ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 25
From जैनकोष
पंचविंशतितमं पर्व
अथानंतर―राजर्षि भरत के चले जाने और दिव्यध्वनि के बंद हो जाने पर वायु बंद होने से निश्चल हुए समुद्र के समान जिनका शब्द बिलकुल बंद हो गया है, जिन्होंने धर्मरूपी जल की वर्षा के द्वारा जगत् के जीवरूपी वन के वृक्ष सींच दिये हैं अतएव जो वर्षा कर चुकने के बाद शब्दरहित हुए वर्षाऋतु के बादल के समान जान पड़ते हैं, जो कल्पवृक्ष के समान अभीष्ट फल देने में तत्पर रहते हैं, जिनके चरणों के समीप में तीनों लोकों के जीव विश्राम लेते हैं, जो अनंत बल से सहित हैं, जिन्होंने सूर्य के समान मोहरूपी गाड़ अंधकार के उदय को नष्ट कर दिया है, और जो नव केवललब्धिरूपी दैदीप्यमान किरणों के समूह से सुशोभित हैं, जो किसी बड़ी भारी खान के समान उत्पन्न हुए गुणरूपी रत्नों के समूह से व्याप्त हैं, भगवान् हैं, जगत् के अधिपति हैं, और अचिंत्य तथा अनंत वैभव को धारण करने वाले हैं । जो चार प्रकार के श्रमण संघ से घिरे हुए हैं और उनसे ऐसे जान पड़ते हैं मानो भद्रशाल आदि चारों वनों के विस्तार से घिरा हुआ सुमेरु पर्वत ही हो । जो आठ प्रातिहार्यों से सहित हैं, जिनके पाँच कल्याणक सिद्ध हुए हैं, चौंतीस अतिशयों के द्वारा जिनका ऐश्वर्य बढ़ रहा है और जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, ऐसे भगवान् वृषभदेव को देखते ही जिसके हजार नेत्र विकसित हो रहे हैं और मन प्रसन्न हो रहा है ऐसे सौधर्म स्वर्ग के इंद्र ने स्थिर-चित्त होकर भगवान् की स्तुति करना प्रारंभ की ।।1-8।। हे प्रभो, यद्यपि मैं बुद्धि की प्रकर्षता से रहित हूँ तथापि केवल आपकी भक्ति से ही प्रेरित होकर परम ज्योतिस्वरूप तथा गुणरूपी रत्नों की खानस्वरूप आपकी स्तुति करता हूँ ।।9।। हे जिनेंद्र, भक्तिपूर्वक आपकी स्तुति करने वाले पुरुषों में उत्तम-उत्तम फलरूपी संपदाएं अपने आप ही प्राप्त होती हैं यही निश्चय कर आपकी स्तुति करता हूँ ।।10।। पवित्र गुणों का निरूपण करना स्तुति है, प्रसन्न बुद्धि वाला भव्य स्तोता अर्थात् स्तुति करनेवाला है, जिनके सब पुरुषार्थ सिद्ध हो चुके हैं ऐसे आप स्तुत्य अर्थात् स्तुति के विषय हैं, और मोक्ष का सुख प्राप्त होना उसका फल है । हे विभो, हे सनातन, इस प्रकार निश्चय कर ह्रदय से स्तुति करने वाले और फल की इच्छा करने वाले मुझको आप अपनी प्रसन्न दृष्टि से पवित्र कीजिए ।।11-12।। हे भगवन्, आपके गुणों के द्वारा प्रेरित हुई भक्ति ही मुझे आनंदित कर रही है इसलिए मैं संसार से उदासीन होकर भी आपकी इस स्तुति के मार्ग में लग रहा हूँ―प्रवृत्त हो रहा हूँ ।।13।। हे विभो, आपके विषय में की गयी थोड़ी भी भक्ति कल्पवृक्ष की सेवा की तरह प्राणियों के लिए बड़ी-बडी संपदाएँरूपी फल फलती हैं―प्रदान करती हैं ।।14।। हे भगवन् आभूषण आदि उपाधियों से रहित आपका शरीर आपके राग-द्वेष आदि शत्रुओं की विजय को स्पष्ट रूप से कह रहा है क्योंकि आभूषण वगैरह रागी मनुष्यों के दोष प्रकट करने वाले विकार हैं । भावार्थ―रागी द्वेषी मनुष्य ही आभूषण पहनते हैं परंतु आपने राग-द्वेष आदि अंतरंग शत्रुओं पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली है इसलिए आपको आभूषण आदि के पहनने की आवश्यकता नहीं है ।।15।। हे प्रभो, जगत् को सुशोभित करने वाला आपका यह शरीर भूषणरहित होने पर भी अत्यंत सुंदर है सो ठीक ही है क्योंकि जो आभूषण स्वयं दैदीप्यमान होता है वह दूसरे आभूषण की प्रतीक्षा नहीं करता ।।16।। हे भगवन् यद्यपि आपके मस्तक पर न तो सुंदर केशपाश है, न शेखर का परिग्रह है और न मुकुट का भार ही है तथापि वह अत्यंत सुंदर है ।।17।। हे नाथ, आपके मुख पर न तो भौंह ही टेढ़ी हुई है, न आपने ओठ ही डसा है और न आपने अपना हाथ ही शस्त्रों पर व्यापृत किया है―हाथ से शस्त्र उठाया है फिर भी आपने घातियाकर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट कर दिया है ।।18।। हे देव, आपने मोहरूपी शत्रु के जीतने में अपने नीलकमल के दल के समान बड़े-बड़े नेत्रों को कुछ भी लाल नहीं किया था, इससे मालूम होता है कि आपकी प्रभुत्वशक्ति बड़ा आश्चर्य करने वाली है ।।19।। हे जिनेंद्र, आपके दोनों नेत्र कटाक्षावलोकन से रहित हैं और सौम्य दृष्टि से सहित हैं इसलिए वे हम लोगों को स्पष्ट रीति से बतला रहे हैं कि आपने कामदेवरूपी शत्रु को जीत लिया है ।।20।। हे नाथ, हम लोगों के मस्तक का स्पर्श करती हुई और जगत् को एकमात्र पवित्र करती हुई आपके नेत्रों की निर्मल दीप्ति पुण्यधारा के समान हम लोगों को पवित्र कर रही है ।।21।। हे भगवन्, शरद् ऋतु के चंद्रमा के समान अपनी कांतिरूपी चाँदनी से समस्त जगत् को व्याप्त करता हुआ आपका यह मुख फूले हुए कमल की शोभा धारण कर रहा है ।।22।। हे जिन, आपका मुख न तो अट्टहास से सहित है, न हुंकार से युक्त है और न ओठों को ही दबाये है इसलिए वह बुद्धिमान लोगों को आपकी वीतरागता प्रकट कर रहा है ।।23।। हे देव, जो अंधकार को नष्ट कर रही है और जिसने प्रातःकाल के सूर्य की प्रभा को जीत लिया है ऐसी आपकी मुख से निकलती हुई पवित्र कांति सरस्वती के समान सुशोभित हो रही है ।।24।। हे भगवन्, आपके मुखरूपी कमल पर लगी हुई यह देवों के नेत्रों की पंक्ति ऐसी जान पड़ती है मानो उसकी सुगंधि के कारण चारों ओर से झपटती हुई भ्रमरों की पंक्ति ही हो ।।25।। हे नाथ, जिनसे कभी तृप्ति न हो ऐसे आपके मुखरूपी कमल से निकले हुए आपके वचनरूपी मकरंद का पान कर ये भव्य जीवरूपी भ्रमर आनंद को प्राप्त हो रहे हैं ।।26।। हे भगवन्, यद्यपि आप एक ओर मुख किये हुए विराजमान हैं तथापि ऐसे दिखाई देते हैं जैसे आपके मुख चारों ओर हों । हे देव, निश्चय ही यह आपके तपश्चरणरूपी गुण का आश्चर्य करनेवाला माहात्म्य है ।।27।। हे जिनेंद्ररूपी सूर्य, तिर्यंचों के भी हृदयगत अंधकार को नष्ट करने वाली आपकी वचनरूपी किरणें सब दिशाओं में फैल रही हैं ।।28।। हे देव, आपके वचनरूपी अमृत को पीकर आज हम लोग वास्तव में अमर हो गये हैं इसलिए सब रोगों को हरने वाला आपका यह वचनरूप अमृत हम लोगों को बहुत ही इष्ट है―प्रिय है ।।29।। हे जिनेंद्रदेव, जिससे वचनहारी अमृत झर रहा है और जो भव्य जीवों का जीवन है ऐसा यह आपका मुखरूपी कमल धर्म के खजाने के समान सुशोभित हो रहा है ।।30।। हे देव, आपके मुखरूपी चंद्रमंडल से निकलती हुई ये वचनरूपी किरणें अंधकार को नष्ट करती हुई सभा को अत्यंत आनंदित कर रही हैं ।।31।। हे देव, यह भी एक आश्चर्य को बात है कि आप से अनेक प्रकार की भाषाओं की एक साथ उत्पत्ति होती है अथवा आपके तीर्थंकरपने का माहात्म्य ही ऐसा है ।।32।। हे भगवन्, जो पसीना और मलमूत्र से रहित है, सुगंधित है, शुभ लक्षणों से सहित है, समचतुरस्र संस्थान है, जिसमें लाल रक्त नहीं हैं और जो वज्र के समान स्थिर हे ऐसा यह आपका शरीर अतिशय सुशोभित हो रहा है ।।33।। हे देव, नेत्रों को आनंदित करने वाली सुंदरता, मन को प्रसन्न करने वाला सौभाग्य और जगत् को हर्षित करने वाली मीठी वाणी ये आपके असाधारण गुण है अर्थात् आपको छोड़कर संसार के अन्य किसी प्राणी में नहीं रहते ।।34।। हे भगवन यद्यपि आपका वीर्य अपरिमित है तथापि वह आपके परिमित अल्प परिमाण वाले शरीर में समाया हुआ है सो ठीक ही है क्योंकि हाथी का प्रतिबिंब छोटे से दर्पण में भी समा जाता है ।।35।।
हे नाथ, जहाँ आपका समवसरण होता है उसके चारों ओर सौ-सौ योजन तक आपके माहात्म्य से अन्न-पान आदि सब सुलभ हो जाते हैं ।।36।। हे देव, यह पृथिवी समस्त सुर और असुरों का भार धारण करने में असमर्थ है इसलिए ही क्या आपका समवसरणरूपी विमान पृथिवी का स्पर्श नहीं करता हुआ सदा आकाश में ही विद्यमान रहता है ।।37।। हे भगवन्, संजीवनी ओषधि के समान आपके समीचीन धर्म का उपदेश देने में तत्पर रहते हुए सिंह, व्याघ्र, आदि क्रूर हिंसक जीव भी दूसरे प्राणियों की कभी हिंसा नहीं करते हैं ।।38।। हे प्रभो, आपके मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से अत्यंत सुख की उत्पत्ति हुई है इसलिए आपके कवलाहार नहीं है सो ठीक ही है, क्योंकि क्षुधा के क्लेश से दु:खी हुए जीव ही कवलाहार भोजन करते हैं ।।39।। हे जिनेंद्र, जो मूर्ख असातावेदनीय कर्म का उदय होने से आपके भी कवलाहार की योजना करते हैं अर्थात् यह कहते हैं कि आप भी कवलाहार करते हैं क्योंकि आपके असातावेदनीय कर्म का उदय है उन्हें मोहरूपी वायुरोग को दूर करने के लिए पुराने घी की खोज करनी चाहिए । अर्थात् पुराने घी के लगाने से जैसे सन्निपात―वातज्वर शांत हो जाता है उसी तरह अपने मोह को दूर करने के लिए किसी पुराने अनुभवी पुरुष का स्नेह प्राप्त करना होगा ।।40।। हे देव, मंत्र की शक्ति से जिसका बल नष्ट हो गया है ऐसा विष जिस प्रकार कुछ भी नहीं कर सकता है उसी प्रकार घातियाकर्मों के नष्ट हो जाने से जिसकी शक्ति नष्ट हो गयी है ऐसा असातावेदनीयरूपी विष आपके विषय में कुछ भी नहीं कर सकता ।।41।। कर्मरूपी सहकारी कारणों का अभाव हो जाने से असातावेदनीय का उदय आपके विषय में अकिंचित्कर है अर्थात् आपका कुछ नहीं कर सकता, सो ठीक ही है क्योंकि फल का उदय सब सामग्री इकट्ठी होने पर ही होता है ।।42।। हे ईश, आप जगत् के पालक हैं और अपने लीलामात्र से ही पापरूपी कलंक धो डाले हैं, इसलिए आप पर न तो ईतियाँ अपना प्रभुत्व जमा सकती हैं और न उपसर्ग ही । भावार्थ―आप ईति, भीति तथा उपसर्ग से रहित हैं ।।43।। हे भगवन, यद्यपि आपका केवलज्ञानरूपी निर्मल नेत्र अनंतमुख हो अर्थात् अनंतज्ञेयों को जानता हुआ फैल रहा है फिर भी चूँकि आपके चार घातियाकर्म नष्ट हो गये हैं इसलिए आपके यह चातुरास्य अर्थात् चार मुखों का होना उचित ही है ।।44।। हे अधीश्वर, आप सब विद्याओं के स्वामी हैं, योगी हैं, चतुर्मुख हैं, अविनाशी हैं और आपकी आत्ममय केवलज्ञानरूपी ज्योति चारों ओर फैल रही है इसलिए आप अत्यंत सुशोभित हो रहे हैं ।।45।। हे भगवन् तेजोमय और दिव्यस्वरूप आपका यह परमौदारिक शरीर छाया का अभाव तथा नेत्रों की अनुन्मेष वृत्ति को धारण कर रहा है अर्थात् आपके शरीर की न तो छाया ही पड़ती है और न नेत्रों के पलक ही झपते हैं ।।46।। हे नाथ, यद्यपि आप तीन छत्र धारण किये हुए हैं तथापि आप छायारहित ही दिखायी देते हैं, सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों की चेष्टाएँ आश्चर्य करने वाली होती हैं अथवा आपका प्रताप ही ऐसा है ।।47।। हे स्वामिन्, पलक न झपने से जिसके नेत्र अत्यंत निश्चल हैं ऐसे आपके मुखरूपी कमल को देखने के लिए ही देवों ने अपने नेत्रों का संचलन आप में ही रोक रखा है । भावार्थ―देवों के नेत्रों में पलक नहीं झपते सो ऐसा जान पड़ता है मानो देवों ने आपके सुंदर मुखकमल को देखने के लिए ही अपने पलकों का झपाना बंद कर दिया हो ।।48।। हे भगवन आपके नख और केशों की जो परिमित अवस्था है वह आपके विशुद्ध स्फटिक के समान निर्मल शरीर में रस आदि के अभाव को प्रकट करती है । भावार्थ―आपके नख और केश ज्यों-के-त्यों रहते हैं―उनमें वृद्धि नहीं होती है, इससे मालूम होता है कि आपके शरीर में रस, रक्त आदि का अभाव है ।।49।। इन प्रकार ऊपर कहे हुए तथा जो दूसरी जगह न पाये जाये ऐसे आपके इन उदार गुणों ने दूसरी जगह घर न देखकर स्वयं आपके पास आकर आपको स्वीकार किया है ।।50।। हे देव, यह भी एक आश्चर्य की बात है कि जिनकी प्राप्ति के लिए इंद्र भी इच्छा किया करते हैं ऐसे ये रूप-सौंदर्य, कांति और दीप्ति आदि गुण आपके लिए हेय हैं अर्थात् आप इन्हें छोड़ना चाहते हैं ।।51।। हे प्रभो, अन्य सब गुणरूपी बंधनों को छोड़कर केवल आपकी उपासना करने वाले गुणी पुरुष आपकी ही सदृशता प्राप्त हो जाते हैं सो ठीक ही है क्योंकि स्वामी के अनुसार चलना ही शिष्यों का कर्त्तव्य है ।।52।। हे स्वामिन्, आपका यह शोभायमान अशोकवृक्ष ऐसा जान पड़ता है मानो मंद-मंद वायु से हिलती हुई शाखारूपी हाथों के समूहों से हर्षित होकर नृत्य ही कर रहा हो ।।53।। हे नाथ, देवों के द्वारा लीलापूर्वक धारण किये हुए चमरों के समूह आपके दोनों ओर इस प्रकार ढोरे जा रहे हैं मानो वे क्षीरसागर की चंचल लहरों के साथ स्पर्धा ही करना चाहते हों ।।54।। हे भगवन्, चंद्रमा के समान निर्मल और मोतियों की जाली से सुशोभित आपके तीन छत्र आकाशरूपी आंगन में ऐसे अच्छे जान पड़ते हैं मानो उनमें अँकूरे ही उत्पन्न हुए हों ।।55।। हे देव, सिंहों के द्वारा धारण किया हुआ आपका यह ऊँचा सिंहासन रत्नों की किरणों से ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो आपके स्पर्श से उसमें हर्ष के रोमांच ही उठ रहे हों ।।56।। हे स्वामिन्, मधुर शब्द करते हुए जो देवों के करोड़ों दुंदुभि बाजे बज रहे हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो आकाश और पाताल को व्याप्त कर आपके जयोत्सव की घोषणा ही कर रहे हों ।।57।। हे प्रभो, जो देवों के साढ़े बारह करोड़ दुंदुभि आदि बाजे बज रहे हैं वे आपकी गंभीर दिव्यध्वनि का अनुकरण करने के लिए ही मानो तत्पर हुए हैं ।।58।। आकाशरूपी रंग-भूमि से जो देव लोग यह पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं वह ऐसी जान पड़ती है मानो संतुष्ट हुई स्वर्गलक्ष्मी के द्वारा प्रेरित हुए कल्पवृक्ष ही वह पुष्पवर्षा कर रहे हों ।।59।। हे भगवन्, आकाश में चारों ओर फैलता हुआ यह आपके शरीर का प्रभामंडल समवसरण में बैठे हुए मनुष्यों को सदा प्रभातकाल उत्पन्न करता रहता है अर्थात् प्रातःकाल की शोभा दिखलाता रहता है ।।60।। हे देव, आपके नखों की ये कुछ-कुछ लाल किरणें दिशाओं में इस प्रकार फैल रही है मानो आपके चरणरूपी कल्पवृक्षों के अग्रभाग से अँकूरे ही निकल रहे हों ।।61।। सब जीवों को आह्लादित करने वाली आपके चरणों के नखरूपी चंद्रमा की ये किरणें हम लोगों के सिर का इस प्रकार स्पर्श कर रही है मानो आपके प्रसाद के अंश ही हो ।।62।। हे भगवन्, यह दिव्य लक्ष्मीरूपी मनोहर हंसी नखों की कांतिरूपी मृणाल से सुशोभित आपके चरणकमलों की छायारूपी सरोवरी में अवगाहन करती है ।।63।। हे विभो, आपके ये दोनों चरणकमल जिस कांति को धारण कर रहे हैं वह ऐसी जान पड़ती है मानो मोहरूपी शत्रु को नष्ट करते समय लगी हुई उसके गीले रक्त की छटा ही हो ।।64।। हे देव, आपके चरणों के नख की कांतिरूप जल के सरोवर में प्रतिबिंबित हुई देवांगनाओं के मुख की छाया कमलों की शोभा बढ़ा रही है ।।65।। हे नाथ, आप अपने आत्मा में अपने ही आत्मा के द्वारा अपने आत्मा को उत्पन्न कर प्रकट हुए हैं, इसलिए आप स्वयंभू अर्थात् अपने-आप उत्पन्न हुए कहलाते हैं । इसके सिवाय आपका माहात्म्य भी अचिंत्य है अत: आपके लिए नमस्कार हो ।।66।। आप तीनों लोकों के स्वामी है इसलिए आपको नमस्कार हो, आप लक्ष्मी के भर्ता हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप विद्वानों में श्रेष्ठ हैं इसलिए आपको नमस्कार हो और आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।67।। हे देव, बुद्धिमान् लोग आपको कामरूपी शत्रु को नष्ट करने वाला मानते हैं, और आपके चरणकमल इंद्रों के मुकुटों की कांति के समूह से पूजित हैं इसलिए हम लोग आपको नमस्कार करते हैं ।।68।। अपने ध्यानरूपी कुठार से अतिशय मजबूत घातियाकर्मरूपी बड़े भारी वृक्ष को काट डाला है तथा अनंत संसार की संतति को भी आपने जीत लिया है इसलिए आप अनंतजित् कहलाते हैं ।।69।। हे जिनेंद्र, तीनों लोकों को जीत लेने से जिसे भारी अहंकार उत्पन्न हुआ है और जो अत्यंत दुर्जय है ऐसे मृत्युराज को भी आपने जीत लिया है इसीलिए आप मृत्युंजय कहलाते हैं ।।70।। आपने संसाररूपी समस्त बंधन नष्ट कर दिये हैं, आप भव्य जीवों के बंधु हैं और आप जन्म, मरण तथा बुढ़ापा इन तीनों का नाश करने वाले हैं इसलिए आप ही ‘त्रिपुरारि’ कहलाते हैं ।।71।। हे ईश्वर, जो तीनों कालविषयक समस्त पदार्थों को जानने के कारण तीन प्रकार से उत्पन्न हुआ कहलाता है ऐसे केवलज्ञान नामक नेत्र को आप धारण करते हैं इसलिए आप ही ‘त्रिनेत्र’ कहे जाते हैं ।।72।। आपने मोहरूपी अंधासुर को नष्ट कर दिया है इसलिए विद्वान् लोग आपको ही ‘अंधकांतक’ कहते हैं, आठ कर्मरूपी शत्रुओं में से आपके आधे अर्थात् चार घातियाकर्मरूपी शत्रुओं के ईश्वर नहीं है इसलिए आप ‘अर्धनारीश्वर’ कहलाते हैं ।।73।। आप शिवपद अर्थात् मोक्षस्थान में निवास करते हैं इसलिए ‘शिव’ कहलाते हैं, पापरूपी शत्रुओं का नाश करने वाले हैं इसलिए ‘हर’ कहलाते हैं, लोक में शांति करने वाले हैं इसलिए ‘शंकर’ कहलाते हैं और सुख से उत्पन्न हुए हैं इसलिए ‘शंभव’ कहलाते हैं ।।74।। जगत् में श्रेष्ठ हैं इसलिए ‘वृषभ’ कहलाते हैं, अनेक उत्तम-उत्तम गुणों का उदय होने से ‘पुरु’ कहलाते हैं, नाभिराजा से उत्पन्न हुए हैं इसलिए ‘नाभेय’ कहलाते हैं और इक्ष्वाकु-कुल में उत्पन्न हुए हैं इसलिए ‘इक्ष्वाकुकुलनंदन’ कहलाते हैं ।।75।। समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ आप एक ही हैं, लोगों के नेत्र होने से आप दो रूप धारण करने वाले हैं तथा आप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के भेद से तीन प्रकार का मोक्षमार्ग जानते हैं अथवा भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल संबंधी तीन प्रकार का ज्ञान धारण करते हैं इसलिए आप त्रिज्ञ भी कहलाते हैं ।।76।। अरहंत, सिद्ध, साधु और केवली भगवान् के द्वारा कहा हुआ धर्म ये चार शरण तथा मंगल कहलाते हैं आप इन चारों की मूर्तिस्वरूप हैं, आप चतुरस्रधी हैं अर्थात् चारों ओर की समस्त वस्तुओं को जलाने वाले हैं, पंच परमेष्ठीरूप हैं और अत्यंत पवित्र हैं । इसलिए हे देव, मुझे भी पवित्र कीजिए ।।77।। हे नाथ, आप स्वर्गावतरण के समय सद्योजात अर्थात् शीघ्र ही उत्पन्न होने वाले कहलाये थे इसलिए आपको नमस्कार हो, आप जन्माभिषेक के समय बहुत सुंदर जान पड़ते थे इसलिए हे वामदेव, आपके लिए नमस्कार हो ।।78।।
दीक्षा कल्याणक के समय आप परम शांति को प्राप्त हुए और केवलज्ञान के प्राप्त होने पर परम पद को प्राप्त हुए तथा ईश्वर कहलाये इसलिए आपको नमस्कार हो ।।79।। अब आगे शुद्ध आत्मस्वरूप के द्वारा मोक्षस्थान को प्राप्त होंगे, इसलिए आगामी काल में प्राप्त होने वाली सिद्ध अवस्था को धारण करने वाले आपके लिए मेरा आज ही नमस्कार हो ।।80।। ज्ञानावरण कर्म का नाश होने से जो अनंतचक्षु अर्थात् अनंतज्ञानी कहलाते हैं ऐसे आपके लिए नमस्कार हो और दर्शनावरण कर्म का विनाश हो जाने से जो विश्वदृश्वा अर्थात् समस्त संसार को देखने वाले कहलाते हैं ऐसे आपके लिए नमस्कार हो ।।81।। हे भगवन् आप दर्शनमोहनीय कर्म को नष्ट करने वाले तथा निर्मल क्षायिकसम्यग्दर्शन को धारण करने वाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो इसी प्रकार आप चारित्रमोहनीय कर्म को नष्ट करने वाले वीतराग और अतिशय तेजस्वी है इसलिए आपको नमस्कार हो ।।82।। आप अनंतवीर्य को धारण करने वाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अनंतसुखरूप हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अनंतप्रकाश से सहित तथा लोक और अलोक को देखने वाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।83।। अनंतदान को धारण करने वाले आपके लिए नमस्कार हो, अनंतलाभ को धारण करने वाले आपके लिए नमस्कार हो, अनंतभोग को धारण करने वाले आपके लिए नमस्कार हो, और अनंत उपभोग को धारण करने वाले आपके लिए नमस्कार हो ।।84।। हे भगवन्, आप परम ध्यानी हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अयोनि अर्थात् योनिभ्रमण से रहित हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अत्यंत पवित्र हैं इसलिए आपको नमस्कार हो और आप परमऋषि हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।85।। आप परमविद्या अर्थात् केवलज्ञान को धारण करने वाले हैं, अन्य सब मतों का खंडन करने वाले हैं, परमतत्त्वस्वरूप है और परमात्मा हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।86।। आप उत्कृष्ट रूप को धारण करने वाले हैं, परम तेजस्वी हैं, उत्कृष्ट मार्गस्वरूप हैं और परमेष्ठी हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।87।। आप सर्वोत्कृष्ट मोक्षस्थान की सेवा करने वाले हैं, परम ज्योतिःस्वरूप हैं, आपका ज्ञानरूपी तेज अंधकार से परे है और आप सर्वोत्कृष्ट हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।88।। आप कर्मरूपी कलंक से रहित हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आपका कर्मबंधन क्षीण हो गया है इसलिए आपको नमस्कार हो, आपका मोहकर्म नष्ट हो गया है इसलिए आपको नमस्कार हो और आपके समस्त राग आदि दोष नष्ट हो गये हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।89।। आप मोक्षरूपी उत्तम गति को प्राप्त होनेवाले हैं इसलिए सुगति हैं अत: आपको नमस्कार हो, आप अतींद्रियज्ञान और सुख से सहित हैं तथा इंद्रियों से रहित अथवा इंद्रियों के अगोचर हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।90।। आप शरीररूपी बंधन के नष्ट हो जाने से अकाय कहलाते हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप योगरहित हैं और योगियों अर्थात् मुनियों में सबसे उत्कृष्ट हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।91।। आप वेदरहित हैं, कषायरहित है, और बड़े-बड़े योगिराज भी आपके चरणयुगल की वंदना करते हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।92।। हे परमविज्ञान, अर्थात् उत्कृष्ट-केवलज्ञान को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो, हे परम संयम, अर्थात् उत्कृष्ट-यथाख्यात चारित्र को धारण करने वाले, आपको नमस्कार हो । हे भगवन् आपने उत्कृष्ट केवलदर्शन के द्वारा परमार्थ को देख लिया है तथा आप सबकी रक्षा करने वाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।93।। आप यद्यपि लेश्याओं से रहित हैं तथापि उपचार से शुद्ध-शुक्ललेश्या के अंशों का स्पर्श करने वाले हैं, भव्य तथा अभव्य दोनों ही अवस्थाओं से रहित हैं और मोक्षरूप हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।94।। आप संज्ञी और असंज्ञी दोनों अवस्थाओं से रहित निर्मल आत्मा को धारण करने वाले हैं, आपकी आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चारों संज्ञाएँ नष्ट हो गयी हैं तथा क्षायिकसम्यग्दर्शन को धारण कर रहे हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।95।। आप आहाररहित होकर भी सदा तृप्त रहते हैं, परम दीप्ति को प्राप्त हैं, आपके समस्त दोष नष्ट हो गये हैं और आप संसाररूपी समुद्र के पार को प्राप्त हुए हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।96।। आप बुढ़ापारहित हैं, जन्मरहित है, मृत्युरहित है, अचलरूप हैं और अविनाशी हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।97।। हे भगवन् आपके गुणों का स्तवन दूर रहे, क्योंकि आपके अनंत गुण हैं उन सबका स्तवन होना कठिन है इसलिए केवल आपके नामों का स्मरण करके ही हम लोग आपकी उपासना करना चाहते हैं ।।98।। आपके दैदीप्यमान एक हजार आठ लक्षण अतिशय प्रसिद्ध हैं और आप समस्त वाणियों के स्वामी हैं इसलिए हम लोग अपनी अभीष्टसिद्धि के लिए एक हजार आठ नामों से आपकी स्तुति करते हैं ।।99।। आप अनंतचतुष्टयरूप अंतरंगलक्ष्मी और अष्ट प्रातिहार्यरूप बहिरंग लक्ष्मी से सहित हैं इसलिए श्रीमान् 1 कहलाते हैं, आप अपने-आप उत्पन्न हुए हैं―किसी गुरु के उपदेश की सहायता के बिना अपने-आप ही संबुद्ध हुए है इसलिए स्वयंभू 2 कहलाते हैं, आप वृष अर्थात् धर्म से सुशोभित हैं इसलिए वृषभ 3 कहलाते हैं, आपके स्वयं अनंत सुख की प्राप्ति हुई है तथा आपके द्वारा संसार के अन्य अनेक प्राणियों को सुख प्राप्त हुआ है इसलिए शंभव 4 कहलाते हैं, आप परमानंदरूप सुख के देने वाले हैं इसलिए शंभु 5 कहलाते हैं, आपने यह उत्कृष्ट अवस्था अपने ही द्वारा प्राप्त की है अथवा योगीश्वर अपनी आत्मा में ही आपका साक्षात्कार कर सकते हैं इसलिए आप आत्मभू 6 कहलाते हैं, आप अपने-आप ही प्रकाशमान होते हैं इसलिए स्वयंप्रभ 7 हैं, आप समर्थ अथवा सबके स्वामी हैं इसलिए प्रभु 8 हैं, अनंत-आत्मोत्थ सुख का अनुभव करने वाले हैं इसलिए भोक्ता हैं 9, केवलज्ञान की अपेक्षा सब जगह व्याप्त हैं अथवा ध्यानादि के द्वारा सब जगह प्रत्यक्षरूप से प्रकट होते हैं इसलिए विश्वभू 10 हैं, अब आप पुन: संसार में आकर जन्म धारण नहीं करेंगे इसलिए अपुनर्भव 11 हैं ।।100।। संसार के समस्त पदार्थ आपकी आत्मा में प्रतिबिंबित हो रहे हैं इसलिए आप विश्वात्मा 12 कहलाते हैं, आप समस्त लोक के स्वामी हैं इसलिए विश्वलोकेश 13 कहलाते हैं, आपके ज्ञानदर्शनरूपी नेत्र संसार में सभी ओर अप्रतिहत हैं इसलिए आप विश्वतश्चक्षु 14 कहलाते हैं, अविनाशी हैं इसलिए अक्षर 15 कहे जाते हैं, समस्त पदार्थों को जानते हैं, इसलिए विश्वविद् 16 कहलाते हैं, समस्त विद्याओं के स्वामी है इसलिए विध्व विद्येश 17 कहे जाते हैं, समस्त पदार्थों की उत्पत्ति के कारण हैं अर्थात् उपदेश देनेवाले हैं इसलिए विश्वयोनि 18 कहलाते हैं, आपके स्वरूप का कभी नाश नहीं होता इसलिए अनश्वर 19 कहे जाते हैं ।।101।। समस्त पदार्थों को देखने वाले हैं इसलिए विश्वदृश्वा 20 है, केवलज्ञान की अपेक्षा सब जगह व्याप्त हैं अथवा सब जीवों को संसार से पार करने में समर्थ हैं अथवा परमोत्कृष्ट विभूति से सहित हैं इसलिए विभु 21 हैं, संसारी जीवों का उद्धार कर उन्हें मोक्षस्थान में धारण करने वाले है―पहुँचाने वाले हैं अथवा सब जीवों का पोषण करने वाले हैं अथवा मोक्षमार्ग की सृष्टि करने वाले हैं इसलिए धाता 22 कहलाते हैं, समस्त जगत् के ईश्वर हैं इसलिए विश्वेश 23 कहलाते हैं, सब पदार्थों को देखने वाले हैं अथवा सबके हित सन्मार्ग का उपदेश देने के कारण सब जीवों के नेत्रों के समान हैं इसलिए विश्वविलोचन 24 कहे जाते हैं, संसार के समस्त पदार्थों को जानने के कारण आपका ज्ञान सब जगह व्याप्त है इसलिए आप विश्वव्यापी 25 कहलाते हैं । आप समीचीन मोक्षमार्ग का विधान करने से विधि 26 कहलाते हैं । धर्मरूप जगत् की सृष्टि करने वाले हैं इसलिए वेधा 27 कहलाते हैं, सदा विद्यमान रहते हैं इसलिए शाश्वत 28 कहे जाते हैं, समवसरण-सभा में आपके मुख चारों दिशाओं से दिखते हैं अथवा आप विश्वतोमुख अर्थात् जल की तरह पापरूपी पंक को दूर करने वाले, स्वच्छ तथा तृष्णा को नष्ट करने वाले हैं इसलिए विश्वतोमुख 29 कहे जाते हैं ।।102।। आपने कर्मभूमि की व्यवस्था करते समय लोगों की आजीविका के लिए असि-मषि आदि सभी कर्मों-कार्यों का उपदेश दिया था इसलिए आप विश्वकर्मा 30 कहलाते हैं, आप जगत् में सबसे ज्येष्ठ अर्थात् श्रेष्ठ हैं इसलिए जगज्ज्येष्ठ 31 कहे जाते हैं, आप अनंत गुणमय हैं अथवा समस्त पदार्थों के आकार आपके ज्ञान में प्रतिफलित हो रहे हैं इसलिए आप विश्वमूर्ति 32 हैं, कर्मरूप शत्रुओं को जीतने वाले सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के आप ईश्वर हैं इसलिए जिनेश्वर 33 कहलाते हैं, आप संसार के समस्त पदार्थों का सामान्यावलोकन करते हैं इसलिए विश्वदृक् 34 कहलाते हैं, समस्त प्राणियों के ईश्वर हैं इसलिए विश्वभूतेश 35 कहे जाते हैं, आपकी केवलज्ञानरूपी ज्योति अखिल संसार में व्याप्त है इसलिए आप विश्वज्योति 36 कहलाते हैं, आप सबके स्वामी हैं किंतु आपका कोई भी स्वामी नहीं है इसलिए आप अनीश्वर 37 कहे जाते हैं ।।103।। आपने घातियाकर्मरूपी शत्रुओं को जीत लिया है इससे आप जिन 38 कहलाते हैं, कर्मरूपी शत्रुओं को जीतना ही आपका शील अर्थात् स्वभाव है इसलिए आप जिष्णु 39 कहे जाते हैं, आपकी आत्मा को अर्थात् आपके अनंत गुणों को कोई नहीं जान सका है इसलिए आप अमेयात्मा 40 हैं, पृथ्वी के ईश्वर हैं इसलिए विश्वरीश 41 कहलाते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं इसलिए जगपति 42 कहे जाते हैं, अनंत संसार अथवा मिथ्यादर्शन को जीत लेने के कारण आप अनंतजित् 43 कहलाते हैं, आपकी आत्मा का चिंतवन मन से भी नहीं किया जा सकता इसलिए आप अचिंत्यात्मा 44 हैं, भव्य जीवों के हितैषी हैं इसलिए भव्यबंधु 45 कहलाते हैं, कर्मबंधन से रहित होने के कारण अबंधन 46 कहलाते हैं ।।104।। आप इस कर्मभूमिरूपी युग के प्रारंभ में उत्पन्न हुए थे इसलिए युगादिपुरुष 47 कहलाते हैं, केवलज्ञान आदि गुण आपमें वृंहण अर्थात् वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं इसलिए आप ब्रह्मा 48 कहे जाते हैं, आप पंचपरमेष्ठीस्वरूप हैं, इसलिए पंच ब्रह्ममय 49 कहलाते हैं, शिव अर्थात् मोक्ष अथवा आनंदरूप होने से शिव 50 कहे जाते हैं, आप सब जीवों का पालन अथवा समस्त ज्ञान आदि गुणों को पूर्ण करने वाले हैं इसलिए पर 51 कहलाते हैं, संसार में सबसे श्रेष्ठ हैं इसलिए परतर 52 कहलाते हैं, इंद्रियों के द्वारा आपका आकार नहीं जाना जा सकता अथवा नामकर्म का क्षय हो जाने से आपमें बहुत शीघ्र सूक्ष्मत्व गुण प्रकट होने वाला है इसलिए आपको सूक्ष्म 53 कहते हैं, परमपद में स्थित हैं इसलिए परमेष्ठी 54 कहलाते हैं और सदा एक से ही विद्यमान रहते हैं इसलिए सनातन 55 कहे जाते हैं ।।105।। आप स्वयं प्रकाशमान हैं इसलिए स्वयंज्योति 56 कहलाते हैं, संसार में उत्पन्न नहीं होते इसलिए अज 57 कहे जाते हैं, जन्मरहित हैं इसलिए अजन्मा 58 कहलाते हैं, आप ब्रह्म अर्थात् वेद (द्वादशांग शास्त्र) की उत्पत्ति के कारण हैं इसलिए ब्रह्मयोनि 59 कहलाते हैं, चौरासी लाख योनियों में उत्पन्न नहीं होते इसलिए अयोनिज 60 कहे जाते हैं, मोहरूपी शत्रु को जीतने वाले हैं इससे मोहारिविजयी 61 कहलाते हैं, सर्वदा सर्वोत्कृष्ट रूप से विद्यमान रहते हैं इसलिए जेता 62 कहे जाते हैं, आप धर्मचक्र को प्रवर्तित करते हैं इसलिए धर्मचक्री 63 कहलाते हैं, दया ही आपकी ध्वजा है इसलिए आप दयाध्वज 64 कहे जाते हैं ।।106।। आपके समस्त कर्मरूप शत्रु शांत हो गये हैं इसलिए आप प्रशांतारि 65 कहलाते हैं, आपकी आत्मा का अंत कोई नहीं पा सका है इसलिए आप अनंतात्मा 66 हैं, आप योग अर्थात् केवलज्ञान आदि अपूर्व अर्थों की प्राप्ति से सहित हैं अथवा ध्यान से युक्त हैं अथवा मोक्षप्राप्ति के उपायभूत सम्यग्दर्शनादि उपायों से सुशोभित हैं इसलिए योगी 67 कहलाते हैं, योगियों अर्थात् मुनियों के अधिश्वर आपकी पूजा करते हैं इसलिए योगीश्वरार्चित 68 हैं, ब्रह्म अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूप को जानते हैं इसलिए ब्रह्मविद् 69 कहलाते हैं, ब्रह्मचर्य अथवा आत्मारूपी तत्त्व के रहस्य को जानने वाले हैं इसलिए ब्रह्मतत्त्वज्ञ 70 कहे जाते हैं, पूर्व ब्रह्मा के द्वारा कहे हुए समस्त तत्त्व अथवा केवलज्ञानरूपी आत्मविद्या को जानते हैं इसलिए ब्रह्मोद्यावित् 71 कहे जाते हैं, मोक्ष प्राप्त करने के लिए यत्न करने वाले संयमी मुनियों के स्वामी हैं इसलिए यतीश्वर 72 कहलाते हैं ।।107।। आप राग-द्वेषादि भाव कर्ममल कलंक से रहित होने के कारण शुद्ध 73 हैं, संसार के समस्त पदार्थों को जानने वाली केवलज्ञानरूपी बुद्धि से संयुक्त होने के कारण बुद्ध 74 कहलाते हैं, आपकी आत्मा सदा शुद्ध ज्ञान से जगमगाती रहती है इसलिए आप प्रबुद्धात्मा 75 हैं, आपके सब प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं इसलिए आप सिद्धार्थ 76 कहलाते हैं, आपका शासन सिद्ध अर्थात् प्रसिद्ध हो चुका है इसलिए आप सिद्धशासन 77 हैं, आप अपने अनंतगुणों को प्राप्त कर चुके हैं अथवा बहुत शीघ्र मोक्ष अवस्था प्राप्त करने वाले हैं इसलिए सिद्ध 78 कहलाते हैं, आप द्वादशांगरूपसिद्धांत को जानने वाले हैं इसलिए सिद्धांतविद् 79 कहे जाते हैं, सभी लोग आपका ध्यान करते हैं इसलिए आप ध्येय 80 कहलाते हैं, आपके समस्त साध्य अर्थात् करने योग्य कार्य सिद्ध हो चुके हैं इसलिए आप सिद्धसाध्य 81 कहलाते हैं, आप जगत् के समस्त जीवों का हित करने वाले हैं इससे जगद्धित 82 कहे जाते हैं ।।108।। सहनशील हैं अर्थात् क्षमा गुण के भंडार हैं इसलिए सहिष्णु 83 कहलाते हैं, ज्ञानादि गुणों से कभी च्युत नहीं होते इसलिए अच्युत 84 कहे जाते हैं, विनाशरहित हैं, इसलिए अनंत 85 कहलाते हैं, प्रभावशाली हैं इसलिए प्रभविष्णु 86 कहे जाते हैं, संसार में आपका जन्म सबसे उत्कृष्ट माना गया है इसलिए आप भवोद्भव 87 कहलाते हैं, आप शक्तिशाली हैं इसलिए प्रभूष्णु 88 कहे जाते हैं, वृद्धावस्था से रहित होने के कारण अजर 89 हैं, आप कभी जीर्ण नहीं होते इसलिए अजर्य 90 हैं, ज्ञानादि गुणों से अतिशय दैदीप्यमान हो रहे हैं इसलिए भ्राजिष्णु 91 है, केवलज्ञानरूपी बुद्धि के ईश्वर हैं इसलिए धीश्वर 92 कहलाते हैं, कभी आपका व्यय अर्थात् नाश नहीं होता इसलिए आप अव्यय 93 कहलाते हैं ।।109।। आप कर्मरूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि के समान हैं अथवा मोहरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है, इसलिए विभावसु 94 कहलाते हैं, आप संसार में पुन: उत्पन्न नहीं होंगे इसलिए असंभूष्णु 95 कहे जाते हैं, आप अपने-आप ही इस अवस्था को प्राप्त हुए हैं इसलिए स्वयंभूषणु 96 हैं, प्राचीन हैं―द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादिसिद्ध हैं इसलिए पुरातन 97 कहलाते हैं, आपकी आत्मा अतिशय उत्कृष्ट हैं इसलिए आप परमात्मा 98 कहे जाते हैं, उत्कृष्ट ज्योतिःस्वरूप हैं इसलिए परंज्योति 99 कहलाते हैं, तीनों लोकों के ईश्वर हैं, इसलिए त्रिजगत्परमेश्वर 100 कहे जाते हैं ।।110।।
आप दिव्यध्वनि के पति हैं इसलिए आपको दिव्यभाषापति 101 कहते हैं, अत्यंत सुंदर हैं इसलिए आप दिव्य 102 कहलाते हैं, आपके वचन अतिशय पवित्र हैं इसलिए आप पूतवाक् 103 कहे जाते हैं, आपका शासन पवित्र होने से आप पूतशासन 104 कहलाते हैं, आपकी आत्मा पवित्र है इसलिए आप पूतात्मा 105 कहे जाते हैं, उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप हैं इसलिए परमज्योति 106 कहलाते हैं, धर्म के अध्यक्ष हैं इसलिए धर्माध्यक्ष 107 कहे जाते हैं, इंद्रियों को जीतने वालों में श्रेष्ठ हैं इसलिए दमीश्वर 108 कहलाते हैं ।।111।। मोक्षरूपी लक्ष्मी के अधिपति हैं इसलिए श्रीपति 109 कहलाते हैं, अष्टप्रातिहार्यरूप उत्तम ऐश्वर्य से सहित हैं इसलिए भगवान् 110 कहे जाते हैं, सबके द्वारा पूज्य हैं इसलिए अर्हत् 111 कहलाते हैं, कर्मरूपी धूलि से रहित हैं इसलिए अरजा: 112 कहे जाते हैं, आपके द्वारा भव्य जीवों के कर्ममल दूर होते हैं अथवा आप ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्म से रहित हैं इसलिए विरजा: 113 कहलाते हैं, अतिशय पवित्र हैं इसलिए शुचि 114 कहे जाते हैं, धर्मरूप तीर्थ के करने वाले हैं इसलिए तीर्थकृत् 115 कहलाते हैं, केवलज्ञान से सहित होने के कारण केवली 116 कहे जाते हैं, अनंत सामर्थ्य से युक्त होने के कारण ईशान 117 कहलाते हैं, पूजा के योग्य होने से पूजार्ह 118 हैं, घातियाकर्मों के नष्ट होने अथवा पूर्णज्ञान होने से आप स्नातक 119 कहलाते हैं, आपका शरीर मलरहित है अथवा आत्मा राग-द्वेष आदि दोषों से वर्जित है इसलिए आप अमल 120 कहे जाते हैं ।।112।। आप केवलज्ञानरूपी अनंत दीप्ति अथवा शरीर की अपरिमित प्रभा के धारक हैं इसलिए अनंतदीप्ति 121 कहलाते हैं, आपकी आत्मा ज्ञानस्वरूप है इसलिए आप ज्ञानात्मा 122 हैं, आप स्वयं संसार से विरक्त होकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुए हैं अथवा आपने गुरुओं की सहायता के बिना ही समस्त पदार्थों का ज्ञान प्राप्त किया है इसलिए स्वयंबुद्ध 123 कहलाते हैं, समस्त जनसमूह के रक्षक होने से आप प्रजापति 124 हैं, कर्मरूप बंधन से रहित है इसलिए मुक्त 125 कहलाते हैं, अनंत बल से संपन्न होने के कारण शक्त 126 कहे जाते हैं, बाधा-उपसर्ग आदि से रहित हैं इसलिए निराबाध 127 कहलाते हैं, शरीर अथवा माया से रहित होने के कारण निष्कल 128 कहे जाते हैं और तीनों लोकों के ईश्वर होने से भुवनेश्वर 129 कहलाते हैं ।।113।। आप कर्मरूपी अंजन से रहित हैं इसलिए निरंजन 130 कहलाते हैं, जगत को प्रकाशित करने वाले हैं इसलिए जगज्ज्योति 131 कहे जाते हैं, आपके वचन सार्थक हैं अथवा पूर्वापर विरोध से रहित हैं इसलिए आप निरुक्तोक्ति 132 कहलाते हैं, रोगरहित होने से अनामय 133 हैं, आपकी स्थिति अचल है इसलिए अचलस्थिति 134 कहलाते हैं, आप कभी क्षोभ को प्राप्त नहीं होते इसलिए अक्षोभ्य 135 हैं, नित्य होने से कूटस्थ 136 हैं, गमनागमन से रहित होने के कारण स्थाणु 137 हैं और क्षयरहित होने के कारण अक्षय 138 हैं ।।114।। आप तीनों लोकों में सबसे श्रेष्ठ हैं इसलिए अग्रणी 139 कहलाते हैं, भव्यजीवों के समूह को मोक्ष प्राप्त कराने वाले हैं इसलिए ग्रामणी 140 हैं, सब जीवों को हित के मार्ग में प्राप्त कराते हैं इसलिए नेता 141 हैं, द्वादशांगरूप शास्त्र की रचना करने वाले हैं इसलिए प्रणेता 142 हैं, न्यायशास्त्र का उपदेश देनेवाले हैं इसलिए न्यायशास्त्रकृत् 143 कहे जाते हैं, हित का उपदेश देने के कारण शास्ता 144 कहलाते हैं, उत्तम क्षमा आदि धर्मों के स्वामी हैं इसलिए धर्मपति 145 कहे जाते हैं, धर्म से सहित हैं इसलिए धर्म्य 146 कहलाते हैं, आपकी आत्मा धर्मरूप अथवा धर्म से उपलक्षित है इसलिए आप धर्मात्मा 147 कहलाते हैं और आप धर्मरूपी तीर्थ के करने वाले हैं इसलिए धर्मतीर्थकृत् 148 कहे जाते हैं ।।115।। आपकी ध्वजा में वृष अर्थात् बैल का चिह्न है अथवा धर्म ही आपकी ध्वजा है अथवा आप वृषभ चिह्न से अंकित हैं इसलिए वृषध्वज 149 कहलाते हैं, आप वृष अर्थात् धर्म के पति हैं इसलिए वृषाधीश 150 कहे जाते हैं, आप धर्म की पताकास्वरूप हैं इसलिए लोग आपको वृषकेतु 151 कहते हैं, आपने कर्मरूप शत्रुओं को नष्ट करने के लिए धर्मरूप शस्त्र धारण किये हैं इसलिए आप वृषायुध 152 कहे जाते हैं, आप धर्मरूप हैं इसलिए वृष 153 कहलाते हैं, धर्म के स्वामी हैं इसलिए वृषपति 154 कहे जाते हैं, समस्त जीवों का भरण-पोषण करते हैं इसलिए भर्ता 155 कहलाते हैं, वृषभ अर्थात् बैल के चिह्न से सहित हैं इसलिए वृषभांक 156 कहे जाते हैं और पूर्व पर्यायों में उत्तम धर्म करने से ही आप तीर्थंकर होकर उत्पन्न हुए हैं इसलिए आप वृषोद्भव 157 कहलाते हैं ।।116।। सुंदर नाभि होने से आप हिरण्यनाभि 158 कहलाते हैं, आपकी आत्मा सत्यरूप है इसलिए आप भूतात्मा 159 कहे जाते हैं, आप समस्त जीवों की रक्षा करते हैं इसलिए पंडितजन आपको भूतभृत् 160 कहते हैं, आपकी भावनाएँ बहुत ही उत्तम हैं, इसलिए आप भूतभावन 161 कहलाते हैं, आप मोक्षप्राप्ति के कारण हैं अथवा आपका जन्म प्रशंसनीय है इसलिए प्रभव 162 कहे जाते हैं, संसार से रहित होने के कारण आप विभव 163 कहलाते हैं, दैदीप्यमान होने से भास्वान् 164 हैं, उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यरूप से सदा उत्पन्न होते रहते हैं इसलिए भव 165 कहलाते हैं, अपने चैतन्यरूप भाव में लीन रहते हैं इसलिए भाव 166 कहे जाते हैं और संसारभ्रमण का अंत करने वाले हैं इसलिए भवांतक 167 कहलाते हैं ।।117।। जब आप गर्भ में थे तभी पृथिवी सुवर्णमय हो गयी थी और आकाश से देवों ने भी सुवर्ण की वृष्टि की थी इसलिए आप हिरण्यगर्भ 168 कहे जाते हैं, आपके अंतरंग में अनंतचतुष्टयरूपी लक्ष्मी दैदीप्यमान हो रही है इसलिए आप श्रीगर्भ 169 कहलाते हैं, आपका विभव बड़ा भारी है इसलिए आप प्रभूतविभव 170 कहे जाते हैं, जन्मरहित होने के कारण अभव 171 कहलाते हैं, स्वयं समर्थ होने से स्वयंप्रभु 172 कहे जाते हैं, केवलज्ञान की अपेक्षा आपकी आत्मा सर्वत्र व्याप्त है इसलिए आप प्रभूतात्मा 173 हैं, समस्त जीवों के स्वामी होने से भूतनाथ 174 हैं, और तीनों लोकों के स्वामी होने से जगत्प्रभु 175 हैं ।।118।। सबसे मुख्य होने के कारण सर्वादि 176 हैं, सब पदार्थों के देखने के कारण सर्वदृक 177 हैं, सबका हित करने वाले हैं, इसलिए सार्व 178 कहलाते हैं, सब पदार्थों को जानते हैं इसलिए सर्वज्ञ 179 कहे जाते हैं, आपका दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व अथवा केवलदर्शन पूर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ है इसलिए आप सर्वदर्शन 180 कहलाते हैं, आप सबका भला चाहते हैं―सबको अपने समान समझते हैं अथवा संसार के समस्त पदार्थ आपके आत्मा में प्रतिबिंबित हो रहे हैं इसलिए आप सर्वात्मा 181 कहे जाते हैं, सब लोगों के स्वामी हैं, इसलिए सर्वलोकेश 182 कहलाते हैं, सब पदार्थों को जानते हैं, इसलिए सर्वविद् 183 हैं, और समस्त लोकों को जीतने वाले हैं―सबसे बढ़कर हैं, इसलिए सर्वलोकजित् 184 कहलाते हैं ।।119।। आपकी मोक्षरूपी गति अतिशय सुंदर है अथवा आपका ज्ञान बहुत ही उत्तम है इसलिए आप सुगति 185 कहलाते हैं, अतिशय प्रसिद्ध हैं अथवा उत्तम शास्त्रों को धारण करने वाले हैं इसलिए सुश्रुत 186 कहे जाते हैं, सब जीवों की प्रार्थनाएं सुनते हैं इसलिए सुश्रुत् 187 कहलाते हैं, आपके वचन बहुत ही उत्तम निकलते हैं, इसलिए आप सुवाक् 188 कहलाते हैं, सबके गुरु हैं अथवा समस्त विद्याओं को प्राप्त हैं इसलिए सूरि 189 कहे जाते हैं, बहुत शास्त्रों के पारगामी होने से बहुश्रुत 190 हैं, बहुत प्रसिद्ध हैं अथवा केवलज्ञान होने के कारण आपका क्षायोपशमिक श्रुतज्ञान नष्ट हो गया है इसलिए आप विश्रुत 191 कहलाते हैं, आपका संचार प्रत्येक विषयों में होता है अथवा आपकी केवलज्ञानरूपी किरणें संसार में सभी ओर फैली हुई हैं इसलिए आप विश्वत:पाद 192 कहलाते हैं, लोक के शिखर पर विराजमान हैं इसलिए विश्वशीर्ष 193 कहे जाते हैं और आपकी श्रवण-शक्ति अत्यंत पवित्र है इसलिए शुचिश्रवा 194 कहलाते हैं ।।120।। अनंत सुखी होने से सहस्रशीर्ष 195 कहलाते हैं, क्षेत्र अर्थात् आत्मा को जानने से क्षेत्रज्ञ 196 कहलाते हैं, अनंत पदार्थों को जानते हैं इसलिए सहस्राक्ष 197 कहे जाते हैं, अनंत बल के धारक हैं इसलिए सहस्रपात् 198 कहलाते हैं, भूत, भविष्यत, और वर्तमान काल के स्वामी हैं इसलिए भूतभव्यभवद्भर्ता 199 कहे जाते हैं, समस्त विद्याओं के प्रधान स्वामी हैं इसलिए विश्वविद्यामहेश्वर 200 कहलाते हैं ।।121।। इति दिव्यादि शतम्।
आप समीचीन गुणों की अपेक्षा अतिशय स्थूल हैं इसलिए स्थविष्ठ 201 कहे जाते हैं, ज्ञानादि गुणों के द्वारा वृद्ध हैं इसलिए स्थविर 202 कहलाते हैं, तीनों लोकों में अतिशय प्रशस्त होने के कारण ज्येष्ठ 203 हैं, सबके अग्रगामी होने के कारण प्रष्ठ 204 कहलाते हैं, सबको अतिशय प्रिय हैं इसलिए प्रेष्ठ 205 कहे जाते हैं, आपकी बुद्धि अतिशय श्रेष्ठ हैं इसलिए वरिष्ठधी 206 कहलाते हैं, अत्यंत स्थिर अर्थात् नित्य हैं इसलिए स्थेष्ठ 207 कहलाते हैं, अत्यंत गुरु हैं इसलिए गरिष्ठ 208 कहे जाते हैं, गुणों की अपेक्षा अनेक रूप धारण करने से बंहिष्ठ 209 कहलाते हैं, अतिशय प्रशस्त हैं इसलिए श्रेष्ठ 210 हैं, अतिशय सूक्ष्म होने के कारण अणिष्ठ 211 कहे जाते हैं और आपकी वाणी अतिशय गौरव से पूर्ण है इसलिए आप गरिष्ठगी: 212 कहलाते हैं ।।122।। चतुर्गतिरूप संसार को नष्ट करने के कारण आप विश्वमुट् 213 कहे जाते हैं, समस्त संसार की व्यवस्था करने वाले हैं इसलिए विश्वसृट् 214 कहलाते हैं, सब लोक के ईश्वर हैं इसलिए विश्वेट् 215 कहे जाते हैं, समस्त संसार की रक्षा करने वाले हैं इसलिए विश्वभुक् 216 कहलाते हैं, अखिल लोक के स्वामी हैं इसलिए विश्वनायक 217 कहे जाते हैं, समस्त संसार में व्याप्त होकर रहते हैं इसलिए विश्वासी 218 कहलाते हैं, विश्वरूप अर्थात् केवलज्ञान ही आपका स्वरूप है अथवा आपका आत्मा अनेकरूप है इसलिए आप विश्वरूपात्मा 219 कहे जाते हैं, सबको जीतने वाले हैं इसलिए विश्वजित् 220 कहे जाते हैं और अंतक अर्थात् मृत्यु को जीतने वाले हैं इसलिए विजितांतक 221 कहलाते हैं ।।123।। आपका संसार-भ्रमण नष्ट हो गया है इसलिए विभव 222 कहलाते हैं, भय दूर हो गया है इसलिए विभय 263 कहे जाते हैं, अनंत बलशाली हैं इसलिए वीर 224 कहलाते हैं, शोकरहित हैं इसलिए विशोक 225 कहे जाते हैं, जरा अर्थात् बुढ़ापा से रहित हैं इसलिए विजर 226 कहलाते हैं, जगत् के सब जीवों में प्राचीन हैं इसलिए जरन् 227 कहे जाते हैं, रागरहित हैं इसलिए विराग 228 कहलाते हैं, समस्त पापों से विरत हो चुके हैं इसलिए विरत 229 कहे जाते हैं, परिग्रहरहित हैं इसलिए असंग 230 कहलाते हैं, एकाकी अथवा पवित्र होने से विविक्त 231 हैं और मात्सर्य से रहित होने के कारण वीतमत्सर 232 हैं ।।124।। आप अपने शिष्य जनों के हितैषी हैं इसलिए विनेयजनताबंधु 233 कहलाते हैं, आपके समस्त पापकर्म विलीन―नष्ट हो गये हैं इसलिए विलीनाशेषकल्मष 234 कहे जाते हैं, आप योग अर्थात् मन, वचन, काय के निमित्त से होने वाले आत्मप्रदेशपरिस्पंद से रहित हैं इसलिए वियोग 235 कहलाते हैं, योग अर्थात् ध्यान के स्वरूप को जानने वाले हैं इसलिए योगविद् 236 कहे जाते हैं, समस्त पदार्थों को जानते हैं इसलिए विद्वान् 237 कहलाते हैं, धर्मरूप सृष्टि के कर्ता होने से विधाता 238 कहे जाते हैं, आपका कार्य बहुत ही उत्तम है इसलिए सुविधि 239 कहलाते हैं और आपकी बुद्धि उत्तम है इसलिए सुधी 240 कहे जाते हैं ।।125।। उत्तम क्षमा को धारण करने वाले हैं इसलिए क्षांतिभाक् 241 कहलाते हैं, पृथ्वी के समान सहनशील हैं इसलिए पृथ्वीमूर्ति 242 कहे जाते हैं, शांति के उपासक हैं इसलिए शांतिभाक् 243 कहलाते हैं, जल के समान शीतलता उत्पन्न करने वाले हैं इसलिए सलिलात्मक 244 कहे जाते हैं, वायु के समान परपदार्थ के संसर्ग से रहित होने के कारण वायुमूर्ति 245 कहलाते हैं, परिग्रहरहित होने के कारण असंगात्मा 246 कहे जाते हैं, अग्नि के समान कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाले हैं इसलिए वह्निमूर्ति 247 हैं, और अधर्म को जलाने वाले हैं इसलिए अधर्मधक् 248 कहलाते हैं ।।126।। कर्मरूपी सामग्री का अच्छी तरह होम करने से सुयज्वा 249 हैं, निज स्वभाव का आराधन करने से यजमानात्मा 250 हैं, आत्मसुखरूप सागर में अभिषेक करने से सुत्वा 251 हैं, इंद्र के द्वारा पूजित होने के कारण सुत्रामपूजित 252 हैं, ज्ञानरूपी यज्ञ करने में आचार्य कहलाते हैं इसलिए ऋत्विक् 253 हैं, यज्ञ के प्रधान अधिकारी होने से यज्ञपति 254 कहलाते हैं । पूजा के योग्य हैं इसलिए याज्य 255 कहलाते हैं, यज्ञ के अंग होने से यज्ञांग 256 कहलाते हैं, विषयतृष्णा को नष्ट करने के कारण अमृत 257 कहे जाते हैं, और आपने ज्ञानयज्ञ में अपनी ही अशुद्ध परिणति को होम दिया है इसलिए आप हवि 258 कहलाते हैं ।।127।। आप आकाश के समान निर्मल अथवा केवलज्ञान की अपेक्षा लोकालोक में व्याप्त हैं इसलिए व्योममूर्ति 259 हैं, रूप, रस, गंध और स्पर्श से रहित होने के कारण अमूर्तात्मा 260 हैं, कर्मरूप लेप से रहित हैं इसलिए निर्लेप 261 हैं, मलरहित हैं इसलिए निर्मल 262 कहलाते हैं, सदा एक रूप से विद्यमान रहते हैं इसलिए अचल 263 कहे जाते हैं, चंद्रमा के समान शांत, सुंदर अथवा प्रकाशमान रहते हैं इसलिए सोममूर्ति 264 कहलाते हैं, आपकी आत्मा अतिशय सौम्य है इसलिए सुसौम्यात्मा 265 कहे जाते हैं, सूर्य के समान तेजस्वी हैं इसलिए सूर्यमूर्ति 266 कहलाते हैं और अतिशय प्रभा के धारक हैं इसलिए महाप्रभ 267 कहलाते हैं ।।128।। मंत्र के जानने वाले हैं इसलिए मंत्रवित् 268 कहे जाते हैं, अनेक मंत्रों के करने वाले हैं इसलिए मंत्रकृत् 265 कहलाते हैं, मंत्रों से युक्त हैं इसलिए मंत्री 270 कहलाते हैं, मंत्ररूप हैं इसलिए मंत्रमूर्ति 271 कहे जाते हैं, अनंत पदार्थों को जानते हैं इसलिए अनंतग 272 कहलाते हैं, कर्मबंधन से रहित होने के कारण स्वतंत्र 273 कहलाते हैं, शास्त्रों के करने वाले हैं इसलिए तंत्रकृत् 274 कहे जाते हैं, आपका अंतःकरण उत्तम है इसलिए स्वंत: 275 कहलाते हैं, आपने कृतांत अर्थात् यमराज मृत्यु का अंत कर दिया है इसलिए लोग आपको कृतांतांत 276 कहते हैं और आप कृतांत अर्थात् आगम की रचना करने वाले हैं इसलिए कृतांतकृत् 277 कहे जाते हैं ।।129।। आप अत्यंत कुशल अथवा पुण्यवान् हैं इसलिए कृती 278 कहलाते हैं, आप आत्मा के सब पुरुषार्थ सिद्ध कर चुके हैं इसलिए कृतार्थ 279 हैं, संसार के समस्त जीवों के द्वारा सत्कार करने के योग्य हैं इसलिए सत्कृत्य 280 हैं, समस्त कार्य कर चुके हैं इसलिए कृतकृत्य 281 हैं, आप ज्ञान अथवा तपश्चरणरूपी यज्ञ कर चुके हैं इसलिए कृतक्रतु 282 कहलाते हैं, सदा विद्यमान रहने से नित्य 283 हैं, मृत्यु को जीतने से मृत्युंजय 284 हैं, मृत्यु से रहित होने के कारण अमृत्यु 285 हैं, आपका आत्मा अमृत के समान सदा शांतिदायक है इसलिए अमृतात्मा 286 हैं, और अमृत अर्थात् मोक्ष में आपकी उत्कृष्ट उत्पत्ति होने वाली है इसलिए आप अमृतोद्भव 287 कहलाते हैं ।।130।। आप सदा शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं इसलिए ब्रह्मनिष्ठ 288 कहलाते हैं, उत्कृष्ट ब्रह्मरूप हैं इसलिए परब्रह्म 289 कहे जाते हैं, ब्रह्म अर्थात् ज्ञान अथवा ब्रह्मचर्य ही आपका स्वरूप है इसलिए आप ब्रह्मात्मा 290 कहलाते हैं, आपको स्वयं शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति हुई है तथा आप से दूसरों को होती है इसलिए आप ब्रह्मसंभव 291 कहलाते हैं, गणधर आदि महाब्रह्माओं के भी अधिपति हैं इसलिए आप महाब्रह्मपति 292 कहे जाते हैं, आप केवलज्ञान के स्वामी हैं इसलिए ब्रह्मेट् 293 कहलाते हैं, महाब्रह्मपद अर्थात् आर्हंत्य और सिद्धत्व अवस्था के ईश्वर हैं इसलिए महाब्रह्यपदेश्वर 294 कहे जाते हैं ।।131।। आप सदा प्रसन्न रहते हैं इसलिए सुप्रसन्न 295 कहे जाते हैं, आपकी आत्मा कषायों का अभाव हो जाने के कारण सदा प्रसन्न रहती है इसलिए लोग आपको प्रसन्नात्मा 296 कहते हैं, आप केवलज्ञान, उत्तमक्षमा आदि धर्म और इंद्रियनिग्रहरूप दम के स्वामी हैं इसलिए ज्ञानधर्मदमप्रभु 297 कहे जाते हैं, आपकी आत्मा उत्कृष्ट शांति से सहित है इसलिए आप प्रशमात्मा 298 कहलाते हैं, आपकी आत्मा कषायों का अभाव हो जाने से अतिशय शांत हो चुकी है इसलिए आप प्रशांतात्मा 299 कहलाते हैं, और शलाका पुरुषों में सबसे उत्कृष्ट हैं इसलिए विद्वान लोग आपको पुराणपुरुषोत्तम 300 कहते हैं ।।132।। बड़ा भारी अशोकवृक्ष ही आपका चिह्न है इसलिए आप महाशोकध्वज 301 कहलाते हैं, शोक से रहित होने के कारण अशोक 302 कहलाते हैं, सबको सुख देने वाले हैं इसलिए ‘क’ 303 कहलाते हैं, स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग की सृष्टि करते हैं इसलिए सृष्टा 304 कहलाते हैं, आप कमलरूप आसन पर विराजमान हैं इसलिए पद्मविष्टर 305 कहलाते हैं, पद्मा अर्थात् लक्ष्मी के स्वामी हैं इसलिए पद्मेश 306 कहलाते हैं, विहार के समय देव लोग आपके चरणों के नीचे कमलों की रचना कर देते हैं इसलिए आप पद्मसंभूति 307 कहे जाते हैं, आपकी नाभि कमल के समान है इसलिए लोग आपको पद्मनाभि 308 कहते हैं तथा आपसे श्रेष्ठ अन्य कोई नहीं है इसलिए आप अनुत्तर 309 कहलाते हैं ।।133।। हे भगवन् आपका यह शरीर माता के पद्माकार गर्भाशय में उत्पन्न हुआ था इसलिए आप पद्मयोनि 310 कहलाते हैं, धर्मरूप जगत् की उत्पत्ति के कारण होने से जगयोनि 311 हैं, भव्य जीव तपश्चरण आदि के द्वारा आपको ही प्राप्त करना चाहते हैं इसलिए आप इत्य 312 कहलाते हैं, इंद्र आदि देवों के द्वारा स्तुति करने योग्य हैं इसलिए स्तुत्य 313 कहलाते हैं, स्तुतियों के स्वामी होने से स्तुतीश्वर 314 कहे जाते हैं, स्तवन करने के योग्य हैं, इसलिए स्तवनार्ह 315 कहलाते हैं, इंद्रियों के ईश अर्थात् वश करने वाले स्वामी हैं, इसलिए हृषीकेश 316 कहे जाते हैं, आपने जीतने योग्य समस्त मोहादि शत्रुओं को जीत लिया है इसलिए आप जितजेय 317 कहलाते हैं, और आप करने योग्य समस्त क्रियाएँ कर चुके हैं इसलिए कृतक्रिय 318 कहे जाते हैं ।।134।। आप बारह सभारूप गण के स्वामी होने से गणाधिप 319 कहलाते हैं, समस्त गणों में श्रेष्ठ होने के कारण गणज्येष्ठ 320 कहे जाते हैं, तीनों लोकों में आप ही गणना करने के योग्य हैं इसलिए गण्य 321 कहलाते हैं, पवित्र हैं इसलिए पुण्य 322 हैं, समस्त सभा में स्थित जीवों को कल्याण के मार्ग में आगे ले जाने वाले हैं इसलिए गणाग्रणी 323 कहलाते हैं, गुणों की खान हैं इसलिए गुणाकर 324 कहे जाते हैं, आप गुणों के समूह हैं इसलिए गुणांभोधि 325 कहलाते हैं, आप गुणों को जानते हैं इसलिए गुणज्ञ 326 कहे जाते हैं और गुणों के स्वामी हैं इसलिए गणधर आपको गुणनायक 327 कहते हैं ।।135।। गुणों का आदर करते हैं इसलिए गुणादरी 328 कहलाते हैं, सत्त्व, रज, तम अथवा काम, क्रोध आदि वैभाविक गुणों को नष्ट करने वाले हैं इसलिए आप गुणोच्छेदी 329 कहे जाते हैं, आप वैभाविक गुणों से रहित हैं इसलिए निर्गुण 330 कहलाते हैं, पवित्र वाणी के धारक हैं इसलिए पुण्यगी 331 कहे जाते हैं, गुणों से युक्त हैं इसलिए गुण 332 कहलाते हैं, शरण में आये हुए जीवों की रक्षा करने वाले हैं इसलिए शरण्य 333 कहे जाते हैं, आपके वचन पवित्र हैं इसलिए पूतवाक् 334 कहलाते हैं, स्वयं पवित्र हैं इसलिए पूत 335 कहे जाते हैं, श्रेष्ठ हैं इसलिए वरेण्य 336 कहलाते हैं और पुण्य के अधिपति हैं इसलिए पुण्यनायक 337 कहे जाते हैं ।।136।। आपकी गणना नहीं हो सकती अर्थात् आप अपरिमित गुणों के धारक हैं इसलिए अगण्य 138 कहलाते हैं, पवित्र बुद्धि के धारक होने से पुण्यधी 339 कहे जाते हैं, गुणों से सहित हैं इसलिए गुण्य 340 कहलाते हैं, पुण्य को करने वाले हैं इसलिए पुण्यकृत् 341 कहे जाते हैं, आपका शासन पुण्यरूप अर्थात् पवित्र है इसलिए आप पुण्यशासन 342 माने जाते हैं, धर्म के उपवनस्वरूप होने से धर्माराम 343 कहे जाते हैं, आपमें अनेक गुणों का ग्राम अर्थात् समूह पाया जाता है इसलिए आप गुणग्राम 344 कहलाते हैं, आपने शुद्धोपयोग में लीन होकर पुण्य और पाप दोनों का निरोध कर दिया है इसलिए आप पुण्यापुण्यनिरोधक 345 कहे जाते हैं ।।137।। आप हिंसादि पापों से रहित हैं इसलिए पापापेत 346 माने गये हैं, आपकी आत्मा से समस्त पाप विगत हो गये हैं इसलिए आप विपापात्मा 347 कहे जाते हैं, आपने पापकर्म नष्ट कर दिये हैं इसलिए विपाप्मा 348 कहलाते हैं, आपके समस्त कल्मष अर्थात् राग-द्वेष आदि भाव कर्मरूपी मल नष्ट हो चुके हैं इसलिए वीतकल्मषं 349 माने जाते हैं, परिग्रहरहित होने से निर्द्वंद्व 350 हैं, अहंकार से रहित होने के कारण निर्वेद 351 कहलाते हैं, आपका मोह निकल चुका है, इसलिए आप निर्मोह 352 हैं और उपद्रव उपसर्ग आदि से रहित हैं इसलिए निरुपद्रव 353 कहलाते हैं ।।138।। आपके नेत्रों के पलक नहीं झपते इसलिए आप निर्निमेष 354 कहलाते हैं, आप कवलाहार नहीं करते इसलिए निराहार 355 हैं, सांसारिक क्रियाओं से रहित हैं इसलिए निष्क्रिय 356 हैं, बाधारहित हैं इसलिए निरुपप्लव 358 हैं, कलंकरहित होने से निष्कलंक 359 हैं, आपने समस्त एनस् अर्थात् पापों को दूर हटा दिया है इसलिए निरस्तैना 360 कहलाते हैं, समस्त अपराधों को आपने दूर कर दिया है इसलिए निद्र्धूतागस् 361 कहे जाते हैं, और कर्मों के आस्रव से रहित होने के कारण निरास्रव 362 कहलाते हैं ।।139।। आप सबसे महान हैं इसलिए विशाल 363 कहे जाते हैं, केवलज्ञानरूपी विशाल ज्योति को धारण करने वाले हैं इसलिए विपुलज्योति 364 माने जाते हैं, उपमारहित होने से अतुल 365 हैं, आपका वैभव अचिंत्य है इसलिए अचिंत्यवैभव 366 कहलाते हैं, आप नवीन कर्मों का आस्रव रोककर पूर्ण संवर कर चुके हैं इसलिए सुसंवृत 367 कहलाते हैं, आपकी आत्मा अतिशय सुरक्षित है अथवा मनोगुप्ति आदि गुप्तियों से युक्त है इसलिए विद्वान लोग आपको सुगुप्तात्मा 368 कहते हैं, आप समस्त पदार्थों को अच्छी तरह जानते हैं इसलिए सुभुत् 369 कहलाते हैं और आप समीचीन नयों के यथार्थ रहस्य को जानते हैं
इसलिए सुनयतत्त्वविद् 370 कहलाते हैं ।।140।। आप केवलज्ञानरूपी एक विद्या को धारण करने से एकविद्य 371 कहलाते हैं, अनेक बड़ी-बड़ी विद्याएं धारण करने से महाविद्य 372 कहे जाते हैं, प्रत्यक्षज्ञानी होने से मुनि 373 हैं, सबके स्वामी हैं इसलिए परिवृढ़ 374 कहलाते हैं, जगत् के जीवों की रक्षा करते हैं इसलिए पति 375 हैं, बुद्धि के स्वामी हैं इसलिए धीश 376 कहलाते हैं, विद्याओं के भंडार हैं इसलिए विद्यानिधि 377 माने जाते हैं, समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं इसलिए साक्षी 378 कहलाते हैं, मोक्षमार्ग को प्रकट करने वाले हैं इसलिए विनेता 379 कहे जाते हैं और यमराज अर्थात् मृत्यु को नष्ट करने वाले हैं इसलिए विहतांतक 380 कहलाते हैं ।।141।। आप सब जीवों की नरकादि गतियों से रक्षा करते हैं इसलिए पिता 381 कहलाते हैं, सबके गुरु हैं इसलिए पितामह 382 कहे जाते हैं, सबका पालन करने से पाता 383 कहलाते हैं, अतिशय शुद्ध हैं इसलिए पवित्र 384 कहे जाते हैं, सबको शुद्ध या पवित्र करते हैं इसलिए पावन 385 माने जाते हैं, समस्त भव्य तपस्या करके आपके ही अनुरूप होना चाहते हैं इसलिए आप सबकी गति 386 अथवा खंडाकार छेद निकालने पर गतिरहित होने से अगति कहलाते हैं, समस्त जीवों की रक्षा करने से त्राता 387 कहलाते हैं, जन्म-जरा-मरणरूपी रोग को नष्ट करने के लिए उत्तम वैद्य हैं इसलिए भिषग्वर 388 कहे जाते हैं, श्रेष्ठ होने से वर्य 389 हैं, इच्छानुकूल पदार्थों को प्रदान करते हैं इसलिए वरद 390 कहलाते हैं, आपकी ज्ञानादि-लक्ष्मी अतिशय श्रेष्ठ है इसलिए परम 391 कहे जाते हैं, और आत्मा तथा पर पुरुषों को पवित्र करने के कारण पुमान् 392 कहलाते हैं ।।142।। द्वादशांग का वर्णन करने वाले हैं इसलिए कवि 393 कहलाते हैं, अनादिकाल होने से पुराणपुरुष 394 कहे जाते हैं, ज्ञानादि गुणों की अपेक्षा अतिशय वृद्ध हैं इसलिए वर्षीयान् 395 कहलाते हैं, श्रेष्ठ होने से ऋषभ 396 कहलाते हैं, तीर्थंकरों में आदिपुरुष होने से पुरु 397 कहे जाते हैं, आप प्रतिष्ठा अर्थात् सम्मान अथवा स्थिरता के कारण हैं इसलिए प्रतिष्ठाप्रसव 398 कहलाते हैं, समस्त उत्तम कार्यों के कारण हैं इसलिए हेतु 399 कहे जाते हैं, और संसार के एकमात्र गुरु हैं इसलिए भुवनैकपितामह 400 कहलाते हैं ।।143।।
श्रीवृक्ष के चिह्न से चिह्नित हैं इसलिए श्रीवृक्षलक्षण 401 कहे जाते हैं, सूक्ष्मरूप होने से श्लक्षण 402 कहलाते हैं, लक्षणों से अनपेत अर्थात् सहित हैं इसलिए लक्षण्य 403 कहे जाते हैं, आपके शरीर में अनेक शुभ लक्षण विद्यमान हैं इसलिए शुभलक्षण 404 कहलाते हैं, आप समस्त पदार्थों को निरीक्षण करने वाले हैं अथवा आप नेत्रेंद्रिय के द्वारा दर्शन-क्रिया नहीं करते इसलिए निरीक्ष 405 कहलाते हैं, आपके नेत्र पुंडरीककमल के समान सुंदर हैं इसलिए आप पुंडरीकाक्ष 406 कहलाते हैं, आत्म-गुणों से खूब ही परिपुष्ट हैं इसलिए पुष्कल 407 कहे जाते हैं और कमलदल के समान लंबे नेत्रों को धारण करने वाले होने से पुष्करेक्षण 408 कहे जाते हैं ।।144।। सिद्धि को देने वाले हैं इसलिए सिद्धिद 409 कहलाते हैं, आपके सब संकल्प सिद्ध हो चुके हैं इसलिए सिद्धसंकल्प 410 कहे जाते हैं, आपकी आत्मा सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो चुकी है इसलिए सिद्धात्मा 411 कहलाते हैं, आपको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी मोक्ष-साधन प्राप्त हो चुके हैं इसलिए आप सिद्धसाधन 412 कहलाते हैं, आपने जानने योग्य सब पदार्थों को जान लिया है इसलिये बुद्धबोध्य 413 कहे जाते हैं, आपकी रत्नत्रयरूपी विभूति बहुत ही प्रशंसनीय है इसलिए आप महाबोधि 414 कहलाते हैं, आपके गुण उत्तरोत्तर बढ़ते रहते हैं इसलिए आप वर्धमान 415 हैं, और बड़ी-बड़ी ऋद्धियों को धारण करने वाले हैं इसलिए महर्द्धिक 416 कहलाते हैं ।।145।। आप अनुयोगरूपी वेदों के अंग अर्थात् कारण हैं इसलिए वेदांग 417 कहे जाते हैं, वेद को जानने वाले हैं इसलिए वेदवित् 418 कहलाते हैं, ऋषियों के द्वारा जानने योग्य हैं इसलिए वेद्य 419 कहे जाते हैं, आप दिगंबररूप हैं इसलिए जातरूप 420 कहे जाते हैं, जानने वालों में श्रेष्ठ हैं इसलिए विदांवर 421 कहलाते हैं, आगम अथवा केवलज्ञान के द्वारा जानने योग्य हैं इसलिए वेद्वेद्य 422 कहे जाते हैं, अनुभवगम्य होने से स्वसंवेद्य 423 कहलाते हैं, आप तीन प्रकार के वेदों से रहित हैं इसलिए विवेद 424 कहे जाते हैं और वक्ताओं में श्रेष्ठ होने से वदतांवर 425 कहलाते हैं ।।146।। आदि-अंतरहित होने से अनादिनिधन 426 कहे जाते हैं, ज्ञान के द्वारा अत्यंत स्पष्ट हैं इसलिए व्यक्त 427 कहलाते हैं, आपके वचन अतिशय स्पष्ट हैं इसलिए व्यक्तवाक् 428 कहे जाते हैं, आपका शासन अत्यंत स्पष्ट या प्रकट है इसलिए आपको व्यक्तशासन 429 कहते हैं, कर्मभूमिरूपी युग के आदि व्यवस्थापक होने से आप युगादिकृत् 430 कहलाते हैं, युग की समस्त व्यवस्था करने वाले हैं इसलिए युगाधार 431 कहे जाते हैं, इस कर्मभूमिरूप युग का प्रारंभ आपसे ही हुआ था इसलिए आप युगादि 432 माने जाते हैं और आप जगत् के प्रारंभ में उत्पन्न हुए थे इसलिए जगदादिज 433 कहलाते हैं ।।147।। आपने अपने प्रभाव या ऐश्वर्य से इंद्रों को भी अतिक्रांत कर दिया है इसलिए अतींद्र 434 कहे जाते हैं, इंद्रियगोचर न होने से अतींद्रिय 435 हैं, बुद्धि के स्वामी होने से धींद्र 436 हैं, परम ऐश्वर्य का अनुभव करते हैं इसलिए महेंद्र 437 कहलाते हैं, अतींद्रिय (सूक्ष्म―अंतरित―दूरार्थ) पदार्थों को देखने वाले होने से अतींद्रियार्थदृक् 438 कहे जाते हैं, इंद्रियों से रहित हैं इसलिए अनिंद्रिय 439 कहलाते हैं, अहमिंद्रों के द्वारा पूजित होने से अहमिंद्रार्च्य 440 कहे जाते हैं, बड़े-बड़े इंद्रों के द्वारा पूजित होने से महेंद्रमहित 441 कहलाते हैं और स्वयं सबसे बड़े हैं इसलिए महान् 442 कहे जाते हैं ।।148।। आप समस्त संसार से बहुत ऊँचे उठे हुए हैं अथवा आपका जन्म संसार में सबसे उत्कृष्ट है इसलिए उद्भव 443 कहलाते हैं, मोक्ष के कारण होने से कारण 444 कहे जाते हैं, शुद्ध भावों को करते हैं इसलिए कर्ता 445 कहलाते हैं, संसाररूपी समुद्र के पार को प्राप्त होने से पारग 446 माने जाते हैं, आप भव्यजीवों को संसाररूपी समुद्र से तारने वाले हैं इसलिए भवतारक 447 कहलाते हैं, आप किसी के भी द्वारा अवगाहन करने योग्य नहीं हैं अर्थात् आपके गुणों को कोई नहीं समझ सकता है इसलिए आप अगाह्य 448 कहे जाते हैं, आपका स्वरूप अतिशय गंभीर या कठिन है इसलिए गहन 449 कहलाते हैं, गुप्तरूप होने से गुह्य 450 हैं, सबसे उत्कृष्ट होने के कारण पदार्थ 451 हैं और सबसे अधिक समर्थ होने के कारण परमेश्वर 452 माने जाते हैं ।।149।। आपकी ऋद्धियाँ अनंत, अमेय और अचिंत्य हैं इसलिए आप अनंतर्द्धि 453, अमेयर्द्धि 454 और अचिंत्यर्द्धि 455 कहलाते हैं, आपकी बुद्धि पूर्ण अवस्था को प्राप्त हुई है इसलिए आप समग्रधी 456 हैं, सबमें मुख्य होने से प्राग्य 457 हैं, प्रत्येक मांगलिक कार्यों में सर्वप्रथम आपका स्मरण किया जाता है इसलिए प्राग्रहर 458 हैं, लोक का अग्रभाग प्राप्त करने के सम्मुख हैं इसलिए अभ्यग्र 459 हैं, आप समस्त लोगों से विलक्षण―नूतन हैं इसलिए प्रत्यग्र 460 कहलाते हैं, सबके स्वामी हैं इसलिए अग्य 461 कहे जाते हैं, सबके अग्रेसर होने से अग्रिम 462 कहलाते हैं और सबसे ज्येष्ठ होने के कारण अग्रज 463 कहे जाते हैं ।।150।। आपने बड़ा कठिन तपश्चरण किया है इसलिए महातपा 464 कहलाते हैं, आपका बड़ा भारी तेज चारों ओर फैल रहा है इसलिए आप महातेजा 465 हैं, आपकी तपश्चर्या का उदर्क अर्थात् फल बड़ा भारी है इसलिए आप महोदर्क 466 कहलाते हैं, आपका ऐश्वर्य बड़ा भारी है इसलिए आप महोदय 467 माने जाते हैं, आपका बड़ा भारी यश चारों ओर फैल रहा है इसलिए आप महायशा 468 माने जाते हैं, आप विशाल तेज―प्रताप अथवा ज्ञान के धारक हैं इसलिए महाधामा 469 कहलाते हैं, आपकी शक्ति अपार है इसलिए विद्वान् लोग आपको महासत्त्व 470 कहते हैं, और आपका धीरज महान् है इसलिए आप महाधृति 471 कहलाते हैं ।।151।। आप कभी अधीर नहीं होते इसलिए महाधैर्य 472 कहे जाते हैं, अनंत वीर्य के धारक होने से महावीर्य 473 कहलाते हैं, समवसरणरूप अद्वितीय विभूति को धारण करने से महासंपत् 474 माने जाते हैं, अत्यंत बलवान् होने से महाबल 475 कहलाते हैं, बड़ी भारी शक्ति के धारक होने से महाशक्ति 476 माने जाते हैं, अतिशय कांति अथवा केवलज्ञान से सहित होने के कारण महाज्योति 477 कहलाते हैं, आपका वैभव अपार है इसलिए आपको महाभूति 478 कहते हैं और आपके शरीर की द्युति बड़ी भारी है इसलिए आप महाद्यृति 479 कहे जाते हैं ।।152।। अतिशय बुद्धिमान् हैं इसलिए महामति 480 कहलाते हैं, अतिशय न्यायवान् हैं इसलिए महानीति 481 कहे जाते हैं, अतिशय क्षमावान् हैं इसलिए महाक्षांति 482 माने जाते हैं, अतिशय दयालु है इसलिए महादय 483 कहलाते हैं, अत्यंत विवेकवान् होने से महाप्राज्ञ 484, अत्यंत भाग्यशाली होने से महाभाग 485, अत्यंत आनंद होने से महानंद 486 और सर्वश्रेष्ठ कवि होने से महाकवि 487 माने जाते हैं ।।153।। अत्यंत तेजस्वी होने से महामहा 488, विशाल कीर्ति के धारक होने से महाकीर्ति 489, अद्भुत कांति से युक्त होने के कारण महाकांति 490, उत्तुंग शरीर के होने से महावपु 491, बड़े दानी होने से महादान 492, केवलज्ञानी होने से महाज्ञान 493, बड़े ध्यानी होने से महायोग 494 और बड़े-बड़े गुणों के धारक होने से महागुण 495 कहलाते हैं ।।154।। आप अनेक बड़े-बड़े उत्सवों के स्वामी हैं इसलिए महामहपति 496 कहलाते हैं, आपने गर्भ आदि पाँच महाकल्याण को प्राप्त किया है इसलिए प्राप्तमहाकल्याणपंचक 497 कहे जाते हैं, आप सबसे बड़े स्वामी हैं इसलिए महाप्रभु 498 कहलाते हैं, अशोकवृक्ष आदि आठ महाप्रातिहार्यों के स्वामी हैं इसलिए महाप्रातिहार्याधीश 499 कहे जाते हैं और आप सब देवों के अधीश्वर हैं इसलिए महेश्वर 500 कहलाते हैं ।।155।।
सब मुनियों में उत्तम-होने से महामुनि 501, वचनालापरहित होने से महामौनी 502, शुक्लस्थान का ध्यान करने से महाध्यान 503, अतिशय जितेंद्रिय होने से महादम 504, अतिशय समर्थ अथवा शांत होने से महाक्षम 505, उत्तम शील से युक्त होने के कारण महाशील 506 और तपश्चरणरूपी अग्नि में कर्मरूपी हवि के होम करने से महायज्ञ 507 और अतिशय पूज्य होने के कारण महामरण 508 कहलाते हैं ।।156।। पाँच महाव्रतों के स्वामी होने से महाव्रतपति 509, जगत्पूज्य होने से मह्य 510, विशाल कांति के धारक होने से महाकांतिधर 511, सबके स्वामी होने से अधिप 512, सब जीवों के साथ मैत्रीभाव रखने से महामैत्रीमय 513, अपरिमित गुणों के धारक होने से अमेय 514, मोक्ष के उत्तमोत्तम उपायों से सहित होने के कारण महोपाय 515 और तेजस्वरूप होने से महोमय 516 कहलाते हैं ।।157।। अत्यंत दयालु होने से महाकारुणिक 517, सब पदार्थों को जानने से मंता 518, अनेक मंत्रों के स्वामी होने से महामंत्र 519, यतियों में श्रेष्ठ होने से महायति 520, गंभीर दिव्यध्वनि के धारक होने से महानाद 521, दिव्यध्वनि का गंभीर उच्चारण होने के कारण महाघोष 522, बड़ी-बड़ी पूजाओं के अधिकारी होने से महेज्य 523 और समस्त तेज अथवा प्रताप के स्वामी होने से महसांपति 524 कहलाते हैं ।।158।। ज्ञानरूपी विशाल यज्ञ के धारक होने से महाध्वरधर 525, कर्मभूमि का समस्त भार सँभालने अथवा सर्वश्रेष्ठ होने के कारण धुर्य 526, अतिशय उदार होने से महौदार्य 527, श्रेष्ठ वचनों से युक्त होने के कारण महेष्ठवाक् 528, महान आत्मा के धारक होने से महात्मा 529, समस्त तेज के स्थान होने से महसांधाम 530, ऋषियों में प्रधान होने से महर्षि 531 और प्रशस्त जन्म के धारक होने से महितोदय 532 कहलाते हैं ।।159।। बड़े-बड़े क्लेशों को नष्ट करने के लिए अंकुश के समान हैं इसलिए महाक्लेशांकुश 533 कहलाते हैं, कर्मरूपी शत्रुओं का क्षय करने में शूरवीर है इसलिए शूर 534 कहे जाते हैं, गणधर आदि बड़े-बड़े प्राणियों के स्वामी हैं इसलिए महाभूतपति 535 कहे जाते हैं, तीनों लोकों में श्रेष्ठ है इसलिए गुरु 536 कहलाते हैं, विशाल पराक्रम के धारक हैं इसलिए महापराक्रम 537 कहे जाते हैं, अंतरहित होने से अनंत 538 हैं, क्रोध के बड़े भारी शत्रु होने से महाक्रोधरिपु 539 कहे जाते हैं और समस्त इंद्रियों को वश कर लेने से वशी 540 कहलाते हैं ।।160।। संसाररूपी महासमुद्र से पार कर देने के कारण महाभवाब्धिसंतारी 541, मोहरूपी महाचल के भेदन करने से महामोहाद्रिसूदन 542, सम्यग्दर्शन आदि बड़े-बड़े गुणों की खान होने से महागुणाकर 543, क्रोधादि कषायों को जीत लेने से शांत 544, बड़े-बड़े योगियों-मुनियों के स्वामी होने से महायोगीश्वर 545 और अतिशय शांत परिणामी होने से शमी 546 कहलाते हैं ।।161।। शुक्लध्यानरूपी महाध्यान के स्वामी होने से महाध्यानपति 547, अहिंसारूपी महाधर्म का ध्यान करने से ध्यातमहाधर्म 548, महाव्रतों को धारण करने से महाव्रत 549, कर्मरूपी महाशत्रुओं को नष्ट करने से महाकर्मारिहा 550, आत्मस्वरूप के जानकार होने से आत्मज्ञ 551, सब देवों में प्रधान होने से महादेव 552 और महान् सामर्थ्य से सहित होने के कारण महेशिता 553 कहलाते हैं ।।162।। सब प्रकार के क्लेशों को दूर करने से सर्वेक्लेशापह 554, आत्मकल्याण सिद्ध करने से साधु 555, समस्त दोषों को दूर करने से सर्वदोषहर 556, समस्त पापों को नष्ट करने के कारण हर 557, असंख्यात गुणों को धारण करने से असंख्येय 558, अपरिमित शक्ति को धारण करने से अप्रमेयात्मा 559, शांतस्वरूप होने से शमात्मा 560 और उत्तम शांति की खान होने से प्रशमाकर 561 कहलाते हैं ।।163।। सब मुनियों के स्वामी होने से सर्वयोगीश्वर 562, किसी के चिंतवन में न आने से अचिंत्य 563, भावश्रुतरूप होने से श्रुतात्मा 164, तीनों लोकों के समस्त पदार्थों को जानने से विष्टरश्रवा 565, मन को वश करने से दांतात्मा 566, संयमरूप तीर्थ के स्वामी होने के कारण दमतीर्थेश 569, योगमय होने से योगात्मा 568 और ज्ञान के द्वारा सब जगह व्याप्त होने के कारण ज्ञानसर्वग 569 कहलाते हैं ।।164।। एकाग्रता से आत्मा का ध्यान करने अथवा तीनों लोकों में प्रमुख होने से प्रधान 570, ज्ञानस्वरूप होने से आत्मा 571, प्रकृष्ट कार्यों के होने से प्रकृति 572, उत्कृष्ट लक्ष्मी के धारक होने से परम 573, उत्कृष्ट उदय अर्थात् जन्म या वैभव को धारण करने से परमोदय 574, कर्मबंधन के क्षीण हो जाने से प्रक्षीणबंध 575, कामदेव अथवा विषयाभिलाषा के शत्रु होने से कामारि 576, कल्याणकारी होने से क्षेमकृत 577 और मंगलमय उपदेश के देने से क्षेमशासन 578 कहलाते हैं ।।165।। ओंकाररूप होने से प्रणव 579, सबके द्वारा नमस्कृत होने से प्रणत 580, जगत् को जीवित रखने से प्राण 581, सब जीवों के प्राणदाता अर्थात् रक्षक होने से प्राणद 582, नम्रीभूत भव्य जनों के स्वामी होने से प्रणतेश्वर 583, प्रमाण अर्थात् ज्ञानमय होने से प्रमाण 584, अनंतज्ञान आदि उत्कृष्ट निधियों के स्वामी होने से प्रणिधि 585, समर्थ अथवा प्रवीण होने से दक्ष 586, सरल होने से दक्षिण 587, ज्ञानरूप यज्ञ करने से अध्वर्यु 588 और समीचीन मार्ग के प्रदर्शक होने से अध्वर 589 कहलाते हैं ।।166।। सदा सुखरूप होने से आनंद 590, सबको आनंद देने से नंदन 591, सदा समृद्धिमान् होते रहने से नंद 592, इंद्र आदि के द्वारा वंदना करने योग्य होने से वंद्य 593, निंदारहित होने से अनिंद्य 594, प्रशंसनीय होने से अभिनंदन 595, कामदेव को नष्ट करने से कामहा 596, अभिलषित पदार्थों को देने से कामद 597, अत्यंत मनोहर अथवा सबके द्वारा चाहने के योग्य होने से काम्य 598, सबके मनोरथ पूर्ण करने से कामधेनु 599 और कर्मरूप शत्रुओं को जीतने से अरिंजय 600 कहलाते हैं ।।167।।
किसी अन्य के द्वारा संस्कृत हुए बिना ही उत्तम संस्कारों को धारण करने से असंस्कृत-सुसंस्कार 601, स्वाभाविक होने से प्राकृत 602, रागादि विकारों का नाश करने से वैकृतांतकृत् 603, अंत अर्थात् धर्म अथवा जन्म-मरण संसार का अवसान करने वाले होने से अंतकृत् 604, सुंदर कांति, वचन अथवा इंद्रियों के धारक होने से कांतगु 605, अत्यंत सुंदर होने से कांत 606, इच्छित पदार्थ देने से चिंतामणि 607 और भव्यजीवों के लिए अभीष्ट―स्वर्ग-मोक्ष के देने से अभीष्टद 608 कहलाते हैं ।।168।। किसी के द्वारा जीते नहीं जा सकने के कारण अजित 609, कामरूप शत्रु को जीतने से जितकामारि 610, अवधिरहित होने के कारण अमित 611, अनुपम धर्म का उपदेश देने से अमितशासन 612, क्रोध को जीतने से जितक्रोध 613, शत्रुओं को जीत लेने से जितामित्र 614, क्लेशों को जीत लेने से जितक्लेश 615 और यमराज को जीत लेने से जितांतक 616 कहे जाते हैं ।।169।। कर्मरूप शत्रुओं को जीतने वालों में श्रेष्ठ होने से जिनेंद्र 617, उत्कृष्ट आनंद के धारक होने से परमानंद 618, मुनियों के नाथ होने से मुनींद्र 619, दुंदुभि के समान गंभीर ध्वनि से युक्त होने के कारण दुंदुभिस्वन 620, बड़े-बड़े इंद्रों के द्वारा वंदनीय होने से महेंद्रवंद्य 621, योगियों के स्वामी होने से योगींद्र 622, यतियों के अधिपति होने से यतींद्र 623 और नाभिमहाराज के पुत्र होने से नाभिनंदन 624 कहलाते हैं ।।170।। नाभिराजा की संतान होने से नाभेय 625, नाभिमहाराज से उत्पन्न होने के कारण नाभिज 626, द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा जन्मरहित होने से अजात 627, उत्तम व्रतों के धारक होने से सुव्रत 628, कर्मभूमि की समस्त व्यवस्था बताने अथवा मनन-ज्ञानरूप होने से मनु 629, उत्कृष्ट होने से उत्तम 630, किसी के द्वारा भेदन करने योग्य न होने से अभेद्य 631, विनाशरहित होने से अनत्यय 632, तपश्चरण करने से अनाश्वान् 633, सबमें श्रेष्ठ होने अथवा वास्तविक सुख प्राप्त होने से अधिक 634, श्रेष्ठ गुरु होने से अधिगुरु 635 और उत्तम वचनों के धारक होने से सुधी 636 कहलाते हैं ।।171।। उत्तम बुद्धि होने से सुमेधा 637, पराक्रमी होने से विक्रमी 638, सबके अधिपति होने से स्वामी 639, किसी के द्वारा अनादर हिंसा अथवा निवारण आदि नहीं किये जा सकने के कारण दुराधर्ष 640, सांसारिक विषयों की उत्कंठा से रहित होने के कारण निरुत्सुक 641, विशेषरूप होने से विशिष्ट 642, शिष्ट पुरुषों का पालन करने से शिष्टभुक् 643, सदाचार पूर्ण होने से शिष्ट 644, विश्वास अथवा ज्ञानरूप होने से प्रत्यय 645, मनोहर होने से कामन 646 और पापरहित होने से अनघ 647 कहलाते हैं ।।172।। कल्याण से युक्त होने के कारण क्षेमी 648, भव्य जीवों का कल्याण करने से क्षेमंकर 649, क्षयरहित होने से अक्षय 650, कल्याणकारी धर्म के स्वामी होने से क्षेमधर्मपति 651, क्षमा से युक्त होने के कारण क्षमी 652, अल्पज्ञानियों के ग्रहण में न आने से अग्राह्य 653, सम्यग्ज्ञान के द्वारा ग्रहण करने के योग्य होने से ज्ञाननिग्राह्य 654, ध्यान के द्वारा जाने जा सकने के कारण ज्ञानगम्य 655 और सबसे उत्कृष्ट होने के कारण निरुत्तर 656 हैं ।।173।। पुण्यवान् होने से सुकृती 657, शब्दों के उत्पाद होने से धातु 658, पूजा के योग्य होने से इज्यार्ह 659, समीचीन नयों से सहित होने के कारण सुनय 660, लक्ष्मी के निवास होने से श्रीनिवास 661 और समवसरण में अतिशय विशेष से चारों ओर मुख दिखने के कारण चतुरानन 662, चतुर्वक्त्र 663, चतुरास्य 664 और चतुर्मुख 665 कहलाते हैं ।।174।। सत्यस्वरूप होने से सत्यात्मा 666, यथार्थ विज्ञान से सहित होने के कारण सत्यविज्ञान 667, सत्यवचन होने से सत्यवाक् 668, सत्यधर्म का उपदेश देने से सत्यशासन 669, सत्य आशीर्वाद होने से सत्याशी 670, सत्यप्रतिज्ञ होने से सत्यसंधान 671, सत्यरूप होने से सत्य 672 और सत्य में ही निरंतर तत्पर रहने से सत्यपरायण 673 कहलाते हैं ।।175।। अत्यंत स्थिर होने से स्थेयान् 674, अतिशय स्थूल होने से स्थवीयान् 675, भक्तों के समीपवर्ती होने से नेदीदान 676, पापों से दूर रहने के कारण दवीयान् 677, दूर से ही दर्शन होने के कारण दूरदर्शन 678, परमाणु से भी सूक्ष्म होने के कारण अणो:अणीयान् 679, अणुरूप न होने से अनणु 680 और गुरुओं में भी श्रेष्ठ गुरु होने से गरीयसामाद्य गुरु 681 कहलाते हैं ।।176।। सदा योगरूप होने से सदायोग 682, सदा आनंद के भोक्ता होने से सदाभोग 683, सदा संतुष्ट रहने से सदातृप्त 684, सदा कल्याणरूप रहने से सदाशिव 685, सदा ज्ञानरूप रहने से सदागति 686, सदा सुखरूप रहने से सदासौख्य 687, सदा केवलज्ञानरूपी विद्या से युक्त होने के कारण सदाविद्य 688 और सदा उदयरूप रहने से सदोदय 689 माने जाते हैं ।।177।। उत्तमध्वनि होने से सुघोष 690, सुंदर मुख होने से सुमुख 691, शांतरूप होने से सौम्य 692, सब जीवों को सुखदायी होने से सुखद 693, सबका हित करने से सुहित 694, उत्तम हृदय होने से सुहृत् 695, सुरक्षित अथवा मिथ्यादृष्टियों के लिए गूढ़ होने से सुगुप्त 696, गुप्तियों को धारण करने से गुप्तिभृत् 697, सबके रक्षक होने से गोप्ता 698, तीनों लोकों का साक्षात्कार करने से लोकाध्यक्ष 699 और इंद्रियविजयरूपी दम के स्वामी होने से दमेश्वर 700 कहलाते हैं ।।178।।
इंद्रों के गुरु होने से बृहद्बृहस्पति 701, प्रशस्त वचनों के धारक होने से वाग्मी 702, वचनों के स्वामी होने से वाचस्पति 703, उत्कृष्ट बुद्धि के धारक होने से उदारधी 704, मनन शक्ति से युक्त होने के कारण मनीषी 705, चातुर्यपूर्ण बुद्धि से सहित होने के कारण धिषण 706, धारणपटु बुद्धि से सहित होने के कारण धीमान् 707, बुद्धि के स्वामी होने से शेमुषीश 708 और सब प्रकार के वचनों के स्वामी होने से गिरापति 709 कहलाते हैं ।।179।। अनेकरूप होने से नैकरूप 710, नयों के द्वारा उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त होने से नयोत्तुंग 711, अनेक गुणों को धारण करने से नैकात्मा 712, वस्तु के अनेक धर्मों का उपदेश देने से नैकधर्मकृत् 713, साधारण पुरुषों के द्वारा जानने के अयोग्य होने से अविज्ञेय 714, तर्कवितर्करहित स्वरूप से युक्त होने के कारण अप्रतर्क्यात्मा 715, समस्त कृत्य जानने से कृतज्ञ 716 और समस्त पदार्थों का लक्षण-स्वरूप बतलाने से कृतलक्षण 717 कहलाते हैं ।।180।। अंतरंग में ज्ञान होने से ज्ञानगर्भ 718, दयालु हृदय होने से दयागर्भ 719, रत्नत्रय से युक्त होने के कारण अथवा गर्भ कल्याण के समय रत्नमयी वृष्टि होने से रत्नगर्भ 720, दैदीप्यमान होने से प्रभास्वर 721, कमलाकार गर्भाशय में स्थित होने के कारण पद्मगर्भ 722, ज्ञान के भीतर समस्त जगत् के प्रतिबिंबित होने से जगद᳭गर्भ 723, गर्भवास के समय पृथिवी के सुवर्णमय हो जाने अथवा सुवर्णमय वृष्टि होने से हेमगर्भ 724 और सुंदर दर्शन होने से सुदर्शन 725 कहलाते हैं ।।181।। अंतरंग तथा बहिरंग लक्ष्मी से युक्त होने के कारण लक्ष्मीवान् 726, देवों के स्वामी होने से त्रिदशाध्यक्ष 727, अत्यंत दृढ़ होने से द्रढीयान् 728, सबके स्वामी होने से इन 729, सामर्थ्यशाली होने से ईशिता 730, भव्यजीवों का मनहरण करने से मनोहर 731, सुंदर अंगों के धारक होने से मनोज्ञांग 732, धैर्यवान् होने से धीर 733 और शासन की गंभीरता से गंभीरशासन 734 कहलाते हैं ।।182।। धर्म के स्तंभरूप होने से धर्मयुप 735, दयारूप यज्ञ के करने वाले होने से दयायाग 736, धर्मरूपी रथ की चक्रधारा होने से धर्मनेमि 737, मुनियों के स्वामी होने से मुनीश्वर 738, धर्मचक्ररूपी शस्त्र के धारक होने से धर्मचक्रायुध 739, आत्मगुणों में क्रीड़ा करने से देव 740, कर्मों का नाश करने से कर्महा 741, और धर्म का उपदेश देने से धर्मघोषण 742 कहलाते हैं ।।183।। आपके वचन कभी व्यर्थ नहीं जाते इसलिए अमोघवाक् 743, आपकी आज्ञा कभी निष्फल नहीं होती इसलिए अमोघाज्ञ 744, मलरहित हैं इसलिए निर्मल 745, आपका शासन सदा सफल रहता है इसलिए अमोघशासन 746, सुंदर रूप के धारक हैं इसलिए सुरूप 747, उत्तम ऐश्वर्य युक्त हैं इसलिए सुभग 748, आपने पर पदार्थों का त्याग कर दिया है इसलिए त्यागी 749, सिद्धांत, समय अथवा आचार्य के ज्ञाता हैं इसलिए समयज्ञ 750 और समाधानरूप हैं इसलिए समाहित 751 कहलाते हैं ।।184।।
सुखपूर्वक स्थित रहने से सुस्थित 752, आरोग्य अथवा आत्मस्वरूप की निश्चलता को प्राप्त होने से स्वास्थ्यभाक् 753, आत्मस्वरूप में स्थित होने से स्वस्थ 754, कर्मरूप रज से रहित होने के कारण नीरजस्क 755, सांसारिक उत्सवों से रहित होने के कारण निरुद्धव 756, कर्मरूपी लेप से रहित होने के कारण अलेप 757, कलंकरहित आत्मा से युक्त होने के कारण निष्कलंकात्मा 758, राग आदि दोषों से रहित होने के कारण वीतराग 759 और सांसारिक विषयों की इच्छा से रहित होने के कारण गतस्पृह 760 कहलाते हैं ।।185।। आपने इंद्रियों को वश कर लिया है इसलिए वश्येंद्रिय 761 कहलाते हैं, आपकी आत्मा कर्मबंधन से छूट गयी है इसलिए विमुक्तात्मा 762 कहे जाते हैं, आपका कोई भी शत्रु या प्रतिद्वंद्वी नहीं है इसलिए नि:सपत्न 763 कहलाते हैं, इंद्रियों को जीत लेने से जितेंद्रिय 764 कहे जाते हैं, अत्यंत शांत होने से प्रशांत 765 हैं, अनंत तेज के धारक ऋषि होने से अनंतधामर्षि 766 हैं, मंगलरूप होने से मंगल 767 हैं, मल को नष्ट करने वाले हैं इसलिए मलहा 768 कहलाते हैं और व्यसन अथवा दुःख से रहित हैं इसलिए अनघ 769 कहे जाते हैं ।।186।। आपके समान अन्य कोई नहीं है इसलिए आप अनीदृक् 770 कहलाते हैं, सबके लिए उपमा देने योग्य हैं इसलिए उपमाभूत 771 कहे जाते हैं, सब जीवों के भाग्यस्वरूप होने के कारण दिष्टि 772 और दैव 773 कहलाते हैं, इंद्रियों के द्वारा जाने नहीं जा सकते अथवा केवलज्ञान होने के बाद ही आप गो अर्थात् पृथ्वी पर विहार नहीं करते किंतु आकाश में गमन करते हैं इसलिए अगोचर 774 कहे जाते हैं, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित होने के कारण अमूर्त 775 हैं, शरीरसहित हैं इसलिए मूर्तिमान 776 कहलाते हैं, अद्वितीय हैं इसलिए एक 777 कहे जाते हैं, अनेक गुणों से सहित हैं इसलिए नैक 778 कहलाते हैं और आत्मा को छोड़कर आप अन्य अनेक पदार्थों को नहीं देखते―उनमें तल्लीन नहीं होते इसलिए नानैकतत्त्वदृक् 779 कहे जाते हैं ।।187।। अध्यात्मशास्त्रों के द्वारा जानने योग्य होने से अध्यात्मगम्य 780, मिथ्यादृष्टि जीवों के जानने योग्य न होने से अगम्यात्मा 781, योग के जानकार होने से योगविद् 782, योगियों के द्वारा वंदना किये जाने से योगिवंदित 783, केवलज्ञान की अपेक्षा सब जगह व्याप्त होने से सर्वत्रग 784, सदा विद्यमान रहने से सदाभावी 785 और त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को देखने से त्रिकालविषयार्थदृक् 786 कहलाते हैं ।।188।। सबको सुख के करने वाले होने से शंकर 787, सुख के बतलाने वाले होने से शंवद 788, मन को वश करने से दांत 789, इंद्रियों का दमन करने से दमी 790, क्षमा धारण करने में तत्पर होने से क्षांतिपरायण 791, सबके स्वामी होने से अधिप 792, उत्कृष्ट आनंदरूप होने से परमानंद 793, उत्कृष्ट अथवा पर और निज की आत्मा को जानने से परात्मज्ञ 794 और श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होने के कारण परात्पर 795 कहलाते हैं ।।189।। तीनों लोकों के प्रिय अथवा स्वामी होने से त्रिजगद्वल्लभ 796, पूजनीय होने से अभ्यर्च्य 797, तीनों लोकों में मंगलदाता होने से त्रिजगन्मंगलोदय 798, तीनों लोकों के इंद्रों-द्वारा पूजनीय चरणों से युक्त होने के कारण त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्रि 799 और कुछ समय के बाद तीनों लोकों के अग्रभाग पर चूड़ामणि के समान विराजमान होने के कारण त्रिलोकाग्रशिखामणि 800 कहलाते हैं ।।190।।
तीनों कालसंबंधी समस्त पदार्थों को देखने वाले हैं इसलिए त्रिकालदर्शी 801, लोकों के स्वामी होने से लोकेश 802, समस्त लोगों के पोषक या रक्षक होने से लोकधाता 803, व्रतों को स्थिर रखने से दृढ़व्रत 804, सब लोकों से श्रेष्ठ होने के कारण सर्वलोकातिग 805, पूजा के योग्य होने से पूज्य 806 और सब लोगों को मुख्यरूप से अभीष्ट स्थान तक पहुंचाने में समर्थ होने से सर्वलोकैकसारथि 807 कहलाते हैं ।।191।। सबसे प्राचीन होने से पुराण 808, आत्मा के श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त होने से पुरुष 809, सर्व प्रथम होने से पूर्व 810, अंग और पूर्वों का विस्तार करने से कृतपूर्वांगविस्तर 811, सब देवों में मुख्य होने से आदिदेव 812, पुराणों में प्रथम होने से पुराणाद्य 813, महान अथवा प्रथम तीर्थंकर होने से पुरुदेव 814 और देवों के भी देव होने से अधिदेवता 815 कहलाते हैं ।।192।। इस अवसर्पिणी युग के मुख्य पुरुष होने से युगमुख्य 816, इसी युग में सबसे बड़े होने से युगज्येष्ठ 817, कर्मभूमिरूप युग के प्रारंभ में तत्कालोचित मर्यादा के उपदेशक होने से युगादिस्थितिदेशक 818, कल्याण अर्थात् सुवर्ण के समान कांति के धारक होने से कल्याणवर्ण 819, कल्याणरूप होने से कल्याण 820, मोक्ष प्राप्त करने में सज्ज अर्थात् तत्पर अथवा निरामय नीरोग होने से कल्य 821, और कल्याणकारी लक्षणों से युक्त होने के कारण कल्याणलक्षण 822 कहलाते हैं ।।193।। आपका स्वभाव कल्याणरूप है इसलिए आप कल्याणप्रकृति 823 कहलाते हैं, आपकी आत्मा दैदीप्यमान सुवर्ण समान निर्मल है इसलिए आप दीप्रकल्याणात्मा 824 कहे जाते हैं, कर्मकालिमा से रहित हैं इसलिए विकल्मष 825 कहलाते हैं, कलंकरहित हैं इसलिए विकलंक 826 कहे जाते हैं, शरीररहित हैं इसलिए कलातीत 827 कहलाते हैं, पापों को नष्ट करने वाले हैं इसलिए कलिलघ्न 828 कहे जाते हैं, और अनेक कलाओं को धारण करने वाले हैं इसलिए कलाधर 829 माने जाते हैं ।।194।। देवों के देव होने से देवदेव 830, जगत् के स्वामी होने से जगन्नाथ 831, जगत् के भाई होने से जगद्बंधु 832, जगत् के स्वामी होने से जगद्विभु 833, जगत् का हित चाहने वाले होने से जगद्धितैषी 834, लोक को जानने से लोकज्ञ 835, सब जगह व्याप्त होने से सर्वग 836 और जगत् में सबमें ज्येष्ठ होने के कारण जगदग्रज 837 कहलाते हैं ।।195।। चर, स्थावर सभी के गुरु होने से चराचरगुरु 838, बड़ी सावधानी के साथ हृदय में सुरक्षित रखने से गोप्य 839, गूढ़ स्वरूप के धारक होने से गूढ़ात्मा 840, अत्यंत गूढ़ विषयों को जानने से गूढ़गोचर 841, तत्काल में उत्पन्न हुए के समान निर्विकार होने से सद्योजात 842, प्रकाशस्वरूप होने से प्रकाशात्मा 843 और जलती हुई अग्नि के समान शरीर की प्रभा के धारक होने से ज्वलज्ज्वलनसप्रभ 844 कहलाते हैं ।।196।। सूर्य के समान तेजस्वी होने से आदित्यवर्ण 845, सुवर्ण के समान कांति वाले होने से भर्माभ 846, उत्तमप्रभा से युक्त होने के कारण सुप्रभ 847, सुवर्ण के समान आभा होने से कनकप्रभ 848, सुवर्णवर्ण 849 और रुक्माभ 850 तथा करोड़ों सूर्यों के समान दैदीप्यमान प्रभा के धारक होने से सूर्यकोटिसमप्रभ 851 कहे जाते हैं ।।197।। सुवर्ण के समान भास्वर होने से तपनीयनिभ 852, ऊँचा शरीर होने से तुंग 853, प्रातःकाल के बालसूर्य के समान प्रभा के धारक होने से बालार्काभ 854, अग्नि के समान कांति वाले होने से अनलप्रभ 855, संध्याकाल के बादलों के समान सुंदर होने से संध्याभ्रवभ्रु 816, सुवर्ण के समान आभा वाले होने से हेमाभ 857 और तपाये हुए सुवर्ण के समान प्रभा से युक्त होने के कारण तप्तचामीकरप्रभ 858 कहलाते हैं ।।198।। अत्यंत तपाये हुए सुवर्ण के समान कांति वाले होने से निष्टप्तकनकच्छाय 859, दैदीप्यमान सुवर्ण के समान उज्ज्वल होने से कनत्कांचनसन्निभ 860 तथा सुवर्ण के समान वर्ण होने से हिरण्यवर्ण 861, स्वर्णाभ 862, शातकुंभनिभप्रभ 863, द्युम्नाभ 864, जातरूपाभ 865, तप्तजांबुनदद्युति 866, सुधौतकलधौतश्री 867 और हाटकद्युति 868 तथा दैदीप्यमान होने से प्रदीप्त 866 कहलाते हैं ।।199-200।। शिष्ट अर्थात् उत्तम पुरुषों के इष्ट होने से शिष्टेष्ट 870, पुष्टि को देने वाले होने से पुष्टिद 871, बलवान् होने से अथवा लाभांतराय कर्म के क्षय से प्रत्येक समय प्राप्त होने वाले अनंत शुभ पुद्गलवर्गणाओं से परमौदारिक शरीर के पुष्ट होने से पुष्ट 872, प्रकट दिखाई देने से स्पष्ट 873, स्पष्ट अक्षर होने से स्पष्टाक्षर 874, समर्थ होने से क्षम 875, कर्मरूप शत्रुओं को नाश करने से शत्रुघ्न 876, शत्रुरहित होने से अप्रतिघ 877, सफल होने से अमोघ 878, उत्तम उपदेशक होने से प्रशास्ता 879, रक्षक होने से शासिता 880 और अपने आप उत्पन्न होने से स्वभू 881 कहलाते हैं ।।201।। शांत होने से शांतिनिष्ठ 882, मुनियों में श्रेष्ठ होने से मुनिज्येष्ठ 883, कल्याण परंपरा के प्राप्त होने से शिवताति 884, कल्याण अथवा मोक्ष प्रदान करने से शिवप्रद 885, शांति को देने वाले होने से शांतिद 886, शांति के कर्ता होने से शांतिकृत् 887, शांतस्वरूप होने से शांति 888, कांतियुक्त होने से कांतिमां 885 और इच्छित पदार्थ प्रदान करने से कामितप्रद 890 कहलाते हैं ।।202।। कल्याण के भंडार होने से श्रेयोनिधि 891, धर्म के आधार होने से अधिष्ठान 892, अन्यकृत प्रतिष्ठा से रहित होने के कारण अप्रतिष्ठ 893, प्रतिष्ठा अर्थात् कीर्ति से युक्त होने के कारण प्रतिष्ठित 894, अतिशय स्थिर होने से सुस्थिर 895, समवसरण में गमनरहित होने से स्थावर 896, अचल होने से स्थाणु 897, अत्यंत विस्तृत होने से प्रथीयार 898, प्रसिद्ध होने से प्रथित 899 और ज्ञानादि गुणों की अपेक्षा महान होने से पृथु 900 कहलाते हैं ।।203।।
दिशारूप वस्त्रों को धारण करने―दिगंबर रहने से दिग्वासा 901, वायुरूपी करधनी को धारण करने से वातरशन 902, निर्ग्रंथ मुनियों के स्वामी होने से निर्ग्रंथेश 903, वस्त्ररहित होने से निरंबर 904, परिग्रहरहित होने से निष्किंचन 905, इच्छारहित होने से निराशंस 906, ज्ञानरूपी नेत्र के धारक होने से ज्ञानचक्षु 907 और मोह से रहित होने के कारण अमोमुह 908 कहलाते हैं ।।204।। तेज के समूह होने से तेजोराशि 909, अनंत प्रताप के धारक होने से अनंतौज 910, ज्ञान के समुद्र होने से ज्ञानाब्धि 911, शील के समुद्र होने से शीलसागर 912, तेज:स्वरूप होने से तेजोमय 913, अपरिमित ज्योति के धारक होने से अमितज्योति 914, भास्वर शरीर होने से ज्योतिर्मूर्ति 915 और अज्ञानरूप अंधकार को नष्ट करने वाले होने से तमोऽपह 916 कहलाते हैं । ।।205।। तीनो लोकों में मस्तक के रत्न के समान अतिशय श्रेष्ठ होने से जगच्चूड़ामणि 917, दैदीप्यमान होने से दीप्त 918, सुखी अथवा शांत होने से शंवान् 919, विघ्नों के नाशक होने से विघ्नविनायक 920, कलह अथवा पापों को नष्ट करने से कलिघ्न 921, कर्मरूप शत्रुओं के घातक होने से कर्मशत्रुघ्न 922 और लोक तथा अलोक को प्रकाशित करने से लोकालोकप्रकाशक 923 कहलाते हैं ।।206।। निद्रा रहित होने से अनिंद्रालु 924, तंद्रा―आलस्य रहित होने से अतंद्रालु 125, सदा जागृत रहने से जागरूक 926, ज्ञानमय रहने से प्रभामय 927, अनंत चतुष्टयरूप लक्ष्मी के स्वामी होने से लक्ष्मीपति 928, जगत् को प्रकाशित करने से जगज्ज्योति 929, अहिंसा धर्म के राजा होने से धर्मराज 930 और प्रजा के हितैषी होने से प्रजाहित 931 कहलाते हैं ।।207।। मोक्ष के इच्छुक होने से मुमुक्षु 932, बंध और मोक्ष का स्वरूप जानने से बंधमोक्षज्ञ 933, इंद्रियों को जीतने से जिताक्ष 934, काम को जीतने से जितमन्मथ 935, अत्यंत शांतरूपी रस को प्रदर्शित करने के लिए नट के समान होने से प्रशांतरसशैलूष 936 और भव्यसमूह के स्वामी होने से भव्यपेटकनायक 937 कहलाते हैं ।।208।। धर्म के आद्यवक्ता होने से मूलकर्ता 938, समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने से अखिलज्योति 939, कर्ममल को नष्ट करने से मलघ्न 940, मोक्षमार्ग के मुख्य कारण होने से मूलकारण 941, यथार्थवक्ता होने से आप्त 942, वचनों के स्वामी होने से वागीश्वर 943, कल्याणस्वरूप होने से श्रेयान् 944, कल्याणरूप वाणी के होने से श्रायसोक्ति 945, और सार्थकवचन होने से निरुक्तवाक् 946 कहलाते हैं ।।209।। श्रेष्ठ वक्ता होने से प्रवक्ता 947, वचनों के स्वामी होने से वचसामीश 948, कामदेव को जीतने के कारण मारजित् 949, संसार के समस्त पदार्थों को जानने से विश्वभाववित् 950, उत्तम शरीर से युक्त होने के कारण सुतनु 951, शीघ्र ही शरीर बंधन से रहित हो मोक्ष की प्राप्ति होने से तनुनिर्मुक्त 952, प्रशस्त विहायोगति नामकर्म के उदय से आकाश में उत्तम गमन करने, आत्मस्वरूप में तल्लीन होने अथवा उत्तमज्ञानमय होने से सुगत 953 और मिथ्यानयों को नष्ट करने से हतदुर्नय 954 कहलाते हैं ।।210।। लक्ष्मी के ईश्वर होने से श्रीश 955 कहलाते हैं, लक्ष्मी आपके चरणकमलों की सेवा करती है इसलिए श्रीश्रितपादाब्ज 956 कहे जाते हैं, भयरहित हैं इसलिए वीतभी 957 कहलाते हैं, दूसरों का भय नष्ट करने वाले हैं इसलिए अभयंकर 958 माने जाते हैं, समस्त दोषों को नष्ट कर दिया है इसलिए उत्सन्नदोष 959 कहलाते हैं, विघ्न रहित होने से निर्विघ्न 960, स्थिर होने से निश्चल 961 और लोगों के स्नेहपात्र होने से लोक-वत्सल 962 कहलाते हैं ।।211।। समस्त लोगों में उत्कृष्ट होने से लोकोत्तर 963, तीनों लोकों के स्वामी होने से लोकपति 964, समस्त पुरुषों के नेत्रस्वरूप होने से लोकचक्षु 965, अपरिमित बुद्धि के धारक होने से अपारधी 966, सदा स्थिर बुद्धि के धारक होने से धीरधी 967, समीचीन मार्ग को जान लेने से बुद्धसन्मार्ग 968, कर्ममल से रहित होने के कारण शुद्ध 969 और सत्य तथा पवित्र वचन बोलने से सत्यसूनृतवाक् 970 कहलाते हैं ।।212।। बुद्धि की पराकाष्ठा को प्राप्त होने से प्रज्ञापारमित 971, अतिशय बुद्धिमान् होने से प्राज्ञ 972, विषय कषायों से उपरत होने के कारण यति 973, इंद्रियों को वश करने से नियमितेंद्रिय 974, पूज्य होने से भदंत 975, सब जीवों का भला करने से भद्रकृत् 976, कल्याणरूप होने से भद्र 977, मनचाही वस्तुओं के दाता होने से कल्पवृक्ष 978 और इच्छित वर प्रदान करने से वरप्रद 979 कहलाते हैं ।।213।। कर्मरूप शत्रुओं को उखाड़ देने से समुन्मूलितकर्मारि 980, कर्मरूप ईंधन को जलाने के लिए अग्नि के समान होने से कर्मकाष्ठाशुशुक्षणि 981, कार्य करने में निपुण होने से कर्मण्य 982, समर्थ होने से कर्मठ 983, उत्कृष्ट अथवा उन्नत होने से प्रांशु 984 और छोड़ने तथा ग्रहण करने योग्य पदार्थों के जानने में विद्वान् होने से हेयादेयविचक्षण 985 कहलाते हैं ।।214।। अनंतशक्तियों के धारक होने से अनंतशक्ति 986, किसी के द्वारा छिन्न-भिन्न करने योग्य न होने से अच्छेद्य 987, जन्म, जरा और मरण इन तीनों का नाश करने से त्रिपुरारि 988, त्रिकालवर्ती पदार्थों के जानने से त्रिलोचन 989, त्रिनेत्र 990, त्र्यंबक 991 और त्र्यक्ष 992 तथा केवलज्ञानरूप नेत्र से सहित होने के कारण केवलज्ञानवीक्षण 993 कहलाते हैं ।।215।। सब ओर से मंगलरूप होने के कारण समंतभद्र 994, कर्मरूप शत्रुओं के शांत हो जाने से शांतारि 995, धर्म के व्यवस्थापक होने से धर्माचार्य 996, दया के भंडार होने से दयानिधि 997, सूक्ष्म पदार्थों को भी देखने से सूक्ष्मदर्शी 998, कामदेव को जीत लेने से जितानंग 999, कृपायुक्त होने से कृपालु 1000 और धर्म के उपदेशक होने से धर्मदेशक 1001 कहलाते हैं ।।216।। शुभयुक्त होने से शुभंयु 1002, सुख के अधीन होने से सुखसाद्भूत 1003, पुण्य के समूह होने से पुण्यराशि 1004, रोगरहित होने से अनामय 1005, धर्म की रक्षा करने से धर्मपाल 1006, जगत् की रक्षा करने से जगत्पाल 1007 और धर्मरूपी साम्राज्य के स्वामी होने से धर्मसाम्राज्यनायक 1008 कहलाते हैं ।।217।।
हे तेज के अधिपति जिनेंद्रदेव, आगम के ज्ञाता विद्वानों ने आपके ये एक हजार आठ नाम संचित किये हैं, जो पुरुष आपके इन नामों का ध्यान करता है उसकी स्मरणशक्ति अत्यंत पवित्र हो जाती है ।।218।। हे प्रभो, यद्यपि आप इन नामसूचक वचनों के गोचर हैं तथापि वचनों के अगोचर ही माने गये हैं, यह सब कुछ है परंतु स्तुति करने वाला आप से निःसंदेह अभीष्ट फल को पा लेता है ।।219।। इसलिए हे भगवन आप ही इस जगत् के बंधु हैं, आप ही जगत् के वैद्य हैं, आप ही जगत् का पोषण करने वाले हैं और आप ही जगत् का हित करने वाले हैं ।।220।। हे नाथ, जगत् को प्रकाशित करने वाले आप एक ही हैं । ज्ञान तथा दर्शन इस प्रकार द्विविध उपयोग के धारक होने से दो रूप हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इस प्रकार त्रिविध मोक्षमार्गमय होने से तीन रूप हैं, अपने आपमें उत्पन्न हुए अनंतचतुष्टयरूप होने से चार रूप है ।।221।। पंचपरमेष्ठी स्वरूप होने अथवा गर्भादि पंच कल्याणकों के नायक होने से पांच रूप हैं, जीव-पुद्गल, धर्म-अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों के ज्ञाता होने से छह रूप हैं, नैगम आदि सात नयों के संग्रहस्वरूप होने से सात रूप है, सम्यक्त्व आदि आठ अलौकिक गुणरूप होने से आठ रूप हैं, नौ केवललब्धियों से सहित होने के कारण नव रूप हैं और महाबल आदि दस अवतारों से आपका निर्धार होता है इसलिए दस रूप हैं इस प्रकार हे परमेश्वर, संसार के दु:खों से मेरी रक्षा कीजिए ।।222-223।। हे भगवन्, हम लोग आपकी नामावलि से बने हुए स्तोत्रों की माला से आपकी पूजा करते हैं, आप प्रसन्न होइए, और हम सबको अनुगृहीत कीजिए ।।224।। भक्त लोग इस स्तोत्र का स्मरण करने मात्र से ही पवित्र हो जाते हैं और जो इस पुण्य पाठ का पाठ करते हैं वे कल्याण के पात्र होते हैं ।।225।। इसलिए जो बुद्धिमान पुरुष पुण्य की इच्छा रखते हैं अथवा इंद्र की परम विभूति प्राप्त करना चाहते हैं वे सदा ही इस स्तोत्र का पाठ करें ।।226।। इस प्रकार इंद्र ने चर और अचर जगत् के गुरु भगवान वृषभदेव की स्तुति कर फिर तीर्थ विहार के लिए नीचे लिखी हुई प्रार्थना की ।।227।। हे भगवन् ! भव्य जीवरूपी धान्य पापरूपी अनावृष्टि से सूख रहे हैं सो हे विभो, उन्हें धर्मरूपी अमृत से सींचकर उनके लिए आप ही शरण होइए ।।228।। हे भव्य जीवों के समूह के स्वामी, हे फहराती हुई दयारूपी ध्वजा से सुशोभित जिनेंद्रदेव, आपकी विजय के उद्योग को सिद्ध करने वाला यह धर्मचक्र तैयार है ।।229।। हे भगवन् ! मोक्षमार्ग को रोकने वाली मोह की सेना को नष्ट कर चुकने के बाद अब आपका यह समीचीन मोक्षमार्ग के उपदेश देने का समय प्राप्त हुआ है ।।230।। इस प्रकार जिन्होंने समस्त तत्त्वों का स्वरूप जान लिया है और जो स्वयं ही विहार करना चाहते हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव के सामने इंद्र के वचन पुनरुक्त हुए से प्रकट हुए थे । भावार्थ―उस समय भगवान् स्वयं ही विहार करने के लिए तत्पर थे इसलिए इंद्र-द्वारा की हुई प्रार्थना व्यर्थ-सी मालूम होती थी ।।231।।
अथानंतर―जो तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाले हैं और तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति ही जिनका सारथि―सहायक है ऐसे जिनेंद्रदेवरूपी सूर्य भव्य जीवरूपी कमलों का अनुग्रह करने के लिए तैयार हुए ।।232।। जो मोक्षरूपी महल पर चढ़ने के लिए सीढ़ियों के समान छत्रत्रय से सुशोभित हो रहे हैं, जिन पर क्षीरसमुद्र के फेन के समान सुशोभित चमर ढोले जा रहे हैं, मधुर, गंभीर, धीर तथा दिव्य महाध्वनि से जिनका शरीर शब्दायमान हो रहा है, जो करोड़ सूर्यों से स्पर्धा करने वाले भामंडल से दैदीप्यमान हो रहे हैं, जिनके समीप ही देवताओं के द्वारा बजाये हुए दुंदुभि गंभीर शब्द कर रहे हैं, जो स्वामी हैं, देवसमूह के हाथों से छोड़ी हुई पुष्पवर्षा से जिनके चरण-कमलों की पूजा हो रही है, जो मेरु पर्वत के शिखर के समान अतिशय ऊँचे सिंहासन के स्वामी हैं, छाया और फलसहित अशोकवृक्ष से जिनकी शांत चेष्टाएँ प्रकट हो रही हैं, जिनके समवसरण की पृथ्वी का घेरा धूलीसाल नामक कोट से घिरा हुआ है, जिन्होंने मानस्तंभों के द्वारा अन्य मिथ्यादृष्टियों के अहंकार तथा संदेह को नष्ट कर दिया है, जो स्वच्छ जल से भरी हुई परिखा के समीपवर्ती लतावनों से घिरी हुई और अपूर्व वैभव से संपन्न सभाभूमि को अलंकृत कर रहे हैं, समस्त गोपुरद्वारों से उन्नत और उत्कृष्ट रचना से सहित तीन कोटों से जिनका बड़ा भारी माहात्म्य प्रकट हो रहा है, जिनकी सभाभूमि में अशोकादि वनसमूह से सघन छाया हो रही है, जो माला वस्त्र आदि से चिह्नित ध्वजाओं की फड़कन से जगत् के समस्त जीवों को बुलाते हुए से जान पड़ते हैं, कल्पवृक्षों के वन की छाया में विश्राम करने वाले देव लोग सदा जिनकी पूजा किया करते हैं, बड़े-बड़े महलों से घिरी हुई भूमि में स्थित किन्नरदेव जोर-जोर से जिनका यश गा रहे हैं, प्रकाशमान और बड़ी भारी विभूति को धारण करने वाले स्तूपों से जिनका वैभव प्रकट हो रहा है, दोनों नाट्यशालाओं की बढ़ी हुई ऋद्धियों से जो मनुष्यों का उत्सव बढ़ा रहे हैं, जो धूप की सुगंधि से दशों दिशाओं को सुगंधित करने वाली बड़ी भारी गंधकुटी के स्वामी है, जो इंद्रों के द्वारा की हुई बड़ी भारी पूजा के योग्य हैं, तीनों जगत् के स्वामी हैं और अर्थ के अधिपति हैं, ऐसे श्रीमान् आदिपुरुष भगवान् वृषभदेव ने विजय करने का उद्योग किया―विहार करना प्रारंभ किया ।।233-244।। तदनंतर भगवान् के विहार का समय आने पर जिनके मुकुटों के अग्रभाग हिल रहे हैं ऐसे करोड़ों देव लोग इधर-उधर चलने लगे ।।245।। भगवान् के उस दिग्विजय के समय घबराये हुए इंद्रों के मुकुटों से विचलित हुए मणि ऐसे जान पड़ते थे मानो जगत् की आरती ही कर रहे हों ।।246।। उस समय जय-जय इस प्रकार जोर-जोर से शब्द करते हुए, आकाशरूपी आंगन को व्याप्त करते हुए और अपने तेज से दिशाओं के मुख को प्रकाशित करते हुए देव लोग चल रहे थे ।।247।। उस समय इंद्रोंसहित चारों निकाय के देव जिनेंद्र भगवान् के विहाररूपी महावायु से क्षोभ को प्राप्त हुए चार महासागर के समान जान पड़ते थे ।।248।। इस प्रकार सुर और असुरों से सहित भगवान् ने सूर्य के समान इच्छा रहित वृत्ति को धारण कर प्रस्थान किया ।।249।। जिन्होंने अर्धमागधी भाषा में जगत् के समस्त जीवों को कल्याण का उपदेश दिया था, जो तीनों जगत् के लोगों में मित्रता कराने रूप गुणों से सबको आश्चर्य में डालते हैं, जिन्होंने अपनी समीपता से वृक्षों को फूल फल और अंकुरों से व्याप्त कर दिया है, जिन्होंने पृथिवीमंडल को दर्पण के आकार में परिवर्तित कर दिया है, जिनके साथ सुगंधित शीतल तथा मंद-मंद वायु चल रही है, जो अपने उत्कृष्ट वैभव से अकस्मात् ही जन-समुदाय को आनंद पहुँचा रहे हैं, जिनके (विहार काल में) ठहरने के स्थान से एक योजन तक की भूमि को पवनकुमार जाति के देव झाड़-बुहारकर अत्यंत सुंदर रखते हैं, जिनके विहारयोग्य भूमि को मेघकुमार जाति के देव सुगंधित जल की वर्षा कर धूलिरहित कर देते हैं, जो कोमल स्पर्श से सुख देने के लिए कमलों पर अपने चरण-कमल रखते हैं, शालि व्रीहि आदि से संपन्न अवस्था को प्राप्त हुई पृथ्वी जिनके आगमन की सूचना देती है, शरद्ऋतु के सरोवर के साथ स्पर्धा करने वाला आकाश जिनके समीप आने की सूचना दे रहा है, दिशाओं के अंतराल की निर्मलता से जिनके समागम की सूचना प्राप्त हो रही है, देवों के परस्पर एक दूसरे को बुलाने के लिए प्रयुक्त हुए शब्दों से जिन्होंने दिशाओं के मुख व्याप्त कर दिये हैं, जिनके आगे हजार अरवाला दैदीप्यमान धर्मचक्र चल रहा है, जिनके आगे-आगे चलते हुए अष्ट मंगलद्रव्य तथा आगे-आगे फहराती हुई ध्वजाओं के समूह से आकाश व्याप्त हो रहा है और जिनके पीछे अनेक सुर तथा असुर चल रहे हैं, ऐसे विहार करने के इच्छुक भगवान् उस समय बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे ।।250-257।। उस समय क्षुब्ध होते हुए समुद्र की गर्जना के समान आकाश को चारों ओर से व्याप्त कर दुंदुभि बाजों का मधुर तथा गंभीर शब्द हो रहा था ।।258।। देव लोग भव्य जीवरूपी भ्रमरों को आनंद करने वाली तथा आकाशरूपी आँगन को पूर्ण भरती हुई पुष्पों की वर्षा कर रहे थे ।।259।। जिनके वस्त्र वायु से हिल रहे हैं ऐसी करोड़ों ध्वजाएं चारों ओर फहरा रही थीं और वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो इधर आओ इधर आओ इस प्रकार भव्य जीवों के समूह को बुला ही रही हों ।।260।। भगवान के विहारकाल में पद-पद पर समस्त दिशाओं को व्याप्त करने वाला और ऊँचा जो भेरियों का शब्द हो रहा था वह ऐसा जान पड़ता था मानो कर्मरूपी शत्रुओं की तर्जना ही कर रहा हो―उन्हें धौंस ही दिखला रहा हो ।।261।। जिनकी भौंहरूपी पताकाएं उड़ रही हैं ऐसी देवांगनाएं अपने शरीर की प्रभा से दिशाओं को लुप्त करती हुई आकाशरूपी रंगभूमि में नृत्य कर रही थी ।।262।। देव लोग बड़े उत्साह के साथ पुण्य-पाठ पढ़ रहे थे, किन्नरजाति के देव मनोहर आवाज से गा रहे थे और गंधर्व विद्याधरों के साथ मिलकर वीणा बजा रहे थे ।।263।। जिनके मुकुटों के अग्रभाग दैदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे इंद्र समस्त जगत् को प्रभामय करने के लिए तत्पर हुए के समान भगवान के इधर-उधर चल रहे थे ।।264।। उस समय समस्त दिशाएँ मानो आनंद से ही धूमरहित हो निर्मल हो गयी थीं और मेघरहित आकाश अतिशय निर्मलता को धारण कर सुशोभित हो रहा था ।।265।। भगवान् के विहार के समय पके हुए शालि आदि धान्यों से सुशोभित पृथ्वी ऐसी जान पड़ती थी मानो स्वामी का लाभ होने में उसे हर्ष के रोमांच ही उठ आये हों ।।266।। जो आकाशगंगा के जलकणों का स्पर्श कर रही थी और जो कमलों के पराग-रज से मिली हुई होने से सुगंधित वस्त्रों से ढकी हुई-सी जान पढ़ती थी ऐसी सुगंधित वायु बह रही थी ।।267।। उस समय पृथ्वी भी दर्पणतल के समान उज्ज्वल तथा समतल हो गयी थी, देवों ने उस पर सुगंधित जल की वर्षा की थी जिससे वह धूलिरहित होकर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो रजोधर्म से रहित तथा स्नान की हुई पतिव्रता स्त्री ही हो ।।268।। वृक्ष भी असमय में फूलों के उद्भेद को दिखला रहे थे अर्थात् वृक्ष पर बिना समय के ही पुष्प आ गये थे और उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो सब ऋतुओं ने भय से एक साथ आकर ही उनका आलिंगन किया हो ।।269।। भगवान के माहात्म्य से चार सौ कोश पृथ्वी तक सुभिक्ष था, सब प्रकार का कल्याण था, आरोग्य था और पृथ्वी प्राणियों की हिंसा से रहित हो गयी थी ।।270।। समस्त प्राणी अचानक आनंद की परंपरा को प्राप्त हो रहे थे और भाईपने को प्राप्त हुए के समान परस्पर की मित्रता बढ़ा रहे थे ।।271।। जो मकरंद और पराग की वर्षा कर रहा है, जिसमें नवीन केशर उत्पन्न हुई है, जिसकी कर्णिका अनेक प्रकार के रत्नों से बनी हुई हैं, जिसके दल अत्यंत सुशोभित हो रहे हैं, जिसका स्पर्श कोमल है और जो उत्कृष्ट शोभा से सहित है ऐसा सुवर्णमय कमलों का समूह आकाशतल में भगवान के चरण रखने की जगह में सुशोभित हो रहा था ।।272-273।। जिनकी केसर के रेणु उत्कृष्ट सुगंधि से सांद्र हैं वे प्रफुल्लित कमल सात तो भगवान् के आगे प्रकट हुए थे और सात पीछे ।।274।। इसी प्रकार और कमल भी उन कमलों के समीप में सुशोभित हो रहे थे, और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो आकाशरूपी आँगन में चलते हुए लक्ष्मी के रहने के भवन ही हों ।।275।। भ्रमरों की पंक्तियों से सहित इन सुवर्णमय कमलों की पंक्ति को देव लोग इंद्र की आज्ञा से बना रहे थे ।।276।। जिनेंद्र भगवान् के चरणकमलों के सम्मुख हुई वह कमलों की पंक्ति ऐसी जान पड़ती थी मानो अधिकता के कारण नीचे की ओर बहती हुई उनके चरणकमलों की कांति ही प्राप्त करना चाहते हों ।।277।। आकाशरूपी सरोवर में जिनेंद्रभगवां के चरणों के समीप प्रफुल्लित हुई वह विहार कमलों की पंक्ति पंद्रह के वर्ग प्रमाण अर्थात् 225 कमलों की थी ।।278।। उस समय, भगवान् के दिग्विजय के काल में सुवर्णमय कमलों से चारों ओर से व्याप्त हुआ आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो जिसमें कमल फूल रहे हैं ऐसा सरोवर ही हो ।।279।। इस प्रकार समस्त जगत् के स्वामी भगवान् वृषभदेव ने जगत् को आनंदमय करते हुए तथा अपने वचनरूपी अमृत से सबको संतुष्ट करते हुए समस्त पृथिवी पर विहार किया था ।।280।। जनसमूह की पीड़ा हरने वाले जिनेंद्ररूपी सूर्य ने वचनरूपी किरणों के द्वारा मिथ्यात्वरूपी अंधकार के समूह को नष्ट कर समस्त जगत् प्रकाशित किया था ।।281।। सुवर्णमय कमलों पर पैर रखने वाले भगवान् ने जहाँ-जहाँ से विहार किया वहीं-वहीं के भव्यों ने धर्मामृतरूप जल की वर्षा से परम संतोष धारण किया था ।।282।। जिस समय वे जिनेंद्ररूपी मेघ समीप में धर्मरूपी अमृत की वर्षा करते थे उस समय यह सारा संसार संतोष धारण कर सुख के प्रवाह से प्लुत हो जाता था―सुख के प्रवाह में डूब जाता था ।।283।। उस समय अत्यंत लालायित हुए भव्य जीवरूपी चातक जिनेंद्ररूपी मेघ से धर्मरूपी जल को बार-बार पी कर चिरकाल के लिए संतुष्ट हो गये थे ।।284।। इस प्रकार जो चर और अचर जीवों के स्वामी हैं, जो संसाररूपी गर्त में डूबे हुए जीवों का उद्धार करना चाहते हैं, जिनकी वृत्ति अखंडित है, देव और असुर जिनके साथ हैं तथा जो सुवर्णमय कमलों के मध्य में चरणकमल रखते हैं ऐसे जिनेंद्र भगवान ने समस्त पृथ्वी में विहार किया ।।285।। उस समय संसाररूपी तीव्र दावानल से जलते हुए संसाररूपी वन को धर्मामृतरूप जल के छीटों से सींचकर जिन्होंने सबका संताप दूर कर दिया है और जिनके दिव्यध्वनि प्रकट हो रही है ऐसे वे भगवान् वृषभदेव ठीक वर्षाऋतु के समान सुशोभित हो रहे थे ।।286।। समीचीन मार्ग के उपदेश देने में तत्पर तथा धीर-वीर भगवान् ने काशी, अवंति, कुरु, कोशल, सुह्म, पुंड, चेदि, अंग, वंग, मगध, आंध्र, कलिंग, मद्र, पंचाल, मालव, दशार्ण और विदर्भ आदि देशों में विहार किया था ।।287।। इस प्रकार जिनका चरित्र अत्यंत शांत है, जिन्होंने अनेक भव्य जीवों को तत्त्वज्ञान प्राप्त कराया है और जो तीनों लोकों के गुरु हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव अनेक देशों में विहार कर चंद्रमा के समान उज्ज्वल, ऊँचे और अपना अनुकरण करने वाले कैलास पर्वत को प्राप्त हुए ।।288।। वहाँ उसके अग्रभाग पर देवों के द्वारा बनाये हुए, सुंदर, पूर्वोक्त समस्त वर्णन से सहित और स्वर्ग की शोभा बढ़ाने वाले सभामंडप में विराजमान हुए । उस समय वे जिनेंद्रदेव अनंतचतुष्टयरूप लक्ष्मी से सहित थे, आदर के साथ भक्ति से नम्रीभूत हुए बारह सभा के लोगों से घिरे हुए थे ओर उत्तमोत्तम आठ प्रातिहार्यों से सुशोभित हो रहे थे ।।289।। जिनके चरणकमल इंद्रों के द्वारा पूजित है, घातियाकर्मों का क्षय होने के बाद जिन्हें अनंतचतुष्टयरूपी विभूति प्राप्त हुई है, जो भव्यजीवरूपी कमलिनियों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं, जिनके मानस्तंभों के देखने मात्र से जगत् के अच्छे-अच्छे पुरुष नम्रीभूत हो जाते हैं, जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, जिन्हें अचिंत्य बहिरंग विभूति प्राप्त हुई है, और जो पापरहित हैं ऐसे श्रीस्वामी जिनेंद्रदेव को हम लोग भी भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं ।।290।।
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में भगवान के
विहार का दर्शन करने वाला पचीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।25।।