अविरुद्ध
From जैनकोष
नयचक्रवृहद् गाथा 248 सामण्ण अह विसेसं दव्वे णाणं हवेइ अविरोहो। साहइ तं सम्मत्तं णहु पुण तं तस्स अविरीयं ॥248॥
= द्रव्य में सामान्य तथा विशेष का ज्ञान होना ही अविरुद्ध है, वह ही सम्यक्त्व को साधता है, क्योंकि वह उससे विपरीत नहीं है।