एकल विहारी
From जैनकोष
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या १४९ तवसुत्तसत्तएग्गत्तभावसंघडणधिदिसमग्गो य। पविआ आगमबलिओ एयविहारी अणुण्णादो ।१४९।
= तप, सूत्र शरीर व मनके बलसे युक्त हो, एकत्व भावनामें रत हो; शुभ परिणाम, उत्तमसंहनन तथा धृति अर्थात् मनोबलसे युक्त हो; दीक्षा व आगममें बलवान् हो तात्पर्य यह कि तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, आचारकुशल व आगम कुशल गुण विशिष्ट साधुको ही जिनेश्वरने अकेले विहारके लिए सम्मति दी है। (और भी देखे जिनकल्प)
- पंचमकालमें एकलविहारी साधुका निषेध-देखे विहार ।