पार्श्वस्थ
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
भगवती आराधना/1296, 1299 केई गहिदा इंदियचोरेहिं कसायसावदेहिं वा। पंथं छंडिय णिज्जंति साधुसत्थस्स पासम्मि। 1296। इंदिय कसाय गुरुपत्तणेण चरणं तणं व पस्संतो। णिद्धम्मो ह सवित्ता सेवदि पासत्थ सेवाओ। 1300। = कितनेक मुनि इंद्रियरूपी चोर और कषायरूप हिंस्र प्राणियों से जब पकड़े जाते हैं तब साधुरूप व्यापारियों का त्याग कर पार्श्वस्थ मुनि के पास जाते हैं। 1296। पार्श्वस्थ मुनि इंद्रिय कषाय और विषयों से पराजित होकर चारित्र को तृण के समान समझता है। उसकी सेवा करने वाला भी पार्श्वस्थ तुल्य हो जाता है। 1300।
मू.आ./594 दंसणणाणचारित्तेतवविणए णिच्चकाल पासत्था। एदे अवंदणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधराणाम्। 594। = दर्शन, ज्ञान, चारित्र, और तप विनय से सदा काल दूर रहनेवाले और गुणी संयमियों के सदा दोषों को देखनेवाले पार्श्वस्थादि हैं। इसलिए नमस्कार करने योग्य नहीं हैं। 594।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1950/1722/3 निरतिचारसंयममार्गं जानन्नपि न तत्र वर्तते, किंतु संयममार्गपार्श्वे तिष्ठति नैकांतेनासंयतः, न च निरतिचारसंयमः सोऽभिधीयते पार्श्वस्थ इति। ....उत्पादनैषणादोषदुष्टं वा भुंक्ते, नित्यमेकस्यां वसतौ वसति, एकस्मिन्नेव संस्तरे शेते, एकस्मिन्नेव क्षेत्रे वसति। गृहिणां गृहाभ्यंतरे निषद्यां करोति,... दुःप्रतिलेखमप्रतिलेखं वा गृह्णाति, सूचीकर्तरिन...ग्राही, सीवनप्रक्षालनावधूननरंजनादिबहुपरिकर्मव्यापृतश्च वा पार्श्वस्थः। क्षारचूण सौवीरलवणसर्पिरित्यादिकं अनागाढ़करणेऽपि गृहीत्वा स्थापयन् पार्श्वस्थः। = अतिचार रहित संयममार्ग का स्वरूप जानकर भी उसमें जो प्रवृत्ति नहीं करता है, परंतु संयम मार्ग के पास ही वह रहता है, यद्यपि वह एकांत से असंयमी नहीं है, परंतु निरतिचार संयम का पालन नहीं करता है, इसलिए उसको पार्श्वस्थ कहते हैं। ...जो उत्पादन व एषणा दोष सहित आहार ग्रहण करते हैं, हमेशा एक ही वस्तिका में रहते हैं, एक ही संस्तर में सोते हैं, एक ही क्षेत्र में रहते हैं, गृहस्थों के घर में अपनी बैठक लगाते हैं। ...जिसका शोधना अशक्य है अथवा जो सीधा नहीं गया उसको ग्रहण करते हैं। सुई, कैंची... आदि वस्तु को ग्रहण करते हैं। सीना, धोना, उसको टकना, रंगाना इत्यादि कार्यों में जो तत्पर रहते हैं ऐसे मुनियों को पार्श्वस्थ कहते हैं। जो अपने पास क्षारचूर्ण, सोहाग चूर्ण, नमक, घी वगैरह पदार्थ कारण न होने पर भी रखते हैं, उनको पार्श्वस्थ कहना चाहिए।
चारित्रसार/143/3 यो वसतिषु प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी च श्रमणानां पार्श्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः। = जो मुनि वसतिकाओं में रहते हैं, उपकरणों से ही अपनी जीविका चलाते हैं, परंतु मुनियों के समीप रहते हैं, उन्हें पार्श्वस्थ कहते हैं। ( भावपाहुड़ टीका/14/137/17 )।
- पार्श्वस्थ साधु संबंधी विषय- देखें साधु - 5।
पुराणकोष से
मुनियों का एक भेद । दर्शन, ज्ञान और चारित्र के ये निकट तो रहते हैं पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के ज्ञाता होते हुए भी इनका आचरण तन्मय नहीं होता । ये केवल मुनियों की क्रियाएँ करते रहते हैं । महापुराण 76.191-192