केकया
From जैनकोष
कौतुकमंगल नगर के राजा शुभमति और उसकी रानी पृथुश्री की पुत्री, द्रोणमेघ की बहिन राजा दशरथ की रानी और भरत की जननी । इसे अनेक लिपियों और कलाओं का ज्ञान था । स्वयंवर में जैसे ही इसने दशरथ का वरण किया वहाँ आये नृप कुपित होकर दशरथ के विरोधी हो गये । दशरथ ने सभी से युद्ध किया और विजयी हुआ । इस युद्ध में इसने रथ की रास स्वयं सम्हाली थी । इससे दशरथ ने प्रसन्न हो इसे वर मांगने को कहा । इसने कहा था कि वह समय आने पर इच्छित वस्तु मांग लेगी । पपू0 24.1-35, 90. 102-109, 125-126, 130, 25.35 जब दशरथ को सर्यभूतहित मुनि से अपने पूर्वभवों के वृत्तांत सुनने से वैराग्य हो गया तो उसके वैराग्य की बात सुनकर भरत को भी वैराग्य हो गया था । दशरथ ने अपने प्रथम पुत्र पद्म को राज्य देने की घोषणा की तब भरत के वैरागी होने से दु:खी हुई कैकया ने दशरथ से यह वर मांग लिया कि राज्य भरत को मिले । परिस्थितिवश दशरथ ने यह वर दे दिया । पद्मपुराण 31. 55-61, 95, 112-114 जब राम ने यह निर्णय सुना तो पिता के वचन का पालन करने के लिए उन्होंने वन जाने का निर्णय कर लिया और भरत को समझाया कि वह पिता की आज्ञा का पालन करें । जब सीता और लक्ष्मण के साथ राम बन को जाने लगे तो राम को वन से लौटाने के लिए इसने क्षमायाचना करते हुए कहा कि स्त्रीपने के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी । पद्मपुराण 32.127-129 जब राम वन से लौटे तो भरत दीक्षित हो गये । उनके दीक्षित होने पर पुत्र-वियोग से दुखित होकर इसने करुण रुदन किया था । राम, लक्ष्मण और सपत्नी जनों के वचनों से आश्वस्त होकर आत्म-निंदा करते हुए इसने कहा कि स्त्री के इस शरीर को धिक्कार हो जो अनेक दोषों से आच्छादित है । अंत में निर्मल सम्यक्त्व को धारण कर यह तीन सौ स्त्रियों के साथ पृथिवीमती आर्यिका के पास दीक्षित हुई और तप कर इसने आनत स्वर्ग में देवपद पाया । पद्मपुराण 86.11-24,98.39, 123.80