चौंतीस अतिशय
From जैनकोष
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/896-914/ केवल भाषार्थ
-1. जन्म के 10 अतिशय 1. स्वेदरहितता; 2. निर्मल शरीरता; 3. दूध के समान धवल रुधिर; 4. वज्रऋषभनाराच संहनन; 5. समचतुरस्र शरीर संस्थान; 6. अनुपमरूप; 7. नृपचंपक के समान उत्तम गंध को धारण करना; 8. 1008 उत्तम लक्षणों का धारण; 9. अनंत बल; 10. हित मित एवं मधुर भाषण; ये स्वाभाविक अतिशय के 10 भेद हैं जो तीर्थंकरोंके जन्म ग्रहण से ही उत्पन्न हो जाते हैं। ॥896-898॥
2. केवलज्ञानके 11 अतिशय-1. अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन तक सुभिक्षता; 2. आकाशगमन; 3. हिंसा का अभाव; 4. भोजन का अभाव नहीं; 5. उपसर्ग का अभाव; 6. सबकी ओर मुख करके स्थित होना; 7. छाया रहितता; 8. निर्निमेष दृष्टि; 9. विद्याओं की ईशता; 10. सजीव होते हुए भी नख और रोमों का समान रहना; 11. अठारह महा भाषा तथा सात सौ क्षुद्रभाषा युक्त दिव्यध्वनि। इस प्रकार घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए ये महान आश्चर्यजनक 11 अतिशय तीर्थंकरोंके केवलज्ञानके उत्पन्न होने पर प्रगट होते हैं ॥899-906॥
3. देवकृत 13 अतिशय - 1. तीर्थंकरों के महात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्रफूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है; 2. कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है; 3. जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्रीभाव से रहने लगते हैं; 4. उतनी भूमि दर्पणतल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है; 5. सौधर्म इंद्र की आज्ञा से मेघकुमारदेव सुगंधित जल की वर्षा करते हैं; 6. देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्यकों रचते हैं; 7. सब जीवों को नित्य आनंद उत्पन्न होता है; 8. वायुकुमारदेव विक्रिया से शीतल पवन चलाता है; 9. कूप और तालाब आदिक निर्मल जल से पूर्ण हो जाते है; 10. आकाश धुआँ और उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है; 11. संपूर्ण जीवों को रोग आदि की बाधायें नहीं होती हैं; 12. यक्षेंद्रों के मस्तकों पर स्थिर और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्म चक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है; 13. तीर्थंकरों के चारों दिशाओं में (व विदिशाओं में) छप्पन सुवर्ण कमल, एक पादपीठ, और दिव्य एवं विविध प्रकार के पूजन द्रव्य होते हैं ॥907-914॥ चौंतीस अतिशयों का वर्णन समाप्त हुआ।
भगवान् के चौंतीस अतिशय–देखें अर्हंत - 6।