत्मा कहलाता है और ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के अंतर्वर्ती होने से अंतरात्मा भी कहा जाता है ।।107।। यह जीव ज्ञानगुण से सहित है इसलिए ज्ञ कहलाता है और इसी कारण ज्ञानी भी कहा जाता है, इस प्रकार यह जीव ऊपर कहे हुए पर्याय शब्दों तथा उन्ही के समान अन्य अनेक शब्दों से जानने के योग्य है ।।108।। यह जीव नित्य है परंतु उसकी नर-नारकादि पर्याय जुदी-जुदी है । जिस प्रकार मिट्टी नित्य है परंतु पर्यायों की अपेक्षा उसका उत्पाद और विनाश होता रहता है उसी प्रकार यह जीव नित्य है परंतु पर्यायों की अपेक्षा उसमें भी उत्पाद और विनाश होता रहता है । भावार्थ―द्रव्यत्व सामान्य की अपेक्षा जीव द्रव्य नित्य है और पर्यायों की अपेक्षा अनित्य है । एक साथ दोनों अपेक्षाओं से यह जीव उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप है ।।109।। जो पर्याय पहले नहीं थी उसका उत्पन्न होना उत्पाद कहलाता है, किसी पर्याय का उत्पाद होकर नष्ट हो जाना व्यय कहलाता है और दोनों पर्यायों में तदवस्थ होकर रहना ध्रौव्य कहलाता है, इस प्रकार यह आत्मा उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य इन तीनों लक्षणों से सहित है ।।110।। ऊपर कहे हुए स्वभाव से युक्त आत्मा को नहीं जानते हुए मिथ्यादृष्टि पुरुष उसका स्वरूप अनेक प्रकार से मानते हैं और परस्पर में विवाद करते हैं ।।111।। कितने ही मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि आत्मा नाम का पदार्थ ही नहीं है, कोई कहते हैं कि वह अनित्य है, कोई कहते हैं कि वह कर्ता नहीं है, कोई कहते हैं कि वह भोक्ता नहीं है, कोई कहते हैं कि आत्मा नाम का पदार्थ है तो सही परंतु उसका मोक्ष नहीं है, और कोई कहते हैं कि मोक्ष भी होता है परंतु मोक्ष प्राप्ति का कुछ उपाय नहीं है, इसलिए हे आयुष्मन् भरत, ऊपर कहे हुए इन अनेक मिथ्या नयों को छोड़कर समीचीन नयों के अनुसार जिसका लक्षण कहा गया है ऐसे जीवतत्त्व का तू निश्चय कर ।।12-114।। उस जीव की दो अवस्था मानी गयी है एक संसार और दूसरी मोक्ष । नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार भेदों से युक्त संसाररूपी भँवर में परिभ्रमण करना संसार कहलाता हैं ।।115।। और समस्त कर्मों का बिल्कुल ही क्षय हो जाना मोक्ष कहलाता है, वह मोक्ष अनंतसुख स्वरूप है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप साधन से प्राप्त होता है ।।116।। सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और समीचीन पदार्थों का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है, यह सम्यग्दर्शन मोक्षप्राप्ति का पहला साधन है ।।117। जीव, अजीव आदि पदार्थों के यथार्थस्वरूप को प्रकाशित करने वाला तथा अज्ञानरूपी अंधकार की परंपरा के नष्ट हो जाने के बाद उत्पन्न होने वाला जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है ।।118।। इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में समताभाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं, वह सम्यक्चारित्र यथार्थरूप से तृष्णारहित, मोक्ष की इच्छा करने वाले, वस्त्ररहित और हिंसा का सर्वथा त्याग करने वाले मुनिराज के ही होता है ।।119।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर ही मोक्ष के कारण कहे गये हैं यदि इनमें से एक भी अंग की कमी हुई तो वह अपना कार्य सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकते ।।120।। सम्यग्दर्शन के होते हुए ही ज्ञान और चारित्र फल के देने वाले होते हैं इसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के रहते हुए ही सम्यग्ज्ञान मोक्ष का कारण होता है ।।121।। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं होता किंतु जिस प्रकार अंधे पुरुष का दौड़ना उसके पतन का कारण होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से शून्य पुरुष का चारित्र भी उसके पतन अर्थात् नरकादि गतियों में परिभ्रमण का कारण होता है ।।122।। इन तीनों में से कोई तो अलग-अलग एक-एक से मोक्ष मानते हैं और कोई दो-दो से मोक्ष मानते हैं इस प्रकार मूर्ख लोगों ने मोक्षमार्ग के विषय में छह प्रकार के मिथ्यानयों की कल्पना की है परंतु इस उपर्युक्त कथन से उन सभी का खंडन हो जाता है । भावार्थ―कोई केवल दर्शन से, कोई ज्ञानमात्र से, कोई मात्र चारित्र से, कोई दर्शन और ज्ञान दो से, कोई दर्शन और चारित्र इन दो से और कोई ज्ञान तथा चारित्र इन दो से मोक्ष मानते हैं । इस प्रकार मोक्षमार्ग के विषय में छह प्रकार के मिथ्यानय की कल्पना करते हैं परंतु उनकी यह कल्पना ठीक नहीं है क्योंकि तीनों की एकता से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है ।।123।। जैनधर्म में आप्त, आगम तथा पदार्थ का जो स्वरूप कहा गया है उससे अधिक वा कम न तो है न था और न आगे ही होगा । इस प्रकार आप्त आदि तीनों के विषय में श्रद्धान की दृढ़ता होने से सम्यग्दर्शन में विशुद्धता उत्पन्न होती है ।।124।। जो अनंतज्ञान आदि गुणों से सहित हो, घातिया कर्मरूपी कलंक से रहित हो, निर्मल आशय का धारक हो, कृतकृत्य हो और सबका भला करनेवाला हो वह आप्त कहलाता है । इसके सिवाय अन्य देव आप्ताभास कहलाते हैं ।।125।। जो आप्त का कहा हुआ हो, समस्त पुरुषार्थों का वर्णन करने वाला हो और नय तथा प्रमाणों से गंभीर हो उसे आगम कहते हैं, इसके अतिरिक्त असत्पुरुषों के वचन आगमाभास कहलाते हैं ।।126।। जीव और अजीव के भेद से पदार्थ के दो भेद जानना चाहिए । उनमें से जिसका चेतनारूप लक्षण ऊपर कहा जा चुका है और जो उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यरूप तीन प्रकार के परिणमन से युक्त है वह जीव कहलाता है ।।127।। भव्य-अभव्य और मुक्त इस प्रकार जीव के तीन भेद कहे गये हैं, जिसे आगामी काल में सिद्धि प्राप्त हो सके उसे भव्य कहते हैं, भव्य जीव सुवर्ण-पाषाण के समान होता है अर्थात् जिस प्रकार निमित्त मिलने पर सुवर्ण-पाषाण आगे चलकर शुद्ध सुवर्णरूप हो जाता है उसी प्रकार भव्यजीव भी निमित्त मिलने पर शुद्ध सिद्धस्वरूप हो जाता है ।।128।। जो भव्यजीव से विपरीत है अर्थात् जिसे कभी भी सिद्धि की प्राप्ति न हो सके उसे अभव्य कहते हैं, अभव्यजीव अंधपाषाण के समान होता है अर्थात् जिस प्रकार अंधपाषाण कभी भी सुवर्णरूप नहीं हो सकता उसी प्रकार अभव्य जीव भी कभी सिद्धस्वरूप नहीं हो सकता । अभव्य जीव को मोक्ष प्राप्त होने की सामग्री कभी भी प्राप्त नहीं होती है ।।129।। और जो कर्मबंधन से छूट चुके हैं, तीनों लोकों का शिखर ही जिनका स्थान है, जो कर्म कालिमा से रहित हैं और जिन्हें अनंतसुख का अभ्युदय प्राप्त हुआ है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी मुक्त जीव कहलाते हैं ।।130।। इस प्रकार हे बुद्धिरूपी धन को धारण करने वाले भरत, मैंने तेरे लिए संक्षेप से जीवतत्त्व का निरूपण किया है अब इसी तरह अजीवतत्त्व का भी निश्चय कर ।।131।। धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इस प्रकार अजीवतत्त्व का पाँच भेदों-द्वारा विस्तार निरूपण किया जाता है ।।132।। जो जीव और पुद्गल के गमन में सहायक कारण हो उसे धर्म कहते हैं और जो उन्हीं के स्थित होने में सहकारी कारण हो उसे अधर्म कहते हैं ।।133।। धर्म और अधर्म ये दोनों ही पदार्थ अपनी इच्छा से गमन करते और ठहरते हुए जीव तथा पुद्गलों के गमन करने और ठहरने में सहायक होकर प्रवृत्त होते हैं स्वयं किसी को प्रेरित नहीं करते हैं ।।134।। जिस प्रकार जल के बिना मछली का गमन नहीं हो सकता फिर भी जल मछली को प्रेरित नहीं करता उसी प्रकार जीव और पुद्गल धर्म के बिना नहीं चल सकते फिर भी धर्म उन्हें चलने के लिए प्रेरित नहीं करता किंतु जिस प्रकार जल चलते समय मछली को सहारा दिया करता है उसी प्रकार धर्मपदार्थ भी जीव और पुद्गलों को चलते समय सहारा दिया करता है ।।135।। जिस प्रकार वृक्ष की छाया स्वयं ठहरने की इच्छा करने वाले पुरुष को ठहरा देती है―उसके ठहरने में सहायता करती है परंतु वह स्वयं उस पुरुष को प्रेरित नहीं करती तथा इतना होने पर भी वह उस पुरुष के ठहरने की कारण कहलाती है उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय भी उदासीन होकर जीव और पुद्गलों को स्थित करा देता है―उन्हें ठहरने में सहायता पहुँचाता है परंतु स्वयं ठहरने की प्रेरणा नहीं करता ।।136-137।। जो जीव आदि पदार्थों को ठहरने के लिए स्थान दे उसे आकाश कहते हैं । वह आकाश स्पर्शरहित है, अमूर्तिक है, सब जगह व्याप्त है और क्रियारहित है ।।138।। जिसका वर्तना लक्षण है उसे काल कहते हैं, वह वर्तना काल तथा काल से भिन्न जीव आदि पदार्थों के आश्रय रहती है और सब पदार्थों का जो अपने-अपने गुण तथा पर्यायरूप परिणमन होता है उसमें सहकारी कारण होती है ।।139।। जिस प्रकार कुम्हार के चक्र के फिरने में उसके नीचे लगी हुई शिला कारण होती है उसी प्रकार कालद्रव्य भी सब पदार्थों के परिवर्तन में कारण होता है ऐसा विद्वान् लोगों ने निरूपण किया हैं । भावार्थ―कुम्हार का चक्र स्वयं घूमता है परंतु नीचे रखी हुई शिला या कील के बिना वह घूम नहीं सकता इसी प्रकार समस्त पदार्थों में परिणमन स्वयमेव होता है परंतु वह परिणमन कालद्रव्य की सहायता के बिना नहीं हो सकता इसलिए कालद्रव्य पदार्थों के परिणमन में सहकारी कारण है ।।140।। (वह काल दो प्रकार का है―एक व्यवहार काल और दूसरा निश्चयकाल । घड़ी, घंटा आदि को व्यवहारकाल कहते हैं और लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान एक दूसरे से असंपृक्त होकर रहने वाले जो असंख्यात कालाणु हैं उन्हें निश्चयकाल कहते हैं) व्यवहारकाल से ही निश्चयकाल का निर्णय होता है, क्योंकि मुख्य पदार्थ के रहते हुए ही वाह्लीक आदि गौण पदार्थों की प्रतीति होती है । भावार्थ―वाह्लीक एक देश का नाम है परंतु उपचार से वहाँ के मनुष्यों को भी वाह्लीक कहते हैं । यहाँ वाह्लीक शब्द का मुख्य अर्थ देशविशेष है और गौण अर्थ है वहाँ पर रहने वाला सदाचार से पराङ्मुख मनुष्य । यदि देशविशेष अर्थ को बतलाने वाला वाह्लीक नाम का कोई मुख्य पदार्थ नहीं होता तो वहाँ रहने वाले मनुष्यों में भी वाह्लीक शब्द का व्यवहार नहीं होता इसी प्रकार यदि मुख्य काल द्रव्य नहीं होता तो व्यवहारकाल भी नहीं होता । हम लोग सूर्योदय और सूर्यास्त आदि द्वारा दिन-रात महीना आदि का ज्ञान प्राप्त कर व्यवहारकाल को समझ लेते हैं परंतु अमूर्तिक निश्चयकाल के समझने में हमें कठिनाई होती है इसलिए आचार्यों ने व्यवहारकाल के द्वारा निश्चयकाल को समझने का आदेश दिया है क्योंकि पर्याय के द्वारा ही पर्यायी का बोध हुआ करता है ।।141।। वह निश्चयकाल लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित लोकप्रमाण (असंख्यात) अपने अणुओं से जाना जाता है और काल के वे अणु रत्नों की राशि के समान परस्पर में एक दूसरे से नहीं मिलते, सब जुदे-जुदे ही रहते हैं ।।142।। परस्पर में प्रदेशों के नहीं मिलने से यह कालद्रव्य अकाय अर्थात् प्रदेशी कहलाता है । काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों के प्रदेश एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं इसलिए वे अस्तिकाय कहलाते हैं । भावार्थ―जिसमें बहुप्रदेश हो उसे अस्तिकाय कहते हैं, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये द्रव्य बहुप्रदेशी होने के कारण अस्तिकाय कहलाते हैं और कालद्रव्य एकप्रदेशी होने से अनस्तिकाय कहलाता है ।।143।। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार पदार्थ मूर्ति से रहित हैं, पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है । अब आगे उसके भेदों का वर्णन सुन । भावार्थ―जीव द्रव्य भी अमूर्तिक है परंतु यहाँ अजीव द्रव्यों का वर्णन चल रहा है इसलिए उसका निरूपण नहीं किया है । पाँच इंद्रियों में से किसी भी इंद्रिय के द्वारा जिसका स्पष्ट ज्ञान हो उसे मूर्तिक कहते हैं, पुद्गल को छोड़कर और किसी पदार्थ का इंद्रियों के द्वारा स्पष्ट ज्ञान नहीं होता इसलिए पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है और शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं ।।144।। जिसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पाया जाये उसे पुद्गल कहते हैं । पूरण और गलन रूप स्वभाव होने से पुद्गल यह नाम सार्थक है । भावार्थ―अन्य परमाणुओं का आकर मिल जाना पूरण कहलाता है और पहले के परमाणुओं का बिछुड़ जाना गलन कहलाता है, पुद्गल स्कंधों में क्षरण और गलन ये दोनों ही अवस्थाएं होती रहती हैं, इसलिए उनका पुद्गल यह नाम सार्थक है ।।145।। स्कंध और परमाणु के भेद से पुद्गल की व्यवस्था दो प्रकार की होती है । स्निग्ध और रूक्ष अणुओं का जो समुदाय है उसे स्कंध कहते हैं ।।146।। उस पुद्गल द्रव्य का विस्तार दो परमाणु वाले द्व᳭यणुक स्कंध से लेकर अनंतानंत परमाणु वाले महास्कंध तक होता है । छाया, आतप, अंधकार, चाँदनी, मेघ आदि सब उसके भेद-प्रभेद हैं ।।147।। परमाणु अत्यंत सूक्ष्म होते हैं, वे इंद्रियों से नहीं जाने जाते । घट-पट आदि परमाणुओं के कार्य हैं उन्हीं से उनका अनुमान किया जाता है । उनमें कोई भी दो अविरुद्ध स्पर्श रहते हैं, एक वर्ण, एक गंध और एक रस रहता है । वे परमाणु गोल और नित्य होते हैं तथा पर्यायों की अपेक्षा अनित्य भी होते हैं ।।148।। ऊपर कहे हुए पुद्गल द्रव्य के छह भेद हैं―1 सूक्ष्मसूक्ष्म, 2 सूक्ष्म 3 सूक्ष्मस्थूल, 4 स्थूलसूक्ष्म, 5 स्थूल और दे स्थूलस्थूल ।।149।। इनमें से एक अर्थात् स्कंध से पृथक् रहने वाला परमाणु सूक्ष्मसूक्ष्म है क्योंकि न तो वह देखा जा सकता है और न उसका स्पर्श ही किया जा सकता है । कर्मों के स्कंध सूक्ष्म कहलाते हैं क्योंकि वे अनंत प्रदेशों के समुदायरूप होते हैं ।।150।। शब्द, स्पर्श, रस और गंध सूक्ष्मस्थूल कहलाते हैं क्योंकि यद्यपि इनका चक्षु इंद्रिय के द्वारा ज्ञान नहीं होता इसलिए ये सूक्ष्म है परंतु अपनी-अपनी कर्ण आदि इंद्रियों के द्वारा इनका ग्रहण हो जाता है इसलिए ये स्थूल भी कहलाते हैं ।।151।। छाया, चाँदनी और आतप आदि स्थूलसूक्ष्म कहलाते हैं क्योंकि चक्षु इंद्रिय के द्वारा दिखायी देने के कारण ये स्थूल हैं परंतु इनके रूप का संहरण नहीं हो सकता इसलिए विघातरहित होने के कारण सूक्ष्म भी है ।।152।। पानी आदि तरल पदार्थ जो कि पृथक् करने पर भी मिल जाते हैं स्थूल भेद के उदाहरण हैं, अर्थात् दूध, पानी आदि पतले पदार्थ स्थूल कहलाते हैं और पृथिवी आदि स्कंध जो कि भेद किये जाने पर फिर न मिल सकें स्थूलस्थूल कहलाते हैं ।।153।। इस प्रकार ऊपर कहे हुए जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का जो भव्य विपरीतता-रहित श्रद्धान करता है वह परब्रह्म अवस्था को प्राप्त होता है ।।154।। इस प्रकार ज्ञानवानों में अतिशय श्रेष्ठ भगवान् वृषभदेव भरत के लिए समस्त पदार्थों के संग्रह का निरूपण कर फिर भी संक्षेप से कुछ तत्त्वों का स्वरूप कहने लगे ।।155।। उन्होंने आत्मा, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ, मुनि तथा श्रावकों का मार्ग, स्वर्ग और मोक्षरूप मार्ग का फल, बंध और बंध के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारण, कर्मरूपी बंधन से बंधे हुए संसारी जीव और कर्मबंधन से रहित मुक्त जीव आदि विषयों का निरूपण किया ।।156।। इसी प्रकार तीनों लोकों का आकार, नरकों के पटल, द्वीप, समुद्र, ह्रद और कुलाचल आदि का भी स्वरूप भरत के लिए कहा ।।157।। अनंतचतुष्टयरूप लक्ष्मी के धारक भगवान् वृषभदेव ने तिरसठ पटलों से युक्त स्वर्ग, देवों के आयु और उनके भोगों का विस्तार, मोक्षस्थान तथा लोकनाड़ी का भी वर्णन किया ।।158।। जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव ने तीर्थकर चक्रवर्ती और अर्ध चक्रवर्तियों के पुराण, तीर्थंकरों के कल्याणक और उनके हेतु स्वरूप सोलहकारण भावनाओं का भी निरूपण किया ।।159।। भगवान् ने, अमुक जीव मरकर कहाँ-कहाँ पैदा होता है ? अमुक जीव कहाँ-कहाँ से आकर पैदा हो सकता है ? जीवों की उत्पत्ति, विनाश, भोगसामग्री, विभूतियाँ अथवा मुनियों की ऋद्धियाँ, तथा मनुष्यों के करने और न करने योग्य काम आदि सबका निरूपण किया था ।।160।। सबको जानने वाले और सबका कल्याण करने वाले भगवान वृषभदेव ने भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल संबंधी सब द्रव्यों का सब स्वरूप भरत के लिए बतलाया था ।।161 इस प्रकार जगद्गुरु-परमपुरुष भगवान् वृषभदेव से तत्त्वों का स्वरूप सुनकर भक्ति से भरे हुए महाराज भरत परम आनंद को प्राप्त हुए ।।162।। तदनंतर परम आनंद को धारण करते हुए भरत ने निष्फल अर्थात् शरीरानुराग से रहित भगवान वृषभदेव से सम्यग्दर्शन की शुद्धि और अणुव्रत की परम विशुद्धि को प्राप्त किया ।।163।। जिस प्रकार शरद्ऋतु में प्रबुद्ध अर्थात् खिला हुआ कमलों का समूह सुशोभित होता है उसी प्रकार महाराज भरत परम भगवान् वृषभदेव से प्रबुद्ध होकर― तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर मन की परम विशुद्धि को प्राप्त हो अतिशय सुशोभित हो रहे थे ।।164।। भरत ने, गुरुदेव की आराधना कर, जिसमें सम्यग्दर्शनरूपी प्रधान मणि लगा हुआ है और जो मुक्तिरूपी लक्ष्मी के निर्मल कंठहार के समान जान पड़ती थी ऐसी व्रत और शीलों की निर्मल माला धारण की थी । भावार्थ―सम्यग्दर्शन के साथ पाँच अणुव्रत और सात शीलव्रत धारण किये थे तथा उनके अतिचारों का बचाव किया था ।।165।। जिस प्रकार किसी बड़ी खान से निकला हुआ मणि संस्कार के योग से दैदीप्यमान होने लगता है उसी प्रकार महाराज भरत भी गुरुदेव से ज्ञानमय संस्कार पाकर सुशोभित होने लगे थे ।।166।। उस समय मुनियों से सहित वह देव-दानव और मनुष्यों की सभा उत्तम धर्मरूपी अमृत का पान कर परम संतोष को प्राप्त हुई थी ।।167।। जिस प्रकार मेघों की गर्जना सुनकर चातक पक्षी परम आनंद को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार उस समय भगवान् की दिव्यध्वनि सुनकर भव्य जीवों के समूह परम आनंद को प्राप्त हो रहे थे ।।168।। मेघ की गर्जना के समान भगवान् की दिव्यध्वनि को सुनकर अशोकवृक्ष की शाखाओं पर बैठे हुए दिव्य मयूर भी आनंद से शब्द करने लग गये थे ।।169।। सबकी रक्षा करने वाले और अग्नि के समान दैदीप्यमान भगवान् को प्राप्त कर भव्य जीवरूपी रत्न दिव्यकांति को धारण करने वाली परम विशुद्धि को प्राप्त हुए थे ।।170।। उसी समय जो पुरिमताल नगर का स्वामी था, भरत का छोटा भाई था, पुण्यवान्, विद्वान्, शूर-वीर, पवित्र, धीर, स्वाभिमान करने वालों में श्रेष्ठ, श्रीमान्, बुद्धि के पार को प्राप्त―अतिशय बुद्धिमान् और जितेंद्रिय था तथा जिसका नाम वृषभसेन था उसने भी भगवान् के समीप संबोध पाकर दीक्षा धारण कर ली और उनका पहला गणधर हो गया ।।171-172।। सात ऋद्धियों से जिनकी विभूति अतिशय दैदीप्यमान हो रही है, जो चारों ओर से तप की दीप्ति से घिरे हुए हैं और जिन्होंने अज्ञानरूपी गाड़ अंधकार के उदय को नष्ट कर दिया है ऐसे वे वृषभसेन गणधर शरद् ऋतु के सूर्य के समान अत्यंत दैदीप्यमान हो रहे थे ।।173।। उसी समय श्रीमान् और कुरुवंशियों में श्रेष्ठ महाराज सोमप्रभ, श्रेयान्स कुमार, तथा अन्य राजा लोग भी दीक्षा लेकर भगवान के गणधर हुए थे ।।174।। भरत की छोटी बहन ब्राह्मी भी गुरुदेव की कृपा से दीक्षित होकर आर्याओं के बीच में गणिनी (स्वामिनी) के पद को प्राप्त हुई थी । वह ब्राह्मी सब देवों के द्वारा पूजित हुई थी ।।175।। उस समय वह राजकन्या ब्राह्मी दीक्षारूपी शरद् ऋतु की नदी के शीलरूपी किनारे पर बैठी हुई और मधुर शब्द करती हुई हंसी के समान सुशोभित हो रही थी ।।176।। वृषभदेव की दूसरी पुत्री सुंदरी को भी उस समय वैराग्य उत्पन्न हो गया था जिससे उसने भी ब्राह्मी के बाद दीक्षा धारण कर ली थी । इनके सिवाय उस समय और भी अनेक राजाओं तथा राजकन्याओं ने संसार से भयभीत होकर गुरुदेव के समीप दीक्षा धारण की थी ।।177।। श्रुतकीर्ति नाम के किसी अतिशय बुद्धिमान् पुरुष ने श्रावक के व्रत ग्रहण किये थे, और वह देशव्रत धारण करने वाले गृहस्थों में सबसे श्रेष्ठ हुआ था ।।178।। इसी प्रकार अतिशय धीर-वीर और पवित्र अंतःकरण को धारण करने वाली कोई प्रियव्रता नाम की सती स्त्री श्रावक के व्रत धारण कर, शुद्ध चारित्र को धारण करने वाली स्त्रियों में सबसे श्रेष्ठ हुई थी ।।179।। जिस समय भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था उस समय और भी बहुत से उत्तमोत्तम राजा लोग दीक्षित होकर बड़ी-बड़ी ऋद्धियों को धारण करने वाले मुनिराज हुए थे ।।180।। भरत के भाई अनंतवीर्य ने भी संबोध पाकर भगवान् से दीक्षा प्राप्त की थी, देवों ने भी उसकी पूजा की थी और वह इस अवसर्पिणी युग में मोक्ष प्राप्त करने के लिए सबमें अग्रगामी हुआ था । भावार्थ―इस युग में अनंतवीर्य ने सबसे पहले मोक्ष प्राप्त किया था ।।181।। जो तपस्वी पहले भ्रष्ट हो गये थे उनमें से मरीचि को छोड़कर बाकी सब तपस्वी लोग भगवान् के समीप संबोध पाकर तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप समझकर फिर से दीक्षित हो तपस्या करने लगे थे ।।182।।
तदनंतर जिन्हें चक्ररत्न की पूजा करने के लिए कुछ जल्दी हो रही है और जो पवित्र बुद्धि के धारक हैं ऐसे महाराज भरत जगद्गुरु की पूजा कर अपने नगर के सम्मुख हुए ।।183।। युवावस्था को धारण करने वाला बुद्धिमान् बाहुबली तथा और भी भरत के छोटे भाई आनंद के साथ जगद्गुरु की वंदना करके भरत के पीछे-पीछे वापस लौट रहे थे ।।184।। अथानंतर उस समय महाराज भरत ठीक सूर्य के समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार सूर्य के दिव्य प्रभाव का प्रसार (फैलाव) प्रकट होता है, उसी प्रकार भरत के भी दिव्य―अलौकिक प्रभाव का प्रसार प्रकट हो रहा था, सूर्य जिस प्रकार उदय होते समय राग अर्थात् लालिमा धारण करता है उसी प्रकार भरत भी अपने राज्य-शासन के उदयकाल में प्रजा से राग अर्थात् प्रेम धारण कर रहे थे, सूर्य जिस प्रकार आभिमुख्य अर्थात् प्रधानता को धारण करता है उसी प्रकार भरत भी प्रधानता को धारण कर रहे थे, सूर्य जिस प्रकार विजयी होता उसी प्रकार भरत भी विजयी थे, और सायंकाल के समय जिस प्रकार समस्त दिशाओं को प्रकाशित करने वाली किरणें सूर्य के पीछे-पीछे जाती है ठीक उसी प्रकार समस्त दिशा में आक्रमण करने वाले भरत के छोटे भाई उनके पीछे-पीछे जा रहे थे ।।185।। इस प्रकार निधियों के अधिपति महाराज भरत ने बड़े भारी आनंद के साथ अपनी अयोध्यापुरी में प्रवेश किया था । उस समय उसमें अनेक ध्वजाएँ फहरा रही थीं और वह ठीक जिनवाणी के समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार जिनवाणी के भीतर समस्त पदार्थों का विस्तार भरा रहता है उसी प्रकार उस अयोध्या में अनेक पदार्थों का विस्तार भरा हुआ था । जिस प्रकार जिनवाणी फैले हुए वर्णों अर्थात् अक्षरों से उज्ज्वल रहती है उसी प्रकार वह अयोध्या भी फैले हुए―जगह-जगह बसे हुए क्षत्रिय आदि वर्णों से उज्ज्वल थी । जिस प्रकार जिनवाणी अत्यंत शुचिरूप-पवित्र होती है उसी प्रकार वह अयोध्या भी शुचिरूप―कर्दम आदि से रहित पवित्र थी । जिस प्रकार जिनवाणी समूह के सन्निधान से श्रेष्ठ होती है उसी प्रकार वह अयोध्या भी नीतिसमूह के सन्निधान से श्रेष्ठ थी । जिस प्रकार जिनवाणी विस्तृत आनंद को देने वाली होती है उसी प्रकार वह अयोध्या भी सबको विस्तृत आनंद की देने वाली थी, जिस प्रकार जिनवाणी विश्वास्य अर्थात् विश्वास करने योग्य होती है अथवा सब ओर मुखवाली अर्थात् समस्त पदार्थों का निरूपण करने वाली होती है उसी प्रकार वह अयोध्या भी विश्वास करने के योग्य अथवा सब ओर हैं अत्यय अर्थात् मुख जिसके ऐसी थी―उसके चारों ओर गोपुर बने हुए थे, और जिस प्रकार जिनवाणी सभी अंग अर्थात् द्वादशांग को धारण करने वाले मुनियों के द्वारा परिचित―अभ्यस्त रहती है उसी प्रकार वह अयोध्या भी समस्त जीवों के द्वारा परिचित थी―उसमें प्रत्येक प्रकार के प्राणी रहते थे ।।186।।
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में भगवत्कृत
धर्मोपदेश का वर्णन करने वाला चौबीसवां पर्व समाप्त हुआ ।।24।।