अदर्शन परिषह
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/9/427/10 परमवैराग्यभावनाशुद्धहृदयस्य विदितसकलपदार्थतत्त्वस्यार्हदायतनसाधुधर्मपूजकस्यचिरंतनप्रव्रजितस्याद्या पि मे ज्ञानातिशयो नोत्पद्यते। महोपवासाद्यनुष्ठायिनां प्रातिहार्यविशेषाः प्रा र्भवन्निति प्रलापमात्रमनर्थिकेयं प्रव्रज्या। विफलं व्रतपरिपालनमित्येवमसमादधानस्य दर्शनविशुद्धियोगाददर्शनपरिषहसहनमवसातव्यम्।
= परम वैराग्य की भावनासे मेरा हृदय शुद्ध है, मैंने समस्त पदार्थों के रहस्य को जान लिया है, मैं अरहंत, आयतन, साधु और धर्मका उपासक हूँ, चिरकाल से मैं प्रव्रजित हूँ तो भी मेरे अभी भी ज्ञानातिशय नहीं उत्पन्न हुआ है। महोपवास आदि का अनुष्ठान करनेवाले के प्रातिहार्य विशेष उत्पन्न हुए, यह प्रलापमात्र है। यह प्रव्रज्या अनर्थक है, व्रतों का पालन करना निरर्थक है इत्यादि बातों का दर्शनविशुद्धि के योगसे मनमें नहीं विचार करनेवाले के अदर्शनपरिषह सहन जानना चाहिए।
(राजवार्तिक अध्याय 9/9,28/612/17). ( चारित्रसार पृष्ठ 128/4)
1. प्रज्ञा व अदर्शन परिषहमें अंतर - देखें प्रज्ञा परीषह ।
2. अदर्शन का अर्थ अश्रद्धान क्यों अवलोकनाभाव क्यों नहीं
राजवार्तिक अध्याय 9/9,29-30/612/23 श्रद्धानालोचनग्रहणमविशेषादिति चेत्; न अव्यभिचारदर्शनार्थत्वात् ।29। स्यादेतत् श्रद्धानमालोचनमिति द्विविधं, दर्शनम्, तस्याविशेषेण ग्रहणमिह प्राप्नोति, कुतः, अविशेषात्। न हि किंचिद्विशेषलिंगमिहाश्रितमस्तीति, तन्न, किं कारणम्। अव्यभिचारी दर्शनार्थत्वात्। मत्यादिज्ञानपंचकाव्यभिचारिश्रद्धानं दर्शनम्। आलोचनं तु न, श्रुतमनःपर्यययोरप्रवृत्तेरतोऽस्याव्यभिचारिणः श्रद्धानस्य ग्रहणमिहोपपद्यते। मनोरथपरिकल्पनामात्रमिति चेत् न वक्ष्यमाणकारणसामर्थ्यात् ।30। ....दर्शनमोहांतराययोरदर्शनालाभौ। तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/14 इति।
= यद्यपि दर्शन के श्रद्धान और आलोचन ये दो अर्थ होते हैं, पर यहाँ मति आदि पाँच ज्ञानों के अव्यभिचारी श्रद्धान रूप दर्शन का ग्रहण है, आलोचन रूपदर्शन श्रुत और मनःपर्यय ज्ञानों में नहीं होता अतः उसका ग्रहण नहीं है। आगे सू.सं. 14 में दर्शनमोह के उदयसे ही अदर्शन परिषह बतायी जायेगी। अतः दर्शन का अर्थ श्रद्धान है केवल कल्पनामात्र नहीं है।