आवर्जित करण
From जैनकोष
क्षपणासार / मूल या टीका गाथा संख्या ६२१-६२३ हेट्ठा दंडस्संतो मुहुत्तमा वज्जिदं हवे करणं। तं च समुग्धादस्स य अहिमुहभावो जिणिदस्स।। सट्ठाणे आवज्जिद करणे वि य णत्थि ठिदिस्सण हदी। उदयादि अवट्ठिदया गुणसेढी तस्स दव्वं च।। जोगिस्स सेसकालो गय जोगी तस्स संखभागो य। जावदियं तावदिया आवंज्जिदकरणगुणसेढी।। = संयोगकेवली जिनको केवली समुदघात करनेके अन्तर्मुहूर्त पहिलै आवर्जित नामा करण हो है। समुद्घात क्रियाको सम्मुखपना, सो ही आवर्जित करण कहिए। आवर्जित यहाँ स्थिति व अनुभागका काण्डक घात नहीं होता। अवस्थित गुणश्रेणी आयाम द्वारा घात होता है। विशेष इतना कि स्वस्थान केवलीकी अपेक्षा यहाँ गुणश्रेणी आयाम तो असंख्यात गुणघात है। और अपकर्षण किया गया द्रव्य असंख्यात गुणा है।