सेना
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
1. सेना का लक्षण
पद्मपुराण/56/3-8 अष्टाविमे गता: ख्यातिं प्रकारा गणनाकृता:। चतुर्णां भेदमङ्गानां कीर्त्यमानं विबोध्यताम् ।3। पत्ति: प्रथमभेदोऽत्र तथा सेना प्रकीर्तिता। सेनामुखं ततो गुल्मं वाहिनी पृतना चमू:।4। अष्टमोऽनीकनीसंज्ञस्तत्र भेदो बुधै: स्मृत:। यथा भवन्त्यमी भेदास्तथेदानीं वदामि ते।5। एको रथो गजश्चैकस्तथा पञ्च पदातय:। त्रयस्तुरङ्गमा: सैषा पत्तिरित्यभिधीयते।6। पत्तिस्त्रिगुणिता सेना तिस्र: सेनामुखं च ता:। सेनामुखानि च त्रीणि गुल्ममित्यनुकीर्त्यते।7। वाहिनी त्रीणि गुल्मानि पृतना वाहिनीत्रयम् । चमूस्त्रिपृतना ज्ञेया चमूत्रयमनीकिनीम् ।8। = हाथी, घोड़ा, रथ और पयादे ये सेना के चार अंग कहे गये हैं। इनकी गणना करने के नीचे लिखे आठ भेद प्रसिद्ध हैं।3। प्रथम भेद पत्ति, दूसरा भेद सेना, तीसरा सेनामुख, चौथा गुल्म, पाँचवाँ वाहिनी, छठाँ पृतना, सातवाँ चमू और आठवाँ अनीकिनी। अब उक्त चार अंगों में ये जिस प्रकार होते हैं उनका कथन करता हूँ।4-5। जिसमें एक रथ, एक हाथी, पाँच पयादे और तीन घोड़े होते हैं वह पत्ति कहलाता है।6। तीन पत्ति की सेना होती है, तीन सेनाओं का एक सेनामुख होता है, तीन सेनामुखों का एक गुल्म कहलाता है।7। तीन गुल्मों की एक वाहिनी होती है, तीन वाहिनियों की एक पृतना होती है, तीन पृतनाओं की एक चमू होती है और तीन चमू की एक अनीकिनी होती है।8। दस अनीकिनी की एक अक्षौहिणी होती है। कुल अक्षौहिणी का प्रमाण-देखें अक्षौहिणी ।
* सेना की 18 श्रेणियाँ-देखें श्रेणी - 1.2।
पुराणकोष से
(1) तीर्थंकर संभवनाथ की जननी । पद्मपुराण 20.39
(2) हाथी, घोड़ा, रथ और पयादे ये सेना के चार अंग होते हैं । इनकी गणना करने के आठ भेद हैं― पत्ति, सेना, सेनामुख, गुल्म, वाहिनी, पृतना, चमू और अनीकिनी । इनमें एक रथ, एक हाथी, तीन घोड़ों और पांच पयादों के समूह को पत्ति कहते हैं । सेना तीन पत्ति की होती है । तीन सेनाओं का दल सेनामुख, तीन सेनामुखों का दल गुल्म, तीन मूल्यों के दल को एक वाहिनी, तीन वाहिनियों की एक पृतना, तीन पृतनाओं की एक चमू और तीन चमू की एक अनीकिनी होती है । इन्द्र की सेना की सात कक्षाएँ होती है । उनके नाम इस प्रकार बताये गये हैं― हाथी, घोड़े, रथ, पयादे, बैल, गन्धर्व और नृत्यकारिणी । इनमें प्रथम गाज-सेना में बीस हजार हाथी होते हैं । आगे की कक्षाओं में यह संख्या दूनी-दूनी होती जाती है । महापुराण 10.198-199, पद्मपुराण 56.3-8