सासादन
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से == प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में छह आवली शेष रहने पर जीव सम्यक्त्व से गिरकर उतने मात्र काल के लिए जिस गुणस्थान को प्राप्त होता है उसे सासादन कहते हैं, अगले ही क्षण वह अवश्य मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। मिथ्यात्व का उदय न होने से उसे सम्यग्दृष्टि कह देते हैं। मिथ्यात्व का उदय उपशम व क्षय तीनों ही नहीं है, इसलिए इसे पारिणामिक भाव कहा जाता है।
- सासादन सामान्य निर्देश
- सासादन सम्यग्दृष्टि का लक्षण।
- मिथ्यादृष्टि आदि से पृथक् सासादनदृष्टि क्या।
- सासादन को सम्यग्दृष्टि व्यपदेश क्यों।
- सासादन में तीनों ज्ञान अज्ञान क्यों।
- सासादन अनन्तानुबन्धी के उदय से होता है।
- सासादन पारिणामिक भाव कैसे।
- अनन्तानुबन्धी के उदय से औदयिक क्यों नहीं।
- इसे कथंचित् औदयिक भी कहा जा सकता है।
- सासादन गुणस्थान का स्वामित्व।
- एके., विक. व असंज्ञियों में सासादन गुणस्थान की उत्पत्ति अनुत्पत्ति सम्बन्धी चर्चा।-देखें जन्म - 4।
- सासादन के स्वामियों में जीवसमास मार्गणास्थान आदि बीस प्ररूपणाएँ।-देखें सत् ।
- सासादन जीवों सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।-देखें वह वह नाम ।
- मार्गणाओं में सासादन के अस्तित्व सम्बन्धी शंका-समाधान।-देखें वह वह नाम ।
- सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।-देखें मार्गणा ।
- इस गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों का बन्ध उदय सत्त्व।-देखें वह वह नाम ।
- सासादन के आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी
- उपशम सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है।
- प्रथमोपशम के काल में कुछ अवशेष रहने पर होता है।
- उपशम में शेष बचा काल ही सासादन का काल है।
- उक्त काल से हीन या अधिक शेष रहने पर सासादन को प्राप्त नहीं होता।
- सासादन गुणस्थान में मरण सम्बन्धी।-देखें मरण - 3।
- द्वितीयोपशम पूर्वक होने में काल आदि के सर्व नियम पूर्ववत् हैं।-देखें सासादन - 2.5।
- द्वितीयोपशम से दो बार सासादन की प्राप्ति सम्भव नहीं।-देखें अन्तर - 2.4।
सासादन सामान्य निर्देश
1. सासादन सम्यग्दृष्टि का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/9,168 सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो मिच्छभावसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो।9। ण य मिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो हु परिवडिओ। सो सासणो त्ति णेओ सादियपरिणामिओ भावो।168। =1. सम्यक्त्वरूप रत्नपर्वत के शिखर से च्युत, मिथ्यात्वरूप भूमि के सम्मुख और सम्यक्त्व के नाश को प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नाम वाला जानना चाहिए।9। (ध.1/1,1,10/गा.108/166), (गो.जी./मू./20/46)। 2. उपशम सम्यक्त्व से परिपतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है तब तक उसे सासादन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।168। (ध.1/1,1,10/163/5), (गो.जी./मू./654/1102), (द्र.सं./टी./13/33/1)।
रा.वा./9/1/13/589/18 अत एवास्यान्वर्थसंज्ञा-आसादनं विराधनम्, सहासादनेन वर्तत इति सासादना, सासादना सम्यग्दृष्टिर्यस्य सोऽयं सासादनसम्यग्दृष्टिरिति।=अतएव 'सासादन' यह अन्वर्थ संज्ञा है। आसादन का अर्थ विराधना है। आसादन के साथ रहे वह सासादन। आसादन सहित समीचीन दृष्टि जिसके वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। (ध.1/1,1,10/163/5+166/1); (गो.जी./जी.प्र./10/31/4)।
2. मिथ्यादृष्टि आदि से पृथक् सासादन दृष्टि क्या
ध.1/1,1,10/163/7 अथ स्यान्न मिथ्यादृष्टिरयं मिथ्यात्वकर्मण उदयाभावात्, न सम्यग्दृष्टि: सम्यग्रुचेरभावात्, न सम्यग्मिथ्यादृष्टिरुभयविषयरुचेरभावात् । न च चतुर्थी दृष्टिरस्ति सम्यगसम्यगुभयदृष्टयालम्बनवस्तुव्यतिरिक्तवस्त्वनुपलम्भात् । अतोऽसन् एष गुण इति न, विपरीताभिनिवेशतोऽसद्दृष्टित्वात् । तर्हि मिथ्यादृष्टिर्भवत्वयं नास्य सासादनव्यपदेश इति चेन्न, सम्यग्दर्शनचारित्रप्रतिबन्ध्यनन्तानुबन्ध्युदयोत्पादितविपरीताभिनिवेशस्य तत्र सत्त्वाद्भवति मिथ्यादृष्टिरपि तु मिथ्यात्वकर्मोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेश:, किन्तु सासादन इति व्यपदिश्यते। किमिति मिथ्यादृष्टिरिति न व्यपदिश्यते चेन्न, अनन्तानुबन्धिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलत्वात् । न च दर्शनमोहनीयस्योदयादुपशमात्क्षयोपशमाद्वा सासादनपरिणाम: प्राणिनामुपजायते येन मिथ्यादृष्टि: सम्यग्दृष्टि: सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति चोच्यते। यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽभूदनन्तानुबन्धिनो, न तद्दर्शनीयं तस्य चारित्रावरणत्वात् ।=प्रश्न-सासादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्व का उदय न होने से मिथ्यादृष्टि नहीं है, समीचीन रुचि का अभाव होने से सम्यग्दृष्टि भी नहीं है। दोनों को विषय करने वाली सम्यग्मिथ्यात्वरूप रुचि का अभाव होने से सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं है। इनके अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि है नहीं, क्योंकि, समीचीन असमीचीन और उभयरूप दृष्टि के आलम्बनभूत वस्तु के अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु पायी नहीं जाती है। इसलिए सासादन गुणस्थान असत्स्वरूप है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थान में विपरीत अभिप्राय रहता है, इसलिए उसे असद्दृष्टि ही समझना चाहिए। प्रश्न-यदि ऐसा है तो इसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिए, सासादन संज्ञा देना उचित नहीं है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरण चारित्र का प्रतिबन्ध करने वाली अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है, इसलिए द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यादृष्टि है किन्तु मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश वहाँ नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं। केवल सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं। प्रश्न-ऊपर के कथनानुसार जब वह मिथ्यादृष्टि ही है तो फिर उसे मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गयी है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थान को स्वतन्त्र कहने से अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है। देखें अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है-(देखें सासादन - 1.6) जिससे कि इस गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। तथा जिस अनन्तानुबन्धी के उदय से दूसरे गुणस्थान में जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण करने वाला होने से चारित्रमोहनीय का भेद है। इसलिए दूसरे गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा है। (और भी देखें सासादन - 1.7,8)
3. सासादन को सम्यग्दृष्टि व्यपदेश क्यों
ध.1/1,1,10/166/1 विपरीताभिनिवेशदूषितस्य तस्य कथं सम्यग्दृष्टित्वमिति चेन्न, भूतपूर्वगत्या तस्य तद्वयपदेशोपपत्तेरिति। =प्रश्न-सासादन गुणस्थान विपरीत अभिप्राय से दूषित है (देखें शीर्षक सं - 2), इसलिए इसके सम्यग्दृष्टिपना कैसे बनता है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, पहले वह सम्यग्दृष्टि था [अर्थात् प्रथमोपशम से गिरकर ही सासादन होने का नियम है-(देखें सासादन - 2)] इसलिए भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि संज्ञा बन जाती है। (गो.जी./जी.प्र./10/31/5)
4. सासादन में तीनों ज्ञान अज्ञान क्यों
रा.वा.9/1/13/589/19 तस्य मिथ्यादर्शनोदयाभावेऽपि अनन्तानुबन्ध्युदयात् त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानानि एव भवन्ति। =मिथ्यात्व का उदय न होने पर भी इसके तीनों मति, श्रुत और अवधिज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं। (देखें सत् )
ध.1/1,1,116/361/3 मिथ्यादृष्टे: द्वेऽप्यज्ञाने भवतां नाम तत्र मिथ्यात्वोदयस्य सत्त्वात् । मिथ्यात्वोदयस्यासत्त्वान्न सासादने तयो: सत्त्वमिति न, मिथ्यात्वं नाम विपरीताभिनिवेश: स च मिथ्यात्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते। समस्ति च सासादनस्यानन्तानुबन्ध्युदय इति। प्रश्न-मिथ्यादृष्टि जीवों के भले ही दोनों (मति व श्रुत) अज्ञान होवें, क्योंकि वहाँ पर मिथ्यात्व का उदय पाया जाता है, परन्तु सासादन में मिथ्यात्व का उदय नहीं पाया जाता है, इसलिए वहाँ पर वे दोनों ज्ञान अज्ञानरूप नहीं होना चाहिए ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, विपरीताभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं। और मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है। सासादन गुणस्थानवाले के अनन्तानुबन्धी का उदय तो पाया ही जाता है (देखें शीर्षक नं - 2), इसलिए वहाँ पर भी दोनों अज्ञान सम्भव हैं।
5. सासादन अनन्तानुबन्धी के उदय से होता है
रा.वा./9/1/13/588/20 तस्य मिथ्यादर्शनस्योदये निवृत्तं अनन्तानुबन्धिकषायोदयकलुषीकृतान्तरात्मा जीव: सासादनसम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते। =मिथ्यादर्शन के उदय का अभाव होने पर भी जिनका आत्मा अनन्तानुबन्धी के उदय से कलुषित हो रहा है वह सासादनसम्यग्दृष्टि है।
ल.सा./जी.प्र./99/136/16 तदुपशमनकाले अनन्तानुबन्ध्युदयाभावेन सासादनगुणप्राप्तेरभावात् । =दर्शनमोह के उपशमकाल में अनन्तानुबन्धी के उदय का अभाव होने से सासादन की प्राप्ति का अभाव है।
देखें सासादन - 1.2 [यहाँ यद्यपि मिथ्यात्वजन्य विपरीताभिनिवेश पाया नहीं जाता, परन्तु अनन्तानुबन्धीजन्य विपरीताभिनिवेश अवश्य पाया जाता है।]
देखें सासादन - 1.4 [अनन्तानुबन्धी के उदय के कारण ही इसके ज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं।]
देखें सासादन - 2/2 [उपशम सम्यक्त्व के काल में छह आवली शेष रह जाने पर अनन्तानुबन्धी का उदय आ जाने से सासादन होता है।]
6. सासादन पारिणामिक भाव कैसे
ष.खं.5/1,7/सूत्र 3/196 सासणसम्मादिट्ठि त्ति को भावो, पारिणामिओ भावो।2। =सासादन सम्यग्दृष्टि यह कौन-सा भाव है ? पारिणामिक भाव है। (ष.ख.7/2,1/सूत्र 77/109); (पं.सं./प्रा./1/168); (ध.1/1,1,10/गा.108/166); (गो.जी./मू./20/46)
ध.5/1,7,3/196/7 एत्थ चोदओ भणदि-भावो पारिणामिओ त्ति णेदं घडदे, अण्णेहिंतो अणुप्पणस्स परिणामस्स अत्थित्तविरोहा। अह अण्णेहिंतो उप्पत्तो इच्छिज्जदि ण सो पारिणामिओ, णिक्कारणस्स सकारणत्तविरोहा इति। परिहारो उच्चते। तं जहा-जो कम्माणमुदय-उवसम-खइय-खओवसमेहि विणा अण्णेहिंतो उप्पणो परिणामो सो पारिणामिओ भण्णदि, ण णिक्कारणो कारणमंतरेणुप्पणपरिणामाभावा। सत्त-पमेयत्तादओ भावा णिक्कारणा उवलभंतीदि चे ण, विसेससत्तादिसरूवेण अपरिणमंतसत्तादिसामण्णाणुवलंभा।...तदो अप्पिदस्स दंसणमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा ण होदि त्ति णिक्कारणसासणसम्मत्तं। अदो चेव पारिणामियत्तं पि। अणेण णाएण सव्वभावाणं पारिणामिपत्तं पसज्जदीदि च होदु, ण कोइ दोसो, विरोहाभावा। अण्णभावेसु पारिणामियववहारा किण्ण कीरदे। ण, सासणसम्मत्तं मोत्तूण अप्पिद कम्मादो णुप्पण्णस्स अण्णस्स भावस्स अणुवलंभा। =प्रश्न-1. 'यह पारिणामिक भाव है' यह बात घटित नहीं होती, क्योंकि दूसरों से नहीं उत्पन्न होने वाले परिणाम के अस्तित्व का अभाव है। यदि अन्य से उत्पत्ति मानी जाये तो पारिणामिक नहीं रह सकता है, क्योंकि, निष्कारण वस्तु के सकारणत्व का विरोध है। (अर्थात् स्वत: सिद्ध व अहेतुक त्रिकाली स्वभाव को पारिणामिक भाव कहते हैं, पर सासादन तो अनन्तानुबन्धी के उदय से उत्पन्न होने के कारण सहेतुक है। इसलिए वह पारिणामिक नहीं हो सकता) ? उत्तर-जो कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना अन्य कारणों से उत्पन्न हुआ परिणाम है वह पारिणामिक कहा जाता है, न कि निष्कारण भाव को पारिणामिक कहते हैं, क्योंकि, कारण के बिना उत्पन्न होने वाले परिणाम का अभाव है। प्रश्न-सत्त्व, प्रमेयत्व आदिक भाव कारण के बिना भी उत्पन्न होने वाले पाये जाते हैं ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, विशेष सत्त्व आदि के स्वरूप से नहीं परिणत होने वाले सत्त्वादि सामान्य नहीं पाये जाते हैं।-2. विवक्षित दर्शन मोहनीयकर्म के उदय से, उपशम से, क्षय से अथवा क्षयोपशम से नहीं होता है अत: यह सासादन सम्यक्त्व निष्कारण है और इसीलिए इसके पारिणामिकपना भी है। (ध.1/1,1,10/165/6);। प्रश्न-3. इस न्याय के अनुसार तो सभी भावों के पारिणामिकपने का प्रसंग प्राप्त होता है [क्योंकि कोई भी भाव ऐसा नहीं जिसमें किसी एक या अधिक कर्मों के उदय आदि का अभाव न हो।] उत्तर-इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं आता। (देखें पारिणामिक )। प्रश्न-यदि ऐसा है तो फिर अन्य भावों में पारिणामिकपने का व्यवहार क्यों नहीं किया जाता ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, सासादनसम्यक्त्व को छोड़कर विवक्षित कर्म से नहीं होने वाले अन्य कोई भाव नहीं पाया जाता है।
ध.7/2,1,77/109/6 एसो सासणपरिणामो खईओ ण होदि, दंसणमोहक्खएणाणुप्पत्तीदो। ण खओवसमिओ वि, देसघादिफद्दयाणमुदएण अणुप्पत्तीए। उवसमिओ वि ण होदि, दंसणमोहुवसमेणाणुप्पत्तीदो। ओदइओ वि ण होदि, दंसणमोहस्सुदएणाणुप्पत्तीदो। परिसेसादो परिणामिएण भावेण सासणो होदि। =यह सासादन परिणाम क्षायिक नहीं होता, क्योंकि, दर्शनमोहनीय के क्षय से उसकी उत्पत्ति नहीं होती। यह क्षायोपशमिक भी नहीं है, क्योंकि, दर्शनमोहनीय के देशघाती स्पर्धकों के उदय से उसकी उत्पत्ति नहीं होती। औपशमिक भी नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीय के उपशम से उसकी उत्पत्ति नहीं होती। वह औदयिक भी नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहनीय के उदय से उसकी उत्पत्ति नहीं होती। अतएव परिशेष न्याय से पारिणामिक भाव से ही सासादन परिणाम होता है।
7. अनन्तानुबन्धी के उदय से औदयिक क्यों नहीं
ध.7/2,77/109/9 अणंताणुबंधीणमुदएण सासणगुणस्सुवलंभादो ओदइओ भावो किण्ण उच्चदे। ण दंसणमोहणीयस्स उदय-उवसम-खय-खओवसमेहि विणा उप्पज्जदि त्ति सासणगुणस्स कारणं चरित्तमोहणीयं तस्स दंसणमोहणीयत्तविरोहत्तादो। अणंताणुबन्धीचदुक्कं तदुभयमोहणं च। होदु णाम, किंतु णेदमेत्थ विवक्खियं। अणंताणुबंधीचदुक्कं चरित्तमोहणीयं चेवेत्ति विवक्खाए सासणगुणो पारिणमिओ त्ति भणिदो। =प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषायों के उदय से सासादन गुणस्थान पाया जाता है, अत: उसे औदयिक भाव क्यों नहीं कहते ? उत्तर-नहीं कहते, क्योंकि, दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशम के बिना उत्पन्न होने से सासादन गुणस्थान का कारण चारित्र मोहनीय कर्म ही हो सकता है और चारित्र मोहनीय के दर्शन मोहनीय मानने में विरोध आता है। प्रश्न-अनन्तानुबन्धी तो दर्शन और चारित्र दोनों में मोह उत्पन्न करने वाला है ? उत्तर-भले ही वह उभयमोहनीय हो, किन्तु यहाँ वैसी विवक्षा से सासादन गुणस्थान को पारिणामिक कहा है।
ध.5/1,7,3/197/4 आदिमचदुगुणट्ठाणभावपरूपणाए दंसणमोहवदिरित्तसेसकम्मेसु विवक्खाभावा। =आदि के चार गुणस्थानों सम्बन्धी भावों को प्ररूपणा में दर्शनमोहनीय कर्म के सिवाय शेष कर्मों के उदय की विवक्षा का अभाव है। (गो.जी./मू. व जी.प्र./12/35)।
8. इसे कथंचित् औदयिक भी कहा जा सकता है
गो.जी./जी.प्र./12/35/14 अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदयविवक्षया तु औदयिकभावोऽपि भवेत् । =अनन्तानुबन्धी चतुष्टय में अन्यतम का उदय होने की अपेक्षा सासादन गुणस्थान औदयिक भाव भी होता है।
9. सासादन गुणस्थान का स्वामित्व
देखें नरक - 4.2,3 [सातों ही पृथिवियों में सम्भव है परन्तु केवल पर्याप्त ही होते हैं अपर्याप्त नहीं।]
देखें तिर्यंच - 2.1,2 [पंचेन्द्रिय तिर्यंच व योनिमति दोनों के पर्याप्त व अपर्याप्त में होना सम्भव है।]
देखें मनुष्य - 3.1,2 [मनुष्य व मनुष्यनियाँ दोनों के पर्याप्त व अपर्याप्त में होना सम्भव है।]
देखें देव - 3.1.2 [भवनवासी से उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त के सभी देवों व देवियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में सम्भव है।]
देखें इन्द्रिय - 4.4 [एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियों में नहीं होता, संज्ञी पंचेन्द्रियों में ही सम्भव है। यहाँ इतनी विशेषता है कि-(देखें अगला सन्दर्भ )]
देखें जन्म - 4 [नरक में सर्वथा जन्म नहीं लेता, कर्म व भोगभूमि दोनों के गर्भज संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में ही जन्मता है इनसे विपरीत में नहीं। इतनी विशेषता है कि असंज्ञियों में केवल अपर्याप्त दशा में ही होता है और संज्ञियों की अपर्याप्त व पर्याप्त दोनों दशाओं में द्वितीयोपशम की अपेक्षा संज्ञी, संज्ञियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों तथा देवों में केवल अपर्याप्त दशा में ही सम्भव है। एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियों में यदि होते हैं तो केवल निवृत्त्यपर्याप्त दशा में ही सम्भव है। वहाँ पर भी केवल बादर पृथिवी अप व प्रत्येक वनस्पति इन तीन कार्यों में ही सम्भव है अन्य कार्यों में नहीं। वास्तव में एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते, बल्कि वहाँ मारणान्तिक समुद्घात करते हैं।]
देखें जन्म - 4/10 [सासादन प्राप्ति के द्वितीय समय से लेकर आवली/असं.काल तक मरने पर नियम से देव गति में जन्मता है। इसके ऊपर आ./असं.काल मनुष्यों में जन्मने योग्य है। इसी प्रकार आगे क्रम से संज्ञी, असंज्ञी, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय व एकेन्द्रियों में जन्मने योग्य काल होता है।]
देखें संयत - 1.6 [सासादन निवृत्त्यपर्याप्त या पर्याप्त ही होता है लब्धि अपर्याप्त नहीं।]
10. मारणान्तिक समुद्घात सम्बन्धी
ध.4/1,4,4/4/164/2 तेसिं सासणगुणपाहम्मेण लोगणालीए बाहिरमुप्पज्जणसहावाभावादो। लोगणालीए अब्भंतरे मारणंतियं करेंता वि भवणवासियजगमूलादोवरिं चेव देव-तिरिक्खसासणसम्मादिट्ठिणो मारणंतियं करेंति, णो हेट्ठा, कुदो। सासणगुणपाहम्मादो चेव। =[सासादन सम्यग्दृष्टिदेव एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, परन्तु] उनके सासादन गुणस्थान की प्रधानता से लोक नालों के बाहर उत्पन्न होने के स्वभाव का अभाव है। और लोकनाली के भीतर मारणान्तिक समुद्घात को करते हुए भी भवनवासी लोक के मूलभाग से ऊपर ही देव या तिर्यंच सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मारणान्तिक समुद्घात को करते हैं। इससे नीचे नहीं, क्योंकि, उनमें सासादनगुणस्थान की ही प्रधानता है।
ध.4/1,4,4/164/7 ईसिपब्भारपुढवीदो उवरि सासणाणमाउकाइएसु मारणंतियसंभवादो, अट्ठमपुढवीए एगरन्तुपदरब्भंतरं सव्वमावूरिय ट्ठिदाए तेसिं मारणंतियकरणं पडि विरोहाभावादो च। =ईषत्प्राग्भार पृथिवी से ऊपर सासादन सम्यग्दृष्टियों का अपकायिक जीवों में मारणांतिक समुद्घात सम्भव है, तथा एक रज्जू प्रतर के भीतर सर्वक्षेत्र को व्याप्त करके स्थित आठवीं पृथिवी में उन जीवों के मारणांतिक समुद्घात करने के प्रति कोई विरोध भी नहीं है।
देखें मरण - 5.4-[मेरुतल से अधोभागवर्ती एकेन्द्रिय जीवों में व मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते।]
देखें जन्म - 4/11-[सासादन सम्यग्दृष्टि जीव वायुकायिकों में मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते।]
सासादन के आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी
1. उपशमसम्यक्त्व पूर्वक ही होता है
ध.5/1,8,12/250/7 सासणगुणमुवसमसम्मादिट्ठिणो चेव पडिवज्जंति। =सासादन गुणस्थान को उपशमसम्यग्दृष्टि ही प्राप्त होते हैं।
2. प्रथमोपशम के काल में कुछ अवशेष रहने पर होता है
रा.वा./9/1/13/589/16 जघन्येन एकसमये उत्कर्षेणावलिकाषट्केऽवशिष्टे यदा अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभमन्यतमस्योदयो भवति तदा सासादनसम्यग्दृष्टिरित्युच्यते। =प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त काल में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली शेष रहने पर, जब अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया व लोभ इन चारों में से किसी एक का उदय होता है, तब वह जीव सासादन सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। (गो.जी./मू./19/44); (ल.सा./मू./100/137); (गो.जी./जी.प्र./704/1141/15); (गो.जी./जी.प्र./548/718/17)
3. उपशम में शेष बचा काल ही सासादन का काल है
ष.खं.7/2,2/सू.200-202/182 सासणसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होदि।200। जहण्णेण एयसमओ।201। उक्कस्सेण छावलियाओ।202। = सासादन सम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक रहते हैं ?।200। जघन्य एक समय।201। और उत्कृष्ट छह आवली काल तक रहते हैं।202। (ष.खं.4/1,5/सूत्र 7-8); (ध.5/1,8,12/250/2)
ध.4/1,5,7/गा.31/341 उवसमसम्मत्तद्धा जत्तियमेत्ता हु होइ अवसिट्ठा। पडिवज्जंता साणं तत्तियमेत्ता य तस्सद्धा।31। = जितना प्रमाण उपशम सम्यक्त्व का काल अवशिष्ट रहता है, उस समय सासादनगुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीव का भी उतने प्रमाण ही काल होता है।31।
ध.7/2,2,201/182/6 उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावसेसे सासणं गदस्स सासणगुणस्स एगसमयकालोवलंभादो। जेत्तिया उवसमसम्मत्तद्धा एगसमयादि कादूण जावुक्कस्सेण छावलियाओ त्ति अवसेसा अत्थि तत्तिया चेव सासणगुणद्धावियप्पा होंति। =क्योंकि, उपशम सम्यक्त्व के काल में एकसमय शेष रहने पर सासादनगुणस्थान में जाने वाले जीव के सासादनगुणस्थान का एक समय काल पाया जाता है। एक समय से प्रारम्भ कर अधिक से अधिक छह आवलियों तक जितना उपशम सम्यक्त्व का काल शेष रहता है, उतने ही सासादनगुणस्थान के विकल्प होते हैं।
4. उक्त काल से हीन या अधिक शेष रहने पर सासादन को प्राप्त नहीं होता
क.पा.सुत्त/10/गा.97/631 उवसामगो च सव्वो...णिरासाणो। उवसंते भजियव्वो णीरासणो य खीणम्मि।97। =जब तक दर्शनमोह का उपशम कर रहा है तब तक वह सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता है। उसका उपशम हो जाने पर भजितव्य है, अर्थात् सासादन को प्राप्त हो भी जाता है और नहीं भी। [प्रथमोपशम काल में एक समय से छह आवली तक शेष रहने पर तो कदाचित् प्राप्त हो जाता है। परन्तु] उस उपशम सम्यक्त्व का काल समाप्त हो जाने पर प्राप्त नहीं होता है। (ध.6/1,9-8,9/गा.4/239); (ल.सा./मू./99/136)
ध.4/1,5,8/गा.32/342 उवसमसम्पत्तद्धा जइ छावलिया हवेज्ज अवसिट्ठा। तो सासणं पवज्जइ णो हेठ्ठुक्कट्ठकालेसु।32। = उपशम सम्यक्त्व का छह आवली प्रमाण अवशिष्ट होवे तो जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है, यदि इससे अधिक काल अवशिष्ट रहे तो नहीं प्राप्त होता है।32।
ध.7/2,2,201/182/8 उवसम्मत्तकालं संपुण्णमच्छिदो सासणगुणं ण पडिवज्जदित्ति कधं णव्वदे। एदम्हादो चेव सुत्तादो, आइरियपरंपरागदुवदेसादौ वा। = प्रश्न-जो जीव उपशमसम्यक्त्व के सम्पूर्ण काल तक उपशमसम्यक्त्व में रहा है, वह सासादन गुणस्थान में नहीं जाता, यह कैसे जाना ? उत्तर-प्रस्तुत सूत्र से (देखें शीर्षक नं - 3) ही तथा आचार्य परम्परागत उपदेश से भी पूर्वोक्त बात जानी जाती है।
ल.सा./जी.प्र./99/136/16 उपशान्ते दर्शनमोहे अन्तरायामे वर्तमान: प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि: सासादनगुणस्थानप्राप्त्या भक्तव्यो विकल्पनीय:। कस्यचित्प्रथमोपशमसम्यक्त्वकाले एकसमयादिषडावलिकान्तावशेषे सासादनगुणत्वसंभवात् । उपशमसम्यक्त्वकाले क्षीणेसमाप्ते सति निरासादन एव तदा नियमेन मिथ्यात्वाद्यन्यतमोदयसंभवात् ।=दर्शनमोह के उपशान्त हो जाने पर उस प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अन्तरायाम में वर्तमान प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादनगुणस्थान की प्राप्ति के लिए भजनीय है, अर्थात् प्राप्त करे अथवा न भी करे। तहाँ किसी जीव के प्रथमोपशम के काल में एक समय से छह आवली पर्यन्त काल शेष रहने पर सासादन गुणस्थान का होना सम्भव है। परन्तु उपशम सम्यक्त्व का काल क्षीण हो जाने पर निरासादन ही है अर्थात् सासादन को बिलकुल प्राप्त नहीं हो सकता। तब मिथ्यादि (मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमिथ्यात्व या सम्यक्प्रकृति इन तीनों में से किसी एक का उदय सम्भव है।)
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.8 [प्रथमोपशम से गिरकर अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार मिथ्यादृष्टि सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदकसम्यग्दृष्टि में से किसी भी गुणस्थान को प्राप्त हो सकता है।]
5. द्वितीयोपशम से सासादन की प्राप्ति अप्राप्ति सम्बन्धी दो मत
ध.6/1,9-8,14/331/4 एदिस्से उवसमसम्मत्तद्धाए अब्भंतरादो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज। ...एसो पाहुडचुण्णिसुत्ताभियाओ। भूदबलिभयवंतस्सुवएसेण उवसमसेडीदो ओदिण्णो ण सासणत्तं पडिवज्जदि। = 1.द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकाल के भीतर असंयम को भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयम को भी प्राप्त हो सकता है और छह आवलियों के शेष रहने पर सासादन को भी प्राप्त हो सकता है। ...यह कषायप्राभृत चूर्णिसूत्र (यतिवृषभाचार्य) का अभिप्राय है। (ल.सा./मू./348); (गो.जी./जी.प्र./19/45/1); (देखें सम्यग्दर्शन - IV.3.3 में गो.जी./जी.प्र./704)। 2. किन्तु भगवान् भूतबलि के उपदेशानुसार उपशेमश्रेणी से उतरता हुआ सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता। (ल.सा./मू./351)
ध.5/1,6,7/11/2 उवसमसेडीदो ओदिण्णाणं सासणगमणाभावादो। तं पि कुदो णवदे। एदम्हादो चेव भूदबलीयवयणादो। = उपशमश्रेणी से उतरने वाले जीवों के सासादनगुणस्थान में गमन करने का अभाव है। प्रश्न-यह कैसे जाना ? उत्तर-भूतबली आचार्य के इसी वचन से जाना [कि सासादन गुणस्थान का जघन्य अन्त एक जीव की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग है-सू.7 पृ.9]।
गो.क./जी.प्र./548/718/17 अमी प्रथमद्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टय: स्वभवचरमे स्वसम्यक्त्वकाले जघन्येनैकसमये उत्कृष्टेन षडावलिमात्रेऽवशिष्टेऽनन्तानुबन्ध्यन्तमोदयेन सासादना भूत्वा...। =ये प्रथमोपशम व द्वितीयोपशम दोनों सम्यग्दृष्टि अपने भव के चरमसमय में अपने-अपने सम्यक्त्व के काल में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली मात्र अवशेष रहने पर अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से किसी एक प्रकृति के उदय से सासादन होकर (मरते हैं, तब देवगति को प्राप्त करते हैं।)
6. सासादन से अवश्य मिथ्यात्व की प्राप्ति
रा.वा./9/1/13/589/21 स हि मिथ्यादर्शनोदयफलमापादयन् मिथ्यादर्शनमेव प्रवेशयति। = यह (अनन्तानुबन्धी कषाय) मिथ्यादर्शन के फलों को उत्पन्न करती है, अत: मिथ्यादर्शन को उदय में आने का रास्ता खोल देती है।
गो.क./जी.प्र./548/718/20 सासादनकालमतीत्य मिथ्यादृष्टय एव भूत्वा। = सासादन का काल बीतने पर नियम से मिथ्यादृष्टि होकर...।
पुराणकोष से
दूसरा गुणस्थान-सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की ओर अभिमुख होने की जीव की प्रवृत्ति । हरिवंशपुराण 3.60